Oct 31, 2013

क्रिया और कर्म -- 2

क्रिया और कर्म -- 2
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कोई भी क्रिया भूसे के ढेर में से सुई ढूँढना भर है ,
और कर्म सुई मिल जाने के बाद क्रिया त्याग देना !!

क्रिया किसी कारण से आरंभ होती है ... पर उसे जारी रहने के लिए कारण आवश्यक नहीं ...
.... वो प्रमाद में भी बदल सकती है ,
पर कर्म सीधा अतीत से , अपने मूल कारण से जुड़ा रहता है .... और पूर्णता पर उसी में लय हो जाता है !!
.............................................. अ-से अनुज ॥

" प्रेम "


जिस समय साँसों की घुटन से उपजी तीव्र वेदनाओं की सूक्ष्म धाराएं , मेरे संवेदन अस्तित्व की हर एक इकाई का सर उठाया गला , कसी हुयी सन की रस्सियोंसे कसकर , दर्द के सभी आयामों और विशेषणों का मर्म मेरे मानस को समझा रही थी , तब सुकून को छटपटाती मेरी संवेदना और वक़्त को छटपटाते मेरे प्राण मुझसे विनती कर रहे थे ,
कुछ और सब्र करने का ..... ॥

उन्हें मालूम था अब मैं उन्हें किसी भी वक़्त निर्मम बुद्ध सा त्याग चला जाऊँगा , दृश्य की किसी और धारा में अपने को बीज बनाये फिर से अंकुरित होने ,
पर वो जानते थे मेरी चाहत का अतीत भी ,वर्तमान भी ,
और करते थे उस दिल कशा का भी खयाल ,
जो नहीं पहचान पाएगी , मुझे किसी भी और शक्ल में ,
और उसके लिए वो (मेरे प्राण ) मुझे इसी शक्ल में बनाये रखने का अंतिम संघर्ष कर रहे थे ॥

समय के उस हसीन लम्हे में , नर्म धूप , सर्द हवा , उठती महक से मदकती तितलयों , कोंपलों , डंठलों और खिलखिलाते हुए सूरजमुखी के फूलों को चेहरा दिए , मेरी प्रेम कथा की नायिका , अपने प्रेम गीतों में मेरी सलामती और ख़ुशी गुनगुना रही थी ॥

वो बेहिचक हरे नीले सपनो को , सुनहरी पीली उम्मीदों के , बैंगनी परिंदे बनाये आकाश में उड़ा रही थी ,
और मैं निर्विकल्प अपने प्राणों के अंतिम संघर्ष को थामे रखकर उनके रंग बचा ले जाने का हर संभव प्रयास कर रहा था ॥

उस समय , काल के तख़्त पर चढ़ाये गए कई निरीह निरुद्देश्य मन के टुकड़े अपना सामान समेट वहाँ से विदा ले चुके थे ,
और सज़ा सुनाने वाले न्याय और तंत्र को समर्पित निसंदेह ह्रदय रावण को जलाये जाने की आतिशी खुशियाँ मना रहे थे ॥

तभी एक हवा के झोंके से बिखरा मेरा मन आकाश और अवकाश के सभी अवयवों को छानता छोड़ता मेरी अंतिम इच्छा को साकार करने सूरजमुखी पर पंख फैलाती एक तितली पर सिमट कर बैठ गया ॥

आह , कराहते हुए , वेदना के तीव्र स्वर , गुनगुनाते हुए दो होठों के गीतों की धुन से ताल मिला ख़ामोशी में लय हो गए ,
न प्राणों की दुआ क़ुबूल हुयी , न गीतों की फरमाइश ...
प्रेम कशिश के साक्षात् को खिंची मनः तितली मुस्कुराई ... और उसके फैलते हुए पंखों की खूबसूरती में ... वो दिलकश चेहरा खिलखिला उठा ... सूरजमुखी अब उसे देख रहे थे ॥

............................................................... अ-से अनुज ॥

क्रिया और कर्म -- (१)

हर प्रयास ,
कुछ हासिल करने का कयास है

हासिल करने का कयास  ,
जानने भर की उत्सुकता ,

जानने की उत्सुकता ,
उत्कंठा जीने भर की  ,

जीने की उत्कंठा है
अपने होने का ऐतबार कर लेना ,

अपने होने का ऐतबार ,
जिसके लिए जरूरी नहीं था 
कोई प्रयास ,

हर प्रयास ,
वृत्ति है प्रमाण की
एक टेम्पररी आश्वस्ति ,
अंतर्मन के भय की प्रतिक्रिया ,
आईने में झाँकना बार बार ,
खुद की याद बनाये रखना ,
सींचते रहना 
अपनी दीवारों को ,
और कर लेना कैद ह्रदय को ... उन सींखचों में ,.............
जो तुम्हारे ही संकल्पों के मजबूत लोहे से बने हैं !!

................................................................ अ-से 

कमजोरी ...

कौन है यहाँ .... जब किसी की परछाई नहीं ..
कमरा हर ओर बंद हैं ... पर आहट देती रहती हैं ..

कौन है वो आवाजें .. जो पहचान नहीं देती ...
सुनना नहीं चाहता ... फिर भी सुनाई देती हैं ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी हैं ... जो कान लगाये रहती है ॥

एक बेखबर सा मैं ... एक खबर सा सब ..
मेरे अलावा कौन है ... जो खबर में भीड़ है ..

किस भीड़ में खोया .. किसको रहा हूँ सुनता ..
जब कोई खबर मुझको ...अब खुद की ही नहीं है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है .. जो भीड़ लगाये रहती है ॥

न चाहिए जब कोई ... एक दुनिया की है चाहत ...
कौन सी ये खला है ... जो प्यास जगाये रहती है ..

ख्वाहिशों में पलकर ... किसको रहा हूँ बुनता ..
अपनी ही समझ की चादर ... जब उधड़ी सी हुयी है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है ... जो आस लगाये रहती है ॥

...................................................................................अ-से अनुज ॥ 

प्रिज़्म

वर्तमान के ब्लैक बोर्ड पर ,
भविष्य से आती रौशनी की रंगहीन उजली चॉक से ,
मैं उकेरने की कोशिश में रहता हूँ एक उज्जवल इतिहास ,
जो की मेरे साथ लिखा जायेगा ,
एक उपनाम की तरह ॥

पर मृत्यु भी किसी प्रिज्म की तरह रखी होती है ,
वहीँ आपके पास ,
वो प्रकाश को कतल कर बना देती है रंगीन ,
लाल पीले नीले रंगों सा नज़र आता है फिर अतीत ,
बेहतर लगता है , पर भव्यता खो जाती है ,
सारी मेहनत कहीं खो जाती है , उजास की तरह ॥

तीन रंगों से बने इन्द्रधनुषी अतीत में ,
खोजने निकलता हूँ रौशनी ,
और मायावी कांचों से गुजरते ,
अपवर्तन और परावर्तन में फंस सा जाता हूँ ,
आदत सी हो जाती है इन रंगीनियों की ॥

वक़्त के साथ भविष्य से आती रौशनी ,
खलने लगती है आँखों को ,
अब वो भरोसा नहीं देती ,
रंगों से आश्वस्त हुआ मैं ,
भूल सा जाता हूँ ,
उस खाली ब्लैक बोर्ड ,
और अपने हाथों मैं पकड़ी चॉक को ,
अब नहीं लिखा जाता कुछ भी ॥
............................................................अ-से अनुज ॥

