Nov 17, 2014

पत्थरों की दरारों में नयी घास उगी है ...


पत्थरों की दरारों में नयी घास उगी है
कल पकाए खाने में भी फफूंद लगी है
जाने ये मच्छर कहाँ से आ जाते हैं
ये झींगुर फिर से उत्पात मचाते हैं ।
कल ही साफ़ किया ये जंगल 
आज फिर बारिश में रहता है
मेरा इकठ्ठा किया पानी
बाँध के साथ बहता है ।
समय गुजरे की बात है ,
बदल दी थी पूरी धरा की शकल
बना दी थी इमारतें
नदियों को नाले नालों को नल ।
आज मशीनों पर काई जमी है
धरा पर फिर वनस्पतियाँ रमीं है
उसकी बनावट मुझे सताती है
मेरी सजावट उसे नहीं भाती है
मैं जो भी करूँ सब मर जाता है
फिर वो ही दृश्य उभर आता है ।
ना सृजन मरता है
ना मृत्यु थकती है
फिर फिर वो ही प्रकृति बरसती है
मेरे बदलाव की हर कोशिश
अपने अस्तित्व को तरसती है ।
ना मैं उसे समझ पाया
ना उसके हिसाब से ढल पाया
ना उसने खुद को बदलना चाहा
ना उसको कभी खयाल आया ।
बे-मायनी जद-ओ-जहद चलती रही
कतरा कतरा ये ज़िन्दगी जलती रही
चित्र विचित्र अनेकों कहानियों के साथ,
अपने अर्थ को तलाशती ।
अ से

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