Nov 16, 2013

त्रस्त ( वर्तमान राजनीति पर )

एक लोकतंत्र जिस पर राज परिवार कायम है ,
एक प्रधानमन्त्री नौकरशाही का अनमोल नमूना पेश करता है ॥

एक महारानी जो अपने मंत्री को तख़्त पर बैठाती है ,
एक अर्थशास्त्री जो सत्ता के हिसाब में उलझा पड़ा है ॥

एक देश में किसी मुद्दे पर एकदेश से फैसला नहीं होता ,
एक कौम जिसका अपना कोई देश नहीं होता ॥

वो लोग जो अपने ही घर में बेगाने हैं ,
और वो लोग जो गाते विदेशी तराने हैं ॥

वो कानून जहाँ कायदा गुनाह है ,
वो अदालत जहा मुजरिम बेगुनाह है ॥

वो सोच जो भाषा पर विभाजन चाहती है ,
और वो सोच जो भाषा पर नियंत्रण नहीं रखती ॥

एक व्यक्ति जो बुद्धि से गरीब है ,
जिसके लिए गरीबी बुद्धि की एक अवस्था ॥

एक तथाकथित युवराज जो धूप में नहीं तपा ,छिला नहीं कटा नहीं ,
एक माँ जो 40 बरस के बेटे को गोद में खिलाती है ॥

अंधेर नगरी चौपट राजा ,
टका सेर भाजी , टका सेर खाजा ॥ ............................................  ॥

.... < अ-से > .......

( ढाई आखर )


फिर से अनपढ़ ,
हो जाता है हर शख्स ,
जिसने पड़ी थी सैकडों भाषाएँ ,
गड़ी थी हजारों बातें ,
और लिखे थे लाखों शब्द ,
सामाजिक , अर्थशास्र , कूटनीति और विज्ञान ,
ढाई आखर के लिए .....

उस ख़ामोशी के लिए ,
उस सूनेपन , खलिश और विरह के लिए ,
उन आँसुओ और उस दर्द के लिए ,
जिससे वो भाग रहा था , भागता रहा था ,
और सीख रहा था जीने की कला ,
तिनकों भरी ढाढ़ीयों से ,
ज्ञानवान अनाड़ीयों से
अनपड़ चर्मकारो से और निर्दयी देह विज्ञानियों से ।

वो ढाई ,
उसने अंग्रेजी चार में भी खोजे ,
पर पहुँच न पाये ,
अंतिम वेदना तक ,
परदेह संवेदना तक ,
दूर न हो पाया कभी बाज़ारू बही से ,
जो किया तो जाता रहा पर हुआ नहीं ।

वो ढाई
जो गढ़ते रहे जाते ,
तो उभर आते एक पत्थर पर भी ,
और जब कभी नमी पाते ही उग आते ,
तो गहरे तक जड़ जमा जाते
ऊपर घने जंगल हो जाते ,
जिन पर ,
बसते फिर चहचहाते पंछी ,
दौड़ती आजाद गिलहरियाँ ,
फैलती खुशियाँ ,
जिन्हें उजाड़ ना पाते कभी ,
वो भूकंप भी ,
जो तैयार रहते है हर मौका ,
गहरी कोई दरार लिए ।

....................... < अ-से > ...................

Nov 12, 2013

प्यासे पंछी - 8

बाकी दुनिया से बच छूट कर ही आता है मन यहाँ ...
यहाँ भी बेमन से बैठा हूँ ,
वास्तविकता के रंग भी फीके हो ही जाते हैं ...

बिताए हुये दिनों की खूबसूरती ,
भविष्य के रंगीन ख्वाब बुन तो लेती है ... पर वर्तमान के आधार पर , वो हमेशा ही ठहर पाएँ ये जरूरी नहीं ...

मन बस में नहीं था ... जब तुमसे वो सब कहा था ...
तब तुम्हें भी तो लुभाता था ... वही सब कहना सुनना ...

क्या उन बातों में अब भी प्राण बचें हैं ... क्या शब्द कभी नहीं कमजोर पड़ते ... क्या सब कुछ एक सा बनाये रखना संभव है ...

कुछ तुम जानती हो ... कुछ मैं भी जानता हूँ .....
पर भीतर के सन्नाटे का शोर बहुत तीव्र होता है ....

मैं रुक नहीं पाता .... आस मानव अस्तित्व की हथकड़ी है कोई ...
जिसमें बांधकर वलयाकार नियति हमें वर्तुल आदतों की चक्की पिसवाती रहती है ...

फिर यहीं आ जाता हूँ ... इतिहास को ढूँढता ....
शायद किसी किस्से में जान बची हो ...
शायद कुछ शब्द अभी भी प्राण अटकाए ... मुझे पुकार रहे हों ...

सूने खंडहरों के ऊपर ,
जाने किस आस पर मँडराते ...
चक्कर लगाए जाते ....
प्यासे पंछी ...... ॥

............................. < अ-से > ...................

प्यासे पंछी -7


हर बार "इस दफा" की कोशिश असफल ही रही ,
मज़े के प्रयोजन में की हुयी हर कोशिश रसभंग हो गयी ....

चूने पर पानी डाल कर भी उसके न बिखरने की अपेक्षा आखिर कितनी सच्ची होती ,
बिना परिणाम विदित किए किया गया तो प्रेम भी कड़वाहट ही देता है ...
और परिणाम जानते हुये भी जहर खाकर जिंदगी की क्या कर उम्मीद ...

फिर फिर सब जानकर भी उसी उसी रास्ते कदम चले जाना ...
चले जाना नहीं ले जाये जाना है ... पर मैं सिर्फ उसे मन का नाम ही दे सका ...

ये मरीचिका अज्ञान वश नहीं थी ... पर विपरीतिका वश जरूर थी ...

न तो कोई जल ही मिला जो इन श्रापों से मुक्ति दिला सके ... न ही कोई घर मिला जहां कंधों को आराम मिले ....
बुद्धि से गर्दन तक सब समवेदनाएँ सुप्त हो चुकी थी .... मंथन का आंच उनकी तरलता को लील गया ...

जिद को कुदाल बनाकर मैं खोदता रहा उर ऊसर
जहां पानी ही न था वहाँ निकलता भी क्या ...


