Oct 16, 2013


(painting.. is of great artist Salvador Dali !!)
पिछली रातों को मुझे कुछ होश नहीं था ,
किसी अलग जहाँ में कहीं अलग थलग सा पड़ा था ,

जब मैंने देखा उठकर ,
बेरीढ़ सा पड़ा था सबकुछ ,
गला, चिपका , लटका हुआ सा ॥

आदमी बोतल में बंद थे , पिघले हुए , डूबते हुओं की सी बचने की गुहार लगाते ,
पर उनकी आवाज भेद नहीं सकती थी कांच की दीवारें ॥

कुर्सी पर बैठी अकड़ अब लटक चुकी थी ,
ताज एक ओर ढुलका हुआ था , राज एक ओर ॥

जले हुए अरमान चिमनियों से निकल रहे थे ,
और पिघली हुयी चेतना नालियों से बह रही थी ॥

संगीत के नाम पर बस रूदन था ,
ना ना चीखें नहीं थी ,
कुछ गले सूख चुके थे और आंसू तेज़ाब होकर खींच चुके थे लकीरें, गालों पर ,
बस कुछ नर्म गलों का रूदन था , करुण क्रंदन ॥

धरा बंज़र की तरह सूनी थी ,
कुछ मवेशी झाग टपकाते लड़खड़ाते क़दमों से चलकर , गिर जाते थे ॥

जब मुझसे और देखा नहीं गया ,
मैं वहां से आगे निकला ,
कहीं दूर इस सबसे बेखबर , रंगीन रोशनियाँ थी ,
तारे चमक रहे हों जैसे ज़मीन पर रंग बिरंगे ,
कुछ आवाजें भी आ रही थी , मैंने आगे जाने का फैसला किया ॥


वहाँ पूरा शहर बसा था इस्पात का , कुछ रोबोट चला रहे थे उसे ॥

हर और बेतहाशा दौड़ रही थी कुछ मशीनें , ऊपर ,नीचे , दायें , बायें ,
सतह और दीवारों में भी और उनके आर पार भी ॥

बहुत बेहतरीन कारीगर सी वो मशीनें पलक झपकते ही बदल देती थी दृश्य और आयाम ,
कुछ रुकता न था , बेतहाशा दौड़ा जाता था ॥

वहाँ सूरज नहीं चमक रहा था ,
पर अनेकों गोल सीधी घुलती मिलती सी रोशनियाँ थी ॥

पास से गुज़रते हुए नज़र आया ,
वहाँ इस्पात की कोई इलेक्ट्रॉनिक भट्टी थी ,
और उनमें झोंका जा रहा था वो सब कुछ ,
जो कभी मेरी दुनिया कहलाता था ,

इंसान , जानवर , पेड़ , पहाड़ ,
नदियाँ , हवा सब कुछ ॥

हाँ , लाखों की संख्या में कुछ गले सड़े ह्रदय पड़े थे , एक ओर, एक गहरी खाई में ,
ह्रदय उनके और किसी काम के न थे ,
उन्हें नींव भरने के काम लिया जा रहा था ,
जिस पर खड़े हो रहे थे ऊंचे ऊंचे इस्पात के ढांचे ॥

एक विस्फोट की आवाज़ से मेरी नींद .... फिर से खुली ,
मैंने जाना की मैं वर्तमान देख रहा था ॥ ............................... अ-से अनुज ॥

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