Sep 30, 2014

blue

नीला
मेरे एकांत का रंग था
नीला
पर कोई रंग नहीं था
नीला 
रंग भी था पर , अनुपस्थिति का ,पारदर्शिता का
नीला
रंग था , अँधेरे में से छन कर आती रौशनी का
नीला
बहुत विरल सा कुछ था , जो कहीं नहीं था ,
नीला 
प्रेम था सघन , बरसता हुआ 
नीला 
बहता था कल कल 
नीला
विस्तार था पटल का 
नीला 
मन की तृप्ति में था 
नीला 
भाव था मेरी कल्पनाओं का
नीला
लाल में था , हरे में था , सभी कुछ में था ,
नीला
पर खामोश था हरदम !
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अ से

Sep 29, 2014

उदासी


एक उदासी घेरे रहती है सोचकर
कि सभी कुछ की तरह तुम्हे भी
लौट जाना होगा एक दिन
कि समय की सुरंग के दुसरे छोर से
झाँकता है अँधेरा अज्ञात का
मैं नहीं जानता उन लोगों को
जो जीते हैं उम्मीद लेकर
मैंने देखा है लोगों को लौट जाते हुए
वो जो आते थे समय के दरवाजे से भीतर !

आखिरी चक्कर

बिजली चली गयी और पंखा घूमता रहा अपने आखिरी चक्कर ,
कुछ समय तो लगता है आखिर
एक वक़्त से बहते रहते प्राणों का प्रवाह थमने में
और उस वक़्त याद आते हैं बहुत से काम जो कि किये जाने थे
हर किये गए कार्य की अपनी गति है
एक बोले गए शब्द को कुछ समय लगता है शांत होने में
और तब तक बदल जाता है बहुत कुछ कभी कभी
और कभी कभी मर जाते हैं शब्द एक खामोश मौत !

अभिव्यक्ति

मैं
करता हूँ यात्रा
गढ़ता हूँ आकार
लिखता हूँ सार
वो
निकालता है रास्ते
गढ़ता है औज़ार
देता है सरोकार
हमें
मिला हुआ है दिन
मिट्टी पानी जमीन
जानने जताने की तालीम
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वाक् शिल्प गति
वैकारिक अभिव्यक्ति
विकार
प्राकृतिक अभिव्यक्ति
प्रकृति
दाक्षणिक अभिव्यक्ति
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उसकी अभिव्यक्ति
ये अभिव्यक्त संसार
और मैं भी एक प्रकार
मेरी अभिव्यक्ति
दर्शन कला व्यापार
और वो भी एक आधार
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अ से

Sep 26, 2014

समय गुज़र जाता है जैसे उड़ जाते हैं पंछी आँखों के सामने से ...


समय गुज़र जाता है

जैसे उड़ जाते हैं पंछी आँखों के सामने से
बदल जाते हैं कई रंग
आकाश पटल पर और झील के पानी में इस दौरान
वो देखता रहता है
बहते हुए पानी पर संयत 
कमल की तरह शांत और आत्मस्थ

वो देखता रहता है
वो देखता रहता है कि वो देखता रहता है

यही करता है वो
यही करता रहा है वो सामान्यतः ,
उसी सामान्य में आसन लगाये वो देखता रहता है 

परिदृश्य से आती रौशनी पर स्थिर अन्तर्दृष्टि साधे ,
अपने मन की स्थिरता के आधार पर , तौलता रहता है दृश्य की गति ,
देखता रहता है दम साधे हरदम  वो चीज जो दिखाई देती है उसे
आगम और अनुमान से मिलाकर दर्ज कर लेता है चित्र-लेख ,
एक विशाल घड़ी के घूमते हुए काँटों के मध्य चन्द्रमा को कला बदलते ,
एक विशाल थाल पर सजे नक्षत्रों और तारा समूहों के गति चक्रों को ,
देखता रहता है घूर्णन धीमे से धीमे पिण्ड का , स्थिर ध्रुवों पर दृष्टि टिकाये ,
प्रसन्नता अवसाद सुख दुःख , शांत जल के महासागर को अनेकों लहरों से घिरे हुए
मानस पटल पर अंकित करता रहता है मान-चित्र , मानवीय भू-गोल और ख-गोल के !
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सपना बिखर जाता है
जैसे झड़ जाते हैं पत्ते शाखों पर ही सूखकर
सब ठहर जाता है
कोर पर का आखिरी आँसू आँखों में ही डूबकर
पर वो देखता है राह
जैसे देखता है कोई अपना 
प्रीत में सबसे छूटकर

