Dec 21, 2013

अप्रासंगिकता

पत्ते झड़ते रहे लगते रहे हजारों ,
पत्ते झड जाने से ही वृक्ष नहीं मरता ...

वृक्ष गिरते रहे उगते रहे जंगल के जंगल ,
वृक्ष सूख जाने से पृथ्वी नष्ट नहीं होती ...

कितने ही ग्रह नक्षत्र पृथ्वी जैसे बन बिगड़ गए अब तक ,
पृथ्वी के विनाश से आकाश का पतन नहीं होता ...

पल भर में नए आकाश बना लेता है मन ,
आकाश के अवकाश ले लेने से मन नहीं मरता ...

पसंद नापसंद में बनता बिगड़ता रहता है मन पल पल ,
मन के सन्यास से बुद्धि अप्रासंगिक नहीं होती ,

न तो हर प्रश्न का उत्तर बुद्धि की सामर्थ्य में है ,
और ना ही बुद्धि के समाधिस्थ हो जाने से आत्म नष्ट होता है ...

आत्म भी अनेकों नज़र आते हैं अलग अलग ,
पर फिर किसी आत्म के अनस्तित्व हो जाने भर से उसका स्त्रोत नष्ट नहीं हो जाता ,

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" मौसम बदलते रहते हैं ,
वक़्त के इशारे पर ,
यूँ ही खड़ा खड़ा ... दिल देखता है तमाशा !! "

< अ-से >

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