Oct 16, 2013

अँधेरे की गति प्रकाश से भी तेज होती है , उसे कहीं भी जाने में समय नहीं लगता ॥
मन किसी भी फाइटर प्लेन से ज्यादा तेज उड़ता है ॥

जिज्ञासाएं अब उनकी बीमारी बन चुकी है ।
वो खोजते है प्रतिबंधित चीजों में सच और अंधेरों में चलाते हैं तीर ॥

साक्षात् को प्रमाणित करने की उनकी सनक जारी है ।
मिटटी के कणों में वो जीवन की तलाश करते हैं ,
और सभी जीव जंतु होते जा रहे हैं लुप्त ,
आत्म किसी घोस्ट की तरह डराता है उनको ॥

सच की सूरत और मूरत तलाशने की उनकी जिद चरम पर है ,
पथरीले सचों के बीच वो भूल चुके हैं सच शब्दमय भी होता है और उससे परे भी ,
मन भी सच है बुद्धि भी ह्रदय भी और अनुभूतियाँ भी ॥

उन्हें हर प्रश्न का जवाब चाहिए ,
और नए नए प्रश्न बनाने का कार्य भी जोरों पर है ,
प्रश्न की सार्थकता अब महत्वपूर्ण नहीं ,
महत्त्व है जवाबों को प्रमाणित करने का ॥

मूर्खता की नयी विमाओं को तय करता और उनमें शेष पूरे दमखम के साथ गति करता ,
मनुष्यता को लुप्त करता , बरगद्नुमा आधुनिक विज्ञान ॥ ......................... अ से अनुज ॥
सच ,
सच अपने दरवाजे कभी बंद नहीं करता ,
वो पूरे गर्व से सीना फुलाए , वहीँ रहता है , अपने घर में ,
और करता है इंतज़ार ॥

उसकी कुर्सी वही दरवाजे के पास रहती है ,
कि कोई शर्म या पश्चाताप में चला ही न जाए दरवाजे से ॥

बड़ा सीधा सरल और शांत व्यक्तित्व का ,
नहीं करता कोई शिकायत ,
उसे मंजूर है,
तुम्हारा चले जाना ,
उसे पता है तुम आओगे ॥

पर फिर भी ,
एक दरवाजा है उसके दर पर ,
एक स्वचालित किवाड़ ,
बार बार आने जाने वालों के लिए ,
जो खुलना कम कर देता है , हर पुनरावृत्ति पर ,
और एक दिन वो इतना संकरा भी हो सकता है ,
की सिर्फ एक किरण भर ही गुज़र पाए उससे ,
वो भी ये जताने को की क्या ठुकराते आये हो तुम , बार बार ॥

अबकी बार उधर जाओ , तो पूरा मन बनाकर जाना ,
वहाँ लम्बे समय तक रहने का ,
मैं जानता हूँ फिर तुम नहीं आओगे लौटकर ,
आग की ही तरह ,
वो भी बहुत अच्छा मेजबान है ॥

और जब कभी जाओ ,
तो मेरा ये संदेशा लेते जाना ,
बहुत परेशां हूँ यहाँ , कि बहुत याद आती है उसकी,
पर आ नहीं सकता ,
अपने वादे तोड़कर ॥ ........................... "वादा " ॥
..........................................................अ से अनुज ॥
देह, ह्रदय की भीतियों से न गुज़र पाया प्रकाश है ।
ह्रदय की भीतियाँ ममत्व की बनी होती हैं ।
ममत्व का ही धर्म सृजन है ।
पानी में पानी की ही दीवारें पानी को ही घुलने मिलने से रोकती हैं ,
कल्पना के रंगों और ममता की मजबूती उसे ये अधिकार देती है ॥

जीवन एकत्व से स्वयं का आनुपातिक पृथक्करण है ।
पूर्ण रूप से पृथक हो पाना संभव नहीं ,
और पूर्ण एकत्व की कोई देह नहीं ॥
सारे अंतर ज़मीनी ही हैं , सतह से ऊपर उठते ही द्वैत नहीं रहता,
पृथ्वी स्वीकार करती है अपनी ही दासता , आकाश को खुदका भी इल्म नहीं रहता ॥

ज्ञान की दिशा में जो गूढ़ है , तत्व की दिशा में जो महत् है , ध्यान की दिशा में जो सूक्ष्म है ,
वही दृश्य की दिशा में आकाश है , गंध की दिशा में पवित्रता और ध्वनि में निषाद ॥

ये वो दिशा है जिस ओर गति करता जमीनी स्पाइडर-मैन (जो जाल बुनता रहता है ) ,
पहले ही-मैन बनता है , और अंत में सुपर-मैन हो जाता है ॥ (pj)

पृथ्वी पर सारी लड़ाई पृथ्वी की ही है ,
यहाँ उसी वक़्त युद्ध गीत गाये जाते हैं , जब गांधी अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं ॥

न राम रहे न कृष्ण रहे न यीशु रहे न बुद्ध , बहुत से और भी नहीं रहे ,
और जो नाम के लिए लड़ते रहे , उनका इतिहास में अब कहीं जिक्र भी नहीं , कोई इंच भर जमीन भी न बचा सका ॥

