Jan 7, 2015

उसका उद्देश्य है छिपा रहना

उसका उद्देश्य है छिपा रहना
उद्देश्य उसके छिपे हुये नहीं है
बढ़ी खूबसूरती से काम करता है वो
पर उसके काम के ढंग अलग नहीं है
वो काम करता है बिना शांति भंग किए 
बिना किसी को आंदोलित किए !
वो एक का पाँच हो जाता है
पृथ्वी बनकर नया जीवन उपजाता है
जल बनकर उसे सींचता है उसे चलाता है
अग्नि बनकर पचा जाता है अंधकार और बुराइयाँ
वायु बनकर उसे फिर से काम में लाता है
और आकाश बना देखता है स्वयं को नियंत्रित रखता है !
वो हर गत्य अगत्य का जोश है
उसके बिना हर पत्ता हर हवा बेहोश है
उसने अपने चार रूपों में गति की है
और पांचवें मे वो सुस्थिर होश है !
उसके किए कार्यों के परिणाम नहीं होते
वो समयदृश्य के स्थिर बिन्दुओं के स्थिति रूपक हैं
उसके पलक झपकते ही पूरी प्रकृति विलुप्त हो जाती है
और पलकें उठाते ही फिर से उपज जाती है !
वो महामानव है
वो महादानव है
वो सृष्टा है वो दृष्टा है
वो पिछले क्षण की खोयी हुयी स्मृति है
अपनी गूंज से अलख जगा रही
वो सनातन काल से चली आ रही पवित्र श्रुति है !
अ से

Jan 6, 2015

If you forget me -- Pablo Neruda


अगर तुम भूल जाती हो मुझे -- पाब्लो नेरुदा
मैं चाहता हूँ तुम्हें पता हो एक बात ।
तुम जानती हो कैसा है ये ,
जैसे मैं देखूँ काँच सा चाँद ,
या कोई लाल शाख धीमे पतझड़ में अपनी खिड़की पर ,
जैसे मैंने छूयी हो समीप आग , अस्पर्शय राख़
या झुर्रीदार सूखी शाख ,
सबकुछ ले जाता है मुझे तुम तक
जैसे कि सब कुछ जिसका अस्तित्व है ,
गंध , रौशनी , धातुएँ ,
वो सब छोटी छोटी नाव हों जो बहती हैं
तुम्हारे उन टापुओं की ओर जो मेरी प्रतीक्षा में हैं ।
फिर भी ,
अगर धीरे धीरे तुम बंद कर देती हो प्यार करना मुझे
मुझे भी बंद कर देना चाहिए तुम्हें प्यार करना धीरे धीरे
और अगर अचानक
तुम भूल जाती हो मुझे
मैं देखूंगा भी नहीं
कि मैंने भुला दिया होगा ।
अगर तुम सोचती हो इसे
पागलपन या दूर की कौड़ी
ये हवाएँ संदेशों की
जो गुजरती है मेरे जीवन से होकर
और तुमने तय कर लिया है
छोडना मुझे किनारे पर
उस दिल के जहां मेरी जड़ें हैं
सोचना
उसी दिन
उसी समय पर
मैं खड़े कर दूँगा हाथ
और छोड़ दूँगा अपनी जड़ें
तलाशने को कोई और जमीन ।
पर
अगर हर दिन हर पहर
मैं महसूस करता हूँ
तुम्हारा किस्मत में होना
अतिशय मधुरता के साथ
अगर हर दिन जाता है
एक फूल , तुम्हारे होठों तक , तलाश में ,
तो ओ मेरी प्रिय , ओ मेरी अपनी
मुझमें वो सारी आग फिर से जल उठेगी
मुझमें वो कुछ भी बुझा या बीता नहीं है
प्रिय , मेरा प्यार
तो पोषित होता है तुम्हारे प्यार पर
और जब तक तुम हो
ये रहेगा तुम्हारी बाहों में
बिना मेरी बाहों से समाप्त हुये !

