
कोई मतलब नहीं था कभी ... कुछ भी कहने सुनने का ...
चौराहे पर मूर्ती सा मुझे रख दिया था तुम्हारी बातों ने ,
आती जाती गतिमान वस्तुओं के मध्य में ...
रोबोटिक देह , मशीनी जंतुओं और धुंधलाते रंगों की दौड़ के बीच ...
अब भीड़ में भी मुझे कोई संवेदन नज़र नहीं आता ...
ठहर गया हूँ यहीं .... स्तब्ध .... खड़ा रह गया हूँ अकेला .... भागते झांकते लोगों के बीच अब ...
.... अब और कोई साँसे नहीं सुनाई देती ....
मीलों सफ़र के बाद फिर ... जो भी मिला ... पर पानी न था ...
न कोई बैठने को कहने वाला ...
फिर नयी ज़मीन की तलाश में उड़ता है पंछी ... मीलों दायरे तय कर ....
फिर कहीं एक डाल पर ... अकेले बैठना है उसे ....
... < अ-से > ...
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