गीतांजलि --- 1

तूने मुझे बिना किनारे का बना दिया है ,
तेरा मज़ा ही कुछ ऐसा है ,
ये छोटा सा पोत जिसे तू बार बार हवा से खाली कर देता है ,
और फिर इसमें नया जीवन भर देता है ॥

बांस की ये एक छोटी सी बांसुरी ,
जिसे तू हमेशा साथ लेकर चलता है ,
पहाड़ियों और घाटियों पर ,
जिससे सांस लेती हैं ,
चिर नवीना सरगम ॥

तेरे हाथों के अमृत स्पर्श पर ,
मेरा ये नादान सा दिल ,
ख़ुशी से उछलता अपनी हदें भूल जाता है ,
और जन्म देता है अनकही दास्तानों को ॥

तेरे अनंत उपहार मुझ तक पहुँचते हैं ,
सिर्फ इन छोटे हाथों में मेरे ,
सदियाँ बीत गयी हैं ,
अभी भी तू दिए जाता है ,
और अभी भी इनमें जगह खाली है ,
कुछ भरने को ॥

.................... ( गीतांजलि ) ....................

जय गाथा -- 1

जय-गाथा :
.....................

प्रलय के पश्चात .... एक दीर्घ काल तक ... सब शून्य था ... चेतना को जगत का बोध नहीं था ॥

अमावस की रात्रि के घने अन्धकार के पश्चात् ,
जिस तरह सूर्य उदित होता है कुछ उसी तरह ......

जब ये जगत ज्ञान और प्रकाश से शून्य और अन्धकार से पूर्ण था ....
तब चेतना के पूर्व से एक बहुत बड़ा गोलाकार अण्ड उदित हुआ ,
वो दिव्य , शक्त और ज्योतिर्मय था ,
वो सत्य बोध , सनातन और ज्योतिर्मय ब्रह्म था ॥

वो ब्रहम कल्पना और सत्य कुछ भी कहा जा सकता है ,
वो सर्वत्र सम , एक रस , और अविभेद था ,
मात्र कारण स्वरूप ॥

वो अविचारणीय और अलौकिक बोध मात्र था ॥

उस निजबोध , चेतन अण्ड से "अनुग्रह रूप लोक पितामह ब्रह्मा " उत्पन्न हुए ॥

सत्यकल्प ब्रहमा , स्वतः सृजन शक्ति हैं ,
जिस तरह से ऊष्मा और प्रकाश अग्नि की सहज शक्तियाँ हैं ,
और वो उससे अलग नहीं ,
ठीक उसी तरह सृष्टि सृजन ब्रह्मा से भिन्न नहीं,
वो स्वयं सत्य गुण हैं और उनकी कल्पना उनके संयोजन से सत्य रूप ही होती हैं ॥

उस ब्रह्मा की कल्प सृजन की सहज शक्ति से अन्य प्रजापति , प्रचेता , दक्ष , पुत्र , ऋषि , आदि मनु , विश्वेदेवा , आदित्य , वसु ,अश्विनीकुमार , यक्ष , गन्धर्व , राजर्षि , जल , ध्यो , पृथ्वी ,वायु आकाश ,दिशाओं , संवत्सर , ऋतू , मास ,पक्ष , दिन और रात सहित ये पूर्ण जगत अस्तित्व में आया ॥

ये चराचर जगत प्रलय के समय जिस चेतना में विलय होकर सुप्त होता है ,
प्रभव के समय उसी से उत्पन्न होता है ॥

जैसे ऋतू आने पर उसके सभी प्रभाव स्वतः ही प्रकट होने लगते हैं ,
और समय ख़त्म होने पर स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं ,
उसी प्रकार जगत का और जगत के सभी प्रभावों का काल के अनुसार ,
स्वतः प्रभव और प्रलय निरंतर चलता रहता है ॥

ये कालचक्र जिससे सभी की उत्पत्ति और विनष्टि होती है ,
अनादि और अनंत रूप से सदा चलता रहता है ॥

.................... ( जय सहिंता के अनुसार .... क्रमशः ) ........................................

...................................................................................... अ-से अनुज ॥

Oct 19, 2013

" अर्द्धनारीश्वर "



इन्द्र धनुषी छटाओं ,
पुष्प शोभाओं ,
स्वच्छ कल कल धाराओं ,
मंद स्वच्छंद हवाओं
सरगमी नादिकाओं ,
सी विस्तारित असीमित
धवल उज्जवल अर्द्ध .... शिवप्रिया ,
और
फैली दिशाओं ,
चेतन ध्वजाओं ,
सदा स्फूर्त ,
स्व नादित ध्वनिकाओं
समान स्थिर असीमित
श्वेत कर्पूरी प्रकाश ....परार्ध शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

कर्म प्रवृत्ति ,
इच्छा शक्ति ,
गुणों और भावों की
अभिव्यक्तन आसक्ति ,
पवित्र कस्तूरी गंध
लाल - नारंगी आकाश पटल .... शिवा ,
और
कर्म निवृत्ति ,
संतुष्टि , तृप्ति ,
तीनो गुणों की
परार्थ शक्ति ,
भस्म सी विरक्ति
अद्भुत भक्ति .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

स्वर्ण शोभित दृश्य आभा ,
रजत संचित रत्न प्रभा ,
खनक देते दिव्याभूषण
चित्त वेदित जिजीविषा ... पार्वती ,
और
रत्न दिगम्बर ,
सत्य सुन्दर ,
सर्प भूषित ,
वेद अविदित ,
चित्त निवेदित
सामर्थ्य कुशा ... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

प्रसन्न कमल सी ,
श्रद्धाजल संस्कृत ,
जीवन ज्योतित ,
विश्वास आपूरित ,
पूर्ण विस्तृत ,
निस्संदेह दृष्टि
द्वि चक्षु ... शैलपुत्री ,
और
सम्यक नयन ,
समदृष्टि ,
ज्ञान दृष्टि ,
शांत ,  सौम्य ,
त्रिनेत्र ..... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


फल - पुष्प सज्जित ,
लता - वृक्ष शोभित ,
जगत - जीव ज्योति ,
दिव्य - अम्बरा ...... शिवा ,
और
वज्र सघन ,
स्फटिक प्रकाश ,
कपाल - माल सज्जित ,
दिक् - अम्बर ...... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


जलापूरित मेघ ,
वेगमान सरिता ,
तरंगित वाणी ,
सर्वथा स्वतंत्र प्रकृति ..... शिवा ,
और
तड़ित प्रचंड ,
तेजोमय दंड ,
स्थिर नाद ,
दिक-लोक स्वामी .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

जगत सृजक ,
विश्वप्रपंच कर्ता ,
नाट्य नृतक ,
जगज्जननी ,
स्वभाव पूषा .... शिवप्रिया ,
और
जगत संहारक ,
आत्मस्थ कर्ता ,
तांडव नृतक ,
भूतभाव पूषण ... पार्वती प्रिय ,
को
नमन है ,  नमन है ॥