धूप चिलचिलाने लगी है ... पंख भारी हो चुके हैं ... घूमते आकाश में दिशाहीन सा ...↑
प्यासा पंछी ...

............................................................... < अ-से > ................................... 

प्यासे पंछी - 6

पात्रता और क्या है .... अगर सुन सकने की क्षमता नहीं तो ...

हजारों सालों से कई कानों और मुखों से छन कर आई हुयी .... बातें , किस्से और कहानियाँ .... सुन सकते ...... तो बात ही क्या थी ....

कही - सुनी जाने वाली बातें ... लोक में प्रसिद्ध कहानियाँ ..... देश काल की सच्ची तस्वीर कहती ही रही ... माँ भी सभी नाराज होती हैं -- ' तू बात नहीं सुनता ' ...

पर कहाँ गर्दन स्थिरती है ... कोई गहरा सच आते ही ... अनमना सा हो जाता है मन .... हृद किसी साँप के बिल सा हो जाता है जिसके मुहाने पर कान हों ...

मुझे पता था अंजाम .... सभी कहते रहते थे ....
पर सुनना कौन चाहता था तब ...

मैं तब तक उड़ता रहा उम्मीदों के पर लगाए अपने ही ख़यालों में ... तब तक झूमता रहा रंगीन ख्वाबों में .... जब तक सर पर सीधी आंच न थी ..... जब तक सच की ठंडी जमीन न जानी थी ॥

ठोस हकीकत दिखते ही ... कोई प्यास सी जग आई .... उड़ते रहने का मन तो नहीं छोड़ा गया .... पर परकटा पंछी कब तक उड़ान भरता ....

अंतर्द्वंदों से थक कर .... बैठा है एक पेड़ के ऊंचे शिखर पर .... न फिर फिर उड़ान भरने का मन है ...
ना जमीन पर ही आया जाता है ..... ॥

........................................< अ-से > ............................................

प्यासे पंछी - 5

दिन भर के खर्चों में से बस वही कुछ पल निकलते थे ....
........................... सच कहूँ तो वो भी बचा लाता था ,

दीवारें कहाँ नहीं होती ....... आखिर , दुनिया दीवार ही तो है सब ओर ...
पर दीवारों के भीतर भी रोशन होती हैं खुशियाँ ... बाहर नहीं जा सके तो क्या ....

उनके भीतर भी कम नहीं थी जिंदगी ... अगर स्वाद ले सको तो ....
जो नहीं मिल पाया की शिकायत में ... जो है वो नज़र नहीं आता ... जो खर्च गया उसके अफसोस में ... जो बचा वो भी नहीं बचा पाते ...

क्या गला भी भीग पाता इतने पानी से ... सो मैंने फेंक दिया ...
थोड़ी तरावट ... चार कदम और चलने की अर्जी मैंने ठुकरा दी ...
मुझे दिखा नहीं था ... थोड़ा आगे तालाब था ...

खैर , पंछी अधिकतर प्यास से ही दम तोड़ते हैं ...
ये पंछी स्वभाव की नियति ही है ...

...................................... < अ-से > .....................

प्यासे पंछी - 4

आम के पेड़ ने ज्यादा पानी पिया था या खजूर के ने ...............
..........................................ये किसी महत्व का नहीं है ,
मुझे हमेशा ही आम ज्यादा मीठे लगे ,

बरगद कितनी जड़ों का जाल बिछाए दुनिया को चख रहा है .... कितना फैल गया है ,
कुकुरमुत्ते पूरी दुनिया में यहाँ वहाँ उग आए हैं ... किसने क्या जाना कौन जाने ...

मुझे तुमसे कोई जलन नहीं थी ..... बस मैं चाहता था तुम भी जानो ,
तुम दौड़ रही थी ... सब अचीव करने को ...
पर कुछ हासिल करने से क्या हासिल होता है ... आखिर सब यहीं सजा देना होता है ... यही दुनिया में ...
तुम्हारे तमगे तुम्हें मुक्त आकाश नहीं देते ... न ही तुम्हारी MNC की जॉब तुम्हें जीवन के मायने देती है ....

कोई भी अचीवमेंट्स क्या मायने रखता है ... दुनिया से कितना ले पाये की ही रेस होती ... तो सबसे बड़ा लुटेरा / गोदामी सेठ सबसे ज्यादा सुखी होता ...

मुझे तुम्हारी कोई सफलता विफलता समझ नहीं आयी , तो उनसे फर्क भी भला क्या पड़ता ... मुझे फिक्र हुयी तो बस तुम्हारी ...

मैं बस इतना बताना चाहता हूँ ... दिल की प्यास कम की जा सके तो अच्छा है ....
तुम थम जाती ... तो मुझे भी सुकून मिलता .... जुड़ाव भी अजीब से होते हैं ...

वरना दौड़ तो रहे ही हैं .... जाने क्या हासिल होगा ....

.....................................< अ-से >............................... 

प्यासे पंछी - 3

तपती गर्मी का बाज़ार सजा था .. हर चीज पर धूप चिलचिलाती ..
प्यासा था पंछी ... पानी काफी नीचे था .. घड़े में
कंकड़ों की भी प्यास नहीं बुझ पाती उससे ... ऊपर नहीं आना था वो ..

इतना ही बचा था हमारे बीच भी ..
कोई सेतु सम्भव न था .. जो हमें फिर से ...

और फिर तुम्हे तो पता ही होगा हाल मेरा ..
क्या करोगी फिर से जानकर .. सुना है ... तुमने भी शादी नहीं की अब तक ..

हर कमी अकल से नहीं भरी जा सकती ..
................................... न ही प्रेम बेमौसम बरसता है ,

आंखे सूखी हैं ... फैल कर देखती हैं हर चीज़ ... पर मन कहाँ लगता है कुछ देखने में ...
काश आँखें भी खुद कुछ देख पाती ...

जीवन का एक दौर तो थार में ही ही गुज़र गया ....
.................................... प्यास गले से नीचे उतर आयी है ..

शायद दिल तक .......................... !!

................................ < अ-से > ......................

प्यासे पंछी - 1

वक़्त ऐसा मौसम है ... जिसका असर बना रहता है , हमेशा ..... ॥

कुछ चीजें वक़्त के साथ पुरानी नहीं होती ,
कुछ बहुत धीरे धीरे बुढ़ाती हैं ..