अहिंसा ही परम धर्म है , किसी को क़त्ल करने से पहले खुद क़त्ल होना होता है ,
वो मर चुके हैं जिन्हें खुदा की चीखें सुनाई नहीं देती ॥

पृथ्वी अनोखी है और शापित भी ,
यहाँ तीन समुद्रों के जल मिलकर भावनाओं के अनंत क्रमचय बनाते हैं ॥

यहाँ बिखरे पड़े हैं किसी विशाल आईने के खरबों टुकड़े ,
जिनमें अन्योन्य कोणों से दिखाई देते हैं , जीवन के प्रतिबिम्ब ॥

पर कोई प्रतिबिम्ब पूर्ण वास्तविक नहीं होता ,
सबसे प्रायिक बिम्ब ही सत्य के सबसे समीप है ,
मात्र अद्वैत की ही प्रायिकता एक है (maths) ॥ ...................................... अ से अनुज ॥
सारे कर्म चेतना को अनुभूति देने के लिए ही किये जाते हैं ,
शव को नहीं खिलाये जाते अंगूर ॥

जड़ प्रकृति में चेतना , पानी में बूँद के गिरने की तरह लहरें पैदा करती है ,
और वो लहर लौट कर फिर वहीँ आ मिलती है ॥

जैसे विध्युत धारा किसी स्वचालित मशीन में गति पैदा करती है ,
उसी तरह आप इस संसार को प्रकाशित करते हो ॥

चेतन की तरह ही एक और तत्व मौलिक कहा जाता है , वो है प्रधान प्रकृति ,
ये किसी सॉफ्टवेयर की तरह व्यवस्था मात्र और जड़ है , इसमें स्वयं बोध नहीं ॥

चेतन के संयोग से प्रकृति सृष्ट होती है , और वियोग से लय ,
संयोग और वियोग के बिंदु ही काल गणना है ॥

मूल प्रकृति साम्य है , मूल नियमों में सबको समता मिलती है ,
पर मूल से ही महत्ता की उत्पत्ति होती है , और महत्त्व से ही विषमता पैदा होती है ॥

महत से अहंकार पैदा होता है ,
मूल को महत्त्व देने की प्रकृति सात्विक और इसके विपरीत जाने की राजसिक प्रकृति है , और अस्पष्टता तामसिक ॥

राजसिक प्रकृति से ही प्रवृत्ति की उत्पत्ति बताई जाती है , उसी से बुद्धि की उत्पत्ति है ,
वो भी अहंकार के प्रभाव में उपरोक्त ३ प्रकार की हो जाती है ॥

बुद्धि के संकल्प विकल्प में , उसी का एक हिस्सा मन हो जाता है ,
द्विध्रुवी द्वन्द बुद्धि मन में ही आकाशों और अवकाशों का प्रकाशन होता है ,॥

अहंकार कर्ता कारक कहलाता है , बुद्धि कर्म कारक और मन करण कारक,
आकाश क्रमशः चौथी विभक्ति है सम्प्रदान कारक ॥

हर अगली उत्पत्ति पिछली का ही एक अंश है , उसी में उपजती अस्थिरता ,
पर वो अपने कारण को पूर्णतया न तो विचलित कर सकती है न ही उसको नष्ट ॥

हाँ , तो फिर , शब्द गुण वाले आकाश के आंशिक विचलन से स्पर्शमय वायु ,
और वायु से रूप गुणी अग्नि , और अग्नि से रस गुण वाले जल की उत्पत्ति बताई जाती है ॥

ये क्रमशः अपादान , सम्बन्ध और अधिकरण कारक होते हैं ,
रसमय जल से सम्बोधन कारक गंधमय पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥

सब कुछ नित्य और सतत है ,
इसमें कोई अंतराल तो नहीं , पर सब कुछ सीमा और सांतत्य के अनुसार उत्पन्न और लय होता है ॥

आज तक कोई कानून नहीं टूटा ,
कोई कार्य नहीं हुआ प्रकृति के विपरीत ॥

किसी ने चाहे जो कुछ किया हो ,
वो संभव था इसीलिए हो पाया ॥

आप कोई नियम ना मानें ये संभव है ,
पर वो बदस्तूर लागू हैं ॥

आपके पास सौ वजह हो सकती हैं दुःख की ,
पर आप दुखी नहीं हो सकते ॥

हाँ पर अपने अहंकार को नियमितता से सींच कर ,
सच से मुँह बायें रह सकते हैं , जड़ बने रह सकते हैं ॥

कोई हत्या ब्रह्म ह्त्या नहीं हो सकती ,
कोई भी पाप मूर्खता से अधिक कुछ नहीं ॥
मुझे तुम्हारी खूबसूरती आकर्षित नहीं करती ,
ये कहना झूठ होगा ,
पर मुझे अधिक आकर्षित करती है, तुम्हारी सुन्दर दिखने की चाहत ॥

तुम्हारे करीने सलीके मुझे मजबूर करते हैं तुम्हे पसंद करने को ,
बिना किसी जोर आजमाइश के मन मुताबिक घुमाव देना हर चीज को ,
स्पर्श की अद्भुत कला लिए हैं तुम्हारे हाथ ॥

