Oct 16, 2013

" कठ पुतली "

ये काष्ठकार जानता था ,
काठ के खिलौने आखिर कब तक मन बहलाते ,
जब बच्चों का मन भर जाता है तो वो नहीं खरीदे जाते ॥
पर प्रश्न जीवन का था हमेशा की तरह , और वो एक सृजन ही उसका कुल धन था !!
बस ,
फिर उसके दिल में ये ही उठता रहा की जब प्रश्न सदा से जीवन का ही है ,
तो क्यों न जीवन ही डाला जाए इन लकड़ी के खिलौनों में ,
और बात दिल में बैठ गयी ॥

मूर्त से अमूर्त तक सब कुछ छान डाला उसने ,
की कोई मिले जो उसके खिलौनों में जान फूंक सके ,
शास्त्र कहानियाँ सुन उसने शिव-पार्वती की आराधना की ,
पार्वती जी प्रसन्न हुयी , शिव जी की कृपा से खिलौने जीवंत हो उठे ,
काष्ठकार खुश हुआ और खिलोनों को पकड़ने दौड़ा ,
उसका हाथ लगते ही वो सब मिटटी हो गए ,
उसने पूछा ये क्या ,
शिव बोले- धर्म ! इन्हें जीवन तो मिल सकता है पर तुम्हे नियंत्रण नहीं इन पर ,
काष्ठकार बोला , प्रभू मुझे कोई और उपाय बताओ ,
शिव ने कहा किसी के जीवन पर तो तुम्हे अधिकार नहीं दिया जा सकता ,
पर इन पुतलों को जीवन की नक़ल दी जा सकती है ,
तुम इन्हें ऐसे ही दिखाओ जैसे ये जीवित हो जाते हों और अपनी आजीविका चलाओ ,
हाँ पर जब तुम इन्हें जीवित दिखाओ तो इन्हें हाथ लगाना जीवन धर्म के विरुद्ध होगा ये ध्यान रखना ॥

और तब पार्वती जी ने उसे कुछ " प्राकृत देव सूत्र " ,खिलोनों पर नियंत्रण के लिए दिए
और महादेव ने उसे दिए दो दिव्य ज्ञान , उसके खेल में रचना की दिक् दृष्टि से , " कला और कौशल " ,
और वो दोनों अपने स्वयं बोध में सिमट गए ॥


काफी मेहनत के बाद आखिर वो खुश था ,
उसकी उंगलियों के इशारे पर उसके खिलौने एक जादू रचने लगे थे ,
अपने काठ के पुतलों , देव सूत्रों और कला कौशल के सहारे वो जीवंत कर देता था एक कठपुतली , एक दृश्य ॥
( पुतला - बनावटी देह , पुतली - आँख का गोलक , कठ - जड़ ,सांसारिक )
( कठ पुतली का अर्थ सांसारिक आँख या सांसारिक दृश्य से है ॥ )

खेल तमाशा चलने लगा , मनोरंजन , ज्ञान , आश्चर्य और अनुभव हर तरह से ये पसंद किया जाने लगा ,
कहानियाँ फैलने लगी लोक मानस में ,
और हर सृजन की तरह इसकी भी शाखाएं फैली ॥

पर हर सृजन की तरह , रचनाकार अपनी ही रचना के मोह में फंस गया ,
न होते हुए भी , वो उसमें जीवन देखने लगा ,
आनुपातिक रूप से अब कठपुतलियाँ चेतन होने लगी और काष्ठकार जड़ , बुद्धि और आत्म के सम्बन्ध की तरह ,
उसे पुतले ( यहाँ मूर्त की तरह प्रयुक्त हुआ है ) में ममता हो गयी ,
वो उसके सहारे जीवन को अनुभूत करने लगा ,
उन कहानियों में बसने लगा , उसकी हर वेदना संवेदना के प्रति वो सजग हो उठा ,
उसे सजाने लगा , सर्दी गर्मी से बचाने लगा , अपने ख़ास पुतले की तरह दुसरे पुतलों में भी उसकी चेतना उलझने लगी ,
और एक दिन उसने खुद को एक काठ का पुतला पाया !!

वो अहम् गर्वित हो उठा ,
उसने फूंक दिए थे प्राण एक पुतले में ,
जिस पर वो नियंत्रण भी कर सकता था क्योंकि ये जीवन उसका स्वयं का था , जीवन धर्म के विरुद्ध न था ,
और वो उसकी सहायता से रच सकता था ,स्वांग ...
............................................................................... ( १/२ जारी )

कठपुतली (2/2) ....