लक्ष्मी चिर नवीना हैं ...नित्य नूतन .... उनका श्रृंगार बदल जाता है ... पर शोभा कम नहीं होती ...
माया ... धन ...और ... मादकता ...
बड़ी नाच नचाती हैं ..

हर बार चाहत होती है भर जाने की ..
हर बार प्यास बढ़ जाती है ...

तलब जीने की ... कितने कड़वे घूंठ ... कितना सच्चा प्यार ...

..... with love for every one ... without love to someone ..

.................( प्यासे पंछी -- 1 )...................... < अ-से > ..........

प्यासे पंछी - 2

हर टुकड़े में तेरा ही चेहरा दिखा ...
................................मैं समेट लाया वो आइना ।

आज फुर्सत में था .. तो जोड़ बैठा हर बात ..
लफ्ज पिरोये तेरे ... और एक धड़कन सुनाई दी ....
................................ टुकड़े टुकड़े दिल देती रही तुम मुझको ।

मुझे भी ये खेल कुछ जँच रहा था ..
पीपरमेंट सी ठंडी आह , एक सुकून भरी सांस ... जब्त जज़बे ... और फाख्ता अकल ..

पारस्परिक पागलपन .... भी ......... कोई प्रेम सा नज़र आता है ना ..........!!

..................................... < अ-से > ............................................

Oct 31, 2013

क्रिया और कर्म -- 2

क्रिया और कर्म -- 2
...............................

कोई भी क्रिया भूसे के ढेर में से सुई ढूँढना भर है ,
और कर्म सुई मिल जाने के बाद क्रिया त्याग देना !!

क्रिया किसी कारण से आरंभ होती है ... पर उसे जारी रहने के लिए कारण आवश्यक नहीं ...
.... वो प्रमाद में भी बदल सकती है ,
पर कर्म सीधा अतीत से , अपने मूल कारण से जुड़ा रहता है .... और पूर्णता पर उसी में लय हो जाता है !!
.............................................. अ-से अनुज ॥

" प्रेम "


जिस समय साँसों की घुटन से उपजी तीव्र वेदनाओं की सूक्ष्म धाराएं , मेरे संवेदन अस्तित्व की हर एक इकाई का सर उठाया गला , कसी हुयी सन की रस्सियोंसे कसकर , दर्द के सभी आयामों और विशेषणों का मर्म मेरे मानस को समझा रही थी , तब सुकून को छटपटाती मेरी संवेदना और वक़्त को छटपटाते मेरे प्राण मुझसे विनती कर रहे थे ,
कुछ और सब्र करने का ..... ॥

उन्हें मालूम था अब मैं उन्हें किसी भी वक़्त निर्मम बुद्ध सा त्याग चला जाऊँगा , दृश्य की किसी और धारा में अपने को बीज बनाये फिर से अंकुरित होने ,
पर वो जानते थे मेरी चाहत का अतीत भी ,वर्तमान भी ,
और करते थे उस दिल कशा का भी खयाल ,
जो नहीं पहचान पाएगी , मुझे किसी भी और शक्ल में ,
और उसके लिए वो (मेरे प्राण ) मुझे इसी शक्ल में बनाये रखने का अंतिम संघर्ष कर रहे थे ॥

समय के उस हसीन लम्हे में , नर्म धूप , सर्द हवा , उठती महक से मदकती तितलयों , कोंपलों , डंठलों और खिलखिलाते हुए सूरजमुखी के फूलों को चेहरा दिए , मेरी प्रेम कथा की नायिका , अपने प्रेम गीतों में मेरी सलामती और ख़ुशी गुनगुना रही थी ॥

वो बेहिचक हरे नीले सपनो को , सुनहरी पीली उम्मीदों के , बैंगनी परिंदे बनाये आकाश में उड़ा रही थी ,
और मैं निर्विकल्प अपने प्राणों के अंतिम संघर्ष को थामे रखकर उनके रंग बचा ले जाने का हर संभव प्रयास कर रहा था ॥

उस समय , काल के तख़्त पर चढ़ाये गए कई निरीह निरुद्देश्य मन के टुकड़े अपना सामान समेट वहाँ से विदा ले चुके थे ,
और सज़ा सुनाने वाले न्याय और तंत्र को समर्पित निसंदेह ह्रदय रावण को जलाये जाने की आतिशी खुशियाँ मना रहे थे ॥

तभी एक हवा के झोंके से बिखरा मेरा मन आकाश और अवकाश के सभी अवयवों को छानता छोड़ता मेरी अंतिम इच्छा को साकार करने सूरजमुखी पर पंख फैलाती एक तितली पर सिमट कर बैठ गया ॥

आह , कराहते हुए , वेदना के तीव्र स्वर , गुनगुनाते हुए दो होठों के गीतों की धुन से ताल मिला ख़ामोशी में लय हो गए ,
न प्राणों की दुआ क़ुबूल हुयी , न गीतों की फरमाइश ...
प्रेम कशिश के साक्षात् को खिंची मनः तितली मुस्कुराई ... और उसके फैलते हुए पंखों की खूबसूरती में ... वो दिलकश चेहरा खिलखिला उठा ... सूरजमुखी अब उसे देख रहे थे ॥

............................................................... अ-से अनुज ॥

क्रिया और कर्म -- (१)

हर प्रयास ,
कुछ हासिल करने का कयास है

हासिल करने का कयास  ,
जानने भर की उत्सुकता ,

जानने की उत्सुकता ,
उत्कंठा जीने भर की  ,

जीने की उत्कंठा है
अपने होने का ऐतबार कर लेना ,

अपने होने का ऐतबार ,
जिसके लिए जरूरी नहीं था 
कोई प्रयास ,

हर प्रयास ,
वृत्ति है प्रमाण की
एक टेम्पररी आश्वस्ति ,
अंतर्मन के भय की प्रतिक्रिया ,
आईने में झाँकना बार बार ,
खुद की याद बनाये रखना ,
सींचते रहना 
अपनी दीवारों को ,
और कर लेना कैद ह्रदय को ... उन सींखचों में ,.............
जो तुम्हारे ही संकल्पों के मजबूत लोहे से बने हैं !!