Debussy-- Federico García Lorca


मेरी छाया बहती है चुपचाप
जैसे पानी में पेड़ ।
मेरी छाया के कारण मेंढक
सितारों से हैं वंचित ।
ये छाया भेजती है देह को
खामोश चीजों के प्रतिबिंब ।
मेरी छाया इतनी अमित है
जैसे बैंगनी रंग का मच्छर ।
एक सौ झींगूर चाहते हैं
झुलसाना चमक सरकंडों की ।
एक रौशनी सीने से निकलती
प्रतिबिंबित होती पानी में ।

Debussy-- Federico García Lorca

Jan 4, 2015

( Epitaph - Pessoa )

समाधि-लेख 
सोचता था स्वयं को श्रेष्ठ यहाँ करता है विश्राम
विश्व-पटल के कवियों में एक
जीवन में उसने ना खुशी पायी ना आराम
भरा था पागलपन से कई धुनों पर सवार
और जिस भी उम्र में मरा हो वो
ज्यादा ही जी लिया हर किरदार
भावनाओं की उथल पुथल में डूबा
वो जीता था खोखले अहंकार में
अंतर्द्वंदों से ग्रस्त अंतहीन विचार में
बिना साहस वो अपना किरदार ढोता रहा
जिस भी कहानी का हिस्सा हुआ
जीवन की अंतहीन हाय-हाय में रोता रहा
अपने दुखों और डर का बना रहा गुलाम
और रखता था जो कुछ बेतुके विचार
अंत तक साथ रखता रहा सरे आम
पेश आया बुराई से जिन्हें वो करता था प्यार
रहा खुद ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन
कलावादी सोच का बीमार
अपने बारे में जब भी कुछ कहा उसने
काबिल नहीं था किसी के सम्मान के
उधेड़बुन में खोया रहा बस अपने ही जहान के
उसकी सारी क्रांतियाँ निकली बेवजह बेकार
अपने डर तकलीफ़ों के प्रति संवेदना शून्य
अधिकतर रही बेरीढ़ निराधार
कमीना ऐसे और बेकार की उसकी परेशानियां
उसके शब्द , जबकि नीम से भी ज्यादा कड़वे
उसकी कड़वाहट को नहीं कर पाए बयां
ऐसा था वो दुखी और अभागा
जो अब भी सिसक सकता है करुणा में
जिसके पागलपन का पता किसी को नहीं लगा
ना करने दें एक स्वस्थ मानस को
प्रदूषित उसकी कबर , आराम से गुज़र जाने दें
देशद्रोहियों और वेश्याओं को पर
शराबी और व्यभिचारी गुज़र सकते हैं वहां से
पर जल्दी , इससे पहले कि पता चले
हो सकता है , खुश हों वो किसी अफवाह से
हर कमज़ोर और घिनौना दिमाग
जकड लेता है जो अपनी दुर्गन्ध से इंसान को
मिल जाएगा यहाँ उसके प्रति जागरुक राग
जागरूक कि उसमें बता सकता था वो
विक्षिप्तता या बीमारी थी या क्या थी
पर ना तो किया ना दूर करना चाहा उसको
गुजर जाओ इसलिए तुम जो रो सकते हो
और उपेक्षा में सड़न को काम करने दो
जबकि रूखी हवाएँ सूखी पत्तियाँ बुहार रही हों
वतन के लिए जो उठे नहीं हाथ
वो उसके ऊंघते भाई सपने में भी
जगायें नहीं उसे भगवान के नाम के साथ
बल्कि करने दें विश्राम शान्ति में उसे अब से
लोगों की नज़रों और जबान और उस चीज से दूर
जिसने उसको कर दिया था अलग उन सब से
वो एक रचना थी गढ़ी ईश्वर के हाथ में
और जीवन जीने के पाप के लिए
वो हो गया शामिल चिंतन के अपराध में
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pessoa

कितना लम्बा रहा है ये (वक़्त) , दस वर्ष शायद ,
जब मैं गुज़रा था इस गली से
और तब भी मैं यहाँ रहा था कुछ समय के लिए --
लगभग दो वर्ष या तीन .
ये गली वैसी ही है , यहाँ लगभग कुछ भी नया नहीं .
पर अगर ये देख सकती मुझको और कहती
तो ये कहती , " ये वैसा ही है पर कितना बदल चुकी हूँ मैं ! "
और इस तरह हमारी आत्माएं याद रखती हैं और भूल जाती हैं .
हम गुज़रते हैं गलियों से और लोगों से ,
हम गुजरते हैं अनेकों अपने आप से और हम गुज़र जाते हैं ,
तब , ब्लेकबोर्ड पर , माँ चेतना
मिटा देती है प्रतीक , और हम शुरू होते हैं फिर से !
How long it’s been, ten years perhaps,
Since I’ve passed by this street!
And yet I lived here for a time—
About two years, or three.
The street’s the same, there’s almost nothing new.
But if it could see me and comment,
It would say, “He’s the same, but how I’ve changed!”
Thus our souls remember and forget.
We pass by streets and by people,
We pass our own selves, and we end,
Then, on the blackboard, Mother Intelligence
Erases the symbol, and we start again. --- Pessoa