गली - गली , दर - पहर , वो अब नए नए स्वांग रचाने लगा ,
नित्य अजब अनोखे आयामों से जीवन कठपुतलीयाँ गाने लगा ॥

अब रचना और रचनाकार अलग अलग नहीं थे ,
और ना ही कहानियाँ ,
कहानियाँ ही जिंदगी बन गयी थी ,
उनसे अलग अस्तित्व को देखा जा सकना संभव न था ॥

दिखावटी दुनिया का हिस्सा बन जाने पर , सच झूठ को अलग रख पाने का साहस ह्रदय खो देता है ,
अब वो बस उसके सुखों दुखों में रच बस सा जाता है ,
हर संभव प्रयास होता है , सुखों की प्राप्ति (राग) और दुखों से दूर जाने का (द्वेष) ,
अंतर्द्वंद अन्तः करण बन जाते हैं ,
सुकृत दुष्कृत नियमोंमयी जमुना सभ्यता पनपने लगती है ,
मूल भावों की गंगा मैली होने लगती है ,
और फिर वो दिन भी आता है जब यमुना का पानी भी प्यास नहीं बुझाता ,
अब वो शीतलता से गीलेपन की दिशा का रुख कर लेता है ,
नाभि चक्र की सजगता दिनों दिन घटने लगती है ,
अमृत बहता नहीं , घड़े में भरने लगता है , भार हो जाता है ॥

अब कठपुतलियाँ जन मानस का मन उकता चुकी थी ,
उन्हें चित्र विचित्र आयाम देने के बेमायनी प्रयास किये जाने लगे ,
पर इन उत्तेजनाओं और प्रमादमय प्रयासों से कौशल खोने लगा ,
कला चुकने लगी ,
कमजोर पड़े पुतलों की जान संकट में आने लगी ,
जर्जर प्रतिमानों की तरह से वो दर बदर ठोकरें खाने को मजबूर थे ,
शोक दुःख और बैचेनी रुपी अस्थिर वायु राक्षस सब ओर मंडराने लगे ,
सूरज का प्रकाश धरा तक रह रहकर पहुंचता था , बरसातें अब नियमित ना थी
कोई उपाय नज़र नहीं आता था ॥

और अब एक पुतला संकल्प ले बैठा फिर से काष्ठकार बनने का ,
उसने जाना था विगत कठपुतलियों से अपना इतिहास ,
उसने की शिव की आराधना ,
वैराग का अनुसरण किया ,
मथने लगा वो दृश्य सागर को ,
सत्य का घृत ऊपर आना जरूरी था ,
जिसकी नौका पर चेतना किनारे लगे ॥

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पर इसके लिए जरूरी था एक युद्ध ,
कर्तृत्व के काले नाग से ,
वो भी कृत संकल्प था ॥

वर्षों तक घोर संघर्ष हुआ ,
कर्म से कर्म को मिटाना संभव न था ,
कर्म पाला बदलने लगते थे ,
तब शिव ने उसे दी अपने तीसरे नेत्र की प्रकाश प्रतीति ,
अब वो अपने युद्धक कर्मों को एक नयी दृष्टि से देखने लगा ,
उसके कार्य उसे सत्य का बोध देने लगे ,
जो अगले कार्यों को बल देते थे ,
और युद्ध की दिशा पलटने लगी ,
अंततः
हर ओर प्रकाश भर गया , तीसरा नेत्र पल भर को सच हो उठा ,
वायु राक्षस आकाश सी शून्यता में लय हो गये ,
और फिर एक ज्योति पुंज हो कर शिव मस्तक में यथास्थान विराजमान हुआ ,
नाग का विष बुझ चूका था , वो भी शून्य शिव देह में कहीं रम गया ,
सभी पुतले अब तक स्थिर हो चुके थे ,
कहीं कोई विकृत गति शेष न थी ,
और गंगा का प्रवाह बड़ गया ॥

बहुत पुराना सा कोई दृश्य ताजगी शीतलता और नयापन लेकर धरा पर आसीन था ॥
----------------------------------------------------------------------(२/२ कठपुतली )

< अ-से >

देखें क्या है आज खाने में ...



देखें क्या है आज खाने में ,
सोचकर वो रसोई में घुसा,
और बल्ब जलाने के लिए उठे हाथो के बोझ के साथ ही उसे याद आया ,
बिजली का बिल भरना था ,
अब पिताजी की डांट .. चलो खा लेगा,
पर
समस्या अब भी वहीँ है,
कुछ हफ्ता भर ही हुआ होगा
जोश में आकर नौकरी छोड़ दी थी
बॉस की लताड़ खाकर ,,
आजकल धक्के खा रहा है ,
बसों के ,
पेट्रोल महंगा है बिना जॉब फ़ालतू लोड पड़ेगा,
इसलिए धूप में गश खा रहा है ,
ये जायके तो अब जिंदगी के मायने से हैं
सो कोई समस्या नहीं ,
पचाना मुश्किल था तो कल
उसकी प्रेमिका की झाड ,
आखिर तुम्हे ही कोई जॉब क्यों नहीं मिलती
और मिलती हे तो चलती नहीं,
बल्ब जला,
और उस आभा में स्टील के दमकते बर्तनों से याद आया ,
माँ का वो कलाम ,
दो बर्तन घर में कभी लाया नहीं और हुकुम चलाने लगा है,
बाहर गालियाँ खाना तो उसकी आदत सी है ,
कोई समस्या नहीं सब पच जाता है ,
पर घर पे गम खाना मुश्किल है,
आखिर बात तो सही ही है ,
कितने पुराने से हैं ये बर्तन ,
कुछ तो माँ के दहेज़ के ही रहे होंगे ,
वो सुनता हे फिर एक आवाज ,
माँ की ,
नौकरी मिली .. नहीं .. अच्छा खाना खा लेना ,
"नहीं माँ ! पेट भरा है , बहुत खा लिया आज । "

