जय-गाथा :
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प्रलय के पश्चात .... एक दीर्घ काल तक ... सब शून्य था ... चेतना को जगत का बोध नहीं था ॥
अमावस की रात्रि के घने अन्धकार के पश्चात् ,
जिस तरह सूर्य उदित होता है कुछ उसी तरह ......
जब ये जगत ज्ञान और प्रकाश से शून्य और अन्धकार से पूर्ण था ....
तब चेतना के पूर्व से एक बहुत बड़ा गोलाकार अण्ड उदित हुआ ,
वो दिव्य , शक्त और ज्योतिर्मय था ,
वो सत्य बोध , सनातन और ज्योतिर्मय ब्रह्म था ॥
वो ब्रहम कल्पना और सत्य कुछ भी कहा जा सकता है ,
वो सर्वत्र सम , एक रस , और अविभेद था ,
मात्र कारण स्वरूप ॥
वो अविचारणीय और अलौकिक बोध मात्र था ॥
उस निजबोध , चेतन अण्ड से "अनुग्रह रूप लोक पितामह ब्रह्मा " उत्पन्न हुए ॥
सत्यकल्प ब्रहमा , स्वतः सृजन शक्ति हैं ,
जिस तरह से ऊष्मा और प्रकाश अग्नि की सहज शक्तियाँ हैं ,
और वो उससे अलग नहीं ,
ठीक उसी तरह सृष्टि सृजन ब्रह्मा से भिन्न नहीं,
वो स्वयं सत्य गुण हैं और उनकी कल्पना उनके संयोजन से सत्य रूप ही होती हैं ॥
उस ब्रह्मा की कल्प सृजन की सहज शक्ति से अन्य प्रजापति , प्रचेता , दक्ष
, पुत्र , ऋषि , आदि मनु , विश्वेदेवा , आदित्य , वसु ,अश्विनीकुमार ,
यक्ष , गन्धर्व , राजर्षि , जल , ध्यो , पृथ्वी ,वायु आकाश ,दिशाओं ,
संवत्सर , ऋतू , मास ,पक्ष , दिन और रात सहित ये पूर्ण जगत अस्तित्व में
आया ॥
ये चराचर जगत प्रलय के समय जिस चेतना में विलय होकर सुप्त होता है ,
प्रभव के समय उसी से उत्पन्न होता है ॥
जैसे ऋतू आने पर उसके सभी प्रभाव स्वतः ही प्रकट होने लगते हैं ,
और समय ख़त्म होने पर स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं ,
उसी प्रकार जगत का और जगत के सभी प्रभावों का काल के अनुसार ,
स्वतः प्रभव और प्रलय निरंतर चलता रहता है ॥
ये कालचक्र जिससे सभी की उत्पत्ति और विनष्टि होती है ,
अनादि और अनंत रूप से सदा चलता रहता है ॥
.................... ( जय सहिंता के अनुसार .... क्रमशः ) ........................................
...................................................................................... अ-से अनुज ॥