................................................................ अ-से 

कमजोरी ...

कौन है यहाँ .... जब किसी की परछाई नहीं ..
कमरा हर ओर बंद हैं ... पर आहट देती रहती हैं ..

कौन है वो आवाजें .. जो पहचान नहीं देती ...
सुनना नहीं चाहता ... फिर भी सुनाई देती हैं ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी हैं ... जो कान लगाये रहती है ॥

एक बेखबर सा मैं ... एक खबर सा सब ..
मेरे अलावा कौन है ... जो खबर में भीड़ है ..

किस भीड़ में खोया .. किसको रहा हूँ सुनता ..
जब कोई खबर मुझको ...अब खुद की ही नहीं है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है .. जो भीड़ लगाये रहती है ॥

न चाहिए जब कोई ... एक दुनिया की है चाहत ...
कौन सी ये खला है ... जो प्यास जगाये रहती है ..

ख्वाहिशों में पलकर ... किसको रहा हूँ बुनता ..
अपनी ही समझ की चादर ... जब उधड़ी सी हुयी है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है ... जो आस लगाये रहती है ॥

...................................................................................अ-से अनुज ॥ 

प्रिज़्म

वर्तमान के ब्लैक बोर्ड पर ,
भविष्य से आती रौशनी की रंगहीन उजली चॉक से ,
मैं उकेरने की कोशिश में रहता हूँ एक उज्जवल इतिहास ,
जो की मेरे साथ लिखा जायेगा ,
एक उपनाम की तरह ॥

पर मृत्यु भी किसी प्रिज्म की तरह रखी होती है ,
वहीँ आपके पास ,
वो प्रकाश को कतल कर बना देती है रंगीन ,
लाल पीले नीले रंगों सा नज़र आता है फिर अतीत ,
बेहतर लगता है , पर भव्यता खो जाती है ,
सारी मेहनत कहीं खो जाती है , उजास की तरह ॥

तीन रंगों से बने इन्द्रधनुषी अतीत में ,
खोजने निकलता हूँ रौशनी ,
और मायावी कांचों से गुजरते ,
अपवर्तन और परावर्तन में फंस सा जाता हूँ ,
आदत सी हो जाती है इन रंगीनियों की ॥

वक़्त के साथ भविष्य से आती रौशनी ,
खलने लगती है आँखों को ,
अब वो भरोसा नहीं देती ,
रंगों से आश्वस्त हुआ मैं ,
भूल सा जाता हूँ ,
उस खाली ब्लैक बोर्ड ,
और अपने हाथों मैं पकड़ी चॉक को ,
अब नहीं लिखा जाता कुछ भी ॥
............................................................अ-से अनुज ॥

गीतांजलि --- 1

तूने मुझे बिना किनारे का बना दिया है ,
तेरा मज़ा ही कुछ ऐसा है ,
ये छोटा सा पोत जिसे तू बार बार हवा से खाली कर देता है ,
और फिर इसमें नया जीवन भर देता है ॥

बांस की ये एक छोटी सी बांसुरी ,
जिसे तू हमेशा साथ लेकर चलता है ,
पहाड़ियों और घाटियों पर ,
जिससे सांस लेती हैं ,
चिर नवीना सरगम ॥

तेरे हाथों के अमृत स्पर्श पर ,
मेरा ये नादान सा दिल ,
ख़ुशी से उछलता अपनी हदें भूल जाता है ,
और जन्म देता है अनकही दास्तानों को ॥

तेरे अनंत उपहार मुझ तक पहुँचते हैं ,
सिर्फ इन छोटे हाथों में मेरे ,
सदियाँ बीत गयी हैं ,
अभी भी तू दिए जाता है ,
और अभी भी इनमें जगह खाली है ,
कुछ भरने को ॥

.................... ( गीतांजलि ) ....................

जय गाथा -- 1

जय-गाथा :
.....................

प्रलय के पश्चात .... एक दीर्घ काल तक ... सब शून्य था ... चेतना को जगत का बोध नहीं था ॥

अमावस की रात्रि के घने अन्धकार के पश्चात् ,
जिस तरह सूर्य उदित होता है कुछ उसी तरह ......

जब ये जगत ज्ञान और प्रकाश से शून्य और अन्धकार से पूर्ण था ....
तब चेतना के पूर्व से एक बहुत बड़ा गोलाकार अण्ड उदित हुआ ,
वो दिव्य , शक्त और ज्योतिर्मय था ,
वो सत्य बोध , सनातन और ज्योतिर्मय ब्रह्म था ॥

वो ब्रहम कल्पना और सत्य कुछ भी कहा जा सकता है ,
वो सर्वत्र सम , एक रस , और अविभेद था ,
मात्र कारण स्वरूप ॥

वो अविचारणीय और अलौकिक बोध मात्र था ॥

उस निजबोध , चेतन अण्ड से "अनुग्रह रूप लोक पितामह ब्रह्मा " उत्पन्न हुए ॥

सत्यकल्प ब्रहमा , स्वतः सृजन शक्ति हैं ,
जिस तरह से ऊष्मा और प्रकाश अग्नि की सहज शक्तियाँ हैं ,
और वो उससे अलग नहीं ,
ठीक उसी तरह सृष्टि सृजन ब्रह्मा से भिन्न नहीं,
वो स्वयं सत्य गुण हैं और उनकी कल्पना उनके संयोजन से सत्य रूप ही होती हैं ॥

उस ब्रह्मा की कल्प सृजन की सहज शक्ति से अन्य प्रजापति , प्रचेता , दक्ष , पुत्र , ऋषि , आदि मनु , विश्वेदेवा , आदित्य , वसु ,अश्विनीकुमार , यक्ष , गन्धर्व , राजर्षि , जल , ध्यो , पृथ्वी ,वायु आकाश ,दिशाओं , संवत्सर , ऋतू , मास ,पक्ष , दिन और रात सहित ये पूर्ण जगत अस्तित्व में आया ॥

ये चराचर जगत प्रलय के समय जिस चेतना में विलय होकर सुप्त होता है ,
प्रभव के समय उसी से उत्पन्न होता है ॥

जैसे ऋतू आने पर उसके सभी प्रभाव स्वतः ही प्रकट होने लगते हैं ,
और समय ख़त्म होने पर स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं ,
उसी प्रकार जगत का और जगत के सभी प्रभावों का काल के अनुसार ,
स्वतः प्रभव और प्रलय निरंतर चलता रहता है ॥

ये कालचक्र जिससे सभी की उत्पत्ति और विनष्टि होती है ,
अनादि और अनंत रूप से सदा चलता रहता है ॥

.................... ( जय सहिंता के अनुसार .... क्रमशः ) ........................................