अ से 

काल कचहरी


काल की कचहरी में महकमा जमा है,
ह्रदय पुरुष खुद जज बना है ,
अव्यक्त प्रकृति क़ानून भी है ,
मुकदमा भी और जिरह भी,
व्यक्त संसार सबूत के साथ,
मेरी सजा बना है ॥

गुनाहगार था मैं ,
उस गुनाह का ,
जो अनजाने में मुझसे हो गया था ,
अज्ञान को जिजीविषा,
और ज़िन्दगी को आनंद समझ बैठा ॥

उनकी नज़रो में ,
एक कर्तव्य के लिए ,
जन्मा था में ,
की शाखाएं फैलने पर सींच सकू उन्हें भी ,
जिन्होंने एक कोंपल मात्र से मुझे तना बना दिया ॥

और आज अपनी असफलता की सजा सुनने ,
मन के कटघरे में खड़ा हूँ ,

सज़ा भी पता है मुझे,
इस शरीर के सीखचों में कैद कर मुझे ,
अनेक यातनाएं दी जाएँगी ,
मेरे अहम् को धिक्कारा जायेगा ,
और मेरे मन पर हंसा जाएगा ,
और गर इससे भी न टूटा मैं ,
तो मुझे तपाया जाएगा ॥

पर बात दृश्य की नहीं ,
न्याय की है ,
नीति की है ,
उन संस्कारों की है ,
जो मेरी रीड बने थे ,
और आज मुझे अनैतिक कर्तव्यों का भान करा कर ,
कोसते हैं मेरे अस्तित्व को ,
और आरोप करते हैं मुझ पर ॥

कैसी वीभत्सता है इस दृश्य की ,
कि गुनाह भी मैं हूँ ,
गुनाहगार भी ,
हमदर्द भी ,
और सबसे बुरा
खुद न्याय भी ॥

< अ-से >

बुढ़ापा



ह्रदय ठोस हो गया है ,
उसके स्थान पर जिस्म फड़फडाता है ,

एक बैचेनी अटकी रहती है आँखों में
एक हलके से धक्के पर साँस अटक जाती है ,

अब कुछ भूलना मुश्किल होता है ,
जबकि याद कुछ नहीं आता ,

कुछ पुराने रूमानी दृश्य चोट पहुंचाते हैं मस्तिष्क को ,
बेरुखी विषबुझे तीरों से भेदती है ह्रदय के मर्म स्थानों को ,

बच्चों की वो भोली और मासूम मुस्कान
वो निश्चल हँसी जो कभी अमृत घोलती थी ,
हवा में बहती खिलखिलाहट जो खनकती थी कानो में ,
अब हजारों भुतहा चेहरों से अट्टाहास करती है ,
अंतस को हर एक कर्ण छिद्र से बहरा कर देती है ,

शर-शैया पर सोया है वर्तमान उसका ,
अतीत का हर एक झोंका देता है असहनीय तकलीफ ,

जिसको उसने तराशा था ,
एक मूर्तिकार की तरह ,
और दी थी लौ अपनी  ,
साँझ की रौशनी के लिए
आज वो ही देता है उसे दुत्कार ,
जगह देता है बस कोनों में चार ,
निकाल देता है कभी दखल से ,
कभी घर से बाहर ,
और खड़े  करता है सवाल ,
उसके अस्तित्व पर ! ... ( बुढ़ापा )

अ से

अन्तःसूत्र

..................... अन्तःसूत्र  ........................

