Dec 26, 2014


(1)

एक रेशमी गिरह
बांधे हुयी थी पंखुड़ियाँ गुलाब
जब देखा था तुम्हे पहली बार
तुम खुल कर हँसी थी !

किसी कमलिनी की सुबह
खुलते हुए दल से उड़ता हुआ भंवरा
और हवा में बिखर जाते पराग !

एक पल को खिलता
और फिर घुल जाता खामोशी में
जाने कौनसा फूल था !

कितनी नरमी से सरकी थी
वो गिरह रेशमी
एक हँसी में हवा हो गया
था कितना कुछ !
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रात के साफ़ आसमान में
एक टूटता तारा
चमका था तुम्हारी आँखों में
पल भर के लिए
और फिर किसी और दुनिया में
ले जाकर रख दी थी
तुमने निगाहें अपनी !

दो पल की मुलाकात
और इंतज़ार
फिर से उसी संयोग का !

दोहराव का सुन्दर गणित
दोहराव का गहराता वैराग
दोहराव की बढ़ती ऊंचाई
अनुराग की ओर !
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हर पत्थर तैरता है
तुम्हारे नाम का
इस सागर में
ना कभी डूबता है
ना कभी खोता !

शब्दों के कंकड़ ,
बातों के पहाड़
बाकी सब कुछ
डूब जाता है हर बार
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प्रेम में डूबी बातें
विश्वास में डूबी आँखें
कितना मजबूत पुल बाँधती हैं
सोचना ही नहीं पड़ा
कभी आते जाते !

विश्वास के धागों में बुने
उम्मीदों के ख़याली स्वेटर
और हल्के मद से सराबोर
सर्द हवा में खामोश हम तुम
चिपकी सी रहने लगती है
कोई नर्म ऊनी गुनगुनाहट !
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विज्ञान की होकर भी
तुम बातों में जाने कौन जादू रचती थी
अपने समीकरणों से
ना जाने कौन सा साहित्य सृजति थी !

एक मैं भी था जिसके लिए
किताबों में रह गया था बस
एक नीला आसमान
उड़ान भरने लगते थे
आँखें रखते ही
खयालों के कितने पंछी !
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वक़्त की शुरुआत बदल गयी थी
तुमसे पहले कुछ नहीं था सृष्टि में
ना तुम्हारे बाद के किसी ख्याल को
आकाश मिलता था !

तुमसे मिलना और फिर
भावों का उद्गम बदल जाना
खगोलीय घटना थी
या जाने रसायन की पहेली
या कोई नए युग की शुरुआत !

रौशनी का स्तोत्र भी बदल सा गया था
तेरे बिना कहाँ शुरू होता था दिन कहीं !
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तुझसे मिलने
और तुझसे मिलने के बीच में
कभी कोई वक़्त नहीं गुज़रा
ना ही कुछ घटा
ना ही कुछ आगे बढ़ा !

तेरे साथ बिताये पल
कितने रेशम कितने सरल
कितने गम कितने तरल
बिना छुए ही गुज़र गया
वो कितना वक़्त पास से
ख्वाब हो गयी कितनी सदियाँ
कितने आँसू आँख से
कितनी खुशियाँ आँखों में बनकर
आँखों में ही छा गयी
मीठी यादें नमक सी घुलकर
स्मृति जल में समा गयी !
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(2)

ठहर जाया करता
अक्सर सब कुछ
और फिर चलने लगता
सब कुछ वैसे ही
मुझे वहीँ छोड़कर !
ऐसे ही किसी एक पल
सब कुछ ठहरा हुआ था
घंटाघर पर घडी
घड़ी पर काँटें
काँटों में वक़्त
आँखों में तेरा खयाल !

जागते सपने सा चलता रहा सब
चाँद बहता रहा रात के दरिया में
तुम तकिये को नाव किये !
कौन जाने मेरी आँखें
दीवार पर थी या शून्य में
मन खयालों में था
ज़हन सवालों में
उलझता सुलझता !

