Oct 17, 2014

प्रवाह प्रतिरोधक



प्रकृति के प्रवाह का प्रतिरोधक हूँ
मैं नालियों में जमा हुआ कचरा हूँ
मैं पोलीथीन हूँ जो रोज बनाई जाती है
जो खा जायेगी एक सदी मिट्टी हो जाने में
मैं हवा में घुलता हुआ जहर हूँ 
मैं पानी में जमा होता कालापन हूँ
संसार की गति में सबसे बड़ी रूकावट हूँ मैं !
मैं अहम् खा चुकी बुद्धि हूँ
मैं मदमस्त एक मन हूँ
मैं अँधा हो चुका पंछी हूँ एक
बहुत बड़ा बहुत बड़ा
इतना कि अपना आकार नहीं देख पाता !
मैं बहुत बड़ा जीव हूँ
जो ब्रह्माण्ड को चूरन में चाट जाता हूँ
जो ज्ञान को दो पन्नों में समेटकर
विज्ञान का तकिया लगाकर सो जाता हूँ !
मैं नींद में खोजता हूँ अपने ही सर पैर
बे सिर पैर होकर दिशायें तौलता हूँ
भाषा के दायें बायें की सापेक्षिकता में
संसार की निरपेक्षता को ख्वाब बोलता हूँ
अब मैं नकारता हूँ आईने में अपना ही अक्स
और किताबों में लिखी आदिमता को सच बोलता हूँ !
अ से

Oct 10, 2014

आत्मा की बेड़ी


गंध उत्पन्न होती है अवसाद से
स्वाद जीभ की निश्चेतना है
रंग आँखों का धुंधलका है ,
और स्पर्श नाड़ीयों का दोष
ममता ह्रदय की कमजोरी है 
और आशा आत्मा की बेड़ी  !
एहसास चेतना की बेहोशी है
और आवाजें सुनाई देती है बहरों को
सामान्यतया कान ही उन्ही के होते हैं ।

Oct 9, 2014

दर कदम


फिसलनियाँ रपट कर नीचे आ जाती हैं
सीढ़ियां क्यों ऊपर जाती हैं कदम दर कदम ?
पहिये बेख़बर आगे लुढ़कते जाते हैं
पैर क्यों धकेलते हैं जमीन कदम दर कदम ?
गुब्बारे गर्म फिर सीधे ऊपर उठ जाते हैं
पंछी क्यों उड़ते परों पर कदम दर कदम ?
प्राण किसी के फिर सीधे निकल जाते हैं
जीवन क्यों चलता साँसों पर कदम दर कदम ?

एकांतुक


एकांत वाला एकांत 

एकांत वाला साथ 
साथ वाला साथ 
साथ वाला एकांत
एकांत वाला एकांत

शब्द ...


शब्द
सबसे भारी वस्तु है
उसके भीतर प्रकाश नहीं पहुँचता
उसमें और सब कुछ तो हो सकता है
पर space नहीं हो सकता !
कितना बंधा हुआ है हर शब्द
जैसे कि शब्द ही संसार है !
अक्षर आपस में नहीं झगड़ते
उनकी खामोशी से रौशनी है
पर शब्द परिवार है
अर्थ की प्राप्ति जरूरी है वहां
अक्षर संन्यास है
शब्द लोक है विन्यास है
अक्षर यहाँ भी अनायास है
भाषा भी कोई हार है ना
वर्ण माला
फिर भी हमेशा गले लगती है किसी के
कुछ हार ऐसी ही होती हैं
आखिर शब्द बंधन है !

आइना मुस्कुराया


उसने एक आईने को आइना दिखाया 

आईने को देख आइना मुस्कुराया 
आईने ने आईने को आइने में देखा 
आईने ने आइने को आइना दिखाया 
उस अनंत सुरंग में कुछ अनंत द्वार थे 
हर एक के बाद वो फिर हर एक बार थे
आईने को आईने में अनंत नज़र आया
और आईने को देख कर आइना मुस्कुराया !