जादूगर की जान तोते में थी ..
तोता विरही निकला ,
एक दिन आत्महत्या कर बैठा ,
जादूगरी काम न आ सकी ॥

सोणी महिवाल , लैला मजनू , हीर राँझा , सस्सी पुन्नू ,
रोमियो जूलियट , शीरी फ़रियाद और न जाने कितने ,
बंधे थे ... अंतस के प्राण सूत्र से ,
एक का दर्द दूसरा न सह सका ॥

पुत्र में ममता थी ,
उसकी मृत्यु के प्रमाण भर से द्रोण ने युद्ध और संसार दोनों छोड़ दिया ,
भुजाओं का अकूट महासंग्राम ,
ह्रदय की सूक्ष्म सी नाड़ी पर जाकर थम गया ॥

नीड़ का निर्माण भी जरूरी था ,
एक तिनका भर संपत्ति के लिए हुई महाभारत में ,
एक चिड़े ने दम तोड़ दिया ,
चिड़िया जीत कर भी खुश न थी ,
घायल अवस्था में भी उसे बच्चों के लिए दानों का इंतज़ाम करना था ॥

जब इज्ज़त पर आ गुज़री ,
पुजारी और पादरी कुछ शब्दों की जंग में दो सियासत लड़ा बैठे ,
मौलवी खुदा का शुक्रिया अदा करने निकल पड़े ॥

उसकी देशभक्ति उसका जूनून बन गया ,
विगत इतिहास की बेईज्ज़ती का बदला उसने प्रारब्ध तय किया ,
प्रकृति से भी क्रूर , बहती खून की नदियाँ ,
एक-एक हिटलर ने समाज - सभ्यता पर तमाचा जड़ दिया ॥

इधर सावन झूम कर बरसा है ,
प्रेम सजल से भीगकर पत्ता पत्ता निखरा है ,
अमृत- तृप्त धरा पर हरा बचपन उभर आया है ,
पतझड़-जर अनंत अंधेरों में गहराया गया है ,
और आज शेर भी हिरन के संग नदी की तरफ निकला है ॥

ममता में निकले गए कितनों के प्राण ,
अपनत्व ने ली कितनो की जान ,
भाईचारे के कारण सारा युद्ध छिड़ा है ,
मोह के तिनके पर संसार खड़ा है ,
आँखों में यादों का जाला पड़ा है
विस्मृति-अमृत को संसार भूला पड़ा है ॥

------------------------------------------------------------------ < अ-से >
बैठे हों खामोश फिर अजीब बात का होना ,
याद भर से उनकी गुदगुदाहट का होना ॥

जो सामने वो होते तो कुछ कहते नहीं बनता ,
वरना फिर खयालों से भी आवाज़ का होना ॥

दौड़ कर कर लेना फिर पार यूँ ही दरिया ,
पहुँच के दर पर क़दमों की इनकार का होना ॥

और वो एहसास पा लेने का जन्नत को ,
वो आँखों से जो गुजरे तो सांझ का होना ॥

नर्म धूप छाँव सा बदलता सा वक़्त , और
रह रहकर तेरी यादों की बारिश का होना ॥ .................. पहले पहल ॥
अश्वत्थ सा आत्मकेन्द्रित, तुलसी सा रतमग्न विज्ञान ,
साध, भक्ति और समर्पण के साथ ।

गन्ने और बाँस सा बढता उत्तरोत्तर ज्ञान ,
सुगंध और मिठास की निश्चित दिशा लिए ।

आम्र सा फलदायी , नीम सा गुणकारी ,
अपने को उपयोगी बनाने की होड़ में ।

विध्या के पौधे सा निर्वेद ,
शाखाओं की अनन्तता का भान कराता हुआ ।

वृक्ष से मूल , पौधे से बीज तक की यात्रा है ज्ञान विज्ञान ,
ना की बरगद की तरह फैलते विचारों को अस्तित्व देने का नाम ।

जमीन पानी और हवा हर जगह जडें फ़ैलाने वाला ,
सारे रसों और वेदनाओं में फंसा हुआ ,
हर ओर बढता फिर भी दिशाहीन ,
बिना लक्ष्य फैलता ,
कुबेर की तरह संचय को ही जीवन माने हुए ।

एक प्राचीन कहावत है , " बरगद और पीपल एक दुसरे की छाया तले नहीं पनपते " ,
कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान दुनिया में उन लोगों की है ,
जिनके लिए जीवन साधना और बोधि-वृक्ष हुआ करता है ॥

................................ < अ-से > .............................................
एक पल पल जलता रहा ,
एक उस पर रोटी सेकता रहा ,
और एक खाता रहा ,
जब तक की एक तीनों को निगल नहीं गया ॥

खाने वाला निवाला बन गया ,
सेकने वाला ज्वाला बन गया ,
और जलने वाला खुद निगलने वाला ॥

एक दोमुँहा सांप सबको निगल जाता है ,
केंचुली बदलकर बाहर आता है वक़्त ॥

पाँच उँगलियाँ और एक अँगूठा विद्रोही हो गए ,
और बाँह कोहनी से अलग चलने लगी ॥

एक ही व्यक्ति की आठ स्त्रियाँ झगड़ने लगी ,
प्रेम के अभाव में वो ख़ुदकुशी करने निकल पड़ा ॥