जिनकी दिव्य चमक से
सम्पूर्ण व्योम प्रकाशित है ,
जिनकी शक्तियों से ,
सम्पूर्ण सृष्टि अच्छादित है ,
जिनके तेज से
समस्त दिशायें कम्पित हैं ,
उन सर्व इष्ट देने वाली शिवसंयुक्ता और
आयु और भोग देने वाले पार्वतीयुक्त ,
अर्द्धनारीश्वर को नमन है ,
जो अनंत और वर्तमान सभी काल में
सृष्टि स्थिति और लय कर्ता हैं ,
उनको अनेक बार नमन है ॥

................................................................. अ से

Oct 17, 2013

" अन्तःसूत्र "


War Painting by Pablo Picasso
जादूगर की जान तोते में थी ..
तोता विरही निकला ,
एक दिन आत्महत्या कर बैठा ,

जादूगरी काम न आ सकी ॥

सोणी महिवाल , लैला मजनू , हीर राँझा , सस्सी पुन्नू ,
रोमियो जूलियट , शीरी फ़रियाद और न जाने कितने ,
बंधे थे ... अंतस के प्राण सूत्र से ,
एक का दर्द दूसरा न सह सका ॥

पुत्र में ममता थी ,
उसकी मृत्यु के प्रमाण भर से द्रोण ने युद्ध और संसार दोनों छोड़ दिया ,
भुजाओं का अकूट महासंग्राम ,
ह्रदय की सूक्ष्म सी नाड़ी पर जाकर थम गया ॥

नीड़ का निर्माण भी जरूरी था ,
एक तिनका भर संपत्ति के लिए हुई महाभारत में ,
एक चिड़े ने दम तोड़ दिया ,
चिड़िया जीत कर भी खुश न थी ,
घायल अवस्था में भी उसे बच्चों के लिए दानों का इंतज़ाम करना था ॥

जब इज्ज़त पर आ गुज़री ,
पुजारी और पादरी कुछ शब्दों की जंग में दो सियासत लड़ा बैठे ,
मौलवी खुदा का शुक्रिया अदा करने निकल पड़े ॥

उसकी देशभक्ति उसका जूनून बन गया ,
विगत इतिहास की बेईज्ज़ती का बदला उसने प्रारब्ध तय किया ,
प्रकृति से भी क्रूर , बहती खून की नदियाँ ,
एक-एक हिटलर ने समाज - सभ्यता पर तमाचा जड़ दिया ॥

इधर सावन झूम कर बरसा है ,
प्रेम सजल से भीगकर पत्ता पत्ता निखरा है ,
अमृत- तृप्त धरा पर हरा बचपन उभर आया है ,
पतझड़-जर अनंत अंधेरों में गहराया गया है ,
और आज शेर भी हिरन के संग नदी की तरफ निकला है ॥


ममता में निकले गए कितनों के प्राण ,
अपनत्व ने ली कितनो की जान ,
भाईचारे के कारण सारा युद्ध छिड़ा है ,
मोह के तिनके पर संसार खड़ा है ,
आँखों में यादों का जाला पड़ा है
विस्मृति-अमृत को संसार भूला पड़ा है ॥
-------------------------------------------- अ-से अनुज ॥

Oct 16, 2013

" बुद्धं शरणम् गच्छामि "



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बारिश गुज़र चुकी थी , रात भी ,
उठती हुई आवाजें भी अब बैचेन न थी और हवा को भी कोई जल्दी नहीं नज़र आती थी ,
हल्की नर्म धूप में सुस्ताने ,
बाहर निकला वो अलसाया सा मेंढक ,
रात भर खौफ में टर्राते , अपने बाकी साथियों के साथ , वो थक चुका था ,
पूरी रात उसने सुबह के इंतज़ार में काटी थी ॥

बाहर बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा थी ,
उसे दिखी तो नहीं उसकी दृष्टि के सामर्थ्य से वो काफी ऊंची थी ,
पर वहां एक अप्रतिम शान्ति थी ,
शायद उस पत्थर में जंगल की बाकी गीली जमीन से ज्यादा गर्माहट थी ,
वहां सो रहे थे कुछ पंछी और कुछ और जानवर , जो आम तौर पर सूरज की इस ऊँचाई पर शांत नहीं बैठते ,
फुदक कर वो सबसे निचले पत्थर पर चढ़ गया और सो गया ॥

नींद में बनते बिगड़ते सपनो में उसे प्रश्न आया की वो मेंढक कैसे बन गया ,
वो तो एक नवयुवक भिक्षु था ,
जो संन्यास लिए किसी जंगल में ज्ञान की प्राप्ति को निकला था ,
उसके अस्थिर मस्तिष्क के किसी संयमशील हिस्से में ठहरी चेतना ने उबासी ली ,
पूर्व की दिशा में उसका सर उठ गया ,
उसके गुरु ने उसे बताया था ,
अपराध और पाप के विषय में उसकी उत्तेजनाओं को शांत करने के लिए ,
पाप वस्तुतः नहीं होता , अंगुलिमाल भी उसे क्रमशः याद आया ,
गुरु के कई उपदेशों में से कुछ कुछ उसे याद आया ,
उसे याद आया , वो किस तलाश में निकला था ,
उसे तलाश थी बुद्ध की ,
भगवान् बुद्ध उसके समकालीन नहीं थे पर उसने बहुत सुना था उनके बारे में ,
तो वो जानना चाहता था बुद्ध को ,
निर्वाण उसकी प्राथमिकी न थी ॥

वो एक पास वाली छोटी पहाड़ी पर रहने लगा था ,
वो जानना चाहता था बुद्ध को , वो क्या थे , कैसे थे , क्या बुद्ध का अभी भी अस्तित्व है ,
और अगर नहीं तो फिर साधारण मनुष्य और उनमें क्या फर्क आ गया ,
इन्ही प्रश्नों की उधेड़बुन में उसके सारे मौसम एक हो गए थे ,
कांटो पर चलने तक के स्पर्श उसे देह की सुध नहीं देते थे ,
स्वाद वो भूल चुका था , मृत्यु और मोक्ष उसके ज्ञान का विषय न थे ,
और
कोई प्रेम कथा अभी उसने जानी न थी ॥

उस पहाड़ी के दूसरी ओर एक गाँव था ,
कुछ लोग लकड़ी आदि अन्य आवश्यकताओं के लिए जंगल की तरफ आते रहते थे ,
एक बार एक स्त्री उधर से गुजरी थी ,
नीले वस्त्र , पीले फूलों का श्रृंगार ,
गेहुआं वर्ण , छोटे तीखे नेत्र , भरे हुए गालों और तेज कदमताल ,
उसकी नज़र जब हटी तो दूर गाँव की तरफ की पगडण्डी के आखिरी छोर पर कुछ गति सी थी , जो अब नहीं थी ॥

तीक्ष्ण हुयी जिज्ञासाएं लक्ष्य बदलते ही अपने शब्द रूप बदल लेती हैं ,
कहानी बदलने लगी , आते जाते अब वो उसे कई बार देख चुका था ,
एक बार सहायता प्रदान करने के वाकिये के साथ सिलसिला चल पढ़ा ,
अब मन की जिज्ञासा नयनों से गुजरने लगी ,
बुद्धि , बुद्ध से ध्यान हटा कृष्ण और फिर काम हो गयी ,
कामदेव सजल नेत्रों से मुस्कुराने लगे ,
प्रेम के अक्षर पढ़ाने को अब उनके पास एक शिष्य था , और एक शिष्या भी ,
वो नित नयी पंचरंगी कहानियाँ सुनाने लगे ,
दोनों शिष्यों में समर्पण भाव जागने लगा और भेद ख़त्म होने लगा ,
समय के परे तक अब प्रेम की पहुँच थी ,
मृत्यु, उत्पत्ति और बुद्ध भाव अब उसके मन मानस से गुज़रते न थे ॥

