Dec 26, 2013

परिणामहीन : 1

कहीं पहाड़ हैं कहीं खायी कहीं पत्थर कहीं मिटटी ,
घास काई फफूंद हरियाली पेड़ पोधे जहाँ तहां बिखरे हैं पृथ्वी पर !!

पानी भी नदियों सागर नमी गड्डों में कहीं बहता सा कहीं रुका हुआ ,
इधर उधर लगी है आग भी आंच भी भट्टियों और सुलगते कोयलों में !!

हवा भी बंद है कहीं फेफड़ों में कहीं भीतियों के बीच तो कहीं बेसबब बहती रहती है ,
आवाजें भी आती है यहाँ वहां कहीं टकराहट चीखें कहीं गीत संगीत !!

बिखरे हैं मन भी यहाँ वहां , यहाँ वहाँ बहते से विचार भी है ,
अजीब सी उमंगें तरंगे भाव शोक दुःख हंसी ख़ुशी रोना ख्वाब ख्याल !!

इधर उधर अनगिनत भाषाओं के किस्से कहानियां कहावतें किताबें ,
कथ्य काव्य कायदे अजीब अमीर अथाह बातें हैं सुनने सुनाने को !!

और इसी तरह बिखरी पढ़ी है समझ बुद्धि मति कहीं कोनों कपालों कोश कोख में ,
जीवन भी यहाँ वहाँ हर जगह दौड़ता चलता सोता खोता नज़र आता है !!

संसार में सब कुछ जीवन मृत्यु गति स्थिरता जड़ चेतन पत्थर अनुभूतियाँ ,
बस यूँ ही बेवजह बेसबब बेमायने बेकार ही बढ़ते घटते चलते रुकते रहते हैं !!

और ना जाने क्यों ये शून्य पटल सबकुछ रिकॉर्ड करता रहता है ,
सबकुछ जिसका कुल .... परिणामहीन निर्मम निरपेक्ष और निरर्थक है !!

और क्योंकि निर्वचनीय भी एक शब्द है इसलिए कुछ और कहने का अब मन नहीं !!

< अ-से >

Dec 23, 2013

अलविदा

घर की हवा को अंतिम बार एक लम्बी साँस में भरकर ,
उसने छोड़ा ,
और फिर वो चला गया ;

दरवाजे खिड़कियाँ सब बंद हैं अब ,
भीतर अँधेरा है ,
सब खाली , खामोश , सुनसान ;

हवा रुक गयी है या अब भी बहती है , कोई बताने वाला नहीं ,
कुछ कुतरते दौड़ते चूहे , धूल की महक , मकड़ी के जाले ..
.. क्या आलम है क्या नहीं कौन जाने ;

आवाजें आती तो होंगी बाहर से , नल भी टपकता होगा ,
कोकरोच चीटियाँ मकड़ियां बहुत से जीव होंगे पर सब खामोश ,
परदे हिलते तो होंगे , कम्पन भी होते होंगे , पर कोई सुनने वाला नहीं ;

अब मकान यूँ ही पड़ा रहे या ढह जाए ,
कोई बाढ़ बहा ले जाए या मिट्टी निगल जाए ,
या चूहे उसे कुतर खाएं , किसे फर्क पड़ता है ;

देह पड़ी है जमीं पर , अचल ,
प्राण पखेरू उड़ चुके हैं !!

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी : 4

संसार एक अमूर्त मूरत है ,
सब कुछ सही जगह , स्वस्थ ,
सब कुछ रुका हुआ सा , स्थिर ,
और यहाँ घूमते रहते हैं मन ,
अनिश्चय में भटकते ,
आखिर वो चाहते क्या हैं !!

< अ-से >

Dec 21, 2013

अप्रासंगिकता

पत्ते झड़ते रहे लगते रहे हजारों ,
पत्ते झड जाने से ही वृक्ष नहीं मरता ...

वृक्ष गिरते रहे उगते रहे जंगल के जंगल ,
वृक्ष सूख जाने से पृथ्वी नष्ट नहीं होती ...

कितने ही ग्रह नक्षत्र पृथ्वी जैसे बन बिगड़ गए अब तक ,
पृथ्वी के विनाश से आकाश का पतन नहीं होता ...

पल भर में नए आकाश बना लेता है मन ,
आकाश के अवकाश ले लेने से मन नहीं मरता ...

पसंद नापसंद में बनता बिगड़ता रहता है मन पल पल ,
मन के सन्यास से बुद्धि अप्रासंगिक नहीं होती ,

न तो हर प्रश्न का उत्तर बुद्धि की सामर्थ्य में है ,
और ना ही बुद्धि के समाधिस्थ हो जाने से आत्म नष्ट होता है ...

