Feb 10, 2015

वक्त खामोश है

1.
वक्त खामोश है
पर लहरोँ का शोर सुनाई देता है
और कभी कभी सुनाई देती है 
खामोशी उसकी ,
कभी कभी ही तो शांत होती है वो
या अक्सर तब जब वो उदास होती है ।
शांत रातोँ मेँ मन का पोत इसी तरह हिलोरेँ खाता है ,
जब कुछ गुज़र जाता है तो वो एक लहर बन जाता है
और हर एक लहर के साथ थोड़ा और ठहर जाते हैँ हम ।
वो भी रात के खाली आसमान सी
ठहर चुकी है
और हर एक गुज़रते लफ्ज़ के साथ
गहराती जाती है
और उस गहराई से उठती रहती हैँ
अनजान बातें ,
जिनमेँ से कुछ भूलता रहता हूँ और कुछ
रह जाती है ठहरी हुयी
अगर साथ होता कुछ और वक्त
कुछ और लहरेँ उठती ,
कुछ और ठहर जाते
हम लोग ।
घड़ियाँ घूम रही हैँ पर अब उनमेँ
आकर्षण नहीँ इंतज़ार का
वो टहल रही हैँ किसी बूढ़ी सुन्दरी सी
बिना किसी उम्मीद
और मैँ इन ठहरी हुयी आँखो से
नहीँ देखता कुछ सिवाय
चित्राये हुये एक स्वप्न के
जिसमेँ चलती हैँ कुछ लहरेँ
आँखों में लगती हवा की
और कुछ ठहर गयी हैं वहीं ।
जैसे जैसे जवान होती है ये रात
ये लहरेँ होती हैँ अपने शबाब पर
पर फिर बूढ़ी होती रात के साथ ही ये भी
दम तोड़ने लगती हैँ किसी ख्वाब की तरह
और फिर से होती है एक सुबह
और फिर से शुरु होता है
रात का इंतेज़ार ।

 2. 
वक्त खामोश है
पर मन
घूमता रहता है अब भी 
सँकरे गलियारोँ मेँ इसके ,
तलाशता है
जाना पहचाना चेहरा कोई
कोई जगह सुकूनबख्श ,
ये ठहर सके जहाँ
और भर सके फेफड़ोँ को
आश्वस्तता से ।
इस प्रपञ्च को लगातार
देखते सुनते समझते
बोझिल हो जाता ये मन
चाहता है
अलग कर लेना खुद को
पर सूखने लगते हैँ प्राण
कोशिश भर मेँ
कि आँखें बंद होती हैं
और सामने आ जाती है प्यास
उसे फिर से देखने की
उसे फिर फिर देखने की कि जैसे
अगले ही मोड़ पर खड़ा हो अतीत ।
जिन खुली आँखो मेँ ये पूरा संसार
सबब होता है बैचेनी का
उन्ही अधखुली आँखो को एक चेहरा
सुकून देता है शाश्वतता का
और उसको देखने की चाह
अधीरता ।
मन
भटक रहा है
वक़्त के गलियारों में
बेतरह बेसबब
वो दोराहे
छूट चुके हैँ बहुत पीछे
और चाहतेँ
सिमट चुकी हैँ
चलन के चौराहोँ पर
पर वो चेहरा
नज़र नहीँ आता किसी ओर
इन रास्तों के कुहासे में
और इस सब के बावजूद
आसान नहीँ अब भी
बँद कर पाना आँखें पूरी तरह
कि मन
कि मन फिर फिर दौड़ता है
एक शाश्वत प्यास में ।
अ से

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