Oct 5, 2014

बड़ा धमाका


एक शब्द
बुदबुदे सा उपजा
अधर और ओष्ठ के बीच से 
उठा एक क्षणिक कम्पन
और हो गया ख़ामोश
इतना ही जीवन काल था उस का !
एक शब्द
उठता है और गिरता है कुछ कानों में
खामोश होने से पहले
कम्पन बनाये रखता है अपना अस्तित्व
उस शब्द की उम्र कुछ ज्यादा थी
कि वो कई कानों से हो कर गुज़रा !
एक शब्द
बादलों की गरज का
एक बच्चे के मन में
युद्ध के धमाकों का
एक बूढ़े ज़हन में
शेष है अब तक
जाने कब शांत होगा !
एक शब्द
वो कहते हैं पूरा संसार
एक बड़ा धमाका (big bang)
और उसकी आवाज़ से उपजा
सदियों पहले कभी
जो अब तक नहीं हो पाया खामोश
गूंजता है जाने किन कानों में
बचा हुआ है जाने किसके ज़ेहन में
अ से

पूँछ


कुत्ते की पूँछ
लपकता है
अपनी पूँछ के पीछे
वो घूमता रह जाता है 
इतिहास कुछ इसी तरह
अपने को दोहराता है !
बे-अकल वफ़ादारी
अतीत की पुकार पर
काटने दौड़ती है
कुछ इसी तरह
लोगों पर भोंकती
गुर्राती है बेवजह !
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वफ़ा की पूँछ
अतीत का कर्ज है
जाने कर्ज की अर्ज है
अर्ज पर निभाया फर्ज है
या फर्ज का मर्ज है
अर्ज है कर्ज है
फ़र्ज़ है या मर्ज है
वफ़ा के नाम पर जाने
कौन सा किस्सा दर्ज है !
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बिल्ले की पूँछ
साधे रखना संतुलन
बिलाव सा वर्तमान
तनी हई पूँछ का
अतीत और अनुमान
सधी हुयी नज़र
दर्ज स्मृति का ध्यान
रोशनी से होड़
मौके ताड़ने का भान
शिकार और साफ़ मूँछ
बनाये रखना शान !
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छिपकली की पूँछ
वो घूमती है लिए अतीत पीछे किये
खौफ़ खाते ही हो जाती है वर्तमान
छूट जाती पूँछ तड़प कर हो जाती है शान्त
और कुछ दिन का आराम
कि फिर से अतीत होने लगता है वर्तमान !
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अ से

