
और कहा था अपना ख़याल रखना , पोटली से ज्यादा जरूरी तुम हो मेरे लिए ...
वक़्त के रास्ते मैं निकल पड़ा ,
राह में जो भी मिला जो भी जैसा भी लगा , मैं पोटली अपनी भरता रहा ..
पोटली के अन्दर एक अनोखी ही दुनिया रच बस गयी थी ,
सामान एक दुसरे से रिश्ते बनाने लगे जुड़ने लगे और सिस्टम आकार लेने लगा ,
वो नए आने वाले सामानों को भी कहीं अपने अनुसार ही व्यवस्थित कर देते थे ,
वहां जो आसानी से जगह बना लेते थे उन्होंने अलग ग्रुप बना लिया ,
वहां अक्सर चर्चाएं होती रहती और सामानों पर अच्छे बुरे की छाप भी लगने लगी ...
यूँ ही चलते चलते जब मैं थक जाता या मार्ग निर्धारण करना होता ,
तो उसमें झाँक कर देख लेता ...
पहले सब कुछ उसमें आसानी से आ जाता था और चलने पर चीजें उलटती पलटती रहती ,
पर बाद में चीजों की हवा बाहर निकली जाने लगी पोटली के कपड़े से और गतिहीनता के कारण उनमें शुद्धता नहीं रह गयी ,
फिर वो ठंडी भी होने लगी क्योंकि गर्म वस्तुएं ज्यादा जगह घेरती हैं ,
और बाद में सूख कर जमने लगी अब उनमें रस भी बाकी नहीं रहा ,
नए आने वाले सामान भी जल्द ही इस सिस्टम के अनुसार ढलने लगते ...
सघनता काफी बढ़ चुकी थी और पोटली भारी होने लगी ,
अब वो इधर उधर से फट भी चुकी थी , कई चीजें राह में ही कहीं बिखर चुकी थी ,
एक दिन बहुत उदास होने पर मैं एक पेड़ के नीचे बैठ अपनी पोटली निहारने लगा ,
देखा तो उसमें ऊपर ही कुछ साबुत सामान थे , थोड़े नीचे के टूटे फूटे से ,
और बाकी सिर्फ धूल और मिट्टी ...
मुझे दिखने लगा आगे ... एक दिन ये पोटली बहुत उधड जाने वाली है ,
और सारे अनुभव और स्मृतियाँ भी मिटटी हो जाने हैं ,
और तब मेरी यादों की पोटली मुझे छोड़नी ही है ,
आगे रह जाएगा सिर्फ ये रास्ता ...
पर परवाह नहीं अब ...
....... आखिर माँ ने कहा था मैं ज्यादा जरूरी हूँ उनके लिए !!
< अ-से >
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