देखता रहता है 
गीत गाते उत्सव मनाते ,
लोगों को थक कर लौट जाते अपने अपने घर
समूहों में गले मिलकर एकांत में आँसू बहाते ,
मौसमों के बदलते मिज़ाज़ सब ओर बाहर भीतर ,

देखता रहता है 
बस बेबस देखता रहता है 
यही देखा है जाने कब से , तो देखता रहता है

जाने हुए की पैमाइश अनुसार खुद की लम्बाई चौड़ाई नापते हुए लोगों को ,
संसार के तौर तरीकों और समाज के दिशा निर्देश पर खुद को ढालते हुए लोगों को ,
अनंत में खोयी हुयी एक गुमनाम जिंदगी के नाम-बदनाम किस्सों को ,
समाज के लिए कोई हैसियत ना रखने वालो को भी समाज में अपनी इज्जत की परवाह करते ,
हँसता है रो लेता है और चुप हो जाता है फिर देखने लगता है और देखता रहता है
कई दिनों के भूखे को अपनी रोटी अपने बच्चों को खिलाते
थोड़ी सी जगह में सटकर बैठे आखिरी डब्बों में लटककर जाते
अस्वस्थ और कमजोर लोगों को स्वस्थ दूसरों को ढो कर ले जाते
किस्मत से मिले अधिकार पर भी अपना ठप्पा लगाते
मालिकाना हक के नाम पर मौलिकता के निवाले छीन ले जाते
और वो देखता रहता है बाढ़ भूकंप सूखे और भूस्खलन की मार को
प्रकृति की निर्ममता को आँखों में लिये बख्श देता है हर मूर्ख सनक सवार को
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खो जाता है सब
जैसे दिनभर का शोर रात हो जाने पर
खामोश हो जाता है
हर एक शब्द सांझ को पंछियों के लौट जाने पर
पर वो जागता रहता है
जैसे जागता है चंद्रमा 
सब के सो जाने पर

देखता रहता है 
कि उसने देखा है कई दफा पहले भी 
अपने साक्षीभाव में निमग्न आत्मलीन तल्लीन 

देखता रहता है 
जैसे कोई साधक त्राटक का 
जैसे कोई दर्शक एक नाटक का 

शहरी शोर शराबे से दूर ,
जमीन से चिपके हुए परंपरावादी अष्ठबाहूओं से मुक्त ,
समाज में सब ओर जड़ें जमाये बरगदी लोगों से ऊपर उठकर ,
चला गया है किसी पर्वत पर किसी ऊँचे स्थान पर अपनी शान्ति बचाए
देखता रहता है कंदराओं के मुहाने से झांकती हुयी शांत रौशनी में अपने अस्तित्व की झलक ,
सड़कों पर बेतरतीब दौडती जिंदगी से किनारा काटकर ,
मिट्टी हवा पानी में खामोशी से बसे हुए प्रकृति के परिवार को ,
सुबह होते ही क्षितिज से उग आती केसरिया ताजगी को अपने फेफड़ों में भर के
साँझ होने पर स्वतः ही अपनी सत्ता समेट लेते एक प्रचण्ड ज्योतिराज को नमन कर ,
वो देखता रहता है उन लाखों जीवों को जो बस चलते जाते हैं चलते रहते हैं अपनी प्रकृति के साथ !
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अ से

