Nov 12, 2013

प्यासे पंछी -7


हर बार "इस दफा" की कोशिश असफल ही रही ,
मज़े के प्रयोजन में की हुयी हर कोशिश रसभंग हो गयी ....

चूने पर पानी डाल कर भी उसके न बिखरने की अपेक्षा आखिर कितनी सच्ची होती ,
बिना परिणाम विदित किए किया गया तो प्रेम भी कड़वाहट ही देता है ...
और परिणाम जानते हुये भी जहर खाकर जिंदगी की क्या कर उम्मीद ...

फिर फिर सब जानकर भी उसी उसी रास्ते कदम चले जाना ...
चले जाना नहीं ले जाये जाना है ... पर मैं सिर्फ उसे मन का नाम ही दे सका ...

ये मरीचिका अज्ञान वश नहीं थी ... पर विपरीतिका वश जरूर थी ...

न तो कोई जल ही मिला जो इन श्रापों से मुक्ति दिला सके ... न ही कोई घर मिला जहां कंधों को आराम मिले ....
बुद्धि से गर्दन तक सब समवेदनाएँ सुप्त हो चुकी थी .... मंथन का आंच उनकी तरलता को लील गया ...

जिद को कुदाल बनाकर मैं खोदता रहा उर ऊसर
जहां पानी ही न था वहाँ निकलता भी क्या ...


धूप चिलचिलाने लगी है ... पंख भारी हो चुके हैं ... घूमते आकाश में दिशाहीन सा ...↑
प्यासा पंछी ...

............................................................... < अ-से > ................................... 

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