२ ८ स्त्रियाँ उसे ३ रस्सियों से बाँध कर धीरे धीरे रात के समुद्र में खींचने लगी ,
कोई चारा न देखकर उसने खुद से ही ब्याह रचा लिया ॥

अब आठों स्त्रियाँ बेसहारा हो चुकी थी ,
उनका पति उनकी सौत बन चुका था ॥

घर के अभाव में एक खुद में ही रहने लगा ,
अब वो दिखाई नहीं देता ॥

दिशाओं के हाथी चिंहाड़ने लगे ,
जब एक ने उन्हें देखा हवा को रोक कर ॥

सदियों से रुका एक फव्वारा अचानक चल पड़ा ,
जब एक को फुर्सत मिली चैन से बैठने की ॥

एक वृद्ध बैठा है ध्यानमग्न ,
दसों और खेल रहें हैं बच्चे उसके ॥ .......... ............ .............. दृश्य ॥
-------------------------------------------------------------------- अनुज ॥
कोई रात अंधियारी नहीं होती ना ही कोई दिन दीप्त ।
सूरज कब सोता है भला रात कब जागती है ॥

अबोध अनजान तप्त अशांत
बैचेनी भरा अन्धकार ,
मेरा दोष भर ।
सरल मृदु शीतल महान
नर्म तेज प्रकाश ,
एक होश भर ॥

वो जो न रातों में सोता है ,
वो जो ना बातों में खोता है ,
वो जो न ख़ुशी में भीगता है ,
वो जो ना दुखों में रोता है ॥

रत है सतत है सतत रत है सदा ,
न रुकता है ना ही चलता है ,
देखता है सबकुछ ,
पर दृश्यों में नहीं खोता है ॥

न अन्दर है ना बाहर
पर जाहिर है सदा ,
ना जीता है न मरता ,
और हाज़िर है सदा ॥ ........ ............ ................. प्रकाश ॥
.................................................................. अनुज ॥
इन शब्दों को बहुत गौर से सुना है मैंने ,
अपनी उदगार के बाद से ही धीमे और धीमे और धीमे से हो जाते हैं ,
पर कभी खामोश नहीं होते ,
उस धीमी हो चुकी ध्वनि के पीछे अपने कान ले जा सकूँ ,
और सुन सकूँ ,
जो भी उसने कहा था , उस वक़्त ,
वो शब्द वो घोष वो उदगार वो गूँज वो खिलखिलाहट वो नाद वो आल्हाद वो सभी बातें ,
वो सब यहीं हैं ,
मुझे पता है ,
पर बहुत शांत सी हो चुकी हे ध्वनि ,
और बहुत शोर है मेरे मन में ,
सामाजिक ताप से दग्ध ह्रदय में ,
हाय-तौबा से कम्पित कर्ण पटलों में सामर्थ्य नहीं दीखता ,
सुन सकें,
उस मधुर कविता को ,
उन गीतों को जो वक़्त ने पिरोये थे मेरे लिए ,
सिर्फ मेरे लिए ,
और वो समाते जा रहें हैं इस शून्य बेपरवाह आकाश में ,
ओ दुनिया ! चुप हो जाओ , मुझे सुन लेने दो ,
क्या कहा था उसने ,यहीं इसी जगह,
बहुत वक़्त पहले ....!! ................अनुज अग्रवाल (repost)
पत्थरों की दरारों में नयी घास उगी है ,
कल पकाए खाने में भी फफूंद लगी हे ,
जाने ये मच्छर कहाँ से आ जाते हैं ,
और ये झींगुर भी उत्पात मचाते हैं ॥

कल ही साफ़ किया था ये जंगल ,
आज फिर बारिश आ गयी ,
मेरा इकठ्ठा किया पानी ,
बाँध के साथ बह गया ॥

समय गुजरे की बात है ,
पूरी धरा को इमारत बना दिया था ,
नदियों को नाला, और नालों को नल ,
आज मशीनों पर काई जमी है ,
धरा पर फिर वनस्पतियाँ रमीं है ॥

उसकी बनावट मुझे सताती है ,
मेरी सजावट उसे नहीं भाती ,
मैं जो भी करूँ सब मर जाता है,
फिर वो ही दृश्य उभर आता है ॥

ना सृजन मरता है,
ना मृत्यु थकती है ,
फिर फिर वो ही प्रकृति बरसती है,
मेरे बदलाव की हर कोशिश अपने अस्तित्व को तरसती है ॥

तो मैं बुरा था ,
मैं बुरा ही रहा ,
ना मैं उसे समझ पाया ,
ना उसने खुदको बदलना चाहा ॥

बे-मायनी जद-ओ-जहद चलती रही ,
और ये ज़िन्दगी भी ,
चित्र विचित्र अनेकों कहानियों के साथ,
अपने अर्थ को तलाशती ॥ ...... अनुज अग्रवाल ॥
आकाश अपने पास कुछ नहीं रखता ,
उसको दिया सब बिखर जाता है , वहीँ आकाश में !!