Jan 2, 2015

कुछ शब्द लिखने का मन है


महीनों बाद कुछ शब्द
लिखने का मन है
किसी की खामोशी में ,
कोई एहसास
किसी की बेहोशी में 
और किसी की हार में
लिखना चाहता हूँ
किसी के प्यार का सार
पर नदी की कल कल
और सदियों की हलचल
कहाँ कौन लिख पाया है !
कितनी औरताना होती है ये कवितायें भी
कोई बकवास नींद बेहोशी की बडबडाहट
पर लिखना चाहती हैं
किसी के एकांत में कोई तुकांत
बिखरी रेत में फूंकना चाहती हैं कुछ प्राण
कि सिमट आये सब
और कोई और आकार ले अब !

अ से 

Dec 29, 2014

पहले 
वो देखते थे स्वप्न 
फिर लग गए इन्हें सच करने में 
सच करने में लगते हैं प्रयास 
फिर वो लग गए प्रयास करने में 
फिर वो बस प्रयास करने लगे 
फिर वो भूल गए 
कि वो देखते थे स्वप्न !

Alone With Everybody -- charles bukowski


अकेला सभी के साथ :
कोई माँस ढक लेता है किसी हड्डी को 
और वो लगा देते हैं एक मन वहाँ
कभी कभी एक आत्मा ,
और औरतें तोड़ देती हैं
गुलदान दीवारों से मार कर
और आदमी पीते हैं
बहुत ज्यादा
और किसी ने नहीं पाया उसे
पर लगे रहते हैं
तलाश में
रेंगते अन्दर और बाहर
बिस्तर के .
माँस ढक लेता है हड्डी को
और माँस तलाशता है
माँस से कुछ ज्यादा .
कोई संभावना नहीं है
वहाँ थोड़ी भी :
हम सभी फाँसे जा चुके हैं
एक ही भाग्य द्वारा .
किसी ने भी
कभी नहीं पाया उसे .
कचरागाह भरते हैं
कबाड़खाने भरते हैं
पागलखाने भरते हैं
अस्पताल भरते हैं
कब्रिस्तान भरते हैं
और नहीं कुछ भरता .

Alone With Everybody -- charles bukowski

Dec 26, 2014


(1)

एक रेशमी गिरह
बांधे हुयी थी पंखुड़ियाँ गुलाब
जब देखा था तुम्हे पहली बार
तुम खुल कर हँसी थी !

किसी कमलिनी की सुबह
खुलते हुए दल से उड़ता हुआ भंवरा
और हवा में बिखर जाते पराग !

एक पल को खिलता
और फिर घुल जाता खामोशी में
जाने कौनसा फूल था !

कितनी नरमी से सरकी थी
वो गिरह रेशमी
एक हँसी में हवा हो गया
था कितना कुछ !
----------------------------------------

रात के साफ़ आसमान में
एक टूटता तारा
चमका था तुम्हारी आँखों में
पल भर के लिए
और फिर किसी और दुनिया में
ले जाकर रख दी थी
तुमने निगाहें अपनी !

दो पल की मुलाकात
और इंतज़ार
फिर से उसी संयोग का !

दोहराव का सुन्दर गणित
दोहराव का गहराता वैराग
दोहराव की बढ़ती ऊंचाई
अनुराग की ओर !
--------------------------------------

हर पत्थर तैरता है
तुम्हारे नाम का
इस सागर में
ना कभी डूबता है
ना कभी खोता !

शब्दों के कंकड़ ,
बातों के पहाड़
बाकी सब कुछ
डूब जाता है हर बार
---------------------------------------

प्रेम में डूबी बातें
विश्वास में डूबी आँखें
कितना मजबूत पुल बाँधती हैं
सोचना ही नहीं पड़ा
कभी आते जाते !

