Dec 4, 2013

दिल जानता है ...


आकाश अपने पास कुछ नहीं रखता ,
उसको दिया सब बिखर जाता है , वहीँ आकाश में !!

सोन चिड़ियाऐं गाती हैं सिर्फ प्रेम गीत ,
वो नहीं सुनती कोई भी बात , किसी मतलब की भी !!

अपनी हद पर खड़ा रहता है दरबान और चले जाना चाहता है ,
उसे नहीं वास्ता किसी रंगीन महफ़िल से !!

खिड़कियाँ नहीं रोकती मिलने से, भीतर और बाहर को ,
बस एक जरूरी दृश्य दूरी बनाये रखती हैं !!

पता है संगदिल तुझे ...
दिल दुनिया की सबसे खूबसूरत खिड़की है ,
सबसे सचेत दरबान ,
सबसे फैला आकाश ,
और एक सच्ची सोन चिड़िया !!

दिल जानता है...
आजादी जरूरी है जीने को ,
पर वो नहीं थोपता कोई भी निर्णय तुम पर ,
सिर्फ दिखाता है दृश्य ,
सुनाता है गीत ,
सबक देता है इंतज़ार का ,
कुछ नहीं कहता वो तुम्हे ,
सिर्फ एहसास देता रहता है ,
उसके होने का ....

आखिर तुम्हे भी तो जीना है ना !!

< अ-से >

Dec 3, 2013

अभिवैयक्तिकी

जो कुछ है .....
वही ज्ञान का विषय है ,
जो कुछ भी है जैसा भी है ,
शब्दों द्वारा उसी को संज्ञापित किया जाता है ,
उसी को परिभाषित किया जाता है ,
और प्रमाणों द्वारा उसी को सत्यापित किया जाता है ,

पर फिर प्रमाण का न उपलब्ध होना ,
संज्ञा और परिभाषाओं का असमर्थ होना ,
कतई ये नहीं जताता ,
की जो विषय इतनी समग्रता और इतना व्यापक रूप से जाना सुना जाता है ,
वो वस्तुतः है ही नहीं !!
किसी भी विषय में पढ़े जाने पर उस पर शंका रख कर नहीं पढ़ा जा सकता ,
ज्ञान जो है उसे ही जानने /समझने / गुनने की बात है ... !!

और जो कुछ है , वो वैसे भी है , चाहे उसे जाना जाये या नहीं ....
ज्ञानकर्म संन्यास योग .... कर्म के साथ ज्ञान की भी अनावश्यकता को बताता है !!
हाँ ये बात जरूर है की " ज्ञान जरूरी नहीं !! "

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी - २

पूर्व (पहले ) की दिशा में ही घूमता है जीवन फिर फिर ,
पश्चिम में (पश्चात् ) अस्त होना ही है चेतना का सूरज ,
और फिर से भोर तक विराम !!

उत्तर और दक्षिण स्थिर ही रहने हैं सदा ,
परस्पर संयोजन से ...
उत्तर कला और प्रकृति और दक्षिण कौशल और कर्म के सहित ,
त्याग की धुरी बने रहते हैं !!

इस चतुर्भज की आवर्त गति से ही ये दुनिया गोल है शायद ,
यूं घूमते रहना ही समय है ... आखिर ... !!

< अ-से >

पोटली


आते वक़्त ही माँ ने एक पोटली दी थी ...
और कहा था अपना ख़याल रखना , पोटली से ज्यादा जरूरी तुम हो मेरे लिए ...

वक़्त के रास्ते मैं निकल पड़ा ,
राह में जो भी मिला जो भी जैसा भी लगा , मैं पोटली अपनी भरता रहा ..

पोटली के अन्दर एक अनोखी ही दुनिया रच बस गयी थी ,
सामान एक दुसरे से रिश्ते बनाने लगे जुड़ने लगे और सिस्टम आकार लेने लगा ,
वो नए आने वाले सामानों को भी कहीं अपने अनुसार ही व्यवस्थित कर देते थे ,
वहां जो आसानी से जगह बना लेते थे उन्होंने अलग ग्रुप बना लिया ,
वहां अक्सर चर्चाएं होती रहती और सामानों पर अच्छे बुरे की छाप भी लगने लगी ...