Sep 24, 2014

अन्तरिक्ष


मैं रचता हूँ ये पूरा आकाश अपने मन की असीमिति में
अपने अंतर्द्वंदों के बीच बचाए रखता हूँ ये ब्रह्माण्ड
अनंत अन्धकार के बीच हर समय जागृत रहता हूँ
छिटका हुआ रहता हूँ रोशनी सा इन मंदाकनियों में
मेरी आँखों का ये काला बिंदु कालछिद्र है सघन
दृश्य जिसमें समाकर प्रकाशता है मन को
और कितना आश्चर्य कि बचा रहता है दृश्य
इसका प्रकाश ग्रहण करते रहने पर भी सतत
मेरा कान एक भँवर हैं जैसे बनता है महासागर में
और आवाजें गुजरती है मेरे कानों से हवा के पाल पर
मेरा मानस पोत ले जाता है मुझे अन्तरिक्ष के सुदूर धोरों पर
और नाद फैलता है आकाश में रौशनी की तरह
जीवन की सूक्ष्म तरंगों से भरा हुआ है हर स्पर्श
प्राण उँगलियों के पोरों से प्रवाहित होकर बहते हैं
हर ओर फैला हुआ ये संसार केवल और केवल हवा है
वास्तविक निर्वात के लिए रख छोड़ी है सिर्फ रत्ती भर जगह !
अ से

Sep 23, 2014

Classic milds -- 3


छोटी छोटी मुलाकातों में
हाथ कोहनी से मुड़कर होठों की तरफ आता और मिलकर चला जाता
तर्जनी  और मध्यमा के बीच संभाला हुआ रहता विचारों का एक टुकड़ा 
वातावरण में बेतरह से रमते रहते सोच के गोल घुमावदार छल्ले
और विचारों के ताप से जमा होता रहता शब्दों का काला धुँवा
टुकड़ा टुकड़ा विचारों के बीच
कुछ कवितायें कागजों पर उकर आती
शब्द्नुमा काली चीटियाँ पंक्तिबद्ध चलती रहती
मन के दर पर एक शून्य से बिल में लौट जाती
अपने वजन से कहीं ज्यादा भारी अर्थों को ढोकर
जिंदगी बीतती रहती कश-कश
यादों के उड़ते धुंवें के बीच आँखें धुंधलाई रहती
स्मृतियाँ स-स्वर चिन्हों की शक्ल लेती और कहीं खो जाती
समय छंदबद्ध हो बीच बीच में गुनगुनाता रहता कुछ अधूरे नगमें
और असफलताएँ दर्ज होती रहती कड़वाहट की कसौटी पर
अंतिम दौर की आँच
उँगलियों पर महसूस होने लगती काल की छुअन
इन्द्रधनुष सा तैरने लगता साथ गुजरा हुआ समय
आँखों के सामने होती अगले दौर की रवायत
कवायद शुरू होती अंत को जल्दी पा लेने की
आखिर में बचा रह जाता जर्द सा एक ठूंठ
उन्ही तर्जनी  और मध्यमा के बीच
आखिर में पीछे छोड़ दिया जाता एक किस्सा जिंदगी का !
अ से

Sep 22, 2014

Classic milds -- 2


सिगरेट पीने वाले जो साथी थे
उनसे एक अदद सिगरेट उधार नहीं मांगी
ना कभी उन्होंने कभी उधार दिया..
वो कुछ यूं होता के हम बस एक हांथ आगे बढ़ा देते थे
एक दूसरे की ओर..
और दूसरा पहाड़ी के उस ओर खींच लेता था
उंचाई पर जब आंखों मे गुलाबी डोरे पड़ते थे
तब नीचे का मंजर..
ओह... कितनी सिगरेट्स ने सु-साईड कर लिया...
नीचे धुंआ दिखता था
ठंडा धुंआ...
मैं तो हमेशा से डरता आया हूँ इस एक बात से
की एक दिन मेरी आत्मा छोड़ देगी शरीर मेरा ,
तो मैंने धुँवा धुवां करके रख छोड़ा है जिस्म से बाहर उसे ,
हर एक कश के साथ
मैं स्वाद लेता हूँ मौत का
थोडा कड़वा है पर वाजिब है
और हर एक कश के साथ
हवा में मिला देता हूँ अस्तित्व अपना
की अब वोह इश्वर के फेफड़ों में सुरक्षित रहेगा
और कतरा कतरा मैं देता हूँ जिंदगी को अंतिम विदाई
की एक बारगी पूरी तरह चले जाते लोग मुझको सुहाते नहीं ,
की कोई जाए तो धीरे धीरे ,
की मेरी आत्मा सक्षम हो सके उसे जाते देने में ,
मद्धम मद्धम सुलगता रहे किसी की आंच से दिल मेरा ,
की मैं पीता हूँ सिगरेट
की एक बार में ही ना ख़त्म हो जाऊं पूरा का पूरा !

