यूँ भी अगर मिल जाता जो चाँद मुझे ,
बेबस रात की परछाइयों में क्या मुलाकात होती ,
मद्धम रौशनी से हिलते , तेरे होठों की सरगोशी ,
घिर आते अँधेरों में आ खामोश होती ,
सुबह न होने की आरज़ू , फिर यही रात होने की दुआएं ,
और फिर सब की सब बेअसर होती ,
जाना मुझे भी होता है , जाना किसी को नहीं होता ,
पर चाहने न चाहने की कोई बात नहीं होती ,
न मिल पायी तुम कोई अफ़सोस नहीं होता ,
अफ़सोस तब होता है जब तुम साथ नहीं होती ॥
................................................................अ-से अनुज ॥
No comments:
Post a Comment