इसे स्वार्थ समझा जा सकता है , पर ये किसी भी इश्वर के स्तर का आत्मनियंत्रण है ,
जब तुम शालीनता से मुस्कुराती या शरारत से खिलखिलाती हो ,
तब जबकि सब और दुःख ही बिखरा हुआ है ॥

पूरे परिदृश्य को एक सार में समझ पाने के लिए विरक्त होना ही होता है ,
पर दृश्य का हिस्सा बन के जीना इससे कहीं मुश्किल है ,
ये अभिनय का वो स्तर है , जहाँ सत्य कल्पना को गले लग कर सुबकता है ,
मुझे पसंद है तुम्हारी अनुरक्ति ,
तुम्हे दृश्य से अलग कर पाने की तमाम कोशिशें नाकाम है ,
तुम्ह विरक्तियों को भी दृश्य में घोल सकती हो ॥

फिर भी मैं तुम्हे अनुरक्त पुरुष नहीं कहलाना चाहता ,
न ही किसी बारिश की तरह सृष्टि को देखता हूँ अब और ,
मैं एक नर का विरक्त स्त्री कहलाना पसंद करूंगा ,
और किसी वृक्ष की तरह उपजती सृष्टि नीचे से ऊपर की ओर ॥

मैं तुम्हे किसी महकते गुलाब की तरह नहीं सूंघ सकता ,
न ही तुम्हे किसी रेशमी शॉल की तरह ओढ़ना चाहता हूँ ,
तुमसे मेरा प्रेम तुम्हारे आत्म सम्मान से जुड़ा है ,
मुझे पसंद है तुम्हारा वो रूप जिसमें श्री और मेधा झलकती हो ,
जिसमें रंग की उजास से ज्यादा व्यक्तित्व की चमक नज़र आती हो ॥

अगली दफा जब मैं अध्यात्म लिखूंगा ,
मैं लिखूंगा पुरुष को स्त्री का अंश ,
जैसे लगते हैं किसी पेड़ में फल ,
जैसे एक पौधे में खिलते हैं कमल ,
बस , वैसे ही ॥ ................................................... अ-से अनुज ॥
मैं खुशकिस्मत हूँ ,
भाग आया हूँ एक युद्ध से ,
वहाँ जिंदगी का कोई भरोसा नहीं होता ,
मेरी आदर्श ,
मेरी गुरु बिल्ली से सीखा 
काम आया आज ,
उन सभी को वहाँ ले जाकर
मैं दबे पाँव लौट आया ,
अब कहीं भी जाने से पहले ही
देख लेता हूँ छिपे हुए गलियारे ,
और सीख चुका हूँ मौके ताड़ना भी अच्छे से
अब मैं रखूंगा
दो और गुरु बिल्ली
तो मैं भाग आया हूँ
मैं खुशकिस्मत हूँ ,
मैं भाग आया हूँ बुद्ध से ,
मेरे खुशहाल खेत खलिहान में ,
मैंने पाले हैं चूहे ,
खूब सारे चूहे ,
उन चूहों से पैदा होते हैं
और भी खूब सारे चूहे और ,
खूब चुहल होने लगी है ,
कुछ नहीं करता मैं घर पर अब
बस चूहे पालता हूँ ,
मैं खुशकिस्मत निकला ,
मैं भाग आया हूँ
नहीं मैंने नहीं किया
खराब ये सारा वक़्त
मैंने सीखा है इस बीच
कुत्तों सरीखा भौंकना ,
मैं जान रहा हूँ भूँका जा सकता है ,
कब कहाँ किस पर
आखिर विज्ञान भी कायल है ,
हम इंसानों की समझ का
और मैं सीख रहा हूँ आजकल ,
पूँछ हिलाना भी
मैं जानता हूँ मैं समय से पीछे हूँ
पर इसकी वजह है मेरा बचपन
जो बीता था गिलहरियों के बीच
दौड़ते फुदकते
उन्होंने कुछ नहीं सिखाया मुझे
वो बस दौड़ती रहती थी बेफिक्र
अब क्योंकि मैं ठहरा बुद्धिमान ,
तो पसंद नहीं मुझे
अपने ही घर में कान खाने वाले
कल ही मैंने मारें हैं
कुछ कव्वे
आज कबूतरों की बारी है !
अब सभी से कुछ न कुछ सीख रहा हूँ मैं
गिद्ध, चमगादड़, उल्लू , साँप और सियारों से भी
पर सबसे ज्यादा मुझे पसंद हैं चूहे ,
क्योंकि वो दौड़ाते रहते हैं मुझे दिनभर ॥
अ से
लपक कर अंगूरों को पा लेने के ,
अनेकों असफल प्रयासों के बाद ,
चार मूँह की लोमड़ी समझ चुकी थी ,
जीवन का सांतत्य (continuity ) ,
कर्म का पथ और न तोड़कर ,
वो चली गयी अपने रास्ते ॥

बुद्धी पर बन आयी जब ,
खरगोश ने दिखाया अहंकार को आइना ,
शेर को वर्चस्प की लड़ाई में मौत का कुँवा नसीब हुआ ,
अब जंगल किसी का न बचा ,
वो अब सबका था ॥