यूँ ही चलते चलते जब मैं थक जाता या मार्ग निर्धारण करना होता ,
तो उसमें झाँक कर देख लेता ...

पहले सब कुछ उसमें आसानी से आ जाता था और चलने पर चीजें उलटती पलटती रहती ,
पर बाद में चीजों की हवा बाहर निकली जाने लगी पोटली के कपड़े से और गतिहीनता के कारण उनमें शुद्धता नहीं रह गयी ,
फिर वो ठंडी भी होने लगी क्योंकि गर्म वस्तुएं ज्यादा जगह घेरती हैं ,
और बाद में सूख कर जमने लगी अब उनमें रस भी बाकी नहीं रहा ,
नए आने वाले सामान भी जल्द ही इस सिस्टम के अनुसार ढलने लगते ...

सघनता काफी बढ़ चुकी थी और पोटली भारी होने लगी ,
अब वो इधर उधर से फट भी चुकी थी , कई चीजें राह में ही कहीं बिखर चुकी थी ,

एक दिन बहुत उदास होने पर मैं एक पेड़ के नीचे बैठ अपनी पोटली निहारने लगा ,
देखा तो उसमें ऊपर ही कुछ साबुत सामान थे , थोड़े नीचे के टूटे फूटे से ,
और बाकी सिर्फ धूल और मिट्टी ...

मुझे दिखने लगा आगे ... एक दिन ये पोटली बहुत उधड जाने वाली है ,
और सारे अनुभव और स्मृतियाँ भी मिटटी हो जाने हैं ,
और तब मेरी यादों की पोटली मुझे छोड़नी ही है ,

आगे रह जाएगा सिर्फ ये रास्ता ...
पर परवाह नहीं अब ...
....... आखिर माँ ने कहा था मैं ज्यादा जरूरी हूँ उनके लिए !!

< अ-से >

त्रिपंक्तिकाएं


(1)
एक मदद का गुहार था ... हुआ तमाशबीनों का मेला ...
वो भला कौन शरीफ है जो तमाशाखोर भीड़ चाहे !!

( या तो राजनीती होगी या गरीब मजबूरी ... )

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(2)

समझ नहीं आता बड़ा गुनाही कौन था ,
लड़ने वाला या लड़ाने वाला ... !!

(न चाहने वालों ने बेवजह भुगता ..... )


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(3)
पात्रता न तो कर्म से तय होती है ना ज्ञान से ...
वो तय होती है ह्रदय पात्र से ... !!


(आखिर दिल में कुछ भी रखा जा सकता है ... )

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kya kuch bhi nahi ??

हर बात के बाद एक बात है ख़ामोशी ,
अभी कुछ कहा जाने को है ,
या शायद कुछ नहीं ....

हर शब्द के बाद एक शब्द है मौन ,
कुछ तो मतलब है ,
या कुछ भी नहीं ....

तुम हंस कर जाने को हो ,
हम अब तक सोच में हैं ,
क्या , कुछ बीत गया ,
या कुछ भी नहीं ....

अभी और वक़्त है ,
कोई भी मुकाम आने में ,
कह दो कुछ और ,
की बात बदल जाए ....

यूँ ही बहते रहें ,
और जज़्बात बदल जाएँ ,
रुक जाओ कि ,
अभी बहुत लम्बा है सफ़र ...

क्या , कुछ अंजाम है ,
कहानी का मेरी ,
या ये भी एक कहानी ही है
और कुछ भी नहीं ...

< अ-से >

कौन जाने


सही लगे जिस भी लफ़्ज में तुमको ,
कह दो जो भी कहना हो आज ,
किसे खबर याद रहेगा कितना ,
अंदाज़ बरसती बातों का फिर ...

मौसम है माकूल तुम्हे तो ,
झूम लो दिल खोल के आज ,
किसे मालूम कल रहेगा कैसा
मिजाज तरसती रातों का फिर ...