Oct 1, 2014

सांख्य शास्त्र


सभी ज्ञानों का मूल ज्ञान सांख्य को कहा जाता है सभी दर्शनों का मूल दर्शन भी !
सांख्य के अनेकों शास्त्रों में सबसे पुराना और प्रमाणिक कपिल मुनि का तत्वसमास कहा गया है !
साँख्य विलगित रूप में संसार के दर्शन और शुद्ध अवस्था में उसकी इकाइयों का ज्ञान है इन को ही तत्व कहा जाता है
कपिल मुनि ने 25 तत्वों के तत्वसमास से सृष्टि ऐकेक्य को समझाया !
इसके अनुसार हर एक " body " इन्हीं 25 तत्वों का समास है ,
चाहे वो जीव हो या संसार / हर चर अचर !
ये 25 तत्व हैं
देह के पाँचों भूत / पांच ज्ञान इन्द्रियाँ / पांच कर्म इन्द्रियां /
और इन 15 में रहने वाला मन .... ये 16 विकार हैं
8 मूल स्वभाव हैं जिन्हें प्रकृति कहते हैं ,
और एक बोध जो स्वभाव से परे है उसे पुरुष कहते हैं !
पुरुष / 8 प्रकर्ति / 16 विकृति !
पुरुष बोध है / जो प्रकृति से परे हैं
मूल प्रकृतियाँ 8 हैं , पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश अहम् महत प्रधान ! ( इन तत्वों की संज्ञा इनसे अलग भी दी जाती हैं )
हर प्रकृति आगे वाली प्रकृति का परिणाम है
जैसे प्रधान के परिणाम से महत महत से अहम् , अहम् से आकाश
आकाश से वायु वायु से अग्नि अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है !
ये मूल हैं सामासिक देह में जिनके मात्रात्मक परिवर्तन से ही अनेकोंनेक स्वभाव हैं !
अब प्रकृति पुरुष के संयोग और वियोग से सारा संसार उपजता और लय होता है
जिसे प्रभव-प्रलय / संचर-प्रतिसंचर कहा जाता है !
ये प्रभव और प्रलय ही समय के बिंदु हैं समय यही है
टिक टोक टिक टोक प्रभव प्रलय प्रभव प्रलय
काल प्रभव और प्रलय के मध्य का अंतराल है !
अब इनके संयोग-वियोग से जो संसार उत्पन्न और नष्ट होता रहता है उसे सामासिक रूप में एक की संज्ञा देते हैं
वो पहला व्यक्त रूप है ईश्वर का व्यक्त स्वरुप उसमें कार्य नहीं है या कह सकते हैं प्राकृतिक कार्य है / एक तय गति है / स्वाभाविक !
अब इन प्रकर्ति पुरुष के संयोग से / बोध के स्वभावों से मिलने से अनेकोनेक जीवों की सृष्टि होती है /
जिनमें इन प्रकृति और पुरुष के अलावा 16 अन्य विकार भी होते हैं !
ये विकार मूल प्रकृति के अज्ञान से / मूल गति के विपरीत / या उस गति के विरोध की तरह होते हैं ,
ये हैं देह के पांच भूत ( आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी -- सृष्टि के पांच भूतों के विषय शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध में आसक्ति के
संचय रूप )
पांच ग्यानेंन्द्रियाँ ( इन विषयों के ज्ञान कारक - श्रवण , त्वक , दर्शन , रसन और घ्राण इंद्रीयाँ )
पांच कर्म इन्द्रियाँ ( इन पांच भूतों से जुड़े कर्म के कारक - वाक् , पाद , हस्त , उपस्थ , गुदा )
और इन 15 में उपस्थित मन !
संसार का हर चर अचर जीव इन्ही 25 का समास है !
सांख्य दर्शन के हिसाब से पहाड़ , नदी पेड़ सभी भौतिक जीव हैं सभी में सभी इन्द्रियाँ हैं बस गुणों की मात्रा में परिवर्तन है
पहाड़ नदी आदि अचर जीव हैं जानवर इंसान देव आदि चर !
हालाँकि चेतना एक ही तत्व है पर इसमें 14 अलग अलग मूल स्तर माने गये हैं
हालाँकि उन्हें 10000 स्तर पर भी विभाजित किया जा सकता है !
पुरुष अवस्था ( शुद्ध-बोध ) में इन तत्वों के समास से उत्पन्न हो सकने वाली सृष्टि के सभी आरम्भ चिन्ह बीज रूप में सुरक्षित रहते हैं ,
इनको भी विस्मरण भाव से हटा देने पर प्राप्त अवस्था को निर्बीज अवस्था कहा जाता है बोध की ये दोनों सबीज और निर्बीज अवस्था को
अलग मानते हुए पुरुष और ईश्वर , पुरुष और परम पुरुष आदि संज्ञानुसार 26 वां तत्व भी कहा गया , जो कि अंतिम और ना लौटने वाली स्थिति है !
अ से