विश्वास के धागों में बुने
उम्मीदों के ख़याली स्वेटर
और हल्के मद से सराबोर
सर्द हवा में खामोश हम तुम
चिपकी सी रहने लगती है
कोई नर्म ऊनी गुनगुनाहट !
-----------------------------------------

विज्ञान की होकर भी
तुम बातों में जाने कौन जादू रचती थी
अपने समीकरणों से
ना जाने कौन सा साहित्य सृजति थी !

एक मैं भी था जिसके लिए
किताबों में रह गया था बस
एक नीला आसमान
उड़ान भरने लगते थे
आँखें रखते ही
खयालों के कितने पंछी !
------------------------------------------

वक़्त की शुरुआत बदल गयी थी
तुमसे पहले कुछ नहीं था सृष्टि में
ना तुम्हारे बाद के किसी ख्याल को
आकाश मिलता था !

तुमसे मिलना और फिर
भावों का उद्गम बदल जाना
खगोलीय घटना थी
या जाने रसायन की पहेली
या कोई नए युग की शुरुआत !

रौशनी का स्तोत्र भी बदल सा गया था
तेरे बिना कहाँ शुरू होता था दिन कहीं !
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तुझसे मिलने
और तुझसे मिलने के बीच में
कभी कोई वक़्त नहीं गुज़रा
ना ही कुछ घटा
ना ही कुछ आगे बढ़ा !

तेरे साथ बिताये पल
कितने रेशम कितने सरल
कितने गम कितने तरल
बिना छुए ही गुज़र गया
वो कितना वक़्त पास से
ख्वाब हो गयी कितनी सदियाँ
कितने आँसू आँख से
कितनी खुशियाँ आँखों में बनकर
आँखों में ही छा गयी
मीठी यादें नमक सी घुलकर
स्मृति जल में समा गयी !
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(2)

ठहर जाया करता
अक्सर सब कुछ
और फिर चलने लगता
सब कुछ वैसे ही
मुझे वहीँ छोड़कर !
ऐसे ही किसी एक पल
सब कुछ ठहरा हुआ था
घंटाघर पर घडी
घड़ी पर काँटें
काँटों में वक़्त
आँखों में तेरा खयाल !

जागते सपने सा चलता रहा सब
चाँद बहता रहा रात के दरिया में
तुम तकिये को नाव किये !
कौन जाने मेरी आँखें
दीवार पर थी या शून्य में
मन खयालों में था
ज़हन सवालों में
उलझता सुलझता !

सब कुछ ठहरा हुआ था
चाँद रात वक्त खयाल
और आँखें अपलक
और अचानक सब चलने लगा
उस बदलाव के क्षण में जाना
होना और ना होना
ना होते हुए भी होना
होते हुए भी ना होना !
-----------------------------------

संसार सागर था
और वक़्त बहाव
भावनायें पतवार थी
और ख़याल दिशा
ख़्वाबों की नाव में
संभव नहीं था
वक़्त का सही अनुमान
खुशबुओं का पीछा करता
मन करता रहा सैर !

घड़ी 6 पर थी
सूरज क्षितिज़ पर
मैं बस स्टॉप पर कहीं
और तुम दरवाजे पर
या शायद किसी खिड़की में
या हर वहाँ जहाँ मेरा खयाल पहुंचा !

अब घड़ी 12 पर है
तुम शायद तकिये पर
ख़्वाबों को सिरहाने किये
मैं बैठा हूँ किसी किनारे
एक दीवार का सहारा लिए !
------------------------------------

हथोड़े की तरह वक़्त
गतिशीलता की वस्तु नहीं
बस मिलन की चोट है

हथोड़े की तरह वक़्त की
गतिशीलता कोई वस्तु नहीं
बस प्रहार की तीव्रता है !
-------------------------------------

तुम व्यस्त थी मैं खाली
और चाहत उमड़ रही थी
मैं व्यस्त था तुम खाली
और चाहत उभर रही थी
पर वक़्त सरकता नहीं था
बिना दो पाट एक कदम !

बादलों को प्यास होती है
तप कर खाली हो जाने की
हर कोई चाहता है मुक्ति
अपने कन्धों पर के भार से
वो जाते हैं दूर तक बहते हुए
जहाँ हज़ारों हाथ इंतेज़ार में हो
और पत्ते नम स्पर्श को आतुर !

