Oct 16, 2013

काल कचहरी


काल की कचहरी में महकमा जमा है,
ह्रदय पुरुष खुद जज बना है ,
अव्यक्त प्रकृति क़ानून भी है ,
मुकदमा भी और जिरह भी,
व्यक्त संसार सबूत के साथ,
मेरी सजा बना है ॥

गुनाहगार था मैं ,
उस गुनाह का ,
जो अनजाने में मुझसे हो गया था ,
अज्ञान को जिजीविषा,
और ज़िन्दगी को आनंद समझ बैठा ॥

उनकी नज़रो में ,
एक कर्तव्य के लिए ,
जन्मा था में ,
की शाखाएं फैलने पर सींच सकू उन्हें भी ,
जिन्होंने एक कोंपल मात्र से मुझे तना बना दिया ॥

और आज अपनी असफलता की सजा सुनने ,
मन के कटघरे में खड़ा हूँ ,

सज़ा भी पता है मुझे,
इस शरीर के सीखचों में कैद कर मुझे ,
अनेक यातनाएं दी जाएँगी ,
मेरे अहम् को धिक्कारा जायेगा ,
और मेरे मन पर हंसा जाएगा ,
और गर इससे भी न टूटा मैं ,
तो मुझे तपाया जाएगा ॥

पर बात दृश्य की नहीं ,
न्याय की है ,
नीति की है ,
उन संस्कारों की है ,
जो मेरी रीड बने थे ,
और आज मुझे अनैतिक कर्तव्यों का भान करा कर ,
कोसते हैं मेरे अस्तित्व को ,
और आरोप करते हैं मुझ पर ॥

कैसी वीभत्सता है इस दृश्य की ,
कि गुनाह भी मैं हूँ ,
गुनाहगार भी ,
हमदर्द भी ,
और सबसे बुरा
खुद न्याय भी ॥

< अ-से >

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