निकल पड़ो क़दमों के रस्ते ,
दूर तलक जिस पर दिल कहे ,
किसे पता रखना था कब तक ,
हिसाब बदलती राहों का फिर ...

फिर किसी चाँद की ख्वाहिश कर ,
झिलमिलालो तुम भी तारों के साथ ,
किसे खयाल दिल को है कब तक ,
ऐतबार चमकती चाहों का फिर ...

अ से 

Nov 27, 2013

और क्या लिखूं ...

कुछ लिखने का मन है , क्या लिखूं !!

सागर नदी झील झरने तो सब लिखे जा चुके ,
चलो लिखते हैं एक चुल्लू भर पानी ,
कि क्या इसमें डूब कर मरा जा सकता है ,

हुम्मं !! डूबने के लिए पानी नहीं , संवेदनाएँ चाहिए ,
तैरती तो लाशें भी है ॥

हवा फिजा घटा समां भी खूब काले हुये हैं कागजों पर ,
चलो लिखते हैं , एक खुली साँस ,
कि क्या इससे कुछ बदल जाता है ,

हाँ , सोचने के लिए सिर्फ हवा नहीं , आज़ाद समां भी चाहिए ,
साँसें तो पिंज़रे के पंछी भी लेते हैं ॥

प्यार तकरार जंग और जूनून ने भी खूब किताबें जलाई है ,
चलो लिखते हैं , एक स्वच्छंदता ,
की क्यों उलझा पड़ा है इंसान समाज के जंजाल में ,

अरे , कैसे बन पाएंगे कुछ लोग भगवान् ,
अपने में तो इंसान भी जी लेते हैं ॥

< अ-से >

kya socha kya paaya ...

भरने आया था डूब कर भी खाली निकला,
होश में आया तो आलम ये खयाली निकला।।

मस्त होने को पीता रहा हर घूँट जिसे,
मेरी किस्मत कि वो प्याला भी जाली निकला।।

पढते आये थे जो भी हम किताबो में,
सोच के देखा हर जवाब सवाली निकला।।

तब तक ना समझा है तू तेरी भूल बन्दे ,
ना लगे की हर तमाचा कोई ताली निकला।।

< अ-से >

Nov 26, 2013

विद्रोह

Painting - Neogene Irom Sharmila / Google
विद्रोह : 

एक लम्बी कैद में " हया " ने कई जन्म और मृत्यु देख लिए ,
उस-ने अपने दिल पर हाथ रखा और दिल भभक उठा ....

तय समय पर शैतान ने चाबुक उठाया , 
परपीड़ा का नशाखोर , काममद से हिनहिना उठा ,
क्रंदन गीत सुनने का मन लिए वो पहुंचा जहाँ हया कैद थी ,
उसके मनोरंजन का समय हो चुका था ....

वो बुरा नहीं था ... उसने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा ,
वो बस अपना आनंद किसी कीमत पर नहीं खो सकता था ,
उसने अंतस के अनेकों युद्धों में सत्य धर्म प्रेम और शान्ति को पस्त किया था ,
हाँ सीधी लड़ाई से वो डरता रहा था इसीलिए ये अभी भी परास्त नहीं हुए थे ,
और फिर फिर उसको ललकारते थे ... ह्रदय के बेचारे अबला से अंग ....

खैर वो जानता था कोई ईश्वर नहीं आएगा उसे चुनौती देने ,
ये भी उसके खेल कूद जैसे ही था ... शतरंज उसको ख़ासा भाता था ....

कैद खाने के दरवाजों को एक बेसब्री से खींचकर वो अन्दर आया ,
बदहवास सा होकर कोड़े बरसाने लगा ,
पर आज कुछ कम था उसे कुछ अजीब लगा ,
उसने पूरा जोर लगाकर और चाबुक मारे .....