आत्म भी अनेकों नज़र आते हैं अलग अलग ,
पर फिर किसी आत्म के अनस्तित्व हो जाने भर से उसका स्त्रोत नष्ट नहीं हो जाता ,

........................................
" मौसम बदलते रहते हैं ,
वक़्त के इशारे पर ,
यूँ ही खड़ा खड़ा ... दिल देखता है तमाशा !! "

< अ-से >

" बबुष्का-वास "

" बबुष्का-वास "

बबुश्काओं की भाँती ये एक ही असीमित पूर्णाकाश ,
फिलहाल नवें आकाश (space) तक ,
इन्द्रधनुश्की पट्टिकाओं सा बिखरा-फैला हुआ ...

भीतर से पहला सघन चेतन .. " प्रकाशाकाश " ,
जो किसी नन्हे बच्चे की भांति निश्चिन्त और प्रसन्न है ,

फिर मूल स्वभाव का " प्रधानाकाश " ,
जहाँ बालक अब दुनिया के सनातन धर्म कायदों को सीख रहा है ,
और साम्य को समझता हुआ , सम भाव , समदृष्टि का पाठ पढ़ रहा है ...

फिर महत्ता निर्धारण का " महानाकाश " ,
की ऊपर सर होना है नीचे पाँव ,
बायें ह्रदय होना है , दायें यकृत ,
पूर्व अभिमुख आँखें हों , पश्च अनुमान बुद्धि ,
की वास्तविक भौतिकी में दो दिशायें एक सी नहीं होती ....
जो श्री तत्व का ज्ञान सुनिश्चित करता बाल-तरुण है ,

भीतर से अगला आकाश ... " अहम् संज्ञक " मैं
जो अगले आकाशीय मैदानों पर अपने खेल का परचम लहराने को ,
अश्व सा स्फूर्त और आतुर ,
कीर्ति तत्व को जानता जीता पूर्ण तरुण सा ...

और फिर पंचम आकाश ये हमें जान पड़ता सा संसार " शब्द-आकाश " ,
जहाँ वास करती हैं अनगिनत आवाजें , गूढ़ कहावतें और पंचतंत्र की कहानियाँ ,
वाक् तत्व का सहज ज्ञान रखता सामाजिक जीवन में कदम रखता व्यक्ति सा ...

आगे के चारों आकाश
" स्पर्श-आकाश " " रूप-आकाश " " रस-आकाश " और " गंध आकाश "
जिनमें व्यक्ति क्रमशः स्मृति , मेधा , धारणा और क्षमा तत्व का ज्ञान सुनिश्चित करता है ,
उसकी आगे की जीवन अवस्थाओं में आसानी से नज़र आती है ,
जो की होती हर उम्र में है पर उनका प्रभाव समय के साथ सहज ही बदलता जाता है ...

वास्तव में ये सभी आकाश , अहम् आकाश के भीतर बाहर सब और विद्यमान हैं ...
आकाश में आकाश की स्थैतिक अभिव्यक्ति असंभव तो नहीं ,
पर वो फिर से संसार के रूप में ही संभव है ...

बबुष्का गुडियाएं शायद यही व्यक्त करती हैं ,
की जीव अन्य आधारों पर भी वास करते हैं ,
यही एक आकाश नहीं ... सिर्फ पृथ्वी ही आवास नहीं !!

हाँ पर ये पाठशाला जरूर है !!

< अ-से >

( वास्तव में ये सब किसी एक डायमेंशन में अन्दर बाहर लगता है तो किसी और डायमेंशन में ऊपर नीचे नज़र आता है ,
होने में सब पानी में पानी या आकाश में आकाश सा है ,

पर चेतना में सारी विभक्तियाँ ज्ञात है ... )

और वो चला गया

और वो चला गया ,
सब यहीं रखकर , यहीं दुनिया में ...

वो जो शून्य से उपजा था ,
फिर से शून्या गया ,
ना , नहीं मिटा नहीं ,
अपने अनुभूत सभी वेद त्याग कर ,
सब कुछ भूल कर ,
वेदना से परे ,
वेदना जो की अपने संचय में देह और संसार रचती है ,
को त्याग शून्य चेतन हो गया ,
ठोस और अदृश्य हो गया !!

और वो छोड़ गया सब ,
सब कुछ ,
यहीं रखकर ,
यहीं , यहीं दुनिया में !!