आश्वस्तता की नींद में ,
पिछड़ गया खरगोश ,
सतत प्रयासों की गति सूक्ष्म है ,
गूढ़ गति कछुआ हमेशा ही आगे था ,
तीव्र प्रयासों को चाहिए नियत वैराग ॥ ................................ अ-से अनुज ॥
माना न ही कोई वर्किंग आवर्स तय किये हैं , न ही कोई सेलेरी ,
पर तुम काम में आलस कैसे कर सकती हो , कैसे भूल गयी ,
कहाँ खर्च कर दिए इतने , दो दिन पहले ही तो दिए थे ॥

सुबह की चाय , उठने के समय पर हो ,
न ठंडी न देर से ,
नाश्ता पिछले दिन से अलग हो ,
राशन बाद में देखा जाएगा ,
हाथ का कटना छिलना चलता है ,
पर बर्तन साफ़ रखना कल ग्लास पर विम लगा था , और पानी छान के भरा करो ,
और मेरी वो पेंट , वो कहाँ रख देती हो ,
और इस पर इस्तरी क्यों नहीं हुयी , क्या करती हो दिनभर ॥

नहीं , बच्चों की पिटाई पर रोना मत रोओ , तुम्ही ने बिगाड़े हैं ,
यूँ थरथरा क्यों रही हो ,अब खड़े खड़े मूहँ क्या देख रही हो ,
दिल जलाती रहो ,
पर रोटियाँ नहीं जलनी चाहिए ,
हिटलर तुमने देखे कहाँ है , कोई और होता तो सांस लेना भी मुश्किल कर देता ,
तुम्हारे चाल चलन पर ,
और तुझे क्या मतलब है कल लेट क्यों आया , अय्याशियाँ करता हूँ न मैं तो सुबह से शाम तक ,
इतनी देर किससे गप्पे लड़ती रहती हो , इतनी रात गए कोन फ़ोन करता है भला ,
दिन में कहाँ गयी थी , तुम्हारी माँ खुद नहीं आ सकती थी ,
अगर इतना ही शौक है तो चली क्यों नहीं जाती अपने बाप के पास ॥

..................................................................................................

अरे उस शर्मा ने पैसे नहीं दिए , वर्मा ने भी कम दिए , गुप्ता भी वापस मांग रहा था ,
सेलेरी भी कम आई है इस बार छुट्टियां जो ले ली थी ,
किश्त भी भरनी है ,
स्कूल वाले भी सर पर चढ़े रहते हैं , तुम ही हो आना इनके स्कूल ॥

....................................................................................................

अब सर मत खा सो जा जाकर ,
हाँ !! मेरी मर्जी होगी वो ही करूँगा ॥

..................................................................... अ-से अनुज ॥
जब तुमने वो गुलाब लिया था ,
सिर्फ मैं ही नहीं अनुगृहित हुआ था ,
वो गुलाब भी हुआ था ,
वो पौधा , अगर उसे पता चलता , कोई वृक्ष सा जा फूलता , हर पत्ता गुलाब हो जाता ,
वो बगीचा कुछ और स्वीकार नहीं करता फिर , सिर्फ गुलाब लगते वहां पर ॥

मेरा कुछ देना मेरा प्रेम था ,
तुम्हारा स्वीकार करना तुम्हारा प्रेम ,
दोनों वस्तुतः त्याग थे ,
लेना देना यहाँ गोण था , वो व्यवसाय माध्यम था , अभिव्यक्ति थी प्रेम की ,
हर व्यक्ति के अनोखे होने के साथ ही उसका प्रेम व्यवहार भी अनोखा होता है .
जितने लोग होते हैं प्रेम भी उतने ही प्रकार का होता है ॥

खाने वाला बनाने वाले जितना ही पूज्य था हर बार ,
जब भी आपसी सम्मान उन्हें जोड़ता था ,
खाने वाले की तुष्टि खिलाने वाले का धन था ,
बनाने वाले का मन खाने वाले का धन ॥

चाहत कोई खालीपन सी होती है ,
तब तक , जब तक उसे कोई और समझना नहीं चाहता ,
जब कल्पना के उस रिक्त चित्र को समझ कर उसमें कोई अपने रंग भरता है ,
तो वो आकाश में फ़ैल जाते हैं ,
कुछ यूँ आपसी प्रेम की दुनिया रंगीन हो जाती है ,
की गिले शिकवों की विगत सभी लकीरें लुक जाती हैं ,
तब आकाश के भीतर और कोई आकाश नहीं रहता ,
आकाश का बाहर समाप्त हो जाता है ,
सृष्टि अनुग्रह नज़र आती है , सम्मान का सूरज चमकने लगता है ,
और बारिश होती है ,
बारिश स्वच्छता की , प्रसन्नता की , स्फूर्ति की ,
अंतःकरण अब अंतस से मुक्त हो महकता है ,
और वो खुशबू गुलाब सी होती है ॥ ....................................... अ-से अनुज ॥
जब वो वादा किया गया था ,
तब किसे पता था की कहीं एक गाँठ उपजी है आकाश में ,
पर जब वो निभाया न जा सका , तब भी वो गाँठ वहीँ थी ,
चलती हुयी आंधियों ने उस पर चिपका दी थी मिट्टी ,
मौसम की नमी ने उसे कई बार भिगोया , बहुत से फफूंद लग चुके थे उसमें ,
धूप में कई बार सूख कर अब वो सख्त हो चुकी है ॥