सोन चिड़ियाऐं गाती हैं सिर्फ प्रेम गीत ,
वो नहीं सुनती कोई भी बात , उनके मतलब की भी !!

अपनी हद पर खड़ा रहता है दरबान और चले जाना चाहता है ,
उसे नहीं वास्ता तुम्हारी रंगीन महफ़िल से !!

खिड़कियाँ नहीं रोकती मिलने से, भीतर और बाहर को ,
बस एक जरूरी दूरी बनाये रखती हैं !!

पता है संगदिल तुझे ,
दिल दुनिया की सबसे खूबसूरत खिड़की है ,
सबसे सचेत दरबान , सबसे फैला आकाश ,
और एक सच्ची सोन चिड़िया !!

दिल जानता है आजादी जरूरी है जीने को ,
इसलिए कुछ नहीं कहता वो तुम्हे , तुम्हे भी तो जीना है ना !! ............................. अ से अनुज ॥
उसी शब्द के मायने वाक्य बदलने पर बदल जाते हैं ,
ख़ामोशी भी एक ऐसा ही शब्द है ,
और तो और इसके मायने भी काफी गहरे और गंभीर होते हैं ॥

ताश के जोकर की तरह कहीं भी लगाया जा सकता है इसे भी ,
ये वो तुरुप का पत्ता है जो कभी भी चल सकता है ,
बस एक बार खुद को समझ आ जाएँ इसके सही मायने ॥

कहानी को सिर्फ शब्द ही मोड़ नहीं देते ,
ख़ामोशी भी बदल देती है ,
बुरी तरह से ,
और एक लम्बी ख़ामोशी ,
ले आती है एक ना लौटा सकने वाला बदलाव ॥

बहुत ही भारी शब्द है ये खामोशी ,
बैरंग होते हुए भी झिलमिलातें हैं कई रंग इसमें ,
ठीक सांझ की झील की तरह , घुलते लहराते नज़र आते हैं सतत रंग बिरंगे आकार इसमें ॥

इस शब्द में एक ख़ास बात है ,
हर कोई इसमें अपने ही मायने तलाशता है ,
इसलिए कई दफा ,
तुम्हे हो जाया करती है ग़लतफ़हमी ॥

मेरी इस ख़ामोशी को अपने बीच का अन्तराल ना समझना ,
ये तो भरी हुई है अनेकों रंग बिरंगी खट्टी मीठी कहानियों से ॥ ..................... अ से अनुज !!
" देखो तुम्हारा पैदल मर रहा है , "
एक मुस्कराहट के साथ सफ़ेद मोहरों वाले ने कहा ॥

" अरे पैदल तो होते ही हैं दांव पर लगाने के लिए ,
तुम अपनी चाल खेलो ,
फिर देखते हैं अबकी बार बाजी किसके हाथ लगती है , "
रात्रिकालीन सफ़ेद मोहरों वाले ने कहा ॥
और अट्टाहासों के बीच प्यादे की चीख कहीं दब गयी ॥
मेरी यह रचना मेरे जीवन की सबसे बेहतरीन रचना होगी !!

इसका तयशुदा प्रारब्ध तय नहीं कहूँगा मैं ,
इसको इस रहस्यमय संसार में छोड़ दूंगा
अपने हाल पर अन्य अनगिनत कविताओं के बीच ॥

इसके भाव प्रकट नहीं करूँगा मैं ,
पर जब जब इसका स्वाध्याय होगा
प्रकट होंगे नए नए भाव गहराती जायेगी ये कविता ॥

मैं बताऊंगा पूरी सच्चाई है इसके लिखे हर शब्द हर कथन में
और मैं लिखूंगा इसमें जीवन के गूढ़ रहस्य भी ,
या तो बहुत ही आसान शब्दों में की कोई विश्वास ही न कर पाये  ,
या फिर उसके समकक्ष बातें करके छुपा लूँगा की वो सच क्या है ॥

जहाँ लोग इसमें उद्देश्य तलाशते नज़र आयेंगे ,
वहाँ मैं इसे बनाऊंगा निरुद्देश्य ,
क्योंकि उद्देश्य अंत का निर्देश है
और मेरी यह कविता अंतहीन है ॥

मेरी ये रचना चिरंजीवी होगी  ,
वक़्त के साथ बदलती इसकी तस्वीरें इसकी सराहना
जहाँ इसमें प्राण फूंकती रहेंगी ,
वहीँ वक़्त के साथ इसके शब्दों की
तत्सम तद्भव शक्लें बिगड़ती जायेगी ,
इसके अर्थ अपने मायने खो देंगे ,
और कुछ वक़्त को खो भी जायेगी ये गुमनामी के अंधेरों में ,
जहाँ ये खुद को पहचानने से इनकार कर देगी ,
पर ये मरेगी नहीं, बस कहीं और जा बसेगी
समय और अंतराल के किसी और बिंदु पर ॥

