Nov 12, 2013

प्यासे पंछी - 8

बाकी दुनिया से बच छूट कर ही आता है मन यहाँ ...
यहाँ भी बेमन से बैठा हूँ ,
वास्तविकता के रंग भी फीके हो ही जाते हैं ...

बिताए हुये दिनों की खूबसूरती ,
भविष्य के रंगीन ख्वाब बुन तो लेती है ... पर वर्तमान के आधार पर , वो हमेशा ही ठहर पाएँ ये जरूरी नहीं ...

मन बस में नहीं था ... जब तुमसे वो सब कहा था ...
तब तुम्हें भी तो लुभाता था ... वही सब कहना सुनना ...

क्या उन बातों में अब भी प्राण बचें हैं ... क्या शब्द कभी नहीं कमजोर पड़ते ... क्या सब कुछ एक सा बनाये रखना संभव है ...

कुछ तुम जानती हो ... कुछ मैं भी जानता हूँ .....
पर भीतर के सन्नाटे का शोर बहुत तीव्र होता है ....

मैं रुक नहीं पाता .... आस मानव अस्तित्व की हथकड़ी है कोई ...
जिसमें बांधकर वलयाकार नियति हमें वर्तुल आदतों की चक्की पिसवाती रहती है ...

फिर यहीं आ जाता हूँ ... इतिहास को ढूँढता ....
शायद किसी किस्से में जान बची हो ...
शायद कुछ शब्द अभी भी प्राण अटकाए ... मुझे पुकार रहे हों ...

सूने खंडहरों के ऊपर ,
जाने किस आस पर मँडराते ...
चक्कर लगाए जाते ....
प्यासे पंछी ...... ॥

............................. < अ-से > ...................

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