मुस्कुराती हया का चेहरा तप्त रक्तिम था ,
वो हंसने लगी ,
उसकी तीखी हंसी शैतान को अन्दर तक भेद गयी ,
उसने पीठ के पीछे से हाथ खींचकर एक और चाबुक चलाया ,
तीखा क्रंदन उठा पर उसमें रूदन नहीं था एक अट्टाहास था ,
शैतान बुरी तरह विचलित हो उठा उसने चाबुक उठाया ,
और अपनी तमतमाई बेबसी से क्रोध बरसाने लगा ,
हया को जैसे कोई असर नहीं था उसकी देह , मृत कपड़ों सी निर्जीव थी ,
वो आँखों में अंगार सी चमक लिए अपनी रक्त आवृत देह का ध्यान न कर बस हंस रही थी ,
उसने ठान लिया था किसी भी कीमत पर वो शैतान को जीतने नहीं देगी ...

उस रात शैतान पहली दफा मात खाया सा अनमना बैचैन और फडफडाता जाकर लेट गया ,
आँखों में कहीं नींद नहीं थी ... वो कंठ तक सोच में डूबा था ...

वो हंस कैसे सकती है ... किसी की चीखों में अट्टाहास कैसे आ सकता है ...
दर्द पाकर भी कोई जीत कैसे सकता है ...
सुबह होते ही वो फिर वहां गया जहाँ जंजीरों में कैद खून की लकीरों से सजी एक देह बेसुध पड़ी थी ,
जमीन पर रक्त से उकेरा हुआ एक सन्देश था ... उसके नाम ....
तुम कभी नहीं हरा पाए मुझको ,
तुम्हारी सारी मेहनत व्यर्थ गयी ,
जानते हो तुम्हे क्यों कभी ख़ुशी नहीं मिलती ....
क्योंकि तुम्हारी माँ ने एक मृत शिशु को जन्म दिया था जो एक मृत सहवास का परिणाम था ,
तुम्हारी माँ ने तुममे ह्रदय का बीज कभी डाला ही नहीं ,
तुम प्रकृति के एक मृत नियम का परिणाम भर थे जिसके अनुसार हर कार्य का फल पैदा होना ही था ,
चाहे वो कार्य किसी विध्युत चालित यंत्र ने ही किया हो ...

तुम्हारा पिता कोई मानुष नहीं था उस रात जब तुम्हे बीजा गया वो प्रकृति के मृत हिस्से का एक यंत्र भर था ,
तुम एक यंत्र की पैदाइश हो ....

और जब तुम जीवित ही नहीं तो तुम्हारा खेलना कोई भी मायने नहीं रखता इस संसार के ह्रदय में ,
जब तुम्हारी लाश को तुम्हारे अनुत्पन्न हृदय के साथ पृथ्वी से बाहर फेंका जा रहा होगा ,
तब संसार में उत्सव का माहौल होगा ....
और तुम एक सामूहिक गिद्ध भोज के साधन मात्र होंगे ...
हाँ पर उस वक़्त तुम हंस पाओगे अपनी मृत देह से क्योंकि पहली दफा कहीं शांति होगी ....
और पहली बार तुम्हारे कारण से संसार में खुशियाँ होंगी .... !!

< अ-से >

painting : Neogene Irom Sharmila // google "
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सम्प्रज्ञाः

"सम्प्रज्ञाः"

वो किसी वस्तु को सुन्दर कहें हम फलां फलां कमी निकाल देंगे ,
उसी वस्तु को वो बुरा कहें तो हम उसकी तारीफ़ में नग्में गड देंगे ,
हम वितर्कवादी लोग हैं ,

हमें स्वतः कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं लगता ,
हम इन्तेजार करतें हैं दूसरों के वक्तव्य का,
और उसकी बात के विपक्ष में खड़े हो जाते हैं,

क्योकि किसी भी बात के लिए सिर्फ अस्तु (ऐसा ही है ) नहीं कहा जा सकता ,
और हम ये बात अच्छे से जानते हैं ,
इसीलिए हम किसी भी निष्कर्ष तक पहुँचने से बचते हैं ,

जबकि हम इन सारी बातों से उदासीन हैं ,फिर भी हम बोलते हैं,
हम काफी लचीली जुबान के हैं बात को कैसे भी घुमा सकते हैं,
इसीलिए अपनी नज़रों में हम बहुत बुद्धिमान प्राणी हैं,
और ये हमारी सम्प्रज्ञा का पहला लक्षण है ॥ 

