कह देने से शायद कम हो जाता
तुम्हारा सम्मान तुम्हारी अपनी दृष्टि में
या शायद कम हो जाता वो आने वाला दुःख
जो घड़े से सागर बन गया खाली आकाश में फ़ैल कर
और कब ना जाने जिसकी जगह उग आया एक मरुस्थल !
पर कोई बोले भी क्या
जबकि उनकी हर क्रिया आपकी प्रतिक्रियाओं के पूर्वानुमान का परिणाम हो
वो प्रतिक्रियाएँ जिनकी संभावित झाड़ियों में अटके हों अनजान भय
अजीब दावे होते हैं किसी को जानने के भी !
अब जबकि मैं जान चुका हूँ अपना अकेलापन
अकेले ही खुद को समझा चुका हूँ
तो मुझे अफ़सोस नहीं वक़्त से हार जाने का
हाँ पर इस सब में वक़्त कहीं पीछे बहुत पीछे छूट चुका है !
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