उस गाँठ ने वहीँ बसना स्वीकार कर लिया ,
बीच बीच में किये जाते रहे और भी वादे , कुछ विरोधी भी निकले एक दुसरे के ,
अब वहां एक बस्ती बन चुकी है ,
कुछ में परस्पर प्यार है , कुछ वहीँ लड़ते झगड़ते हैं ,
पूरा शहर बसा लिया गया है वहां , नदी नाले सड़क , दीवारें ,
सब कुछ बातों का ही बना हुआ॥

अब वो गाँठ पक चुकी है ,
लहसुन की सी सड़ांध आती है उससे ,
बातें रिसने लगी है उससे ,
जो बातें जो नहीं बताई जानी थी और जो नहीं कहनी जानी थी , और भी , कुछ भी ,
कोई भीड़ जमा हो चुकी है उन्हें सुनने को ,
शहर के उस हिस्से में लगने लगा है अब जाम ,
हवा का भी आवागमन बंद है ,
और कोई आवाज़ भी अब बमुश्किल पहुँचती है वहां ,
साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है ,
समझ नहीं आता कुछ ॥

ठूंठ बनने से पहले ,
याद आती है फिर से कभी कभी उन वादों की ,
समझ नहीं आता ,कैसे खुले ये गाँठे ,
खुली हवा का स्वाद लेने की तड़प तो कई दफा उठती है ,
पर वो साँसे अब दम तोड़ चुकी है ॥ ............................................ अ से अनुज ॥

(painting.. is of great artist Salvador Dali !!)
पिछली रातों को मुझे कुछ होश नहीं था ,
किसी अलग जहाँ में कहीं अलग थलग सा पड़ा था ,

जब मैंने देखा उठकर ,
बेरीढ़ सा पड़ा था सबकुछ ,
गला, चिपका , लटका हुआ सा ॥

आदमी बोतल में बंद थे , पिघले हुए , डूबते हुओं की सी बचने की गुहार लगाते ,
पर उनकी आवाज भेद नहीं सकती थी कांच की दीवारें ॥

कुर्सी पर बैठी अकड़ अब लटक चुकी थी ,
ताज एक ओर ढुलका हुआ था , राज एक ओर ॥

जले हुए अरमान चिमनियों से निकल रहे थे ,
और पिघली हुयी चेतना नालियों से बह रही थी ॥

संगीत के नाम पर बस रूदन था ,
ना ना चीखें नहीं थी ,
कुछ गले सूख चुके थे और आंसू तेज़ाब होकर खींच चुके थे लकीरें, गालों पर ,
बस कुछ नर्म गलों का रूदन था , करुण क्रंदन ॥

धरा बंज़र की तरह सूनी थी ,
कुछ मवेशी झाग टपकाते लड़खड़ाते क़दमों से चलकर , गिर जाते थे ॥

जब मुझसे और देखा नहीं गया ,
मैं वहां से आगे निकला ,
कहीं दूर इस सबसे बेखबर , रंगीन रोशनियाँ थी ,
तारे चमक रहे हों जैसे ज़मीन पर रंग बिरंगे ,
कुछ आवाजें भी आ रही थी , मैंने आगे जाने का फैसला किया ॥


वहाँ पूरा शहर बसा था इस्पात का , कुछ रोबोट चला रहे थे उसे ॥

हर और बेतहाशा दौड़ रही थी कुछ मशीनें , ऊपर ,नीचे , दायें , बायें ,
सतह और दीवारों में भी और उनके आर पार भी ॥

बहुत बेहतरीन कारीगर सी वो मशीनें पलक झपकते ही बदल देती थी दृश्य और आयाम ,
कुछ रुकता न था , बेतहाशा दौड़ा जाता था ॥

वहाँ सूरज नहीं चमक रहा था ,
पर अनेकों गोल सीधी घुलती मिलती सी रोशनियाँ थी ॥

पास से गुज़रते हुए नज़र आया ,
वहाँ इस्पात की कोई इलेक्ट्रॉनिक भट्टी थी ,
और उनमें झोंका जा रहा था वो सब कुछ ,
जो कभी मेरी दुनिया कहलाता था ,

इंसान , जानवर , पेड़ , पहाड़ ,
नदियाँ , हवा सब कुछ ॥

हाँ , लाखों की संख्या में कुछ गले सड़े ह्रदय पड़े थे , एक ओर, एक गहरी खाई में ,
ह्रदय उनके और किसी काम के न थे ,
उन्हें नींव भरने के काम लिया जा रहा था ,
जिस पर खड़े हो रहे थे ऊंचे ऊंचे इस्पात के ढांचे ॥

एक विस्फोट की आवाज़ से मेरी नींद .... फिर से खुली ,
मैंने जाना की मैं वर्तमान देख रहा था ॥ ............................... अ-से अनुज ॥