...................................................................................... अ-से अनुज ॥

Oct 19, 2013

" अर्द्धनारीश्वर "



इन्द्र धनुषी छटाओं ,
पुष्प शोभाओं ,
स्वच्छ कल कल धाराओं ,
मंद स्वच्छंद हवाओं
सरगमी नादिकाओं ,
सी विस्तारित असीमित
धवल उज्जवल अर्द्ध .... शिवप्रिया ,
और
फैली दिशाओं ,
चेतन ध्वजाओं ,
सदा स्फूर्त ,
स्व नादित ध्वनिकाओं
समान स्थिर असीमित
श्वेत कर्पूरी प्रकाश ....परार्ध शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

कर्म प्रवृत्ति ,
इच्छा शक्ति ,
गुणों और भावों की
अभिव्यक्तन आसक्ति ,
पवित्र कस्तूरी गंध
लाल - नारंगी आकाश पटल .... शिवा ,
और
कर्म निवृत्ति ,
संतुष्टि , तृप्ति ,
तीनो गुणों की
परार्थ शक्ति ,
भस्म सी विरक्ति
अद्भुत भक्ति .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

स्वर्ण शोभित दृश्य आभा ,
रजत संचित रत्न प्रभा ,
खनक देते दिव्याभूषण
चित्त वेदित जिजीविषा ... पार्वती ,
और
रत्न दिगम्बर ,
सत्य सुन्दर ,
सर्प भूषित ,
वेद अविदित ,
चित्त निवेदित
सामर्थ्य कुशा ... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

प्रसन्न कमल सी ,
श्रद्धाजल संस्कृत ,
जीवन ज्योतित ,
विश्वास आपूरित ,
पूर्ण विस्तृत ,
निस्संदेह दृष्टि
द्वि चक्षु ... शैलपुत्री ,
और
सम्यक नयन ,
समदृष्टि ,
ज्ञान दृष्टि ,
शांत ,  सौम्य ,
त्रिनेत्र ..... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


फल - पुष्प सज्जित ,
लता - वृक्ष शोभित ,
जगत - जीव ज्योति ,
दिव्य - अम्बरा ...... शिवा ,
और
वज्र सघन ,
स्फटिक प्रकाश ,
कपाल - माल सज्जित ,
दिक् - अम्बर ...... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


जलापूरित मेघ ,
वेगमान सरिता ,
तरंगित वाणी ,
सर्वथा स्वतंत्र प्रकृति ..... शिवा ,
और
तड़ित प्रचंड ,
तेजोमय दंड ,
स्थिर नाद ,
दिक-लोक स्वामी .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

जगत सृजक ,
विश्वप्रपंच कर्ता ,
नाट्य नृतक ,
जगज्जननी ,
स्वभाव पूषा .... शिवप्रिया ,
और
जगत संहारक ,
आत्मस्थ कर्ता ,
तांडव नृतक ,
भूतभाव पूषण ... पार्वती प्रिय ,
को
नमन है ,  नमन है ॥

जिनकी दिव्य चमक से
सम्पूर्ण व्योम प्रकाशित है ,
जिनकी शक्तियों से ,
सम्पूर्ण सृष्टि अच्छादित है ,
जिनके तेज से
समस्त दिशायें कम्पित हैं ,
उन सर्व इष्ट देने वाली शिवसंयुक्ता और
आयु और भोग देने वाले पार्वतीयुक्त ,
अर्द्धनारीश्वर को नमन है ,
जो अनंत और वर्तमान सभी काल में
सृष्टि स्थिति और लय कर्ता हैं ,
उनको अनेक बार नमन है ॥

................................................................. अ से

Oct 17, 2013

" अन्तःसूत्र "


War Painting by Pablo Picasso
जादूगर की जान तोते में थी ..
तोता विरही निकला ,
एक दिन आत्महत्या कर बैठा ,

जादूगरी काम न आ सकी ॥

सोणी महिवाल , लैला मजनू , हीर राँझा , सस्सी पुन्नू ,
रोमियो जूलियट , शीरी फ़रियाद और न जाने कितने ,
बंधे थे ... अंतस के प्राण सूत्र से ,
एक का दर्द दूसरा न सह सका ॥

पुत्र में ममता थी ,
उसकी मृत्यु के प्रमाण भर से द्रोण ने युद्ध और संसार दोनों छोड़ दिया ,
भुजाओं का अकूट महासंग्राम ,
ह्रदय की सूक्ष्म सी नाड़ी पर जाकर थम गया ॥

नीड़ का निर्माण भी जरूरी था ,
एक तिनका भर संपत्ति के लिए हुई महाभारत में ,
एक चिड़े ने दम तोड़ दिया ,
चिड़िया जीत कर भी खुश न थी ,
घायल अवस्था में भी उसे बच्चों के लिए दानों का इंतज़ाम करना था ॥

जब इज्ज़त पर आ गुज़री ,
पुजारी और पादरी कुछ शब्दों की जंग में दो सियासत लड़ा बैठे ,
मौलवी खुदा का शुक्रिया अदा करने निकल पड़े ॥

उसकी देशभक्ति उसका जूनून बन गया ,
विगत इतिहास की बेईज्ज़ती का बदला उसने प्रारब्ध तय किया ,
प्रकृति से भी क्रूर , बहती खून की नदियाँ ,
एक-एक हिटलर ने समाज - सभ्यता पर तमाचा जड़ दिया ॥

इधर सावन झूम कर बरसा है ,
प्रेम सजल से भीगकर पत्ता पत्ता निखरा है ,
अमृत- तृप्त धरा पर हरा बचपन उभर आया है ,
पतझड़-जर अनंत अंधेरों में गहराया गया है ,
और आज शेर भी हिरन के संग नदी की तरफ निकला है ॥


ममता में निकले गए कितनों के प्राण ,
अपनत्व ने ली कितनो की जान ,
भाईचारे के कारण सारा युद्ध छिड़ा है ,
मोह के तिनके पर संसार खड़ा है ,
आँखों में यादों का जाला पड़ा है
विस्मृति-अमृत को संसार भूला पड़ा है ॥
-------------------------------------------- अ-से अनुज ॥

Oct 16, 2013

" बुद्धं शरणम् गच्छामि "



.........................................