सब कुछ ठहरा हुआ था
चाँद रात वक्त खयाल
और आँखें अपलक
और अचानक सब चलने लगा
उस बदलाव के क्षण में जाना
होना और ना होना
ना होते हुए भी होना
होते हुए भी ना होना !
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संसार सागर था
और वक़्त बहाव
भावनायें पतवार थी
और ख़याल दिशा
ख़्वाबों की नाव में
संभव नहीं था
वक़्त का सही अनुमान
खुशबुओं का पीछा करता
मन करता रहा सैर !

घड़ी 6 पर थी
सूरज क्षितिज़ पर
मैं बस स्टॉप पर कहीं
और तुम दरवाजे पर
या शायद किसी खिड़की में
या हर वहाँ जहाँ मेरा खयाल पहुंचा !

अब घड़ी 12 पर है
तुम शायद तकिये पर
ख़्वाबों को सिरहाने किये
मैं बैठा हूँ किसी किनारे
एक दीवार का सहारा लिए !
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हथोड़े की तरह वक़्त
गतिशीलता की वस्तु नहीं
बस मिलन की चोट है

हथोड़े की तरह वक़्त की
गतिशीलता कोई वस्तु नहीं
बस प्रहार की तीव्रता है !
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तुम व्यस्त थी मैं खाली
और चाहत उमड़ रही थी
मैं व्यस्त था तुम खाली
और चाहत उभर रही थी
पर वक़्त सरकता नहीं था
बिना दो पाट एक कदम !

बादलों को प्यास होती है
तप कर खाली हो जाने की
हर कोई चाहता है मुक्ति
अपने कन्धों पर के भार से
वो जाते हैं दूर तक बहते हुए
जहाँ हज़ारों हाथ इंतेज़ार में हो
और पत्ते नम स्पर्श को आतुर !

एक बरसात और भी थी
जमीन से उठती थी गर्मी की बूँदें
और हल्का कर देती थी बादलों को
बंधन मुक्त हो ऊर्जा
गरजती कड़कती
हो जाती थी लय
अनंत आसमान में कहीं !

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(3)

शिकन थकन सिलवटें
दूर होने लगे थे सब
फेफड़े लेने लगे थे
खुली हवा का स्वाद
मैंने जाना बेवजह की हो-हँसी से
कहीं बेहतर हैं ख़ामोश ख़याल

दुनियावी थार में प्यार
सागर की लहरों सा
गंभीर शोर करता था
मेरे मन की खामोशी में
बहती हुयी हवा के झोंके
बदल देते थे विचारों की दिशा
खोया हुआ पाता था
अपने आप को मैं अक्सर !
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ख्वाहिशें सिमट कर सारी
एक मूर्त रूप ले उठती
सब कुछ बेमायनी लगता
लगता जैसे जीवन बस उतना ही हो
जितने में सिमट सकें तुम और मैं !

एक दुनिया
और उसमें अनेक एक दुनिया
बिखराव वियोग
और खो जाती हुयी चीजें
मैं कर लेना चाहता था निश्चित
तुम बनी रहो मेरी दुनिया में !

हम सब मूर्ती हैं
अपने ही सपनो की
और हमारा संसार
हमारा निजी स्वप्न संसार
पर कितने खुले हुए हैं
हमारे स्वप्नों के रास्ते
और कितना गुजरते हैं हम सब
एक दुसरे से होकर !

सच कर देता है उसे
किसी भी ख्वाब से ज्यादा लगाव
पत्थर में भी बसने लगते हैं प्राण
कभी कभी सच हो जाते हैं
हमारे हसीन ख्वाब
तो कभी
कोई डरावना खयाल
आकार लेने लगता हैं !

अदृश्य धागों से बंधी हुए
गोल घूमने लगती है जिंदगी
हर फैसला हर एक ख़याल
बस उस एक घेरे तक सिमट जाता है !

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अ से

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