अपने अतीत की सारी अनुभूतियाँ ,
सारी गतियाँ ,
और अपने शून्य गमन का मार्ग ,
चुनाव के चिन्ह ,
और विस्मरण का भाव !!

है ,
सब है ,
दोनों पहलू यहाँ है ,
व्यक्त संसार देह और अव्यक्त ह्रदय ,
बस मुझे एहसास नहीं होता ,
बहुत कोहरा छाया है यहाँ ,
झूठी सच्ची बातों का ,
गुणों-वेदनाओं का इंद्र-जाल बिछा है ,
मेरे पास भी है चुनाव ,
और भूलने की शक्ति भी ,
हिम्मत भी ,
ज्ञानशक्ति भी !!

नहीं है तो वो दृष्टि जो मेरी राह बने !!

< अ-से >

स्विच

स्वप्न से उब पलकों को हुआ इशारा ,
झपक कर उसने बदल दिया नज़ारा ,

याद आयी फिर से सारे दिन की धूप छाँव ,
मन के मुताबिक फिर चलने लगे पाँव !!

हाथ हिले दांत मजे पानी पर हुयी छ्पकियाँ ,
चेहरा धुला मौसम खिला दूर हो गयी झपकियाँ ,

लाइटर खटका उठा भभका शुरू हुआ नित्य कर्म ,
पत्ती शक्कर पानी दूध मिलकर हुए नर्म गर्म ,

फिर प्याले में थी ताम्बई रस भरी चाय ,
कुर्सी हिली कम्प्यूटर चला fb पर की hi ,

माउस के स्पीकरीय इशारे पर आकाश गाने लगा ,
संगीत के साथ फिर सारा समा गुनगुनाने लगा ,

अद्भुत स्विच हैं बुद्धि के , इशारे पर कलम चले ,
जागती सोती हंसती रोती जीवन की कहानी पले !!

< अ-से  >

ज्ञान विज्ञान

अश्वत्थ सा आत्मकेन्द्रित, तुलसी सा पवित्र विज्ञान ,
साध, भक्ति और समर्पण के साथ ।

बाँस और गन्ने सा बढता उत्तरोत्तर ज्ञान ,
सुगंध और मिठास की ऊर्ध्वाधर दिशा लिए ।

आम्र सा फलदायी , नीम सा गुणकारी ,
अपने को उपयोगी बनाने की होड़ में ।

विद्या के पौधे सा वेद्वित ,
ज्ञान शाखाओं की अनन्तता का भान कराता हुआ ।

वृहत से मूल , पत्ते से बीज तक की यात्रा ,
और उसका उपयोग जीव जगत की भलाई ..

व्यापक का आवश्यक खाँका खींचने की कला है ज्ञान विज्ञान ,
ना की बरगद की तरह फैलते विचारों को अस्तित्व देने का नाम ..

जमीन पानी और हवा हर जगह जडें फ़ैलाने वाला ,
सारे रसों और वेदनाओं में फंसा हुआ ,
हर ओर बढता फिर भी दिशाहीन ,
बिना रुके देखता , बिना सोचे चलता ,
कुबेर की तरह संचय को ही जीवन माने हुए ।

एक प्राचीन कहावत है , " बरगद और पीपल एक दुसरे की छाया तले नहीं पनपते " ,
कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान दुनिया में उन लोगों की है ,
जिनके लिए जीवन , साधना और बोधि-वृक्ष हुआ करता है ॥

< अ-से >

दर्पण - 1

दिखाएं कौन सा एक चेहरा तुम्हे ,
स्वभाव-रक्स में कुछ ठहरता नहीं ,
माया मरीचिका में मारा फिरता ,
ये शख्श क्यों कहीं उभरता नहीं ...

कांच-दीवार से गुजर कर बिफरा ,
बेरंग-प्रकाश कई रंग लिए ,
रजत-समतल सतह से आया ,
दृश्य-ख़त फिर एक अक्स लिए ...

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी - 3

प्रतिक्रिया के लिए किये गए कार्य अस्तित्व को अशांत करते हैं !
कार्य स्वयं से किया जाये तो सुकून और आत्म तक पहुँच देता है !!

मानस की शांति के लिए अहिंसा एक अच्छा अभ्यास मार्ग है !
अपने अस्तित्व को भीड़ होने से बचाया जाना चाहिए !!

कार्य परिणाम के लिए न किये जाएँ तो वो स्वयं तक ले जाते हैं !
तात्क्षणिकता और तत्परता कर्म के कौशल हैं !!

नाम इश्वर का रटो या प्रेमिका का ह्रदय की शुद्धि का साधन है !
प्रेम अध्यात्म का सीधा सरल मार्ग है !!

