May 9, 2014

लकीरें

बहुत कोशिश की 
सीधी लकीर नहीं खींच पाये,
लकीरो में उलझ कर रह गए,

क्या इसका था क्या उसका,
कहाँ कहाँ और कहाँ लकीर खींचते भला,
विभक्तियाँ कभी स्पष्ट नहीं हो पाती,

और फिर अपनी ही खींची लकीरों 
का पार पाना असंभव सा है

बस लकीर पीटता रहता है इंसान ताउम्र,
और अपने ही बनाये यंत्रों में उलझे हुए अस्तित्व में
लकीर का फ़कीर बना भटकता रह जाता है,

आड़ी तिरछी लकीरों के बीच
खुद को कोसते हुए
लकीरों को बदलने की असफल कोशिशें करते हुए
अपने अहम को पुष्ट करते हुए
एक दिन हो जाते है पत्थर हम
जिन पर उभर जाती है कुछ और लकीरें!!

अ-से

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