नाद और निर्वात

नाद

एक आवाज़
फ़ैल कर कुछ उसी तरह
जैसे फैलता है उजाला सूरज से
ले आती है अस्तित्व में
ये सकल संसार ...

वही आवाज़
जब आती है विनष्टि पर
तो समेट लेती है सबकुछ
फिर अपने ही भीतर ...

सिमटी हुयी हैं
सारी भौतिक गतिविधियाँ
इस संकुचन और प्रसरण में ही
जो होता है अवसाद विकास सरीखा
उनकी आध्यात्मिक अवस्था में!

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निर्वात

खाली नहीं होती एक खाली बोतल ,
होठ लगाकर किसी प्लास्टिक की बोतल के मुंह से ,
अगर उसे खींचा जाए तो वो सिकुड़ जाती है ...
निर्वात इतना आसान नहीं होता ,
आप इतनी आसानी से नहीं देख सकते , खालीपन को ,
वो खींचता है , अपनी पूरी क्षमता से ,
सबकुछ अपनी ओर ...

वो अब भी संघर्ष करता है ,
वो भी भर जाना चाहता है , उसी सब से ,
जिससे भरे हुए हैं बाकी सब , उसके आस पास ...

कि एक सच्चा निर्वात ,
एक सच्ची आवाज़ के साथ जन्मता है ,
जो समेट सकता है समूचे अस्तित्व को अपने भीतर ,
और उसे नष्ट कर सकता है पूरी तरह ,
अपने खालीपन में ले जाकर !

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Sep 21, 2014

धूप से फूल .. सांझ सी ख़ामोशी
















वापसी की चुप
यात्रा अपने अंत की ओर
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धूल से आता खिलकर 
धूप सा फूल
धूल फिर से हो जाता
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प्रकाश में आता
खिलना फूल हो जाता
फिर ढलता ख़ामोशी में
फूल एक स्मृति सा
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वे आते
और बधाई मुस्कुराते
बोलते एक भी शब्द नहीं
बहुत आखिरी तक
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अ से

सार-असार


वेदनाओं से गढ़ा गया जिसे
आनंद लील जाता है सारा संसार
संकल्पों के ताने बाने से बना
क्षण भर में भंग हो जाता असार

आनंद में है प्रलय इसका 
नियति सब भूल जाना है
डूब जाना है इस विप्लव में
हर एक बाँध टूट जाना है

दूर दूर तक ख्वाब होंगे
डूब के कोई पार ना होगा
खोजने वाला खोजता रहेगा
कहीं कोई सार ना होगा

आशाओं का जंगल मंगल है
मैदान ये हरियाता हरिया है
किसी दिशा कोई दर दीवार नहीं
हर ओर बस दरिया ही दरिया है

अंत को शुरू में देख लेता वो
दूर की निगाह अच्छी है
अंत को अंत तक झेल लेता जो
एक वही जिंदगी सच्ची है

आवाज़ के जादुई रेशों से
बुना हुआ है ये सारा संसार
पर बातें आखिर होती हैं बातें
यही है इसका सार-असार !
अ से

Sep 19, 2014

अक्षर


अनुभूतता रहा मैं जीवन और गढ़ता रहा आकार अपना ...

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कभी चुनौती देते हवा और पानी के बहाव से जीवट मिलता है ,
तो कभी उखड जाने के डर से मैं अपनी जडें गहरी जमा लेता हूँ ....

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उपस्थिति दर्शक है ,
अनुभूति ज्ञान  ,
अभिव्यक्ति पूरा संसार ... !!