एक बरसात और भी थी
जमीन से उठती थी गर्मी की बूँदें
और हल्का कर देती थी बादलों को
बंधन मुक्त हो ऊर्जा
गरजती कड़कती
हो जाती थी लय
अनंत आसमान में कहीं !

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(3)

शिकन थकन सिलवटें
दूर होने लगे थे सब
फेफड़े लेने लगे थे
खुली हवा का स्वाद
मैंने जाना बेवजह की हो-हँसी से
कहीं बेहतर हैं ख़ामोश ख़याल

दुनियावी थार में प्यार
सागर की लहरों सा
गंभीर शोर करता था
मेरे मन की खामोशी में
बहती हुयी हवा के झोंके
बदल देते थे विचारों की दिशा
खोया हुआ पाता था
अपने आप को मैं अक्सर !
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ख्वाहिशें सिमट कर सारी
एक मूर्त रूप ले उठती
सब कुछ बेमायनी लगता
लगता जैसे जीवन बस उतना ही हो
जितने में सिमट सकें तुम और मैं !

एक दुनिया
और उसमें अनेक एक दुनिया
बिखराव वियोग
और खो जाती हुयी चीजें
मैं कर लेना चाहता था निश्चित
तुम बनी रहो मेरी दुनिया में !

हम सब मूर्ती हैं
अपने ही सपनो की
और हमारा संसार
हमारा निजी स्वप्न संसार
पर कितने खुले हुए हैं
हमारे स्वप्नों के रास्ते
और कितना गुजरते हैं हम सब
एक दुसरे से होकर !

सच कर देता है उसे
किसी भी ख्वाब से ज्यादा लगाव
पत्थर में भी बसने लगते हैं प्राण
कभी कभी सच हो जाते हैं
हमारे हसीन ख्वाब
तो कभी
कोई डरावना खयाल
आकार लेने लगता हैं !

अदृश्य धागों से बंधी हुए
गोल घूमने लगती है जिंदगी
हर फैसला हर एक ख़याल
बस उस एक घेरे तक सिमट जाता है !

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अ से

Dec 24, 2014

इस जाम को प्याले को गवाह करता हूँ


इस जाम को प्याले को गवाह करता हूँ 

मयकदे में रात से निकाह करता हूँ 
तेरी रहमत का ये खुला आसमां लेकर 
आज ये आखिरी गुनाह करता हूँ 
साकिया देख मैं रंजूर हुआ जाता हूँ 
जब्त की हद से बहुत दूर हुआ जाता हूँ
मेहरबान हो कुछ साँस खुद मुझको पिला दे
वरना डूब कर पीने पे मजबूर हुआ जाता हूँ ! 

अ से

Dec 20, 2014

मृत्युलोक


ये मृत्यु द्वारा जीत लिया गया लोक है
शेष को पृथ्वी का भार ढ़ोना है
अपनी वृद्धि के लिए
सृजन का बीज बोना है ।
ब्रह्मा को सृजन का अहंकार है
विष्णु ने जीत लिया ये संसार है
पर इस सब से
शिव को क्या सारोकार है ।

अ से 

Dec 18, 2014

Suicide in the Trenches -- Siegfried Sassoon


मैं जानता था एक सामान्य सिपाही लड़के को
 
जो हँसता जीवन की खाली खुशियों पर
सोता था गहरी नींद निर्जन अँधेरे के बीच 
और निकल पड़ता पंछियों के साथ अल सुबह
सर्दियों में खंदक खोदकर रहता उदास और त्रस्त
सिकुड़ कर जुओं और रम की कमी के साथ
उसने निकाल दी एक गोली अपने भेजे के पार
किसी ने जिक्र नहीं किया उसका फिर कभी
तुम दंभी-चेहरे आपस में जलने वाली भीड़
जो खुश होती है जब सैनिक मार्च करते है युद्ध को
घर में छुपे बैठे प्रार्थना करते कि तुम्हें ना देखना पड़े
नरक जहाँ चली जाती है हँसी और जवानी ।
I knew a simple soldier boy
Who grinned at life in empty joy,
Slept soundly through the lonesome dark,
And whistled early with the lark.
In winter trenches, cowed and glum,
With crumps and lice and lack of rum,
He put a bullet through his brain.
No one spoke of him again.
You smug-faced crowds with kindling eye
Who cheer when soldier lads march by,
Sneak home and pray you'll never know
The hell where youth and laughter go.
Suicide in the Trenches -- Siegfried Sassoon


- ये चाहिए या ये ?