हम कुछ भी करने से पहले अव्वल तो उसकी उपयोगिता ढूंढते हैं ,
और क्योकि ये जानते हैं की सब कुछ सापेक्षिक है,
अतः हमें हर कार्य अनुपयोगी भी लगता है,
हम विचारवादी लोग हैं ,

कोई भी कार्य क्यों किया जाए,
फिर कैसे किया जाए और कब किया जाए ,
उसके संभावित परिणाम और मुश्किलें ,
और वो उस पर की जाने वाली मेहनत के अनुपात में फलदायी है या नहीं ,
सभी तरह से विचार करने के पश्चात ही हम कोई भी काम छोड़ते * हैं , (* यहाँ लेखक छेड़ते हैं भी लिखना चाहते हैं )
यूं ही नहीं , जैसा की हम पर आरोप किया जाता है ,
ये हमारी सम्प्रज्ञा का दूसरा लक्षण है ॥ 

घंटो तक अनवरत गाने सुनना , फिल्में देखना , मनोरंजन , सम-सामयिक विचार ,
लम्बी लम्बी बहस और डिस्कशन * , ( * यहाँ लेखक को हिंदी पर्याय याद नहीं आया  )
दुनिया की हर बात को जानने की जिज्ञासा ,
जो मूलतः आत्म को जानने की इच्छा है (अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ) ,
ज़िन्दगी के हर रंग को अनुभव करने का ज़ज्बा ,
हम आनंद्प्रिय लोग हैं ,

हम युद्धों और क्रांतियो से ऊपर उठ चुके हैं ,
अब बातों भर का झगडा , मनमुटाव ,
धर्म और रंग के विवाद ,
भी हमें अप्रिय लगतें हैं ,

तेरी स्त्री मेरी स्त्री ,
तेरी भाषा और भूषा तथा मेरी भाषा और भूषा,
तुम पीते हो या खाते हो आदि ,
ऐसी बात बात पर तलवारें निकालना हमनें बंद सा * कर दिया है । ( * यहाँ लेखक "बंद सा" लिखने पर मजबूर है )
और ये हमारी सम्प्रग्यता का तीसरा सबूत है ॥ 

अब हम खेल-कूद ,ज्ञान-विज्ञान ,कला-कौशल ,
आदि बातों का आनन्द लेते हैं ,
फैशन , तौर-तरीके , साज-सज्जा ,
ये हमारे अस्तित्व में घुल चुके हैं ,
हम अस्मितानुगत हो चुके हैं ,

बजाये के युद्धों में जीतने के हम ओलंपिक्स में जीतना शान समझते हैं ,
मोडल्स और सुन्दर अभिनेता अभिनेत्रियों को सिपाही और पहलवानो से ज्यादा पूजा जाता है ,
हम साफ़ सुथरेपन और महंगे वस्त्रो को मजबूत और टिकाऊ पर तरजीह देने लगे हैं ,
ये अस्मिता अनुरूप व्यवहार हमारे सम्प्रज्ञ होने की अन्य निशानी है ॥ 

हम इस संस्कृति में इतना ढल चुके हैं की ये सब करने के लिये हमें सोचना नहीं पड़ता,
हम इसमें डूब चुके हैं और महर्षि पतंजलि के अनुसार ये हमारी सम्प्रज्ञा के लक्षण हैं ॥

" वितर्क-विचार-आनंद-अस्मिता-रूप-अनुगमात सम्प्रज्ञातः ॥ "

... < अ-से > ...   