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मेरी जमीं वहीँ जहाँ मैं ठहर पाऊं ,
भाव किसी जलधार से निरंतर बहते हों ,
अनल पावक स्वप्न हों आँखों में सजीव ,
आजादी की हवा बहती हो साँसों में ,
आकाश भी साफ़ सुनाई दे इतना सब्र मिले !!
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कभी रात से प्रभात की ओर ,
कभी धूप से छाँव की ओर ,

प्यास और उजास के चित्र बनाता सा मन ,
रुके हुए पटल पर दौड़ लगाता सा मन !!
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हलचल हवा पानी में , सोच मन मानस में ,
दौड़ती मशीने , संवेदन इंसान ,
पत्थर औ दिल , जिस्म औ जान ,
सब ,
एक ही कर देखता ,
जो अचल है वो अचल है !!
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श्रुति स्मृति और ज्ञान ,
वस्तु वास्तु जहान ,
सारी जान ओ शान ,
सबकी जमीन एक होश है ,

पर इतना सुकूं क्या अच्छा है ,
की सब भूलकर वो मद-होश है !!----------------------------------------------------------------------

अ से 

किसे चाहिए एकांत , एकांत में ...




















किसे चाहिए एकांत , एकांत में
मुझे चाहिए एकांत , उपस्थिति में कुछ लोगों की
इसीलिए , मैं जलाता हूँ तीली और सुलगा लेता हूँ सिगरेट अपनी
जब मैं खड़ा होता हूँ चौराहे पर
या किन्ही दो लोगों से बात करते हुए 
मुझे चाहिए एकांत लोगों के शोर में
मुझे पसंद है दोस्तों के साथ का एकांत !
सिगरेट सुलगाना , कश खींचना और धुँवा उड़ाना
एक के बाद एक , ख़ामोशी से नज़रें घुमाना यहाँ वहाँ ,
और बात करना दोस्तों से , जाने क्या बात , कहाँ से आयी हुयी !
बार में बैठे हुए , प्याले को लाना ठोड़ी की ऊंचाई तक
मेज़ पर कोहनी टिकाना और सोचना कुछ , ना जाने क्या
मुझे पसंद है पीना , पीना पसंद नहीं पर
पसंद है मुझे अकेला हो जाना , अकेलेपन में नहीं पर
पसंद है मुझे एकांत , सिगरेट सुलगाते हुए
कश खींचते और छोड़ते हुए
मन को बहलते बहलाते हुए
किसी की उपस्थिति में अनुपस्थित होकर
मुझे चाहिए एकांत , अकेले में नहीं
पूरी दुनिया के होने पर !

अ से 

सब कुछ अनायास



क्यों करते हैं हम वो जो हम करते हैं
बिना जाने की हम उसे करते हैं
बिना जाने कि हम उसे कर रहे हैं
बिना जाने की हम उसे क्यों कर रहे हैं
कई दफा जानते हुए भी पर ना चाहते हुए 
कई दफा जानते हुए और चाहते हुए भी अनायास ही !
नदी बहती है बहती रहती है कहाँ से आता है ये बहाव
कहाँ से उठती हैं लहरें हिलोरे भरते अथाह समुद्र में
और हवा वो किसकी तलाश में भटकती फिरती है !
संवेग ,
संवेगों का गणित , संवेगों का घटित , संवेगों का आपतित
सब कुछ अनायास
और अनायास होते हुए भी सायास , संवेगों के लिए
और हमें लगता है जैसे हमारा प्रयास
जबकि सब कुछ अनायास !
सब कुछ अनायास
जैसे बारिश में दिल का मौसम नम हो जाना
प्रेयसी की याद आते ही जहां का रिक्त हो जाना !
जैसे गांडीव
और उसका प्रकट होना
हाथ में अर्जुन के शर आना
और लक्ष्य सध जाना सब अनायास
गांडीव
जिसकी प्रत्यंचा की टंकार मात्र से
उठते हैं ऐसे संवेग
की झड़ जाते हैं पत्ते बूढ़ी शाखों से
पंख पंछियों के और हिरन दौड़ने लगते हैं इधर उधर
सब अनायास
की जितने क्षण तक साधता है अर्जुन निगाहें लक्ष्य पर
उतनी ही खिंचती है प्रत्यंचा पीछे तक
और उतना ही एकत्र और पुष्ट हो जाता है वेग उसका
पर हर तीर के आगे चलता है एक त्रिशूल
और छिन जाता है लक्ष्य भेद का पुरस्कार उससे
छिन जाता है लक्ष्य भेद का आरोप भी उससे !
एक लक्ष्य है हर किये जा रहे कार्य का
एक लक्ष्य है हर घटित हो रही क्रिया का
हर ना हो रही क्रिया
और ना किये जा रहे कार्य का भी
है एक लक्ष्य
और सब कुछ जो होता है
वो होता है उसी एक लक्ष्य के लिए
हालाँकि वो लक्ष्य कुछ करता नहीं है
पर वो लक्ष्य प्रेरणा है
हालाँकि वो लक्ष्य प्रेरणा है
पर वो लक्ष्य हासिल होने के उद्देश्य से नहीं है
वो है क्यूँकी वो है
इसमें कोई विकल्प नहीं है
ना ही कोई तर्क काम करता है
क्यूंकि हर संकल्प विकल्प और तर्क वितर्क का
हर युद्ध और हर अंतर्द्वंद का लक्ष्य भी वही है
वही एक लक्ष्य !
जो हुआ जो होगा जो हो रहा है
हो रहा है
एक उद्देश्य से
एक उद्देश्य से प्रेरित
एक उद्देश से कार्यान्वित
फिर भी निरुद्देश्य
हो रहा है सब अनायास ही
जो हुआ था वो महत्वपूर्ण नहीं है
जो होगा वो महत्वपूर्ण नहीं है
जो हो रहा है वो भी महत्त्वपूर्ण नहीं है
फिर भी सब कुछ महत्वपूर्ण है
फिर भी सब कुछ महत्वपूर्ण है जो हो रहा है
क्यूंकि मैं हूँ क्यूंकि तुम हो क्यूंकि हम हैं वहाँ !