Sep 30, 2014

blue

नीला
मेरे एकांत का रंग था
नीला
पर कोई रंग नहीं था
नीला 
रंग भी था पर , अनुपस्थिति का ,पारदर्शिता का
नीला
रंग था , अँधेरे में से छन कर आती रौशनी का
नीला
बहुत विरल सा कुछ था , जो कहीं नहीं था ,
नीला 
प्रेम था सघन , बरसता हुआ 
नीला 
बहता था कल कल 
नीला
विस्तार था पटल का 
नीला 
मन की तृप्ति में था 
नीला 
भाव था मेरी कल्पनाओं का
नीला
लाल में था , हरे में था , सभी कुछ में था ,
नीला
पर खामोश था हरदम !
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अ से

Sep 29, 2014

उदासी


एक उदासी घेरे रहती है सोचकर
कि सभी कुछ की तरह तुम्हे भी
लौट जाना होगा एक दिन
कि समय की सुरंग के दुसरे छोर से
झाँकता है अँधेरा अज्ञात का
मैं नहीं जानता उन लोगों को
जो जीते हैं उम्मीद लेकर
मैंने देखा है लोगों को लौट जाते हुए
वो जो आते थे समय के दरवाजे से भीतर !

आखिरी चक्कर

बिजली चली गयी और पंखा घूमता रहा अपने आखिरी चक्कर ,
कुछ समय तो लगता है आखिर
एक वक़्त से बहते रहते प्राणों का प्रवाह थमने में
और उस वक़्त याद आते हैं बहुत से काम जो कि किये जाने थे
हर किये गए कार्य की अपनी गति है
एक बोले गए शब्द को कुछ समय लगता है शांत होने में
और तब तक बदल जाता है बहुत कुछ कभी कभी
और कभी कभी मर जाते हैं शब्द एक खामोश मौत !

अभिव्यक्ति

मैं
करता हूँ यात्रा
गढ़ता हूँ आकार
लिखता हूँ सार
वो
निकालता है रास्ते
गढ़ता है औज़ार
देता है सरोकार
हमें
मिला हुआ है दिन
मिट्टी पानी जमीन
जानने जताने की तालीम
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वाक् शिल्प गति
वैकारिक अभिव्यक्ति
विकार
प्राकृतिक अभिव्यक्ति
प्रकृति
दाक्षणिक अभिव्यक्ति
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उसकी अभिव्यक्ति
ये अभिव्यक्त संसार
और मैं भी एक प्रकार
मेरी अभिव्यक्ति
दर्शन कला व्यापार
और वो भी एक आधार
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अ से

Sep 26, 2014

समय गुज़र जाता है जैसे उड़ जाते हैं पंछी आँखों के सामने से ...


समय गुज़र जाता है

जैसे उड़ जाते हैं पंछी आँखों के सामने से
बदल जाते हैं कई रंग
आकाश पटल पर और झील के पानी में इस दौरान
वो देखता रहता है
बहते हुए पानी पर संयत 
कमल की तरह शांत और आत्मस्थ

वो देखता रहता है
वो देखता रहता है कि वो देखता रहता है

यही करता है वो
यही करता रहा है वो सामान्यतः ,
उसी सामान्य में आसन लगाये वो देखता रहता है 

परिदृश्य से आती रौशनी पर स्थिर अन्तर्दृष्टि साधे ,
अपने मन की स्थिरता के आधार पर , तौलता रहता है दृश्य की गति ,
देखता रहता है दम साधे हरदम  वो चीज जो दिखाई देती है उसे
आगम और अनुमान से मिलाकर दर्ज कर लेता है चित्र-लेख ,
एक विशाल घड़ी के घूमते हुए काँटों के मध्य चन्द्रमा को कला बदलते ,
एक विशाल थाल पर सजे नक्षत्रों और तारा समूहों के गति चक्रों को ,
देखता रहता है घूर्णन धीमे से धीमे पिण्ड का , स्थिर ध्रुवों पर दृष्टि टिकाये ,
प्रसन्नता अवसाद सुख दुःख , शांत जल के महासागर को अनेकों लहरों से घिरे हुए
मानस पटल पर अंकित करता रहता है मान-चित्र , मानवीय भू-गोल और ख-गोल के !
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सपना बिखर जाता है
जैसे झड़ जाते हैं पत्ते शाखों पर ही सूखकर
सब ठहर जाता है
कोर पर का आखिरी आँसू आँखों में ही डूबकर
पर वो देखता है राह
जैसे देखता है कोई अपना 
प्रीत में सबसे छूटकर