Nov 24, 2013

प्रकृति बोध -नशा

चेतना निरपेक्ष है
उसे आगम की अपेक्षा नहीं क्षेत्र के ज्ञान के लिए
वो स्वतः क्षेत्रज्ञ है

बुद्धि की जड़ता चेतना में
और चेतना की ज्ञानशक्ति बुद्धि में
दोनों घुलकर अजीब विकृतियाँ पैदा करती /कर सकती है
जैसे तपते लोहे में आग और आग में गर्म छड दिखाई देती है

अक्सर मजे के लिए प्रयुक्त चीजें सन , तम्बाकू और मदिरा
जोड़ने लगती है बुद्धि के खुले सिरों को

शब्द जो निर्मल ज्ञान है 
अपनी प्राकृत अवस्था में
स्पर्श संवेदन से जुड़ने लगता है
और स्पर्श रूप संवेदन से ,

याद आने लगते हैं आगम में जमा दृश्य
चमकने लगते हैं
वर्तमान धुंधला जाता है
रसने लगती हैं यादें
व्यक्त का मोह ग्रसने लगता है चेतना को
और जड़ विकृतियाँ ले लेती हैं स्थान स्वस्थ प्रकृति का

और तब संयम और समय का ही आसरा होता है
आयुर्वेद के अनुसार बचाव ही सबसे बेहतर उपाय है !

अ से 

( प्रकृति बोध - माँ )


" तुम्हे हर ओर से जलना होगा .... भीतर तक पिघलना होगा "
... परम शान्तिमय व्याप्त अ-कार में एक शब्द हुआ ... एक बोध हुआ ... ,

तब प्रकट हुए सूर और हर ओर से जलने लगे , चमकने लगा सूर्य ... एक प्रचंड आ- नाद फैलने लगा ...

अकार ... आकार लेने लगा ... उजस उठी सृष्टि ...

पृथ्वी प्रकट हुयी ... सुनी उसने उद्घोषणा ...
माँ का दिल जल उठा ... तब कुपित हुयी पूषणा ...

कृ-कार (धरा) ने सूर्य से कहा मुझे मंजूर नहीं ये ,
आपके परम बोध का तेज ... अभी से कैसे सहेंगे मेरे नादान मनवान बच्चे ..
उन्हें भी कुछ वक़्त मिले ... तब तक तो आपको ढलना होगा ...

सूर्य ने कहा धरा से .... अपनी ममता का खयाल तुम्हे खुद ही करना होगा ,
अगर उन्हें बचाना है तो तुम्हे भी खुद ही जलना होगा ...
यह कह कर वो कुछ शांत हुए ... नाद कुछ आल्हाद में बदला ... कुछ प्रकाश में ... कुछ बोध में ... कुछ अवकाश में ....

धरा ने सूर्य के इस अकहे कर्म को फिर नमन किया ,
और अपने बच्चों को अपनी पीठ पर लाद ... अपनी ममता की ओढ़नी से बाँध लिया ...

और उसने लिखी प्रकृति की किताबें अपनी देह पर ... की उसके बच्चे भी सीखें उस परम बोध से .... कैसे प्रकाशते हैं जग को .... !!


उसके ओट में दिन ... रात हुआ ,
उसके आँचल में ... दिल सांच हुआ ,
उसकी गोद में सिमटा हुआ सा प्रेम ,
उसकी बातों से जग ज्ञात हुआ !!

..............
... < अ-से > ......................

Pic Courtsey: Google / " Debdutta Nundi "

just fun

चला जाऊँगा घर अपने
अभी पता पूछने दो ..... आदेश शुक्ल

हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल, उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती ... ... वसीम बरेलवी (वाया -- निशांत मिश्रा )

खोये हैं , घर का पता मांगते हैं उनसे ,
जो नहीं जानते लेकिन की घर बला क्या चीज है ... अनुज
पूछ लें गूगल से बेशक हर गली हर रास्ता,
इतना हो बस आप अपना ही पता मत मांगिये !! ... दर्पण साह

सुना था शब्द से अर्थ का निकलना लेकिन ,
बड़े बेमायनी होकर तेरे कूचे से हम निकले .... अनुज
वो रहे बे-मयाने जो बनते थे बड़े सयाने ,
अब इक अदद रहने को , जगह ढूंढते हैं .... आदेश शुक्ल

रास्ता-ए-घर के बिना राहों के छोर बंद हैं .
अब जाइये द्वार द्वार क्या , पुकारिए ओये ओये क्यों ... अनुज

परदे के पीछे

शब्दों में प्यार भी भरा होना चाहिए ,
शब्दों का तरकश भी भरा रखता हूँ ,
दिमाग की नसें और कस जाती हैं ,
मिली जुली जबान कोई बनाये रखता हूँ ,

परदे के पीछे मेरा मतलब क्या है ...