वर्ष गुज़र गया और बुद्धि में चित्रित कर गया ,
कई सुहाने मौसम , अनेकों भाव , अनोखे स्पर्श, रूप, और शब्दमय मात्राओं के चिन्ह ॥

एक दिन कायनात में बिजली गूंजी ,
चमक नहीं थी उसमें कोई घनघोर था ,
गाँव में गीत गाये गए थे , कोई उत्सव का माहौल था ,
किसी राजा या बड़े मंत्री की नज़र लग चुकी थी उसकी अनुभूतियों पर ,
असहाय नारी कर चुकी थी त्याग अपने प्रेम का , आज उसका विवाह , उसके परिवार का सम्बन्ध किसी भव्य वैभव से था ,
और उस आकाशीय बिजली का आघात किसी ह्रदय को सहना पड़ा ॥

बेबस आँखे विरह की अग्नि में सूखते बिखरते आंसुओं में जल जल कर पिछले मौसम के ठहरे हुए दृश्य दिखाती थी ,
और किसी त्राटका की छाया युवक पर पड़ चुकी थी , अब वो सोता नहीं था ,
देखता रहता था एकटक ,
कबूतर कबूतरी के जोड़े , कव्वे , हंस , भँवरे और चिड़ियाएं ,
अल सुबह से देर रात तक सब को मगन देखता था वो ,
उसने काम के सुन्दर और भयावह रूप देखे ,
और कभी कभी चुभते थे उसे स्पर्श ,
वो जानना चाहता था ,
की उसकी प्रेमिका में ऐसा क्या था , जो और किसी में नहीं ,
वो क्या है जो उसे और कुछ भी नहीं भाता , सिर्फ अतीत चाहता है ॥

.................................................................................................

अब प्रकृति के क्रिया कलाप और जीव जंतुओं के आचार व्यवहार देखना ही उसकी दिनचर्या हो गयी ,
उन्हें दौड़ते , खेलते , लड़ते , मरते , मारते , भोग और सम्भोग करते ॥
जिस चट्टान पर वो अक्सर बैठता था ,
उसके पास ही एक गंदले पानी के गढ्ढे में कुछ मेंढक रहते थे ,
जो सांझ होते ही अलग हो हो कर फुदकते लगते ,
पर वो ज्यादा दूर ना जाते थे ,
फिर टर्राने लगते , और जीभ लपका कर उड़ते बैठते कीड़े खाते ,
उनमें कुछ मेंढक अपना गला फुलाकर रंग बिरंगा कर लेते ,
अलग अलग टर्राहटों से अपने साथी को आकर्षित करते ,
साथी के पास आने पर अलग अलग नृत्य मुद्राओं में कूदते फुदकते ,
इस तरह ही पूरी सांझ और रात निकाल देते ॥

उन्हें देखकर उसे अपनी प्रेयसी की याद सताने लगती , उसका गला सूखने लगता तो वो वही गन्दला पानी पी लेता ,
वो बस उसे कम से कम एक बार तो देखना चाहता था जी भर के ,
उसे इन नन्हे मेंढको का भाग्य भी स्वयं से बेहतर लगने लगा ,
अनजाने में पाए दुःख को नियति समझ विधाता को कोसने लगा ,
उसे हर चीज हर बात से शिकायत होने लगी ,
वो समाज को गाली देता , अकेले में बडबडाता , किसी जीव को लकड़ी मरता , किसी पर पत्थर फेंकता ,
पंछियों के अंडे , खरगोश , कबूतर का मांस खाकर जीने लगा , हाल का , सड़ा , कैसा भी ॥

संसार में सुख , दुःख , प्रेम , परिहास का कोई परिमाण (माप तौल) नहीं होता ,
अन्य की तुलना में किसी चीज से वंचित लोग कुंठा का शिकार हो जाते हैं ,
कुंठा से दायरे सिमटने लगते हैं ,
और व्यक्ति किसी कीड़े की तरह एक छोटी सी डंठल को कुरेदने में ही जीवन बिता देता है ॥

वक़्त गुजरा अब उसे किसी बात का ध्यान नहीं रहता था , विक्षिप्त सा , जंतुओं से लड़ता झगड़ता ,
वो विक्षत और बीमार हो चुका था , उसका अंतिम वक़्त वो मेंढक थे , वो या शायद दूसरे ,
जो कभी उसे अच्छे लगते , कभी बुरे और कभी बैचेन करते ,
उनमें वो उदासीन न था , वो उसकी भावनात्मक आसक्ति बन चुके थे ॥

अपनी कुंठा में वो युवक उसी गढ्ढे के पास से उस दृश्य भाग से गुज़र चुका था , ( कुछ गिद्ध जमा थे वहाँ )
आगे वहाँ क्या हुआ क्या पता ,
उसके बाद वो कभी होश कभी बेहोश, घने अंधेरों के बीच रह रहकर सिसकता था और फिर बेहोश हो जाता था ,
जब कभी उसने उठने की कोशिश की तो स्वयं को असंख्य चट्टानों के भार तले महसूस किया ,
पलक उठाना कभी असंभव लगता तो कभी सूरज को आँखे दिखाना ,
अस्तित्व की तलाश में उसका सब कुछ जलता पिघलता जकड़ता सा लगता था ॥

और फिर जब वो उठा था तो उसने खुद को पानी में पाया था ,
हाँ तभी उसकी साँसे चली थी और वो फुदक कर बाहर आया था ॥

...............................................................................................

अजीब सी प्यास सताए रहने लगी उसको ,
भूखी जीभ उड़ते कीड़ों की ताक लगाए रहती ,
और लपक कर मूँह में भींच लेती , पूरी निर्ममता से भींच कर मूंह बंद रखना होता था ,
जब तक फड़फड़ाती वो जान दम न तोड़ देती ,
गीलापन , गन्दगी , रौशनी से डर, आँच की असहनीयता और अकेलापन ,
बाकी मेंढको के बीच उसका मन न लगता ॥

पर कमजोर निरीह मन , भूख ,संवेदनाओं , मृत्यु और कुछ छूट जाने के भय के आगे कब टिका है ,
और वो भी एक छोटे से दायरे में सीमित जीव जिसकी दृष्टि खुले आकाश को देख पाने में असमर्थ हो , उसका मन ,
पर कुछ था जो उसे बाकी से अलग रखता था ,
शायद उसका अकेलापन , कोई गहरी जिज्ञासा , और ह्रदय के अंतर पर ठहरा अस्पर्श्य प्रेम ॥

वो बाकी मेंढकों के साथ ही उनके पीछे उनसे अलग उनसे स्वतंत्र समझ लिए ,
अधिकतर कुछ ना खाए समय बिता रहा था ,
और पिछले सूरज ही तो वो इस ओर आया था ,
अपना पुराना गढ्ढा छोड़कर , जहाँ एक चूहे की सड़ी पडी हुयी देह की दुर्गन्ध से दूर वो किसी ताज़ा हवा की तलाश में था ,
और सांझ होते ही बारिश होने लगी थी ,
वो जाग चुका था , भीतर तक ॥