निर्वात में ,
बहती हैं , विचारों की हवायें ,
बहती हैं , बहती रहती हैं , दूर तक ,
चेतना जैसे ही इनका पीछा करती है ,
और हवाओं का स्पर्श भर करती है ,
अचानक से साकार हो जाता है कोई दृश्य ॥

दृश्य ,
अनदेखा दृश्य ,
सुनहला दृश्य ,
मादक हो उठता है अचानक ,
सब रंग बिरंगा सा हो जाता है ,
दृश्य घुलने लगते हैं ,
पिघलने लगते हैं ,
रसमय हो उठते हैं ,
इतने , की टपकने लगता है रस ॥

और रसने लगती है चेतना ,
बूंदों के पीछे , नीचे तक ,
तब तक , जब तक वो रस सूख नहीं जाता ,
और अचानक सब थम जाता है ,
सूखा हुआ रस एक सतह सा बना लेता है ,
अब वो गहरे भूमिल रंग का होने लगता है ,
और उससे उठने लगती है , महक ॥

महक चेतना को नया आयाम देती है ,
एक दिशा देती है ,
पर साथ ही मादकता भी परवान चढ़ती है ,
अचानक , अब सब कुछ सजीव हो उठता है ,
कुछ फूल खिल आते हैं , कुछ लताएं ,
और कहीं से आ जाते हैं तितलियाँ और भँवरे ,
चारों और जीवन बहने लगता है ,
निर्वात गुनगुनाने लगता है ,
और सोच में पड़ी चेतना ले लेती है एक रूप ,
इंसान का ॥ ................................................................ अ-से अनुज ॥ (सृजन)

( painting .. is of great painter Van Gogh )



और जब खरगोश उस बिल से निकला ,
जहाँ वो रात घुसा था ,
तो उसने देखी एक अलग ही दुनिया ॥

बड़ा आश्चर्य चकित वो संभल संभल चलने लगा ,
बाहरी दुनिया पर नज़रें जमाये ,
पर कोई खतरा ना था ॥

अब उसे भूख लगी , वो ढूँढने लगा गाजरें ,
कुछ घंटो की मशक्कत के बाद उसने पाया एक खेत ,
खेत में खाने को बहुत कुछ था , और थी गाज़रें ,
बड़ी मीठी लगी , इतनी मीठी गाज़र उसने पहले कभी नहीं खायी थी ,
प्यास लगी , उसने देखा एक गड्डा , पानी से भरा ,
जैसे ही वो पीने लगा पानी , उसने देखा अपना चेहरा बैंगनी ,
उसे कुछ कुछ याद आ रहा था ,
कल तक वो कुछ सफ़ेद सा हुआ करता था ॥

खैर पानी पीकर वो लेटा एक पेड़ के नीचे ,
उसे नींद आ गयी ,
आँख खुली उसने पाया एक नया जहाँ ,
पर ये नया जहाँ उसकी पुरानी दुनिया थी , जहाँ वो सफ़ेद था ॥

अब वो सोच रहा था ,
की मैं वो था या ये हूँ ,
ये था की वो हूँ ,
मीठी गाज़रों का स्वाद अभी तक उसके मूँह में था ,
और वो बैंगनी अक्स ॥
.................. .............(.अ- ड्रीम ) .......................... अ-से अनुज ॥

(painting .... is of master artist Pablo Picasso)


सदियों से इतिहास दोहराया है , कर्म ने ,
सारी उठती मशालों के बावजूद , अँधेरा है ,
की जब कुछ बदलने वाला ही नही ,
तो क्या अर्थ है कर्म का ,

समस्या जस की तस रहती है ,
कुछ यूं की वो ही संसार का बीज है ,
तो या तो सब ख़त्म हो जाए ,
या मेरी संवेदनाएं ..

और काहे का पुरुषत्व ,
मैंने जाना है दुनिया का सबसे भूखा और बेबस जीव उसे ...

एक स्त्री से कहीं ज्यादा !!

दोराहे पर खड़ा ,
खा सकता है पर अघाता नहीं ,
जा सकता है पर जाता नहीं ....
अनंत उद्घोषों और कानाफूसियों से गुंजायमान है अन्तराल ,
कई लोग उग आये हैं दीवारों पर कानों की तरह ॥

सब ओर लहराते हुए परदों के बीच तैरती हैं अजीबोगरीब आकृतियाँ ,
अनजानी दीवारों से टकराती खिडकियों से पार जाती हुई ॥

रंग बिरंगी रोशनियों में जलता है संसार सारा ,
आँखों के रास्ते दिल तक पंहुचती है दहक उनकी ॥

वेग से बहता हुआ प्यार हर दिशा में मारता है हिलोरे ,
जीभ लेती है उठती गिरती लहरों का खट्टा मीठा नमक ॥

नयी उगी दूब पर खिलते हैं ख्वाब सारे , ओस में धुले हुए ,
वहीँ हकीक़त होती है खुशबू उनकी और वहीँ हो जाते हैं सब कहानी ॥

.................................................................. अ से अनुज ॥
उत्तर तो हर एक प्रश्न का है ,
बात ये है की आप को किससे संतुष्टि मिलती है ,
प्रश्न ही ख़त्म कर देने से , सहमत हो जाने से ,
उत्तर देने वाले पर श्रद्धा रखने से या उत्तर की शाखा न बढ़ाने से ॥

