Nov 27, 2014

जब तुमने वो गुलाब लिया था
सिर्फ मैं ही नहीं
अनुगृहित हुआ था वो गुलाब भी
जब तुमने उसे स्वीकार किया था
वो पौधा , अगर उसे पता चलता , 
खुद उस फूल सा खिल पड़ता , हर पत्ता पंखुड़ी हो जाता ,
वो बगीचा कुछ और स्वीकार नहीं करता फिर ,
सिर्फ गुलाब लगते वहां पर ।
मेरा कुछ देना प्रेम था मेरा ,
स्वीकार करना तुम्हारा प्रेम ,
दोनों वस्तुतः त्याग थे ,
लेना देना यहाँ गोण था ,
वो व्यवसाय माध्यम था ,
अभिव्यक्ति थी प्रेम की ।
त्याग प्रेम है ,
समर्पण प्रेम है ,
और प्रेम है स्वीकार्यता ,
कोई तुम्हे क्या दे सकता है
जबकि तुम्हे स्वीकार ना हो ,
जबकि तुम्हारा मन उसमें रमता ना हो ,
कोई क्या दे सकता है एक प्रेमी को
संसार से इतर जिसका मन ह्रदय की दो परछाइयों के बीच खोया रहता हो
और कोई क्या ले जा सकता है उसका जिसका किसी वस्तु में अपनत्व ना हो ।
हर व्यक्ति का प्रेम व्यवहार अनोखा है , उतना ही जितना वो व्यक्ति
जितने तरह के लोग हैं उतने ही प्रकार की उनकी प्रेम अभिव्यक्ति
पर जब तक उसमें सहजता नहीं है तुम्हें स्वीकार कर सकने की
किसी वस्तु से इतर तुम्हें एक समझ एक एहसास एक चाह मानने की
तब तक अपना सब कुछ दे सकने के बावजूद वो तुम्हे कुछ नहीं दे सकता
तब तक वो तुम्हारी आत्मा तक नहीं पहुँचता ।
खाने वाला , बनाने वाले जितना ही पूज्य था हर बार ,
जब भी आपसी सम्मान उन्हें जोड़ता था ,
खाने वाले की तुष्टि बनाने वाले का धन था ,
बनाने वाले का मन खाने वाले का धन
तुम्हारा गुलाब लेना
उसे स्वीकार करना था मुझे स्वीकार करना था
और अनुमति देना था अपनी आत्मा में मेरी उपस्थिति को ।
चाहत कोई खालीपन सी होती है ,
तब तक , जब तक कोई और उसे समझना नहीं चाहता ,
जब कल्पना के उस रिक्त चित्र को
कोई अपनी स्वीकार्यता देकर , उसमें अपने रंग भरता है ,
तो वो मुक्त आकाश में फ़ैल जाते हैं ,
भोर के वो पंछी जो अब तक रात की उदासी में सोये थे
खुली हवा में सांसें भर पंख फड़फड़ाने लगते हैं
आपसी प्रेम की दुनिया कुछ यूँ रंगीन हो जाती है ,
की शिकवे शिकायतों की विगत सभी लकीरें लुक जाती हैं ,
तब आकाश के भीतर कोई और आकाश नहीं रहता ,
तब आकाश का बाहर समाप्त हो जाता है ,
ये सृष्टि अनुग्रह नज़र आने लगती है
और आत्म सम्मान का सूरज चमकने लगता है ,
और तब बारिश होती है ,
बारिश स्वच्छता की , प्रसन्नता की , विश्वास की ,
अंतःकरण तब अंतस से मुक्त हो महकता है ,
और वो खुशबू किसी गुलाब सी होती है ॥
अ से

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