
हो जाता है हर शख्स ,
जिसने पड़ी थी सैकडों भाषाएँ ,
गड़ी थी हजारों बातें ,
और लिखे थे लाखों शब्द ,
सामाजिक , अर्थशास्र , कूटनीति और विज्ञान ,
ढाई आखर के लिए .....
उस ख़ामोशी के लिए ,
उस सूनेपन , खलिश और विरह के लिए ,
उन आँसुओ और उस दर्द के लिए ,
जिससे वो भाग रहा था , भागता रहा था ,
और सीख रहा था जीने की कला ,
तिनकों भरी ढाढ़ीयों से ,
ज्ञानवान अनाड़ीयों से
अनपड़ चर्मकारो से और निर्दयी देह विज्ञानियों से ।
वो ढाई ,
उसने अंग्रेजी चार में भी खोजे ,
पर पहुँच न पाये ,
अंतिम वेदना तक ,
परदेह संवेदना तक ,
दूर न हो पाया कभी बाज़ारू बही से ,
जो किया तो जाता रहा पर हुआ नहीं ।
वो ढाई
जो गढ़ते रहे जाते ,
तो उभर आते एक पत्थर पर भी ,
और जब कभी नमी पाते ही उग आते ,
तो गहरे तक जड़ जमा जाते
ऊपर घने जंगल हो जाते ,
जिन पर ,
बसते फिर चहचहाते पंछी ,
दौड़ती आजाद गिलहरियाँ ,
फैलती खुशियाँ ,
जिन्हें उजाड़ ना पाते कभी ,
वो भूकंप भी ,
जो तैयार रहते है हर मौका ,
गहरी कोई दरार लिए ।
....................... < अ-से > ...................
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