बारिश गुज़र चुकी थी , रात भी ,
उठती हुई आवाजें भी अब बैचेन न थी और हवा को भी कोई जल्दी नहीं नज़र आती थी ,
हल्की नर्म धूप में सुस्ताने ,
बाहर निकला वो अलसाया सा मेंढक ,
रात भर खौफ में टर्राते , अपने बाकी साथियों के साथ , वो थक चुका था ,
पूरी रात उसने सुबह के इंतज़ार में काटी थी ॥

बाहर बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा थी ,
उसे दिखी तो नहीं उसकी दृष्टि के सामर्थ्य से वो काफी ऊंची थी ,
पर वहां एक अप्रतिम शान्ति थी ,
शायद उस पत्थर में जंगल की बाकी गीली जमीन से ज्यादा गर्माहट थी ,
वहां सो रहे थे कुछ पंछी और कुछ और जानवर , जो आम तौर पर सूरज की इस ऊँचाई पर शांत नहीं बैठते ,
फुदक कर वो सबसे निचले पत्थर पर चढ़ गया और सो गया ॥

नींद में बनते बिगड़ते सपनो में उसे प्रश्न आया की वो मेंढक कैसे बन गया ,
वो तो एक नवयुवक भिक्षु था ,
जो संन्यास लिए किसी जंगल में ज्ञान की प्राप्ति को निकला था ,
उसके अस्थिर मस्तिष्क के किसी संयमशील हिस्से में ठहरी चेतना ने उबासी ली ,
पूर्व की दिशा में उसका सर उठ गया ,
उसके गुरु ने उसे बताया था ,
अपराध और पाप के विषय में उसकी उत्तेजनाओं को शांत करने के लिए ,
पाप वस्तुतः नहीं होता , अंगुलिमाल भी उसे क्रमशः याद आया ,
गुरु के कई उपदेशों में से कुछ कुछ उसे याद आया ,
उसे याद आया , वो किस तलाश में निकला था ,
उसे तलाश थी बुद्ध की ,
भगवान् बुद्ध उसके समकालीन नहीं थे पर उसने बहुत सुना था उनके बारे में ,
तो वो जानना चाहता था बुद्ध को ,
निर्वाण उसकी प्राथमिकी न थी ॥

वो एक पास वाली छोटी पहाड़ी पर रहने लगा था ,
वो जानना चाहता था बुद्ध को , वो क्या थे , कैसे थे , क्या बुद्ध का अभी भी अस्तित्व है ,
और अगर नहीं तो फिर साधारण मनुष्य और उनमें क्या फर्क आ गया ,
इन्ही प्रश्नों की उधेड़बुन में उसके सारे मौसम एक हो गए थे ,
कांटो पर चलने तक के स्पर्श उसे देह की सुध नहीं देते थे ,
स्वाद वो भूल चुका था , मृत्यु और मोक्ष उसके ज्ञान का विषय न थे ,
और
कोई प्रेम कथा अभी उसने जानी न थी ॥

उस पहाड़ी के दूसरी ओर एक गाँव था ,
कुछ लोग लकड़ी आदि अन्य आवश्यकताओं के लिए जंगल की तरफ आते रहते थे ,
एक बार एक स्त्री उधर से गुजरी थी ,
नीले वस्त्र , पीले फूलों का श्रृंगार ,
गेहुआं वर्ण , छोटे तीखे नेत्र , भरे हुए गालों और तेज कदमताल ,
उसकी नज़र जब हटी तो दूर गाँव की तरफ की पगडण्डी के आखिरी छोर पर कुछ गति सी थी , जो अब नहीं थी ॥

तीक्ष्ण हुयी जिज्ञासाएं लक्ष्य बदलते ही अपने शब्द रूप बदल लेती हैं ,
कहानी बदलने लगी , आते जाते अब वो उसे कई बार देख चुका था ,
एक बार सहायता प्रदान करने के वाकिये के साथ सिलसिला चल पढ़ा ,
अब मन की जिज्ञासा नयनों से गुजरने लगी ,
बुद्धि , बुद्ध से ध्यान हटा कृष्ण और फिर काम हो गयी ,
कामदेव सजल नेत्रों से मुस्कुराने लगे ,
प्रेम के अक्षर पढ़ाने को अब उनके पास एक शिष्य था , और एक शिष्या भी ,
वो नित नयी पंचरंगी कहानियाँ सुनाने लगे ,
दोनों शिष्यों में समर्पण भाव जागने लगा और भेद ख़त्म होने लगा ,
समय के परे तक अब प्रेम की पहुँच थी ,
मृत्यु, उत्पत्ति और बुद्ध भाव अब उसके मन मानस से गुज़रते न थे ॥

वर्ष गुज़र गया और बुद्धि में चित्रित कर गया ,
कई सुहाने मौसम , अनेकों भाव , अनोखे स्पर्श, रूप, और शब्दमय मात्राओं के चिन्ह ॥

एक दिन कायनात में बिजली गूंजी ,
चमक नहीं थी उसमें कोई घनघोर था ,
गाँव में गीत गाये गए थे , कोई उत्सव का माहौल था ,
किसी राजा या बड़े मंत्री की नज़र लग चुकी थी उसकी अनुभूतियों पर ,
असहाय नारी कर चुकी थी त्याग अपने प्रेम का , आज उसका विवाह , उसके परिवार का सम्बन्ध किसी भव्य वैभव से था ,
और उस आकाशीय बिजली का आघात किसी ह्रदय को सहना पड़ा ॥