देखता रहता है 
गीत गाते उत्सव मनाते ,
लोगों को थक कर लौट जाते अपने अपने घर
समूहों में गले मिलकर एकांत में आँसू बहाते ,
मौसमों के बदलते मिज़ाज़ सब ओर बाहर भीतर ,

देखता रहता है 
बस बेबस देखता रहता है 
यही देखा है जाने कब से , तो देखता रहता है

जाने हुए की पैमाइश अनुसार खुद की लम्बाई चौड़ाई नापते हुए लोगों को ,
संसार के तौर तरीकों और समाज के दिशा निर्देश पर खुद को ढालते हुए लोगों को ,
अनंत में खोयी हुयी एक गुमनाम जिंदगी के नाम-बदनाम किस्सों को ,
समाज के लिए कोई हैसियत ना रखने वालो को भी समाज में अपनी इज्जत की परवाह करते ,
हँसता है रो लेता है और चुप हो जाता है फिर देखने लगता है और देखता रहता है
कई दिनों के भूखे को अपनी रोटी अपने बच्चों को खिलाते
थोड़ी सी जगह में सटकर बैठे आखिरी डब्बों में लटककर जाते
अस्वस्थ और कमजोर लोगों को स्वस्थ दूसरों को ढो कर ले जाते
किस्मत से मिले अधिकार पर भी अपना ठप्पा लगाते
मालिकाना हक के नाम पर मौलिकता के निवाले छीन ले जाते
और वो देखता रहता है बाढ़ भूकंप सूखे और भूस्खलन की मार को
प्रकृति की निर्ममता को आँखों में लिये बख्श देता है हर मूर्ख सनक सवार को
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खो जाता है सब
जैसे दिनभर का शोर रात हो जाने पर
खामोश हो जाता है
हर एक शब्द सांझ को पंछियों के लौट जाने पर
पर वो जागता रहता है
जैसे जागता है चंद्रमा 
सब के सो जाने पर

देखता रहता है 
कि उसने देखा है कई दफा पहले भी 
अपने साक्षीभाव में निमग्न आत्मलीन तल्लीन 

देखता रहता है 
जैसे कोई साधक त्राटक का 
जैसे कोई दर्शक एक नाटक का 

शहरी शोर शराबे से दूर ,
जमीन से चिपके हुए परंपरावादी अष्ठबाहूओं से मुक्त ,
समाज में सब ओर जड़ें जमाये बरगदी लोगों से ऊपर उठकर ,
चला गया है किसी पर्वत पर किसी ऊँचे स्थान पर अपनी शान्ति बचाए
देखता रहता है कंदराओं के मुहाने से झांकती हुयी शांत रौशनी में अपने अस्तित्व की झलक ,
सड़कों पर बेतरतीब दौडती जिंदगी से किनारा काटकर ,
मिट्टी हवा पानी में खामोशी से बसे हुए प्रकृति के परिवार को ,
सुबह होते ही क्षितिज से उग आती केसरिया ताजगी को अपने फेफड़ों में भर के
साँझ होने पर स्वतः ही अपनी सत्ता समेट लेते एक प्रचण्ड ज्योतिराज को नमन कर ,
वो देखता रहता है उन लाखों जीवों को जो बस चलते जाते हैं चलते रहते हैं अपनी प्रकृति के साथ !
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अ से