स्मृतियाँ वक़्त के साथ अंतर्मन पर आवरण बनाने लगती है , और उसके नीचे , बहुत नीचे ,
कहीं गहरे दब जाता है ह्रदय और स्वास्थ्य , फिर रौशनी वहाँ से बाहर नहीं झांकती , मुक्त आकाश भी भय और चिंता का सबब बन जाता है ,
तब सब भूल जाना ही एक उपाय होता है , भावनाओं के सामान्य प्रवाह में मिल जाने तक , चेतना जब तक स्वच्छ न हो ,
और तब पुरानी स्मृतियों से ही बल भी मिलता है , संबल भी , और सबसे जरूरी ज्ञान भी ॥

उसे उसके उद्देश्य ज्ञात हो चुके थे , और वो अब वहीँ रहने लगा , उसी पत्थर पर ,
उसे एक सुकून था वहां और वो रमने लगा ,
एक छोटी सी प्रकृति , एक दुर्बल सा स्वभाव , नन्हा सा मन , अनंत के एक नगण्य हिस्से में रमने लगा था ,
अब उसकी भूख प्यास जाती रही , अकेले , अन्य समकक्षों के साथ न रहने के कारण प्राकृतिक प्रवृत्ति भी जाती रही ,
चेतना पुष्ठ , और स्वच्छ होने लगी , उस पर छाया देह का अँधेरा कम होने लगा ,
अब उड़ कर आये एक सूखे पत्ते की ओट भी उसे पसंद न थी ,
अब वो सर उठा कर देखने लगा था , उस पत्थर को ,
वहाँ उसे अब कोई छत कोई दीवार कोई दायरा नहीं दिखता था ,
सिवाय उस सुकून भरे आसरे , उस पत्थर के ॥
...........................................................................................

दिन गुज़रते गए , और उसकी स्मृति और विस्मृति प्रखर होने लगी ,
याददाश्त समझ और भूल जाने की क्षमता परस्पर एक ही सर्प के तीन मुख हैं जो गर्दन पर उसकी चेतना से जुडी हैं॥

मेंढक निरीह सा जीव था , उसकी स्मृति इतनी स्थिर न थी , पर अब उनकी आवाजाही बढ़ गयी थी ,
कभी कभी उसे अपना विगत याद आता , कभी अपने प्रश्न , कभी प्रेम और कभी पानी ,
कभी कभी अपने प्रश्नों की स्मृति आने पर वो निश्चिंतता से चिंतता था बुद्ध को , वो थे या हैं ,
एक साधारण सदेह मनुष्य का बुद्धा जाना, वो क्या है जो उसे मनुष्य से अलग कीर्ति दे गया ॥

फिर एक दिन मेंढक को जिज्ञासा हुयी , उस पत्थर के ऊपर तक जाने की ,
वो फुदकता हुआ उसकी सभी दिशाओं में यात्रा कर आया ,
और हिस्से जुड़ते गए उसके चेतन में स्थित स्मृतियों के ,
" हाँ ये तो बुद्ध है , और ये बदलाव बुद्ध की शरण है ,
वो ना जाने कब से उसी आधार पर जीवित था ,
ना जाने कितना कुछ गुज़र गया पर कुछ नहीं बदला ,
अचानक वो खामोश हो गया , ये ही तो बुद्ध है ,
उसने नज़र घुमा के चारों और का दृश्य देखा , सब और एक सुकून बिखरा हुआ था ,
आसमान में बादल न थे , पर सब तरफ बरस रही थी ख़ामोशी ,जो जमीन पर बिखर रही थी शीतल होकर ,
पृथ्वी ने स्वच्छ चेतना की चादर ओढ़ ली थी और उसकी मिट्टी से उठ रही थी सुगंध , वातावरण को महकाती हुयी ॥

मेंढक शांत हो गया , पूर्ण स्तब्ध , जैसे दृश्य प्रकाश थम गया हो ,
वो सब जानता था बस इस ही एक बात के अलावा , वो सब जानता था ,
प्रारब्ध से अब दृश्य नहीं सिर्फ कुछ ध्वनि आ रही थी , जो उसके मन से गुज़र रही थी ,
शुरुआत का छोर कुछ भी हो वो यहीं पूर्ण कहलाता है , सबका अंतिम लम्हा यही है ,
कहानी कहीं तक जाए शुरुआत यहीं से होती है , सबका जन्म समय भी यही है ॥

पूर्णता , हर लम्हे पूर्ण होती है और वो अपनी पूर्णता से थकती नहीं ,
पूर्णता भरी होती है अनंत उपलब्धियों से पर इससे उसकी पात्रता कम नहीं होती ,
जीवन सब और दुःख है और यहीं विरक्ति है ,
जिजीविषा ही जिज्ञासा है , बुभुक्षा भी और मृत्यु कहीं नहीं है ,
जानना भर जान लेना है और यहाँ कभी कुछ नहीं बदलता ॥

उसका यहाँ तक का सारा जीवन विगता गया , स्थिर हो गया ,  कभी न बदलने वाला अतीत ,
सारी अनुभूतियाँ अनुभूत हो गयी ,उसकी तृष्णा गुज़र गयी ,
मन मस्तिष्क से विरक्त हो चेतना तक पहुँच गया ,
सब कुछ जाना हुआ बुद्धि से बोध हो गया ॥

एक पल को वहाँ सिर्फ आनंद था ,
संसार न था ,
और फिर
सिर्फ एक स्थिर संसार , शेष ,
और बोध जो उसमें निर्बाध गति देखता रहा , बोध जो अविशेष था ,
(बोध जो न एक कहा जा सकता है न शून्य न ही अनंत , उसमें परिमाण का गुण नहीं , न ही कोई विशेषता ,
और इसीलिए वो हर परिमाण का आधार बनता है , समय का भी , गति का भी , कर्म का भी , न्याय का भी ) ॥

युवक को सदा से जीवन से लगाव था , फिर प्रेम से हुआ , फिर पानी से , और अब शांति से ,
जंगल में चर्चा थी , किसी बुद्धिमान मेंढक की फैलाई हुयी कि अमुक मेंढक बुद्धा गया ॥

उस समय एक मेंढक पौधे की छाँव में फुदक रहा था ,
एक तितली पंख फैला रही थी ,
और एक भंवरा फूल पर मंडरा रहा था ॥

" सब कुछ पुनः सोये हुए बुद्ध की शरण में "

....................... (बुद्धं शरणम् गच्छामि ) ...................

..............................................................................