- दोनों 
- तब कुछ नहीं मिलेगा । 
- ठीक है । 
- ये चाहिए या ये ?
- कुछ नहीं ।

अ से 

Dec 14, 2014

God and the soldier


ईश्वर और सैनिक
सभी के पूजनीय
विपत्ति के समय
और फिर नहीं ;
कि जब युद्ध निपट चुका है 
और सब कुछ सही है
देवता उपेक्षित हैं
बूढ़े सैनिक महत्वहीन ।
God and the soldier
All men adore
In time of trouble,
And no more;
For when war is over
And all things righted,
God is neglected -
The old soldier slighted.
---- Anonymous

Dec 13, 2014

बहुत दिन बीते कुछ किया नहीं गया


बहुत दिन बीते कुछ किया नहीं गया
समय कुछ पिछले जिया नहीं गया
दिल से किसी की दौरान बात नहीं हुयी
आँखों में ही गुज़री कोई रात नहीं हुयी
क्या हो गया इस दिल को अंजान समझूँ
अब उठते नहीं कोई खुवाब बेजान समझूँ
समझूँ क्या अपने हालात ए दौर को खस्ता
या किसी बेजुबान का जज़्बात समझूँ
बनते नहीं अब लफ़्ज़ ज़ेहन में सोये हैं
बुदबुदाते नहीं जज़्ब आँखों में रोये हैं
खाली है जन्नत ए इश्क़ से कटोरा
बरसते अब्र से बस उदासी के फ़ोहे हैं
ख़यालों में गुज़र बहुत मुश्किल है करना
सवालों में फिकर बहुत मुश्किल है मरना
मुश्किल है तमाम इस इंसां की राहों में
धीमे से बहुत मुझे वक़्त के पार है उतरना !
अ से

Nov 28, 2014

पुरस्कार


उनके पास बहुत से हैं
सो वो दे देते हैं या बाँट देते हैं
पुरस्कार अहंकार है देने वाले का
सम्मान के वस्त्रों में
और अपने कोषागार में से 
वो बाँट देते हैं एक अंश अपने दंभ का ।
पाने वाले उत्सुक रहते हैं हमेशा
हर उस चीज के लिए जो बँट रही हो
क्या बँट रहा है से महत्वपूर्ण कितना मिल रहा है हो जाता है
सम्मान भी किसी वस्तु की तरह बँटता है
फिर फिर अपने को दे की तर्ज पर ।
पारितोषिक सामान्यतः साधन है किसी की जीविका का
पर पुरस्कार एक तिरस्कार है
किसी के काम की खूबसूरती के साथ अपना नाम जोड़ने का
और सम्मान का अपमान
एक बड़े मंच पर की गयी जादूगरी
जिसका भेद कैद होता है पर्दे के पीछे
बड़ी कुशलता से मारे गए पांछियों में ।
पुरस्कार दिया जा रहा है या लिया जा रहा है
क्या सचमुच ये किसी के काम का कोई सम्मान है
कि उसे घोड़ों के साथ रेस में दौड़ा दिया जाये
या तय कर दी जाये कीमत खूबसूरत काम की
या बड़ा दी जाये उसके नाम की ।
उनके पास बहुत से हैं
जब उन्हे देने होंगे तो वो किसी भी नाम से दे देंगे
जब उन्हे बांटने होंगे वो किसी भी काम पर दे देंगे
वो राजा है स्व्यंसिद्ध वो निर्णायक है महाभारत के
वो रचयिता है किसी की नियति के
और सच्चे पुरस्कार के हक़दार हैं
कि जुगाड़ बैठाने वालों की कुशलता देखते ही बनती है ।
अ से

Nov 27, 2014

" अर्द्ध नारीश्वर स्तोत्र -- उपमन्यु कृत -- हिंदी अनुवाद "