अ से 

Sep 18, 2014

खामोशी



जैसे अर्थ बदल सा जाता है शब्द का वाक्य के साथ
वैसे ही कुछ तेरी खामोशी का भी वाक़िये के साथ
पता है ख़ामोशी भी एक शब्द है
मायने जिसके काफी गहरे और गंभीर हैं
ताश के जोकर की तरह
कहीं भी लगाया जा सकता है इसे
वो तुरुप का पत्ता है ये
जो कहीं भी चला जा सकता है
बस एक बार खुद को समझ आ जाएँ
इसके सही अनुप्रयोग
सिर्फ शब्द ही मोड़ नहीं देते
एक कहानी को
ख़ामोशी भी बदल देती है
बुरी तरह से
एक लम्बी ख़ामोशी भी
ले आती है बदलाव
कभी ना लौटा सकने वाला
बहुत भारी शब्द है
ये खामोशी
झिलमिलातें हैं जिसमें कई रंग
बैरंग होते हुए भी
ठीक सांझ की झील की तरह
नज़र आते हैं घुलते लहराते
सतत रंग बिरंगे आकार इसमें
पर हर शब्द एक बात है
उस पर ख़ामोशी
एक ख़ास बात
कि इसमें तलाशे जा सकते हैं
फिर अपने ही मायने
कि हर कोई तलाशता है
पर आखिर पता किसे होता है
और हो जाया करती हैं इसीलिए
ग़लतफहमियाँ कई दफा
अब मेरी इस ख़ामोशी को अन्तराल ना समझना अपने बीच ,
ये तो भरी जा रही है नयी पुरानी रंग बिरंगी खट्टी मीठी कहानियों से ॥
अ से 

कौन

किस गर्भ से जन्म लेता है शून्य आकाश
किसकी गोद में पलकर बड़ा होता है
कौन देता है शब्द को अर्थ उसका
अर्थ से कैसे फिर वो प्रकट होता है
कौन चुरा लेता है फूलों से उनकी आवाज़
खिलखिलाते हैं पर कहना क्या चाहते हैं !
कौन तय करता है क़दमों का ठिठक जाना
कुछ दूर पर मुड़ते हैं और फिर से लौट आते हैं !
अ से