अ से 

" कठ पुतली "

ये काष्ठकार जानता था ,
काठ के खिलौने आखिर कब तक मन बहलाते ,
जब बच्चों का मन भर जाता है तो वो नहीं खरीदे जाते ॥
पर प्रश्न जीवन का था हमेशा की तरह , और वो एक सृजन ही उसका कुल धन था !!
बस ,
फिर उसके दिल में ये ही उठता रहा की जब प्रश्न सदा से जीवन का ही है ,
तो क्यों न जीवन ही डाला जाए इन लकड़ी के खिलौनों में ,
और बात दिल में बैठ गयी ॥

मूर्त से अमूर्त तक सब कुछ छान डाला उसने ,
की कोई मिले जो उसके खिलौनों में जान फूंक सके ,
शास्त्र कहानियाँ सुन उसने शिव-पार्वती की आराधना की ,
पार्वती जी प्रसन्न हुयी , शिव जी की कृपा से खिलौने जीवंत हो उठे ,
काष्ठकार खुश हुआ और खिलोनों को पकड़ने दौड़ा ,
उसका हाथ लगते ही वो सब मिटटी हो गए ,
उसने पूछा ये क्या ,
शिव बोले- धर्म ! इन्हें जीवन तो मिल सकता है पर तुम्हे नियंत्रण नहीं इन पर ,
काष्ठकार बोला , प्रभू मुझे कोई और उपाय बताओ ,
शिव ने कहा किसी के जीवन पर तो तुम्हे अधिकार नहीं दिया जा सकता ,
पर इन पुतलों को जीवन की नक़ल दी जा सकती है ,
तुम इन्हें ऐसे ही दिखाओ जैसे ये जीवित हो जाते हों और अपनी आजीविका चलाओ ,
हाँ पर जब तुम इन्हें जीवित दिखाओ तो इन्हें हाथ लगाना जीवन धर्म के विरुद्ध होगा ये ध्यान रखना ॥

और तब पार्वती जी ने उसे कुछ " प्राकृत देव सूत्र " ,खिलोनों पर नियंत्रण के लिए दिए
और महादेव ने उसे दिए दो दिव्य ज्ञान , उसके खेल में रचना की दिक् दृष्टि से , " कला और कौशल " ,
और वो दोनों अपने स्वयं बोध में सिमट गए ॥


काफी मेहनत के बाद आखिर वो खुश था ,
उसकी उंगलियों के इशारे पर उसके खिलौने एक जादू रचने लगे थे ,
अपने काठ के पुतलों , देव सूत्रों और कला कौशल के सहारे वो जीवंत कर देता था एक कठपुतली , एक दृश्य ॥
( पुतला - बनावटी देह , पुतली - आँख का गोलक , कठ - जड़ ,सांसारिक )
( कठ पुतली का अर्थ सांसारिक आँख या सांसारिक दृश्य से है ॥ )

खेल तमाशा चलने लगा , मनोरंजन , ज्ञान , आश्चर्य और अनुभव हर तरह से ये पसंद किया जाने लगा ,
कहानियाँ फैलने लगी लोक मानस में ,
और हर सृजन की तरह इसकी भी शाखाएं फैली ॥

पर हर सृजन की तरह , रचनाकार अपनी ही रचना के मोह में फंस गया ,
न होते हुए भी , वो उसमें जीवन देखने लगा ,
आनुपातिक रूप से अब कठपुतलियाँ चेतन होने लगी और काष्ठकार जड़ , बुद्धि और आत्म के सम्बन्ध की तरह ,
उसे पुतले ( यहाँ मूर्त की तरह प्रयुक्त हुआ है ) में ममता हो गयी ,
वो उसके सहारे जीवन को अनुभूत करने लगा ,
उन कहानियों में बसने लगा , उसकी हर वेदना संवेदना के प्रति वो सजग हो उठा ,
उसे सजाने लगा , सर्दी गर्मी से बचाने लगा , अपने ख़ास पुतले की तरह दुसरे पुतलों में भी उसकी चेतना उलझने लगी ,
और एक दिन उसने खुद को एक काठ का पुतला पाया !!

वो अहम् गर्वित हो उठा ,
उसने फूंक दिए थे प्राण एक पुतले में ,
जिस पर वो नियंत्रण भी कर सकता था क्योंकि ये जीवन उसका स्वयं का था , जीवन धर्म के विरुद्ध न था ,
और वो उसकी सहायता से रच सकता था ,स्वांग ...
............................................................................... ( १/२ जारी )

कठपुतली (2/2) ....

गली - गली , दर - पहर , वो अब नए नए स्वांग रचाने लगा ,
नित्य अजब अनोखे आयामों से जीवन कठपुतलीयाँ गाने लगा ॥

अब रचना और रचनाकार अलग अलग नहीं थे ,
और ना ही कहानियाँ ,
कहानियाँ ही जिंदगी बन गयी थी ,
उनसे अलग अस्तित्व को देखा जा सकना संभव न था ॥

दिखावटी दुनिया का हिस्सा बन जाने पर , सच झूठ को अलग रख पाने का साहस ह्रदय खो देता है ,
अब वो बस उसके सुखों दुखों में रच बस सा जाता है ,
हर संभव प्रयास होता है , सुखों की प्राप्ति (राग) और दुखों से दूर जाने का (द्वेष) ,
अंतर्द्वंद अन्तः करण बन जाते हैं ,
सुकृत दुष्कृत नियमोंमयी जमुना सभ्यता पनपने लगती है ,
मूल भावों की गंगा मैली होने लगती है ,
और फिर वो दिन भी आता है जब यमुना का पानी भी प्यास नहीं बुझाता ,
अब वो शीतलता से गीलेपन की दिशा का रुख कर लेता है ,
नाभि चक्र की सजगता दिनों दिन घटने लगती है ,
अमृत बहता नहीं , घड़े में भरने लगता है , भार हो जाता है ॥

अब कठपुतलियाँ जन मानस का मन उकता चुकी थी ,
उन्हें चित्र विचित्र आयाम देने के बेमायनी प्रयास किये जाने लगे ,
पर इन उत्तेजनाओं और प्रमादमय प्रयासों से कौशल खोने लगा ,
कला चुकने लगी ,
कमजोर पड़े पुतलों की जान संकट में आने लगी ,
जर्जर प्रतिमानों की तरह से वो दर बदर ठोकरें खाने को मजबूर थे ,
शोक दुःख और बैचेनी रुपी अस्थिर वायु राक्षस सब ओर मंडराने लगे ,
सूरज का प्रकाश धरा तक रह रहकर पहुंचता था , बरसातें अब नियमित ना थी
कोई उपाय नज़र नहीं आता था ॥

और अब एक पुतला संकल्प ले बैठा फिर से काष्ठकार बनने का ,
उसने जाना था विगत कठपुतलियों से अपना इतिहास ,
उसने की शिव की आराधना ,
वैराग का अनुसरण किया ,
मथने लगा वो दृश्य सागर को ,
सत्य का घृत ऊपर आना जरूरी था ,
जिसकी नौका पर चेतना किनारे लगे ॥

-----------------------------------------------

पर इसके लिए जरूरी था एक युद्ध ,
कर्तृत्व के काले नाग से ,
वो भी कृत संकल्प था ॥

वर्षों तक घोर संघर्ष हुआ ,
कर्म से कर्म को मिटाना संभव न था ,
कर्म पाला बदलने लगते थे ,
तब शिव ने उसे दी अपने तीसरे नेत्र की प्रकाश प्रतीति ,
अब वो अपने युद्धक कर्मों को एक नयी दृष्टि से देखने लगा ,
उसके कार्य उसे सत्य का बोध देने लगे ,
जो अगले कार्यों को बल देते थे ,
और युद्ध की दिशा पलटने लगी ,
अंततः
हर ओर प्रकाश भर गया , तीसरा नेत्र पल भर को सच हो उठा ,
वायु राक्षस आकाश सी शून्यता में लय हो गये ,
और फिर एक ज्योति पुंज हो कर शिव मस्तक में यथास्थान विराजमान हुआ ,
नाग का विष बुझ चूका था , वो भी शून्य शिव देह में कहीं रम गया ,
सभी पुतले अब तक स्थिर हो चुके थे ,
कहीं कोई विकृत गति शेष न थी ,
और गंगा का प्रवाह बड़ गया ॥

बहुत पुराना सा कोई दृश्य ताजगी शीतलता और नयापन लेकर धरा पर आसीन था ॥
----------------------------------------------------------------------(२/२ कठपुतली )

< अ-से >

देखें क्या है आज खाने में ...