अपने अहम् का बोझ अपने कंधो पर लिया घूमता हूँ ,
रंगीनियों की कोंध में कुछ दिखता नहीं अब मुझको ,
इतना कुछ कहा सुना की अब कोई आवाज़ दिल तक नहीं जाती ,
जहन में दबे हैं राज़ अपनी नासमझियों के ,
ये मन बोझिल है ... कदम थके हुए ..
कोई बताये मुझको .. जाना कहाँ है ॥ ............... अ-से अनुज

The Thinker


"

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मैं उसी समय अपने घर के सभी दरवाजे बंद कर वहाँ दीवार लगा देता ,
जब ये आसान सा जान पड़ता सफ़र अगर ये बता देता की वो यूँ ही ख़त्म नहीं होता !!

तब तक कोई जल्दी नहीं थी मुझे , 
ना ही रूप परिवेश में कोई दिलचस्पी , 
तो आइना देखे बिना ही निकल पड़ा ,
अब लगता है काश वो ही देखा होता ...

दरवाजे के बाहर से गलियारे और मोहल्ले के छोर तक ,
हर दुआ सलाम करने वाले को मैंने प्यार से देखा ,
सफ़र बताया , रास्ता सलाहा , सर फिराया और फिर चल पड़ा ,
वो मुस्कुराए तो थे पर कुछ बता न पाए ,
शायद उन्हें अंदाजा भी न रहा होगा ,
जैसे मुझे ना था ,

सफ़र वास्तव में उतना मुश्किल नहीं था ,
जिनका उद्देश्य नितांत निश्चित था ,
उन्हें जल्द ही काम निपटा लौटते देखने की ,
और जो खासे बेईमान रहे थे अपने दिलों से
उनके भी अच्छी खासी दुनियादारी कमा
आधे रास्ते से ही लौट आने की कहानियाँ सुन चुका था मैं ,
मेरा कोई उद्देश्य भी था या नहीं
मुझे ध्यान नहीं आता ,
कुछ पाने की कभी कोई इच्छा भी नहीं रही ॥

तो मैं खालीपन के चौराहे पर ,
बिखरी हुयी बातों की सड़क को निहारता ,
उडती हुयी अफवाहों की गर्मी में ,
किसी भी आश्चर्य से अनजान खड़ा था ,
और तभी एक बेचैनी की तरह कोई बस आई ,
मेरी सोच का सफ़र शुरू हुआ ....

बस में मेरे अतीत के कई अलग अलग स्वभावों
और शक्ल की तरह के लोग थे ,
जो तरह तरह की धुन ओढ़े पहने ,
अपनी अपनी ढफलीयों पर गाते बजाते
और अपने ही गीत गुनगुनाते नज़र आते थे ,
कभी कभी कुछ दो चार की ताल बैठने लगती थी
पर ज्यादा देर तक नहीं ,
और अन्यथा ताल मिलाने का सबब ही न था ,
हाँ कुछ ताल ठोकते जरूर नजर आते थे ,

सब कुछ बातों का ही बना था ,
सब कुछ विचारों सा तैर रहा था ,
और उसमें एक समझ सा मैं रमने लगा ,
यही वो क्षण था जब मेरे खयाल में मेरा जन्म हुआ ,
शायद अभी तक तो मैं मेरे शांत घर की कोख में ही पल रहा था ,

" बस " अतीत के रास्ते पर बेतहाशा दौड़ने लगी
और बाहर के दृश्य धुंधलाने लगे ,
कुछ खासी यादें ही नज़र आती थी ,
और मैं रमने लगा ,
अब मुझे सहयात्रियों की चर्चाएं कुछ कुछ सुनाइ देने लगी ,
धर्म राजनीति खेल कूद और प्रेम
और न जाने किन किन विषयों के नदियाँ बह रही थी ,

मैं मन सा उनमें गोते खाने लगा ,
विषय विचार के बदलते ही भाव बदल से जाते थे ,
लोगों ने दल से बना लिए थे
और पक्ष विपक्ष की बातें होती थी ,
मुझे उनके हर पक्ष से इतर ,
कुछ न कुछ तो आसमान नज़र आता था ,
और मैं भी अपने बयान देने लगा ,
मेरे बयां किसी पक्ष में नहीं गए ,
वो जस की तस ,
कुछ नीरस और कुछ बहस रोकने की गुजारिश थी ,
तो कुछ अपनी ही दर्शन अभिव्यक्ति ,
और वो ऐसे में अपना हुल्लड़ छोड़ देने को कतई तैयार नहीं थे
मुझे या तो दोनों ही पक्ष सही और समान लगते थे
या फिर दोनों ही बेमायनी ,
पर उनके राग न मिलते ,
हाँ द्वेष कुछ एक सरीखे थे ,
तीसरे पक्ष की आलोचना पर वो एकमत से नज़र आते थे ,
मेरी कुछ बातों से वो प्रभावित होते तो थे ,
पर अपना पक्ष और ना जाने क्या खो देने के डर से पकडे रहते थे ,
वो अपनी अपनी मौज मस्तियों में डूबे हुए ,
बेतहाशा गाते हँसते और खुश रहते ,
कुछ स्वभाव मेरी ही तरह शांत थे ,
मेरे वक्तव्यों के समर्थन भी करते ,
पर उन्होंने किसी बेनतीजा बहस की उतपत्ति ,
और उसे बनाये रखने का कारण नहीं बनना चाहा ,
फिर भी जाने क्यों वो मुझे भाये ,
और कुछ एक ही सी बातों की मिठास भी फैली ,
मेरी ही बात को वो अपने ही अंदाज़ में किसी और तरह कहते ,
और उनकी ही किसी बात को मैं ,
सच कहूँ तो मुझे वो दो चार मानस ही सम समर्थ नजर आए ,
अन्य शोक और आशा के भंवर में फंसे हुए ॥