Sep 16, 2014

लकीरें



उसने खींची एक लकीर
रास्ते का रूपक , चिन्ह
कोई आया
और उसे खींचकर कर दिया सीधा
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उसने खींची एक लकीर
दूसरे ने आकर उसे गहरा कर दिया
और फिर वो होती चली गयी गहरी हर बार
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उसने खींची एक लकीर
और लगाने लगा अनुमान
क्या हो सकता है उसके दूसरी ओर
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उसने खींची एक लकीर
फिर दूसरी फिर तीसरी
बना दिया एक नक्शा पूरा
और अब उलझा हुआ है वो
उन लकीरों में
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उसने खींची एक लकीर
दुसरे ने उसके समानान्तर
तीसरे ने खींची समकोण पर
उनको काटकर
चौथे ने कुछ सोचा
और खींच दी विपरीत
पर विपरीत खींच ना पाया
उसने देर तक देखा उसे
और कागज़ फाड़ दिया !
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उसने खींची एक लकीर
क्यूंकि और लोग भी यही करते हैं
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अ से

picture prompt --2

खुलती हैं आँखें
आता अस्तित्व में
संसार दृश्य और ...
फ़ैल जाता 
पानी में लहर सा
आकाश में होकर रौशन
जीवन जग में
एक उबासी के बाद ...
साकार हो उठता
हर सपना उसका है
उसके दसों ओर ...
और एक
बीत जाता है
दिन और ...
थका हुआ
उबासी लेता
वो फिर से है ...
और जग
अव्यक्त में
डूब जाता
अँधेरा एक !
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eyes , they open ,
he yawns ,
and the world
comes into being ,
he creates everything
around him ,
one more day ends
tired , he yawns yet again
the world goes into
slumber , unexpressed !
-------------------------------
anuj

बे-आवाज़


आवाज़ सुनी नहीं जाती
दबा दी जाती है हर बार
पर सुना है नीचे जाने पर 
प्रतिध्वनि ऊपर उठ आती है । 
कभी कोई जिद नहीं
तुम लोगों से ज्यादा
शायद ही महत्वपूर्ण
कुछ उसके बाद भी
कभी कोई जिद नहीं
अब बस एक
यही जिद है उसकी । 
साँसे
जिन्दा रह सकती हैं बेधड़क
जिस्म
धड़क सकते हैं बेआवाज़
पर वो
वो उसे जीवन नहीं कहती
जो उसकी आत्मा का ना हो । 
संसार की सबसे ऊंची शिला पर
जीवन के सबसे गहरे गर्त में
ये दो कदम के फासले
तय करेंगे आखिर क्या
वो जिन्दा थी या ज़िन्दा है 
क्या है ये सब !
आखिर था क्या !

स्त्री अस्तित्व


उसको ओढ़ा दो सारी अवस्थायें
अच्छी भावनाओं के नाम पर
समाज और सुधरेपन के आयाम पर
और क्यों नहीं प्रेम के
अपनी शुद्धतम भावनाओं के 
और भर लो मानसिक खोखलापन
अच्छेपन की खुशफहमियों से !
पर मत ओढ़ने देना तरुणाई
युवा मत रहने देना उसे
कर लेना कैद
उसकी सबसे गहरी साँसों को
छुपा लो उसका यौवन
कहीं वो बाहर ना हो जाए
तुम्हारे नियंत्रण से !
बहने दो
डूबने दो उसे
सारी भावनाओं में
पूरी तरह
पर स्वातंत्र्य
नहीं स्वतंत्रता नहीं
इसका अभाव कर दो
करार कर दो
स्वच्छंदता गैर कानूनी !
दो उसे किरदार सभी
निभाने को
और मांग करो
सबसे अच्छे अभिनय की
पूरी कुशलता
देखना कहीं कोई कमी ना रह जाए
किसी भी रिश्ते में
पर कभी मत स्वीकारना उसे
सिर्फ एक स्त्री
बनाना माँ बहन पत्नी बेटी
तय करना हदें
और फिर प्रेमिका भी
और उसकी भी हदें तय करना
दबा देना उसे गिन गिनकर
एक के ऊपर एक
कई समतल तहों के नीचे
जिनमें ना रहे कोई गुंजाइश
हवा आने की कहीं से भी !
और इस तरह
तुम बचा लेना उसे
बुरी नज़रों से
दुर्भावनाओं से
दुर्घटनाओं से
संभावनाओं से
की कहीं वो हो ना जाए युवा
कहीं बह ना निकले निरपेक्षता के संग
की कहीं वो बना ना ले
स्वतंत्र अस्तित्व अपना !