कोई भी कार्य जो संभव है प्रकृति के नियम के विरुद्ध नहीं !
अगर कार्य नाम के लिए किया जाता है तो दिल को दोष न दिया जाए !!

कार्य संसार में कोई बदलाव नहीं करता ,
नज़र आता बदलाव भी संसार में कोई बदलाव नहीं करता !
कार्य स्वयं के प्रकृति से लय के लिए , योग के लिए किये जाने हैं ,
अन्य सभी प्रयोजन व्यर्थ चेष्टा हैं !!

< अ-से >

Dec 4, 2013

दिल जानता है ...


आकाश अपने पास कुछ नहीं रखता ,
उसको दिया सब बिखर जाता है , वहीँ आकाश में !!

सोन चिड़ियाऐं गाती हैं सिर्फ प्रेम गीत ,
वो नहीं सुनती कोई भी बात , किसी मतलब की भी !!

अपनी हद पर खड़ा रहता है दरबान और चले जाना चाहता है ,
उसे नहीं वास्ता किसी रंगीन महफ़िल से !!

खिड़कियाँ नहीं रोकती मिलने से, भीतर और बाहर को ,
बस एक जरूरी दृश्य दूरी बनाये रखती हैं !!

पता है संगदिल तुझे ...
दिल दुनिया की सबसे खूबसूरत खिड़की है ,
सबसे सचेत दरबान ,
सबसे फैला आकाश ,
और एक सच्ची सोन चिड़िया !!

दिल जानता है...
आजादी जरूरी है जीने को ,
पर वो नहीं थोपता कोई भी निर्णय तुम पर ,
सिर्फ दिखाता है दृश्य ,
सुनाता है गीत ,
सबक देता है इंतज़ार का ,
कुछ नहीं कहता वो तुम्हे ,
सिर्फ एहसास देता रहता है ,
उसके होने का ....

आखिर तुम्हे भी तो जीना है ना !!

< अ-से >

Dec 3, 2013

अभिवैयक्तिकी

जो कुछ है .....
वही ज्ञान का विषय है ,
जो कुछ भी है जैसा भी है ,
शब्दों द्वारा उसी को संज्ञापित किया जाता है ,
उसी को परिभाषित किया जाता है ,
और प्रमाणों द्वारा उसी को सत्यापित किया जाता है ,

पर फिर प्रमाण का न उपलब्ध होना ,
संज्ञा और परिभाषाओं का असमर्थ होना ,
कतई ये नहीं जताता ,
की जो विषय इतनी समग्रता और इतना व्यापक रूप से जाना सुना जाता है ,
वो वस्तुतः है ही नहीं !!
किसी भी विषय में पढ़े जाने पर उस पर शंका रख कर नहीं पढ़ा जा सकता ,
ज्ञान जो है उसे ही जानने /समझने / गुनने की बात है ... !!

और जो कुछ है , वो वैसे भी है , चाहे उसे जाना जाये या नहीं ....
ज्ञानकर्म संन्यास योग .... कर्म के साथ ज्ञान की भी अनावश्यकता को बताता है !!
हाँ ये बात जरूर है की " ज्ञान जरूरी नहीं !! "

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी - २

पूर्व (पहले ) की दिशा में ही घूमता है जीवन फिर फिर ,
पश्चिम में (पश्चात् ) अस्त होना ही है चेतना का सूरज ,
और फिर से भोर तक विराम !!

उत्तर और दक्षिण स्थिर ही रहने हैं सदा ,
परस्पर संयोजन से ...
उत्तर कला और प्रकृति और दक्षिण कौशल और कर्म के सहित ,
त्याग की धुरी बने रहते हैं !!

इस चतुर्भज की आवर्त गति से ही ये दुनिया गोल है शायद ,
यूं घूमते रहना ही समय है ... आखिर ... !!

< अ-से >

पोटली


आते वक़्त ही माँ ने एक पोटली दी थी ...
और कहा था अपना ख़याल रखना , पोटली से ज्यादा जरूरी तुम हो मेरे लिए ...

वक़्त के रास्ते मैं निकल पड़ा ,
राह में जो भी मिला जो भी जैसा भी लगा , मैं पोटली अपनी भरता रहा ..

पोटली के अन्दर एक अनोखी ही दुनिया रच बस गयी थी ,
सामान एक दुसरे से रिश्ते बनाने लगे जुड़ने लगे और सिस्टम आकार लेने लगा ,
वो नए आने वाले सामानों को भी कहीं अपने अनुसार ही व्यवस्थित कर देते थे ,
वहां जो आसानी से जगह बना लेते थे उन्होंने अलग ग्रुप बना लिया ,
वहां अक्सर चर्चाएं होती रहती और सामानों पर अच्छे बुरे की छाप भी लगने लगी ...