Sep 24, 2014

अन्तरिक्ष


मैं रचता हूँ ये पूरा आकाश अपने मन की असीमिति में
अपने अंतर्द्वंदों के बीच बचाए रखता हूँ ये ब्रह्माण्ड
अनंत अन्धकार के बीच हर समय जागृत रहता हूँ
छिटका हुआ रहता हूँ रोशनी सा इन मंदाकनियों में
मेरी आँखों का ये काला बिंदु कालछिद्र है सघन
दृश्य जिसमें समाकर प्रकाशता है मन को
और कितना आश्चर्य कि बचा रहता है दृश्य
इसका प्रकाश ग्रहण करते रहने पर भी सतत
मेरा कान एक भँवर हैं जैसे बनता है महासागर में
और आवाजें गुजरती है मेरे कानों से हवा के पाल पर
मेरा मानस पोत ले जाता है मुझे अन्तरिक्ष के सुदूर धोरों पर
और नाद फैलता है आकाश में रौशनी की तरह
जीवन की सूक्ष्म तरंगों से भरा हुआ है हर स्पर्श
प्राण उँगलियों के पोरों से प्रवाहित होकर बहते हैं
हर ओर फैला हुआ ये संसार केवल और केवल हवा है
वास्तविक निर्वात के लिए रख छोड़ी है सिर्फ रत्ती भर जगह !
अ से

Sep 23, 2014

Classic milds -- 3


छोटी छोटी मुलाकातों में
हाथ कोहनी से मुड़कर होठों की तरफ आता और मिलकर चला जाता
तर्जनी  और मध्यमा के बीच संभाला हुआ रहता विचारों का एक टुकड़ा 
वातावरण में बेतरह से रमते रहते सोच के गोल घुमावदार छल्ले
और विचारों के ताप से जमा होता रहता शब्दों का काला धुँवा
टुकड़ा टुकड़ा विचारों के बीच
कुछ कवितायें कागजों पर उकर आती
शब्द्नुमा काली चीटियाँ पंक्तिबद्ध चलती रहती
मन के दर पर एक शून्य से बिल में लौट जाती
अपने वजन से कहीं ज्यादा भारी अर्थों को ढोकर
जिंदगी बीतती रहती कश-कश
यादों के उड़ते धुंवें के बीच आँखें धुंधलाई रहती
स्मृतियाँ स-स्वर चिन्हों की शक्ल लेती और कहीं खो जाती
समय छंदबद्ध हो बीच बीच में गुनगुनाता रहता कुछ अधूरे नगमें
और असफलताएँ दर्ज होती रहती कड़वाहट की कसौटी पर
अंतिम दौर की आँच
उँगलियों पर महसूस होने लगती काल की छुअन
इन्द्रधनुष सा तैरने लगता साथ गुजरा हुआ समय
आँखों के सामने होती अगले दौर की रवायत
कवायद शुरू होती अंत को जल्दी पा लेने की
आखिर में बचा रह जाता जर्द सा एक ठूंठ
उन्ही तर्जनी  और मध्यमा के बीच
आखिर में पीछे छोड़ दिया जाता एक किस्सा जिंदगी का !
अ से

Sep 22, 2014

Classic milds -- 2


सिगरेट पीने वाले जो साथी थे
उनसे एक अदद सिगरेट उधार नहीं मांगी
ना कभी उन्होंने कभी उधार दिया..
वो कुछ यूं होता के हम बस एक हांथ आगे बढ़ा देते थे
एक दूसरे की ओर..
और दूसरा पहाड़ी के उस ओर खींच लेता था
उंचाई पर जब आंखों मे गुलाबी डोरे पड़ते थे
तब नीचे का मंजर..
ओह... कितनी सिगरेट्स ने सु-साईड कर लिया...
नीचे धुंआ दिखता था
ठंडा धुंआ...
मैं तो हमेशा से डरता आया हूँ इस एक बात से
की एक दिन मेरी आत्मा छोड़ देगी शरीर मेरा ,
तो मैंने धुँवा धुवां करके रख छोड़ा है जिस्म से बाहर उसे ,
हर एक कश के साथ
मैं स्वाद लेता हूँ मौत का
थोडा कड़वा है पर वाजिब है
और हर एक कश के साथ
हवा में मिला देता हूँ अस्तित्व अपना
की अब वोह इश्वर के फेफड़ों में सुरक्षित रहेगा
और कतरा कतरा मैं देता हूँ जिंदगी को अंतिम विदाई
की एक बारगी पूरी तरह चले जाते लोग मुझको सुहाते नहीं ,
की कोई जाए तो धीरे धीरे ,
की मेरी आत्मा सक्षम हो सके उसे जाते देने में ,
मद्धम मद्धम सुलगता रहे किसी की आंच से दिल मेरा ,
की मैं पीता हूँ सिगरेट
की एक बार में ही ना ख़त्म हो जाऊं पूरा का पूरा !