बेबस आँखे विरह की अग्नि में सूखते बिखरते आंसुओं में जल जल कर पिछले मौसम के ठहरे हुए दृश्य दिखाती थी ,
और किसी त्राटका की छाया युवक पर पड़ चुकी थी , अब वो सोता नहीं था ,
देखता रहता था एकटक ,
कबूतर कबूतरी के जोड़े , कव्वे , हंस , भँवरे और चिड़ियाएं ,
अल सुबह से देर रात तक सब को मगन देखता था वो ,
उसने काम के सुन्दर और भयावह रूप देखे ,
और कभी कभी चुभते थे उसे स्पर्श ,
वो जानना चाहता था ,
की उसकी प्रेमिका में ऐसा क्या था , जो और किसी में नहीं ,
वो क्या है जो उसे और कुछ भी नहीं भाता , सिर्फ अतीत चाहता है ॥

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अब प्रकृति के क्रिया कलाप और जीव जंतुओं के आचार व्यवहार देखना ही उसकी दिनचर्या हो गयी ,
उन्हें दौड़ते , खेलते , लड़ते , मरते , मारते , भोग और सम्भोग करते ॥
जिस चट्टान पर वो अक्सर बैठता था ,
उसके पास ही एक गंदले पानी के गढ्ढे में कुछ मेंढक रहते थे ,
जो सांझ होते ही अलग हो हो कर फुदकते लगते ,
पर वो ज्यादा दूर ना जाते थे ,
फिर टर्राने लगते , और जीभ लपका कर उड़ते बैठते कीड़े खाते ,
उनमें कुछ मेंढक अपना गला फुलाकर रंग बिरंगा कर लेते ,
अलग अलग टर्राहटों से अपने साथी को आकर्षित करते ,
साथी के पास आने पर अलग अलग नृत्य मुद्राओं में कूदते फुदकते ,
इस तरह ही पूरी सांझ और रात निकाल देते ॥

उन्हें देखकर उसे अपनी प्रेयसी की याद सताने लगती , उसका गला सूखने लगता तो वो वही गन्दला पानी पी लेता ,
वो बस उसे कम से कम एक बार तो देखना चाहता था जी भर के ,
उसे इन नन्हे मेंढको का भाग्य भी स्वयं से बेहतर लगने लगा ,
अनजाने में पाए दुःख को नियति समझ विधाता को कोसने लगा ,
उसे हर चीज हर बात से शिकायत होने लगी ,
वो समाज को गाली देता , अकेले में बडबडाता , किसी जीव को लकड़ी मरता , किसी पर पत्थर फेंकता ,
पंछियों के अंडे , खरगोश , कबूतर का मांस खाकर जीने लगा , हाल का , सड़ा , कैसा भी ॥

संसार में सुख , दुःख , प्रेम , परिहास का कोई परिमाण (माप तौल) नहीं होता ,
अन्य की तुलना में किसी चीज से वंचित लोग कुंठा का शिकार हो जाते हैं ,
कुंठा से दायरे सिमटने लगते हैं ,
और व्यक्ति किसी कीड़े की तरह एक छोटी सी डंठल को कुरेदने में ही जीवन बिता देता है ॥

वक़्त गुजरा अब उसे किसी बात का ध्यान नहीं रहता था , विक्षिप्त सा , जंतुओं से लड़ता झगड़ता ,
वो विक्षत और बीमार हो चुका था , उसका अंतिम वक़्त वो मेंढक थे , वो या शायद दूसरे ,
जो कभी उसे अच्छे लगते , कभी बुरे और कभी बैचेन करते ,
उनमें वो उदासीन न था , वो उसकी भावनात्मक आसक्ति बन चुके थे ॥

अपनी कुंठा में वो युवक उसी गढ्ढे के पास से उस दृश्य भाग से गुज़र चुका था , ( कुछ गिद्ध जमा थे वहाँ )
आगे वहाँ क्या हुआ क्या पता ,
उसके बाद वो कभी होश कभी बेहोश, घने अंधेरों के बीच रह रहकर सिसकता था और फिर बेहोश हो जाता था ,
जब कभी उसने उठने की कोशिश की तो स्वयं को असंख्य चट्टानों के भार तले महसूस किया ,
पलक उठाना कभी असंभव लगता तो कभी सूरज को आँखे दिखाना ,
अस्तित्व की तलाश में उसका सब कुछ जलता पिघलता जकड़ता सा लगता था ॥

और फिर जब वो उठा था तो उसने खुद को पानी में पाया था ,
हाँ तभी उसकी साँसे चली थी और वो फुदक कर बाहर आया था ॥

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अजीब सी प्यास सताए रहने लगी उसको ,
भूखी जीभ उड़ते कीड़ों की ताक लगाए रहती ,
और लपक कर मूँह में भींच लेती , पूरी निर्ममता से भींच कर मूंह बंद रखना होता था ,
जब तक फड़फड़ाती वो जान दम न तोड़ देती ,
गीलापन , गन्दगी , रौशनी से डर, आँच की असहनीयता और अकेलापन ,
बाकी मेंढको के बीच उसका मन न लगता ॥

पर कमजोर निरीह मन , भूख ,संवेदनाओं , मृत्यु और कुछ छूट जाने के भय के आगे कब टिका है ,
और वो भी एक छोटे से दायरे में सीमित जीव जिसकी दृष्टि खुले आकाश को देख पाने में असमर्थ हो , उसका मन ,
पर कुछ था जो उसे बाकी से अलग रखता था ,
शायद उसका अकेलापन , कोई गहरी जिज्ञासा , और ह्रदय के अंतर पर ठहरा अस्पर्श्य प्रेम ॥

वो बाकी मेंढकों के साथ ही उनके पीछे उनसे अलग उनसे स्वतंत्र समझ लिए ,
अधिकतर कुछ ना खाए समय बिता रहा था ,
और पिछले सूरज ही तो वो इस ओर आया था ,
अपना पुराना गढ्ढा छोड़कर , जहाँ एक चूहे की सड़ी पडी हुयी देह की दुर्गन्ध से दूर वो किसी ताज़ा हवा की तलाश में था ,
और सांझ होते ही बारिश होने लगी थी ,
वो जाग चुका था , भीतर तक ॥