इस सुन्दरता के बीच भी चमकना होता है ,
भयावहता में भी अस्तित्व बचाये रखता हूँ ,
वेदना के संगीत की कुछ धुनें ओढ़ कर ,
मिला जुला चेहरा कोई लगाये रखता हूँ ,

परदे के पीछे मेरा चेहरा कैसा है ....

हर जरूरी चीज जोड़ लेनी होती है ,
अपना कह कर उसे बचाए रखता हूँ ,
दिल में थोडा सा और दर्द लेकर ,
अपनी दुनिया छोटी सी बसाये रखता हूँ ,

परदे के पीछे मेरे साथ क्या है ...

< अ-से >

it is

Question changed from " How it works " ,
to " How it thinks " ,
and then " How it understands " the thought ,
but what ramains same is the quriousity .

Question changed from " How it understnds "
to " How it observes "
and then " how it is present " to observe ,
but what remains same is the persistence .

Question changed from " what is presence "
to " what is existence " ,
and then " what it is " to be exist ,
but what remains same is that " it is " .

either accept it or ignore it ....
.............................................
< अ-से >

Nov 17, 2013

( प्रकृति बोध - 1 )


अगर चूहे नृत्य करते दिखें या कव्वे गीत गाते ,
तो यह एक कवी का उनके प्रति प्रेम भर है ,

की चूहे दौडाए जाते हैं अपनी चुहल द्वारा ,
उन की बुद्धि तीव्र हो सकती है ,
पर उनमें इतना संयम नहीं , की वो समीक्षा सकें अपने कार्यों को ,
उन्हें नियंत्रित करने के लिए चाहिए विवेक और संयम ,
अगर चूहों में संयम होता तो वो चूहे नहीं रहते , वो हो जाते कोई कछुआ ,
अगर उनमें विवेक ही होता तो वो कोई हाथी हो जाते ...

पर हाथी में भी तेज नहीं ,
हाथी कोई चीता नहीं ,
न ही चीते में वो हिम्मत है जो उसे शेर बना दे ...

कव्वे गीत गाना जानते तो वो कोयल हो जाते ,
वो जानते हैं सिर्फ आलोचना ,
पर कव्वे जमीनी हकीक़त से मुंह नहीं फेर पाते ...

पेड़ नहीं छोड़ पाते जमीन ,
वो मग्न हैं नित्य रसन में ... जड़ से लेकर पत्तियों तक ,
वो प्रकृति का भोग त्यागने में असमर्थ हैं .... उनके लिए गति का सुख नगण्य है ... भले ही वो जानते हैं इसे भी ,
आखिर पेड़ कोई चर चार पाँव के जंतु नहीं ....

मरीचिका में बुरी तरह से डूबे चार पाँव के मृगी भी ,
नहीं जानते भुजबल ,
हाँ ... वर्ना वो कोई भालू या वानर सरीखे होते ...

और भालू वानर का भी नहीं नियंत्रण अपने कन्धों पर ,
इंसान बहुत बाद में आते हैं ...

पत्थर सब जानकारी रखते होंगे ,
पर पत्थर नहीं समझते की वो क्या जानते हैं ,
वर्ना वो पत्थर नहीं होते ...

पत्थर को जो पूज रहे हैं ... ये उनके प्राण है ,
पत्थर में प्राणों की प्रतिष्ठा जादूगरी है ,
जादूगर रख देते थे तोते में जान अपनी ....

मैंने भी ऐसे ही एक दिन एक जादू देखा था ,
किसी में अपने प्राण बसते देखे थे ,
उसके जाने के ख्याल भर से ... मौत आती थी ....
शायद मैं प्रेम में था ...

अब नहीं आती ...
मुझे जो मरना भाता होता किसी के लिए ..... तो प्रेम जीवन्त हो उठता ...

