Nov 7, 2014

एक पल को मुझे दिखता है एक सतत दृश्य

एक पल को
मुझे दिखता है एक सतत दृश्य
जिसमें वस्तुएँ दृश्य से अलग नहीं होती
और फिर मैं उन्हे पृथक करता हूँ
उनके स्पर्श से 
तय करता हूँ उनका रूप आकार
सीमाओं के उस क्षेत्र से
जो गति कर सकता है एक साथ ।
और मैं पृथक करता हूँ स्पर्शों को
उनके शब्द से
जो अलग हैं संवेदना में छूने पर
सभी का स्पंदन अलग है और उनका संगठन ।
जैसे मैं पृथक करता हूँ गंधों को उनके रस से
और रसों को उनकी रसायनिक संरचना से ।
जैसे मैं अलग करता हूँ शब्दों को
उनके मन से
उनके निहित अर्थ और प्रयोजन से ।
फिर अमुक मन को पृथक करता हूँ
उसकी समझ से
मैं जानता हूँ बालक का अबोध
स्त्री का अपनापन और पुरुष की समग्रता
समय की माँग प्रतीक्षा की बैचेनी
और प्रेम की अधीरता
और इस तरह एक ही वाक्य को
हमेशा एक ही वाक्य नहीं मान सकता ।
और समझ पृथक होती है
पात्र के अहंकार से
कि आखिर वो किन वस्तुओं को
जोड़ बैठा था अपनी अस्मिता से
और लिए बैठा था कौनसे संकल्प अपने मानस में ।
अ से

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