देखें क्या है आज खाने में ,
सोचकर वो रसोई में घुसा,
और बल्ब जलाने के लिए उठे हाथो के बोझ के साथ ही उसे याद आया ,
बिजली का बिल भरना था ,
अब पिताजी की डांट .. चलो खा लेगा,
पर
समस्या अब भी वहीँ है,
कुछ हफ्ता भर ही हुआ होगा
जोश में आकर नौकरी छोड़ दी थी
बॉस की लताड़ खाकर ,,
आजकल धक्के खा रहा है ,
बसों के ,
पेट्रोल महंगा है बिना जॉब फ़ालतू लोड पड़ेगा,
इसलिए धूप में गश खा रहा है ,
ये जायके तो अब जिंदगी के मायने से हैं
सो कोई समस्या नहीं ,
पचाना मुश्किल था तो कल
उसकी प्रेमिका की झाड ,
आखिर तुम्हे ही कोई जॉब क्यों नहीं मिलती
और मिलती हे तो चलती नहीं,
बल्ब जला,
और उस आभा में स्टील के दमकते बर्तनों से याद आया ,
माँ का वो कलाम ,
दो बर्तन घर में कभी लाया नहीं और हुकुम चलाने लगा है,
बाहर गालियाँ खाना तो उसकी आदत सी है ,
कोई समस्या नहीं सब पच जाता है ,
पर घर पे गम खाना मुश्किल है,
आखिर बात तो सही ही है ,
कितने पुराने से हैं ये बर्तन ,
कुछ तो माँ के दहेज़ के ही रहे होंगे ,
वो सुनता हे फिर एक आवाज ,
माँ की ,
नौकरी मिली .. नहीं .. अच्छा खाना खा लेना ,
"नहीं माँ ! पेट भरा है , बहुत खा लिया आज । "

अ से 

काल कचहरी


काल की कचहरी में महकमा जमा है,
ह्रदय पुरुष खुद जज बना है ,
अव्यक्त प्रकृति क़ानून भी है ,
मुकदमा भी और जिरह भी,
व्यक्त संसार सबूत के साथ,
मेरी सजा बना है ॥

गुनाहगार था मैं ,
उस गुनाह का ,
जो अनजाने में मुझसे हो गया था ,
अज्ञान को जिजीविषा,
और ज़िन्दगी को आनंद समझ बैठा ॥

उनकी नज़रो में ,
एक कर्तव्य के लिए ,
जन्मा था में ,
की शाखाएं फैलने पर सींच सकू उन्हें भी ,
जिन्होंने एक कोंपल मात्र से मुझे तना बना दिया ॥

और आज अपनी असफलता की सजा सुनने ,
मन के कटघरे में खड़ा हूँ ,

सज़ा भी पता है मुझे,
इस शरीर के सीखचों में कैद कर मुझे ,
अनेक यातनाएं दी जाएँगी ,
मेरे अहम् को धिक्कारा जायेगा ,
और मेरे मन पर हंसा जाएगा ,
और गर इससे भी न टूटा मैं ,
तो मुझे तपाया जाएगा ॥

पर बात दृश्य की नहीं ,
न्याय की है ,
नीति की है ,
उन संस्कारों की है ,
जो मेरी रीड बने थे ,
और आज मुझे अनैतिक कर्तव्यों का भान करा कर ,
कोसते हैं मेरे अस्तित्व को ,
और आरोप करते हैं मुझ पर ॥

कैसी वीभत्सता है इस दृश्य की ,
कि गुनाह भी मैं हूँ ,
गुनाहगार भी ,
हमदर्द भी ,
और सबसे बुरा
खुद न्याय भी ॥

< अ-से >

बुढ़ापा



ह्रदय ठोस हो गया है ,
उसके स्थान पर जिस्म फड़फडाता है ,

एक बैचेनी अटकी रहती है आँखों में
एक हलके से धक्के पर साँस अटक जाती है ,

अब कुछ भूलना मुश्किल होता है ,
जबकि याद कुछ नहीं आता ,

कुछ पुराने रूमानी दृश्य चोट पहुंचाते हैं मस्तिष्क को ,
बेरुखी विषबुझे तीरों से भेदती है ह्रदय के मर्म स्थानों को ,

बच्चों की वो भोली और मासूम मुस्कान
वो निश्चल हँसी जो कभी अमृत घोलती थी ,
हवा में बहती खिलखिलाहट जो खनकती थी कानो में ,
अब हजारों भुतहा चेहरों से अट्टाहास करती है ,
अंतस को हर एक कर्ण छिद्र से बहरा कर देती है ,

शर-शैया पर सोया है वर्तमान उसका ,
अतीत का हर एक झोंका देता है असहनीय तकलीफ ,

जिसको उसने तराशा था ,
एक मूर्तिकार की तरह ,
और दी थी लौ अपनी  ,
साँझ की रौशनी के लिए
आज वो ही देता है उसे दुत्कार ,
जगह देता है बस कोनों में चार ,
निकाल देता है कभी दखल से ,
कभी घर से बाहर ,
और खड़े  करता है सवाल ,
उसके अस्तित्व पर ! ... ( बुढ़ापा )

अ से

अन्तःसूत्र

..................... अन्तःसूत्र  ........................

जादूगर की जान तोते में थी ..
तोता विरही निकला ,
एक दिन आत्महत्या कर बैठा ,
जादूगरी काम न आ सकी ॥

सोणी महिवाल , लैला मजनू , हीर राँझा , सस्सी पुन्नू ,
रोमियो जूलियट , शीरी फ़रियाद और न जाने कितने ,
बंधे थे ... अंतस के प्राण सूत्र से ,
एक का दर्द दूसरा न सह सका ॥

पुत्र में ममता थी ,
उसकी मृत्यु के प्रमाण भर से द्रोण ने युद्ध और संसार दोनों छोड़ दिया ,
भुजाओं का अकूट महासंग्राम ,
ह्रदय की सूक्ष्म सी नाड़ी पर जाकर थम गया ॥

नीड़ का निर्माण भी जरूरी था ,
एक तिनका भर संपत्ति के लिए हुई महाभारत में ,
एक चिड़े ने दम तोड़ दिया ,
चिड़िया जीत कर भी खुश न थी ,
घायल अवस्था में भी उसे बच्चों के लिए दानों का इंतज़ाम करना था ॥

जब इज्ज़त पर आ गुज़री ,
पुजारी और पादरी कुछ शब्दों की जंग में दो सियासत लड़ा बैठे ,
मौलवी खुदा का शुक्रिया अदा करने निकल पड़े ॥