चाम्पेयगौरार्धशरीरकाये कर्पूरगौरार्धशरीरकाय
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारजःपुंजविचर्चिताय
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
चलत्क्रणत्कंकणनूपुरायै पादब्जराजत्फणिनूपुराय
हेमांगदायै भुजगांगदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय
जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
प्रदीप्तरत्नोज्जवलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय ।।
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चम्पाई गौर अर्द्धशरीर रूप , कर्पूरी गौर अर्द्धशरीर रुप
पुष्पसज्जितकेशधारी , जटाधारी , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।
कस्तूरी कुमकुम आवृत रूप , चिताधूल पुंज आवृत रूप ,
प्रवृत्ति रूप , निवृत्ति रूप , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।
खनकते बजते कंगन नूपुर पहने , चरण कमल में सर्प नूपुर पहने ,
स्वर्ण बाजुबंद पहने , सर्प बाजुबंद पहने , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।
विशाल नीले कमल नेत्र वाली , विकसित कमल रूप नेत्र वाले ,
सम दृष्टि वाली , विषम दृष्टि वाले , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।
मंदार माल सज्जित केश , कपाल माल सुशोभित कंधे ,
दिव्य वस्त्र धारी व दिशा वस्त्र धारी , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।
बरसाती बादल से श्याम केश , चमकती बिजली सी ताम्र जटाएँ ,
निर-अपेक्ष रूप , सर्व-अपेक्षा रूप , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।
प्रपंच रचना को उन्मुख कृतक , समस्त संहार के तांडव नृतक ,
जगत उत्पत्ति , जगत-एक पिता , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।
चमकते रोशन रत्न कुंडल पहने , भयानक सर्परूप आभूषण पहने ,
शिव समन्विता व शक्ति समन्वित , शक्ति को नमन व शिव को नमन ।।

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जब तुमने वो गुलाब लिया था
सिर्फ मैं ही नहीं
अनुगृहित हुआ था वो गुलाब भी
जब तुमने उसे स्वीकार किया था
वो पौधा , अगर उसे पता चलता , 
खुद उस फूल सा खिल पड़ता , हर पत्ता पंखुड़ी हो जाता ,
वो बगीचा कुछ और स्वीकार नहीं करता फिर ,
सिर्फ गुलाब लगते वहां पर ।
मेरा कुछ देना प्रेम था मेरा ,
स्वीकार करना तुम्हारा प्रेम ,
दोनों वस्तुतः त्याग थे ,
लेना देना यहाँ गोण था ,
वो व्यवसाय माध्यम था ,
अभिव्यक्ति थी प्रेम की ।
त्याग प्रेम है ,
समर्पण प्रेम है ,
और प्रेम है स्वीकार्यता ,
कोई तुम्हे क्या दे सकता है
जबकि तुम्हे स्वीकार ना हो ,
जबकि तुम्हारा मन उसमें रमता ना हो ,
कोई क्या दे सकता है एक प्रेमी को
संसार से इतर जिसका मन ह्रदय की दो परछाइयों के बीच खोया रहता हो
और कोई क्या ले जा सकता है उसका जिसका किसी वस्तु में अपनत्व ना हो ।
हर व्यक्ति का प्रेम व्यवहार अनोखा है , उतना ही जितना वो व्यक्ति
जितने तरह के लोग हैं उतने ही प्रकार की उनकी प्रेम अभिव्यक्ति
पर जब तक उसमें सहजता नहीं है तुम्हें स्वीकार कर सकने की
किसी वस्तु से इतर तुम्हें एक समझ एक एहसास एक चाह मानने की
तब तक अपना सब कुछ दे सकने के बावजूद वो तुम्हे कुछ नहीं दे सकता
तब तक वो तुम्हारी आत्मा तक नहीं पहुँचता ।
खाने वाला , बनाने वाले जितना ही पूज्य था हर बार ,
जब भी आपसी सम्मान उन्हें जोड़ता था ,
खाने वाले की तुष्टि बनाने वाले का धन था ,
बनाने वाले का मन खाने वाले का धन
तुम्हारा गुलाब लेना
उसे स्वीकार करना था मुझे स्वीकार करना था
और अनुमति देना था अपनी आत्मा में मेरी उपस्थिति को ।
चाहत कोई खालीपन सी होती है ,
तब तक , जब तक कोई और उसे समझना नहीं चाहता ,
जब कल्पना के उस रिक्त चित्र को
कोई अपनी स्वीकार्यता देकर , उसमें अपने रंग भरता है ,
तो वो मुक्त आकाश में फ़ैल जाते हैं ,
भोर के वो पंछी जो अब तक रात की उदासी में सोये थे
खुली हवा में सांसें भर पंख फड़फड़ाने लगते हैं
आपसी प्रेम की दुनिया कुछ यूँ रंगीन हो जाती है ,
की शिकवे शिकायतों की विगत सभी लकीरें लुक जाती हैं ,
तब आकाश के भीतर कोई और आकाश नहीं रहता ,
तब आकाश का बाहर समाप्त हो जाता है ,
ये सृष्टि अनुग्रह नज़र आने लगती है
और आत्म सम्मान का सूरज चमकने लगता है ,
और तब बारिश होती है ,
बारिश स्वच्छता की , प्रसन्नता की , विश्वास की ,
अंतःकरण तब अंतस से मुक्त हो महकता है ,
और वो खुशबू किसी गुलाब सी होती है ॥
अ से