" और वो ही लोग आपको सच्चे लगते हैं जो आपके ही पक्ष में बोलें ,
फिर चाहे आप किसी पक्ष में हों किसी विपक्ष में या उदासीन "

" हर कोई अपनी ही मान्यताओं के प्रमाण तलाशता है ,
और जो कुछ सुनना चाहता है वही सुनता है ,
इसी से उसके अहम् को संतुष्टी मिलती है ,

" उदासीनता के पक्षी केंद्र की ओर उड़ान भरना पसंद करते हैं ,
इसके विपरीत सुख जैसे भावों की चाह रखने वाले ,
बाहर आकाश में पंख मारते भटकते फिरते हैं "

हर वृत्त के अन्दर वृत्त और उसके बाहर वृत्त की एक स्थिति है ,
और अब तक मुझे पता लग चुका है ,
की सोच और बहस के सफर में इन वृत्तों से बाहर नहीं निकला जा सकता ,
इन वृत्तों की खासियत ये है की ,
वक्रता त्रिज्या बढने के साथ ही ये उथले ,
और घटने पर गहरे व्याप्त और सूक्ष्म हो जाते हैं ,
पर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता ॥

समय गुजरने लगा , रात अन्धियाने लगी ,
अपने अपने टिफ़िन खा चुकने पर कुछ स्वभावतः सो गए ,
कुछ सफ़र में छूट गए और कुछ अँधेरे में डूब गए ,
कुछ इतने गहरे चले गए की फिर नज़र न आये ,

और उस वक़्त पहली बार ,
मैं कोई भीड़ नहीं था ,
तब आप मुझे अकेला कह सकते हो ,
इतनी बातों , किस्सों , कहानियों ,
लोकोक्ति , मुहवारों , सीख , समझों की श्रुतियों के साथ ,
उस सफ़र पर मेरा वास्तविक सफ़र शुरू हुआ ,
और पहले दफा की ख़ामोशी में मुझे नींद आ गयी ,
बस के नाईट लैंप का रैंडम टाइमर सक्रीय हुआ ,
स्वप्नमय संसार में कोई रौशनी मुझे फिर से उसी सफ़र पर ले चली ,
मैं निर्णय , निश्चय , तत्व , मंजिल ,
उद्देश्य के रास्तों पर बेवजह भटकने लगा ,
रात गुज़र गयी ,
सुबह मैं फिर से उसी बस में था ,
थोडा और बेबस ॥

सोच के सफ़र में यात्रा करना और लौट आना दो अलग अलग चीजें है ,
इसके चलते इसके यात्री एक समय बाद रूप और भाव भी बदल लेते हैं ,
वोंग कार वाई की यादों की ट्रेन की तरह ये बस भी बस चलती रहती है ,
नो एस्केप का हॉर्न बजाते हुए ॥

कभी कभी इनसे बाहर झाँकने का सौभाग्य और अनुभव तो मिलता है , पर सब क्षणिक ,
मैंने कई किस्से कहानियाँ सुने हैं , जो केंद्र की तरफ एक दरवाजा बताते हैं ,
जिसकी तरफ अधिकतर उदासीन पक्षी जाते हैं , पर वो अदृश्य निर्जीव बिंदु है ,

और दूसरी तरफ मोह की बढती वक्रता , पागलपन का रूप लेने लगती है ,
ममत्व के किनोरों पर , अहम् की ऊँचाइयों से बने ये वृत्त ,
एक सर्पिलाकार सीढ़ीनुमा जाल बना लेते हैं ,
और इस सबके बीच में कहीं खो गया हूँ मैं .... //

अ से



" कुर्सी "

किसी दार्शनिक दर्जी की सुन्दर परिकल्पना
कुर्सी , एक आराम दायक वस्त्र ,
अस्तित्व को सुकून से ढक लेती है ,

दुनिया से अलग , अलग सी दुनिया की सवारी ,
हाथ बाँध कर मेरे , मुझे खुद में समा लेती है ,

अब मैं कहीं नहीं जाता , न ही ये कुर्सी ,
जैसे आकाश में खूंटा गढ़ाया , कोई अलहदा एहसास ,

रुका हुआ सा मैं अब , बदलता परिदृश्य ,
कोई खामोश सफ़र ध्वनित आवाजाही ,

अतीत की समय यात्रा पर , भविष्य की योजनायें बुनता ,
कुर्सी वर्तमान को मूर्त कर देती है ॥
........................................................अ-से अनुज ॥