जीवंत हो उठना भी जिजीविषा के अंत की शुरुआत ही है ...
ये अमृत की तरफ जीव का पहला कदम है ...
अमृत स्थायित्व है ... दौड़ते समय में अपने पाँव न उखड़ने देने का हुनर ...

सभी ओर की गति के मध्य में भी ... मृत्यु स्थिर है मेरी अनुपस्थिति के अंश में ... वर्तमान भी समय का अक्षर है ...
अमृत भी स्थिर है स्थिरता ही अमृत है चेतन उपस्थिति में .... और ....
मैं भी हूँ यहाँ ... खुद को इन सबसे अहम् मानता ... इन्ही सब के किसी क्रमचयों में कोई एक .... !!



... < अ-से > ...

कोई चाहे उसे कहानी कहे


कोई चाहे उसे कहानी कहे
बेबस दो आँखों के पानी सा वो
अपनी ही धुन में खोया रहा
अपने ही लहू की गुमनामी सा वो

फिर किसी शायर ने कुछ लफ्ज कहे
और यूँ किसी ने समझा उसे
पथरायी कोई मूरत ना समझो उसे
टूट चुके दिल की एक सूरत सा वो

अ से 

( प्यासे पंछी - 9 )

बातों से ही समस्या हल हो जाती ... तो .... मैं ताउम्र खुद से ही बातें करता रहता ...
कोई मतलब नहीं था कभी ... कुछ भी कहने सुनने का ...

चौराहे पर मूर्ती सा मुझे रख दिया था तुम्हारी बातों ने ,
आती जाती गतिमान वस्तुओं के मध्य में ...
रोबोटिक देह , मशीनी जंतुओं और धुंधलाते रंगों की दौड़ के बीच ...

अब भीड़ में भी मुझे कोई संवेदन नज़र नहीं आता ...
ठहर गया हूँ यहीं .... स्तब्ध .... खड़ा रह गया हूँ अकेला .... भागते झांकते लोगों के बीच अब ...
.... अब और कोई साँसे नहीं सुनाई देती ....

मीलों सफ़र के बाद फिर ... जो भी मिला ... पर पानी न था ...
न कोई बैठने को कहने वाला ...

फिर नयी ज़मीन की तलाश में उड़ता है पंछी ... मीलों दायरे तय कर ....
फिर कहीं एक डाल पर ... अकेले बैठना है उसे ....

... < अ-से > ...

Nov 16, 2013

बुढ़ापा


ह्रदय ठोस हो गया है ,
और उसके स्थान पर जिस्म फड़फडाता है ,

अँधेरा होते ही आँखों को एक बैचेनी खा जाती है ,
एक हलकी सी आहट पर सांस अटक जाती है ,

अब कुछ भी भूलना मुश्किल होता है ,
जबकि याद कुछ नहीं आता ,

कुछ पुराने रूमानी दृश्य अब चोट पहुंचाते हैं मस्तिष्क को ,
सख्त हथोड़ो की तरह, पास आते ही ,

बच्चों की निश्छल ध्वनि जो कभी कानों में अमृत घोलती थी ,
विषबुझे तीरों से भेदती है ह्रदय के मर्म स्थानों को ,

वो भोली हँसी और मासूम सी मुस्कान जो हवा से भी हलकी ,
कलकल करती बहती थी और खनकती थी कानो में ,
अब हजारों भुतहा चेहरों से अट्टाहास करती है ,
अंतस के हर एक कर्ण छिद्र को बहरा कर देती है ,

शर-शैया पर सोया है वर्तमान उसका ,
अतीत का हर एक झोंका देता है असहनीय तकलीफ ,

जिस बेटे को उसने तराशा था ,
एक मूर्तिकार की तरह ,
और दिया था नाम अपना ,
थोड़ी और रौशनी के लिए ,
आज वो ही देता है जब उसे  दुत्कार ,
जगह देता है बस कोनों में चार ,
निकाल देता है कभी दखल
से , कभी घर से बाहर ,
और करता है सवाल ,
की आखिर कौन सा एहसान किया था उसने ॥

.............................. अ-से अनुज ..................................