मेरी कविता का कोई पक्ष कमतर नहीं होगा ,
उन्हें मैं एक ही न्याय के तराजू पर तौल कर लिखूंगा ,
पर अपनी अपनी समझ के अनुसार ,
अपनी पसंद , अपने फायदों के लिए ,
लोग चुनेंगे अपना मनचाहा पक्ष ,
और बहस करेंगे , लम्बी लम्बी बहस ,
इस कविता के इतिहास से भी लम्बी ,
सदियों तक चलेंगे युद्ध और लड़ मरेंगे कई लोग ,
जब तक की कुछ वक़्त के लिए खो न जाए ये ,
कि फिर से शांति पनपे कि फिर से मिलकर रहें लोग
और फिर किसी को मिलेगी यह और फिर से होंगे पक्ष विपक्ष ॥

इसमें लिखूंगा मैं दुनिया की वास्तविक शक्ल
और रंग बिरंगे झूठे सपने भी ,
विश्वास करने वाले
दोनों पर विश्वास कर सपनों में उलझ जायेंगे ,
और संदेह करने वाले
वास्तविकता पर भी संदेह करने लगेंगे ॥

कुछ ऐसे कथन लिखे जायेंगे , जो व्यापक हैं ,
जिसमें होंगे सभी को अनुभव होने वाले मृदु और मार्मिक भाव ,
और होगी वो बातें जो सभी के भविष्य में घटती है ,
जिन्हें पढ़कर सभी को अपनी सी लगेगी ये कविता ॥

मेरी ये कविता किसी राजनीतिज्ञ की अपनी सत्ता बचाए रखने की भावना से लिखी जायेगी ॥

मैं न इसको अब ज्यादा लम्बा खीचूँगा
न मैंने इसको बहुत छोटा रखा है
न बहुत महत्व का न महत्वहीन ,
पर ये प्रयास रहेगा कि ये निरर्थक कविता सभी को अर्थवान लगे ,
और इसके शब्दों के दल दल में डूब कर रह जायें पीढ़ियाँ ,
और उन्ही के वक़्त के बलिदानों पर पोषित होती रहे ये अमर रचना ॥

मेरी यह रचना मेरे जीवन की सबसे बेहतरीन रचना होगी !!

अ से 
एक विज्ञानी ने कहा शक्तिशाली ही जीवित है ,
और सारे जीव अवसाद में आ गए ॥

प्रसन्नता का प्रकाश फ़ैलाने को प्रकट हुई अग्नि ,
उनकी ख़ुशी में जल जल मरी दुनिया सारी ॥

एक और बुद्ध निकला घर से ,
उसकी पत्नी ने उसे भगोड़ा घोषित कर दिया ॥

कूद पड़े पतंगे , खुदकुशी करने को ,
नहीं आया नाखुश दुनिया में खुश रहना उन्हें ॥

महाभारत पढ़कर शोक त्याग वो अशोक क्या बना ,
कि पूरा कलिंग शोकमग्न हो गया ॥

एक चंगेज और निर्मम हुआ ,
मारी गयी ममता हज़ारों की ॥

वो सिखाते रहे खुश रहने का करम ,
और हर करम को पाप बताते रहे ॥

सभी तरह की गुलामियों में सबसे वीभत्स है प्रेम ,
अनजाने ही बेगारी और दासता स्वीकार करना ॥

ज्ञान को पाने के लिए किसी भी तरह के ईश्वर की दासता नामंजूर हो ,
वो अज्ञानी ही भला जो किसी कैद में न हो ॥ .......................................... अ से अनुज ॥
कल उसने कुछ 15-20 लोगों की झाड़ खाई,
मालिक के दो झापड़ ,
एक पुलिसिये का डंडा ,
रास्ते पर एक कार की हलकी सी टक्कर ,
घर के दरवाजे पर एक ठोकर,
और दो रोटियाँ ॥

कुछ 12 साल का रहा होगा वो ढाबे पर काम करने वाला लड़का ,
आखिर भूख कहाँ देखती है कोई स्वाद ॥
और एक दिन जब मैंने अपनी मुक्ति मांगी , अब तक रहे अपने मालिक से , किताबों से , मुझे सिखाई गयी भाषा से ॥

तो मुझे ये कह कर टाल दिया गया , की तुम नहीं हो सक्षम अपने फैसलों में , तुम्हे नहीं आता जीना हमारे बिना ॥

पर मुक्ति तो उसी पल हो जाती है , जब उसका खयाल पहली दफा आता है ,उसके बाद की कहानी तो विद्रोह मात्र है ॥

