कपिल मुनि ने 25 तत्वों के तत्वसमास से सृष्टि ऐकेक्य को समझाया !
इसके अनुसार हर एक " body " इन्हीं 25 तत्वों का समास है ,
चाहे वो जीव हो या संसार / हर चर अचर !
ये 25 तत्व हैं
देह के पाँचों भूत / पांच ज्ञान इन्द्रियाँ / पांच कर्म इन्द्रियां /
और इन 15 में रहने वाला मन .... ये 16 विकार हैं
8 मूल स्वभाव हैं जिन्हें प्रकृति कहते हैं ,
और एक बोध जो स्वभाव से परे है उसे पुरुष कहते हैं !
पुरुष / 8 प्रकर्ति / 16 विकृति !
पुरुष बोध है / जो प्रकृति से परे हैं
मूल प्रकृतियाँ 8 हैं , पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश अहम् महत प्रधान ! ( इन तत्वों की संज्ञा इनसे अलग भी दी जाती हैं )
हर प्रकृति आगे वाली प्रकृति का परिणाम है
जैसे प्रधान के परिणाम से महत महत से अहम् , अहम् से आकाश
आकाश से वायु वायु से अग्नि अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है !
ये मूल हैं सामासिक देह में जिनके मात्रात्मक परिवर्तन से ही अनेकोंनेक स्वभाव हैं !
अब प्रकृति पुरुष के संयोग और वियोग से सारा संसार उपजता और लय होता है
जिसे प्रभव-प्रलय / संचर-प्रतिसंचर कहा जाता है !
ये प्रभव और प्रलय ही समय के बिंदु हैं समय यही है
टिक टोक टिक टोक प्रभव प्रलय प्रभव प्रलय
काल प्रभव और प्रलय के मध्य का अंतराल है !
अब इनके संयोग-वियोग से जो संसार उत्पन्न और नष्ट होता रहता है उसे सामासिक रूप में एक की संज्ञा देते हैं
वो पहला व्यक्त रूप है ईश्वर का व्यक्त स्वरुप उसमें कार्य नहीं है या कह सकते हैं प्राकृतिक कार्य है / एक तय गति है / स्वाभाविक !
अब इन प्रकर्ति पुरुष के संयोग से / बोध के स्वभावों से मिलने से अनेकोनेक जीवों की सृष्टि होती है /
जिनमें इन प्रकृति और पुरुष के अलावा 16 अन्य विकार भी होते हैं !
ये विकार मूल प्रकृति के अज्ञान से / मूल गति के विपरीत / या उस गति के विरोध की तरह होते हैं ,
ये हैं देह के पांच भूत ( आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी -- सृष्टि के पांच भूतों के विषय शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध में आसक्ति के
संचय रूप )
पांच ग्यानेंन्द्रियाँ ( इन विषयों के ज्ञान कारक - श्रवण , त्वक , दर्शन , रसन और घ्राण इंद्रीयाँ )
पांच कर्म इन्द्रियाँ ( इन पांच भूतों से जुड़े कर्म के कारक - वाक् , पाद , हस्त , उपस्थ , गुदा )
और इन 15 में उपस्थित मन !
संसार का हर चर अचर जीव इन्ही 25 का समास है !
सांख्य दर्शन के हिसाब से पहाड़ , नदी पेड़ सभी भौतिक जीव हैं सभी में सभी इन्द्रियाँ हैं बस गुणों की मात्रा में परिवर्तन है
पहाड़ नदी आदि अचर जीव हैं जानवर इंसान देव आदि चर !
हालाँकि चेतना एक ही तत्व है पर इसमें 14 अलग अलग मूल स्तर माने गये हैं
हालाँकि उन्हें 10000 स्तर पर भी विभाजित किया जा सकता है !
पुरुष अवस्था ( शुद्ध-बोध ) में इन तत्वों के समास से उत्पन्न हो सकने वाली सृष्टि के सभी आरम्भ चिन्ह बीज रूप में सुरक्षित रहते हैं ,
इनको भी विस्मरण भाव से हटा देने पर प्राप्त अवस्था को निर्बीज अवस्था कहा जाता है बोध की ये दोनों सबीज और निर्बीज अवस्था को
अलग मानते हुए पुरुष और ईश्वर , पुरुष और परम पुरुष आदि संज्ञानुसार 26 वां तत्व भी कहा गया , जो कि अंतिम और ना लौटने वाली स्थिति है !
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