उसकी देशभक्ति उसका जूनून बन गया ,
विगत इतिहास की बेईज्ज़ती का बदला उसने प्रारब्ध तय किया ,
प्रकृति से भी क्रूर , बहती खून की नदियाँ ,
एक-एक हिटलर ने समाज - सभ्यता पर तमाचा जड़ दिया ॥

इधर सावन झूम कर बरसा है ,
प्रेम सजल से भीगकर पत्ता पत्ता निखरा है ,
अमृत- तृप्त धरा पर हरा बचपन उभर आया है ,
पतझड़-जर अनंत अंधेरों में गहराया गया है ,
और आज शेर भी हिरन के संग नदी की तरफ निकला है ॥

ममता में निकले गए कितनों के प्राण ,
अपनत्व ने ली कितनो की जान ,
भाईचारे के कारण सारा युद्ध छिड़ा है ,
मोह के तिनके पर संसार खड़ा है ,
आँखों में यादों का जाला पड़ा है
विस्मृति-अमृत को संसार भूला पड़ा है ॥

------------------------------------------------------------------ < अ-से >
बैठे हों खामोश फिर अजीब बात का होना ,
याद भर से उनकी गुदगुदाहट का होना ॥

जो सामने वो होते तो कुछ कहते नहीं बनता ,
वरना फिर खयालों से भी आवाज़ का होना ॥

दौड़ कर कर लेना फिर पार यूँ ही दरिया ,
पहुँच के दर पर क़दमों की इनकार का होना ॥

और वो एहसास पा लेने का जन्नत को ,
वो आँखों से जो गुजरे तो सांझ का होना ॥

नर्म धूप छाँव सा बदलता सा वक़्त , और
रह रहकर तेरी यादों की बारिश का होना ॥ .................. पहले पहल ॥
अश्वत्थ सा आत्मकेन्द्रित, तुलसी सा रतमग्न विज्ञान ,
साध, भक्ति और समर्पण के साथ ।

गन्ने और बाँस सा बढता उत्तरोत्तर ज्ञान ,
सुगंध और मिठास की निश्चित दिशा लिए ।

आम्र सा फलदायी , नीम सा गुणकारी ,
अपने को उपयोगी बनाने की होड़ में ।

विध्या के पौधे सा निर्वेद ,
शाखाओं की अनन्तता का भान कराता हुआ ।

वृक्ष से मूल , पौधे से बीज तक की यात्रा है ज्ञान विज्ञान ,
ना की बरगद की तरह फैलते विचारों को अस्तित्व देने का नाम ।

जमीन पानी और हवा हर जगह जडें फ़ैलाने वाला ,
सारे रसों और वेदनाओं में फंसा हुआ ,
हर ओर बढता फिर भी दिशाहीन ,
बिना लक्ष्य फैलता ,
कुबेर की तरह संचय को ही जीवन माने हुए ।

एक प्राचीन कहावत है , " बरगद और पीपल एक दुसरे की छाया तले नहीं पनपते " ,
कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान दुनिया में उन लोगों की है ,
जिनके लिए जीवन साधना और बोधि-वृक्ष हुआ करता है ॥

................................ < अ-से > .............................................
एक पल पल जलता रहा ,
एक उस पर रोटी सेकता रहा ,
और एक खाता रहा ,
जब तक की एक तीनों को निगल नहीं गया ॥

खाने वाला निवाला बन गया ,
सेकने वाला ज्वाला बन गया ,
और जलने वाला खुद निगलने वाला ॥

एक दोमुँहा सांप सबको निगल जाता है ,
केंचुली बदलकर बाहर आता है वक़्त ॥

पाँच उँगलियाँ और एक अँगूठा विद्रोही हो गए ,
और बाँह कोहनी से अलग चलने लगी ॥

एक ही व्यक्ति की आठ स्त्रियाँ झगड़ने लगी ,
प्रेम के अभाव में वो ख़ुदकुशी करने निकल पड़ा ॥

२ ८ स्त्रियाँ उसे ३ रस्सियों से बाँध कर धीरे धीरे रात के समुद्र में खींचने लगी ,
कोई चारा न देखकर उसने खुद से ही ब्याह रचा लिया ॥

अब आठों स्त्रियाँ बेसहारा हो चुकी थी ,
उनका पति उनकी सौत बन चुका था ॥

घर के अभाव में एक खुद में ही रहने लगा ,
अब वो दिखाई नहीं देता ॥

दिशाओं के हाथी चिंहाड़ने लगे ,
जब एक ने उन्हें देखा हवा को रोक कर ॥

सदियों से रुका एक फव्वारा अचानक चल पड़ा ,
जब एक को फुर्सत मिली चैन से बैठने की ॥

एक वृद्ध बैठा है ध्यानमग्न ,
दसों और खेल रहें हैं बच्चे उसके ॥ .......... ............ .............. दृश्य ॥
-------------------------------------------------------------------- अनुज ॥
कोई रात अंधियारी नहीं होती ना ही कोई दिन दीप्त ।
सूरज कब सोता है भला रात कब जागती है ॥

अबोध अनजान तप्त अशांत
बैचेनी भरा अन्धकार ,
मेरा दोष भर ।
सरल मृदु शीतल महान
नर्म तेज प्रकाश ,
एक होश भर ॥

वो जो न रातों में सोता है ,
वो जो ना बातों में खोता है ,
वो जो न ख़ुशी में भीगता है ,
वो जो ना दुखों में रोता है ॥

रत है सतत है सतत रत है सदा ,
न रुकता है ना ही चलता है ,
देखता है सबकुछ ,
पर दृश्यों में नहीं खोता है ॥

न अन्दर है ना बाहर
पर जाहिर है सदा ,
ना जीता है न मरता ,
और हाज़िर है सदा ॥ ........ ............ ................. प्रकाश ॥
.................................................................. अनुज ॥
इन शब्दों को बहुत गौर से सुना है मैंने ,
अपनी उदगार के बाद से ही धीमे और धीमे और धीमे से हो जाते हैं ,
पर कभी खामोश नहीं होते ,
उस धीमी हो चुकी ध्वनि के पीछे अपने कान ले जा सकूँ ,
और सुन सकूँ ,
जो भी उसने कहा था , उस वक़्त ,
वो शब्द वो घोष वो उदगार वो गूँज वो खिलखिलाहट वो नाद वो आल्हाद वो सभी बातें ,
वो सब यहीं हैं ,
मुझे पता है ,
पर बहुत शांत सी हो चुकी हे ध्वनि ,
और बहुत शोर है मेरे मन में ,
सामाजिक ताप से दग्ध ह्रदय में ,
हाय-तौबा से कम्पित कर्ण पटलों में सामर्थ्य नहीं दीखता ,
सुन सकें,
उस मधुर कविता को ,
उन गीतों को जो वक़्त ने पिरोये थे मेरे लिए ,
सिर्फ मेरे लिए ,
और वो समाते जा रहें हैं इस शून्य बेपरवाह आकाश में ,
ओ दुनिया ! चुप हो जाओ , मुझे सुन लेने दो ,
क्या कहा था उसने ,यहीं इसी जगह,
बहुत वक़्त पहले ....!! ................अनुज अग्रवाल (repost)