उसके बाद भी प्रयास किये गए मुझमें हिंसा के बीज बोने के , ताकि सिद्ध कर सकें वो अपनी बात ,
लोग बोलते वक़्त भले न सोचे की वो सच है या नहीं , पर बोल देने के बाद उसे सच सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ते ॥

खैर ! जिन्हें अपनी आज़ादी प्यारी हो वो दूसरों की भी नहीं छीनते , ये तो गुलामों का काम है दूसरों को गुलाम करना ॥

सबसे पहले मैंने वो भाषा छोड़ी और हो गया मूक ,
मुझे नहीं बोलनी थी वो गुलामों को सिखाई भाषा जिसके हर एक शब्द ने मुझे सीमित और सीमित भर रखने का प्रयास किया ,
मैंने सीखी मुक्त मन की भाषा ,
सुना सभी को बोलते हुए ,
चिड़िया , कौवे, गिद्ध, कबूतर , कुत्ते , बिल्ली, चूहे सभी को ,
अपने अपने कंठ से सभी बोलते हैं , सभी रोते हैं , सभी गाते हैं गीत कभी सामूहिक कभी एकांत के ,
सभी में है दिमाग भी बिलकुल मुझ सरीखा ,
और एक ह्रदय , शायद मुझ से भी बेहतर ,
क्योकि ख़ामोशी पसंद वो सब सुन पाते हैं अपना ह्रदय ,
कितना सीमित रखती है हमारी भाषा हमें ॥

फिर मैंने वो जगह छोड़ी ,
दूर देश की यात्राएं की , रहना शुरू किया अलग अलग जगह ,
कल्पनाओं में , कहानियों में , अंतरिक्ष में , लकड़ी में ,पेड़ पर, बिल में ,
नसों में बहना शुरू किया , ह्रदय में रहना ,
मैंने जाना कहीं भी रहा जा सकता है ,
एक किस्से में भी ,,
कोई दीवारें क्यों बनाता है भला , कितना कैद रखता है एक घर हमें ॥

पूरे विश्वास के साथ अब मैंने शुरू किया , हर मालिक को उनकी हर सीख को अपने मानस से अलग करना ,
और खुद तय करना हदें अपनी , अपने अन्तः करण से,
मुझे पता लग चुका था , कहाँ कैद था मैं ,
किस हिस्से को बदल कर वो बदल देते हैं कुदरत ,
मुक्त आकाश को कैसे बना देते हैं एक घड़ा ,
कैसे महीन सी दीवारें तोड़ने में काँप जाता है ह्रदय ,

वो खड़ी करते हैं भीतियाँ सबसे मार्मिक मानस स्थलों पर ,
और बुनते हैं जाल मुझे मुझमें ही कैद रखने का ॥ ......................................... अ से अनुज ॥
दृश्यों की अनंत धाराओं में से एक का हिस्सा हुआ मैं,
जोड़ता हूँ उसी दृश्य के अन्य हिस्सों को और बुनता हूँ एक कहानी ॥

उस कहानी के अनेकों पात्रों में कुछ उस धारा से पृथक हो , जुड़ जातें हैं किसी अन्य दृश्य धारा से ,
कहानी के कुछ पात्र डूब जातें हैं शोक में ॥

इस धरा के सभी तथाकथित निवासी कभी छूते नहीं ज़मीन ,
वो आकाश से अलग बसते हैं खुद ही की माया में ॥

पलक झपकते ही बदल जाती है दृश्य धारा ,
पलक दरियाव के हर बहाव से बचाता रहा हूँ मैं खुदको ॥

आँखों ही में बनते बिगड़ते दृश्यों की अस्तित्वहीन सत्ता से पृथक ,
दृश्यों की अनंत असीम मृत्युओं के बीच बचा रहता हूँ मैं ॥

कोई किसी दृश्य धारा में बहे, किसी से पृथक हो , किसी से जुड़े ,
पर क्योंकि वो स्वयं में स्थित है , वो चिर स्थिर है ,
कौन मरा है भला आज तक ॥ .......................... अ से अनुज ॥
अब पंछियों को दिए जायेंगे सीमित आकाश ,
उनकी उड़ान का समय भी तय होगा और गति सीमा भी ॥

अब से अनपड़ रहना अपराध होगा ,
गधों को कराया जायेगा अक्षर ज्ञान ॥

नए कानूनों के मुताबिक चौकीदारी उल्लुओं से करायी जायेगी ,
दो आँखे भर चाहिए , उसमें अकल का क्या काम ॥

चमगादड़ो को लगाया जा चुका है जासूसी के काम पर ,
बिल्लियाँ चूहों के संरक्षण का कार्यभार उठाएंगी ॥

और इंसान तय करेगा नियम प्रकृति के ,
स्वतः मिली व्यवस्था की कमियों को दूर करने के लिए ॥ ............................. अ से अनुज ॥