नाद और निर्वात

नाद

एक आवाज़
फ़ैल कर कुछ उसी तरह
जैसे फैलता है उजाला सूरज से
ले आती है अस्तित्व में
ये सकल संसार ...

वही आवाज़
जब आती है विनष्टि पर
तो समेट लेती है सबकुछ
फिर अपने ही भीतर ...

सिमटी हुयी हैं
सारी भौतिक गतिविधियाँ
इस संकुचन और प्रसरण में ही
जो होता है अवसाद विकास सरीखा
उनकी आध्यात्मिक अवस्था में!

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निर्वात

खाली नहीं होती एक खाली बोतल ,
होठ लगाकर किसी प्लास्टिक की बोतल के मुंह से ,
अगर उसे खींचा जाए तो वो सिकुड़ जाती है ...
निर्वात इतना आसान नहीं होता ,
आप इतनी आसानी से नहीं देख सकते , खालीपन को ,
वो खींचता है , अपनी पूरी क्षमता से ,
सबकुछ अपनी ओर ...

वो अब भी संघर्ष करता है ,
वो भी भर जाना चाहता है , उसी सब से ,
जिससे भरे हुए हैं बाकी सब , उसके आस पास ...

कि एक सच्चा निर्वात ,
एक सच्ची आवाज़ के साथ जन्मता है ,
जो समेट सकता है समूचे अस्तित्व को अपने भीतर ,
और उसे नष्ट कर सकता है पूरी तरह ,
अपने खालीपन में ले जाकर !

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Sep 21, 2014

धूप से फूल .. सांझ सी ख़ामोशी
















वापसी की चुप
यात्रा अपने अंत की ओर
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धूल से आता खिलकर 
धूप सा फूल
धूल फिर से हो जाता
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प्रकाश में आता
खिलना फूल हो जाता
फिर ढलता ख़ामोशी में
फूल एक स्मृति सा
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वे आते
और बधाई मुस्कुराते
बोलते एक भी शब्द नहीं
बहुत आखिरी तक
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अ से

सार-असार


वेदनाओं से गढ़ा गया जिसे
आनंद लील जाता है सारा संसार
संकल्पों के ताने बाने से बना
क्षण भर में भंग हो जाता असार

आनंद में है प्रलय इसका 
नियति सब भूल जाना है
डूब जाना है इस विप्लव में
हर एक बाँध टूट जाना है

दूर दूर तक ख्वाब होंगे
डूब के कोई पार ना होगा
खोजने वाला खोजता रहेगा
कहीं कोई सार ना होगा

आशाओं का जंगल मंगल है
मैदान ये हरियाता हरिया है
किसी दिशा कोई दर दीवार नहीं
हर ओर बस दरिया ही दरिया है

अंत को शुरू में देख लेता वो
दूर की निगाह अच्छी है
अंत को अंत तक झेल लेता जो
एक वही जिंदगी सच्ची है

आवाज़ के जादुई रेशों से
बुना हुआ है ये सारा संसार
पर बातें आखिर होती हैं बातें
यही है इसका सार-असार !
अ से