So you want to be a writer ? .... by Charles Bukowski


अगर ये* एक विस्फोटक की उत्तेजना से बाहर नहीं आती
हर बात के बावजूद
तो रहने दीजिये ,
जब तक ये स्वतः ही नहीं उभर आती
तुम्हारे दिल से तुम्हारे मन से तुम्हारी जबान से
और तुम्हारे अंतस से
तो रहने दीजिये ,
अगर तुम्हे घंटों तक बैठना पढ़ता है
अपनी कंप्यूटर स्क्रीन में नज़रें गड़ाये
या अपने टाइप राइटर पर कमर झुकाए
शब्दों की तलाश में
तो रहने दीजिये ,
अगर आप ये करते हैं पैसे के लिए
या नाम के लिए
तो रहने दीजिए ,
अगर आप ये कर रहे हैं क्योंकि
स्त्रीयों को आप अपने बिस्तर पर चाहते हैं
तो रहने दीजिये ,
अगर आप को एक जगह बैठकर
लिखे हुए को बार बार सुधारना पढ़ता है
तो रहने दीजिये
अगर ये करने की सोचना आपको मुश्किल लगता है
तो रहने दीजिये
अगर आप किसी और की तरह लिखने की कोशिश कर रहे हैं
तो भूल जाइए ,
अगर आप को इसके गरज कर बाहर आने के लिए इंतज़ार करना पढता अहै
तो चैन से इंतज़ार कीजिये ,
अगर ये गरज कर बाहर नहीं आती
तो कुछ और कीजिये ,
अगर आप को पहले ये दिखाने का मन है
आपकी पत्नी प्रेमी प्रेमिका दोस्त या माँ बाप को
या किसी को भी
तो अभी आप तैयार नहीं हैं ,
बहुतों की भीड़ का हिस्सा मत बनिए
उन हज़ारों लोगों में से एक मत बनिए
जो अपने आप को लेखक कहते हैं ,
कुछ भी हल्का बकवास मत लिखिए जो मन को ना भाये ,
या जिसका अंदाजा लगाया जा सके
आत्म मुग्धता में मत डूबिये
विश्व भर के पुस्तकालय उबासियाँ ले लेकर सो चुके हैं
इस तरह की लिखाई पर ,
उसका वजन मत बढ़ाइए
रहने दीजिये ,
जब तक की ये किसी रोकेट की तरह बाहर नहीं आती
आपकी आत्मा की जमीन से
जब तक की इसे रोक कर रखना
आपको पागल नहीं कर देता
आपको मरने मारने पर उतारू नहीं कर देता
रहने दीजिये ,
जब तक की आपके भीतर का प्रकाश
आपके अंतःकरण को प्रकाशित नहीं कर देता
रहने दीजिये ,
जब इसका सही समय होगा
और आप इसके निमित्त चुने जाओगे
तब ये खुद ही रोशनी में आ जायेगी
और ये रोशन रहेगी
जब तक आप नहीं मर जाते या ये आप में नहीं मर जाती ,
और कोई तरीका नहीं है
और कभी नहीं था !
* writing , लिखाई

So you want to be a writer ? .... by Charles Bukowski

Nov 26, 2014

सामने अतीत है मेरे


सामने अतीत है मेरे
पीठ पीछे भविष्य
कंधे ध्यान मग्न हैं
इन दोनों के बीच ।
बाएँ नियति है मेरी
दायें मेरा सामर्थ्य
अन्तःकरण तराजू है
इन दोनों के बीच ।
अ से