स्मृतियाँ वक़्त के साथ अंतर्मन पर आवरण बनाने लगती है , और उसके नीचे , बहुत नीचे ,
कहीं गहरे दब जाता है ह्रदय और स्वास्थ्य , फिर रौशनी वहाँ से बाहर नहीं झांकती , मुक्त आकाश भी भय और चिंता का सबब बन जाता है ,
तब सब भूल जाना ही एक उपाय होता है , भावनाओं के सामान्य प्रवाह में मिल जाने तक , चेतना जब तक स्वच्छ न हो ,
और तब पुरानी स्मृतियों से ही बल भी मिलता है , संबल भी , और सबसे जरूरी ज्ञान भी ॥

उसे उसके उद्देश्य ज्ञात हो चुके थे , और वो अब वहीँ रहने लगा , उसी पत्थर पर ,
उसे एक सुकून था वहां और वो रमने लगा ,
एक छोटी सी प्रकृति , एक दुर्बल सा स्वभाव , नन्हा सा मन , अनंत के एक नगण्य हिस्से में रमने लगा था ,
अब उसकी भूख प्यास जाती रही , अकेले , अन्य समकक्षों के साथ न रहने के कारण प्राकृतिक प्रवृत्ति भी जाती रही ,
चेतना पुष्ठ , और स्वच्छ होने लगी , उस पर छाया देह का अँधेरा कम होने लगा ,
अब उड़ कर आये एक सूखे पत्ते की ओट भी उसे पसंद न थी ,
अब वो सर उठा कर देखने लगा था , उस पत्थर को ,
वहाँ उसे अब कोई छत कोई दीवार कोई दायरा नहीं दिखता था ,
सिवाय उस सुकून भरे आसरे , उस पत्थर के ॥
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दिन गुज़रते गए , और उसकी स्मृति और विस्मृति प्रखर होने लगी ,
याददाश्त समझ और भूल जाने की क्षमता परस्पर एक ही सर्प के तीन मुख हैं जो गर्दन पर उसकी चेतना से जुडी हैं॥

मेंढक निरीह सा जीव था , उसकी स्मृति इतनी स्थिर न थी , पर अब उनकी आवाजाही बढ़ गयी थी ,
कभी कभी उसे अपना विगत याद आता , कभी अपने प्रश्न , कभी प्रेम और कभी पानी ,
कभी कभी अपने प्रश्नों की स्मृति आने पर वो निश्चिंतता से चिंतता था बुद्ध को , वो थे या हैं ,
एक साधारण सदेह मनुष्य का बुद्धा जाना, वो क्या है जो उसे मनुष्य से अलग कीर्ति दे गया ॥

फिर एक दिन मेंढक को जिज्ञासा हुयी , उस पत्थर के ऊपर तक जाने की ,
वो फुदकता हुआ उसकी सभी दिशाओं में यात्रा कर आया ,
और हिस्से जुड़ते गए उसके चेतन में स्थित स्मृतियों के ,
" हाँ ये तो बुद्ध है , और ये बदलाव बुद्ध की शरण है ,
वो ना जाने कब से उसी आधार पर जीवित था ,
ना जाने कितना कुछ गुज़र गया पर कुछ नहीं बदला ,
अचानक वो खामोश हो गया , ये ही तो बुद्ध है ,
उसने नज़र घुमा के चारों और का दृश्य देखा , सब और एक सुकून बिखरा हुआ था ,
आसमान में बादल न थे , पर सब तरफ बरस रही थी ख़ामोशी ,जो जमीन पर बिखर रही थी शीतल होकर ,
पृथ्वी ने स्वच्छ चेतना की चादर ओढ़ ली थी और उसकी मिट्टी से उठ रही थी सुगंध , वातावरण को महकाती हुयी ॥

मेंढक शांत हो गया , पूर्ण स्तब्ध , जैसे दृश्य प्रकाश थम गया हो ,
वो सब जानता था बस इस ही एक बात के अलावा , वो सब जानता था ,
प्रारब्ध से अब दृश्य नहीं सिर्फ कुछ ध्वनि आ रही थी , जो उसके मन से गुज़र रही थी ,
शुरुआत का छोर कुछ भी हो वो यहीं पूर्ण कहलाता है , सबका अंतिम लम्हा यही है ,
कहानी कहीं तक जाए शुरुआत यहीं से होती है , सबका जन्म समय भी यही है ॥

पूर्णता , हर लम्हे पूर्ण होती है और वो अपनी पूर्णता से थकती नहीं ,
पूर्णता भरी होती है अनंत उपलब्धियों से पर इससे उसकी पात्रता कम नहीं होती ,
जीवन सब और दुःख है और यहीं विरक्ति है ,
जिजीविषा ही जिज्ञासा है , बुभुक्षा भी और मृत्यु कहीं नहीं है ,
जानना भर जान लेना है और यहाँ कभी कुछ नहीं बदलता ॥

उसका यहाँ तक का सारा जीवन विगता गया , स्थिर हो गया ,  कभी न बदलने वाला अतीत ,
सारी अनुभूतियाँ अनुभूत हो गयी ,उसकी तृष्णा गुज़र गयी ,
मन मस्तिष्क से विरक्त हो चेतना तक पहुँच गया ,
सब कुछ जाना हुआ बुद्धि से बोध हो गया ॥

एक पल को वहाँ सिर्फ आनंद था ,
संसार न था ,
और फिर
सिर्फ एक स्थिर संसार , शेष ,
और बोध जो उसमें निर्बाध गति देखता रहा , बोध जो अविशेष था ,
(बोध जो न एक कहा जा सकता है न शून्य न ही अनंत , उसमें परिमाण का गुण नहीं , न ही कोई विशेषता ,
और इसीलिए वो हर परिमाण का आधार बनता है , समय का भी , गति का भी , कर्म का भी , न्याय का भी ) ॥

युवक को सदा से जीवन से लगाव था , फिर प्रेम से हुआ , फिर पानी से , और अब शांति से ,
जंगल में चर्चा थी , किसी बुद्धिमान मेंढक की फैलाई हुयी कि अमुक मेंढक बुद्धा गया ॥

उस समय एक मेंढक पौधे की छाँव में फुदक रहा था ,
एक तितली पंख फैला रही थी ,
और एक भंवरा फूल पर मंडरा रहा था ॥

" सब कुछ पुनः सोये हुए बुद्ध की शरण में "

....................... (बुद्धं शरणम् गच्छामि ) ...................

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