यूँ ही चलते चलते जब मैं थक जाता या मार्ग निर्धारण करना होता ,
तो उसमें झाँक कर देख लेता ...

पहले सब कुछ उसमें आसानी से आ जाता था और चलने पर चीजें उलटती पलटती रहती ,
पर बाद में चीजों की हवा बाहर निकली जाने लगी पोटली के कपड़े से और गतिहीनता के कारण उनमें शुद्धता नहीं रह गयी ,
फिर वो ठंडी भी होने लगी क्योंकि गर्म वस्तुएं ज्यादा जगह घेरती हैं ,
और बाद में सूख कर जमने लगी अब उनमें रस भी बाकी नहीं रहा ,
नए आने वाले सामान भी जल्द ही इस सिस्टम के अनुसार ढलने लगते ...

सघनता काफी बढ़ चुकी थी और पोटली भारी होने लगी ,
अब वो इधर उधर से फट भी चुकी थी , कई चीजें राह में ही कहीं बिखर चुकी थी ,

एक दिन बहुत उदास होने पर मैं एक पेड़ के नीचे बैठ अपनी पोटली निहारने लगा ,
देखा तो उसमें ऊपर ही कुछ साबुत सामान थे , थोड़े नीचे के टूटे फूटे से ,
और बाकी सिर्फ धूल और मिट्टी ...

मुझे दिखने लगा आगे ... एक दिन ये पोटली बहुत उधड जाने वाली है ,
और सारे अनुभव और स्मृतियाँ भी मिटटी हो जाने हैं ,
और तब मेरी यादों की पोटली मुझे छोड़नी ही है ,

आगे रह जाएगा सिर्फ ये रास्ता ...
पर परवाह नहीं अब ...
....... आखिर माँ ने कहा था मैं ज्यादा जरूरी हूँ उनके लिए !!

< अ-से >

त्रिपंक्तिकाएं


(1)
एक मदद का गुहार था ... हुआ तमाशबीनों का मेला ...
वो भला कौन शरीफ है जो तमाशाखोर भीड़ चाहे !!

( या तो राजनीती होगी या गरीब मजबूरी ... )

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(2)

समझ नहीं आता बड़ा गुनाही कौन था ,
लड़ने वाला या लड़ाने वाला ... !!

(न चाहने वालों ने बेवजह भुगता ..... )


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(3)
पात्रता न तो कर्म से तय होती है ना ज्ञान से ...
वो तय होती है ह्रदय पात्र से ... !!


(आखिर दिल में कुछ भी रखा जा सकता है ... )

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kya kuch bhi nahi ??

हर बात के बाद एक बात है ख़ामोशी ,
अभी कुछ कहा जाने को है ,
या शायद कुछ नहीं ....

हर शब्द के बाद एक शब्द है मौन ,
कुछ तो मतलब है ,
या कुछ भी नहीं ....

तुम हंस कर जाने को हो ,
हम अब तक सोच में हैं ,
क्या , कुछ बीत गया ,
या कुछ भी नहीं ....

अभी और वक़्त है ,
कोई भी मुकाम आने में ,
कह दो कुछ और ,
की बात बदल जाए ....

यूँ ही बहते रहें ,
और जज़्बात बदल जाएँ ,
रुक जाओ कि ,
अभी बहुत लम्बा है सफ़र ...

क्या , कुछ अंजाम है ,
कहानी का मेरी ,
या ये भी एक कहानी ही है
और कुछ भी नहीं ...

< अ-से >

कौन जाने


सही लगे जिस भी लफ़्ज में तुमको ,
कह दो जो भी कहना हो आज ,
किसे खबर याद रहेगा कितना ,
अंदाज़ बरसती बातों का फिर ...

मौसम है माकूल तुम्हे तो ,
झूम लो दिल खोल के आज ,
किसे मालूम कल रहेगा कैसा
मिजाज तरसती रातों का फिर ...

निकल पड़ो क़दमों के रस्ते ,
दूर तलक जिस पर दिल कहे ,
किसे पता रखना था कब तक ,
हिसाब बदलती राहों का फिर ...

फिर किसी चाँद की ख्वाहिश कर ,
झिलमिलालो तुम भी तारों के साथ ,
किसे खयाल दिल को है कब तक ,
ऐतबार चमकती चाहों का फिर ...

अ से 

Nov 27, 2013

और क्या लिखूं ...

कुछ लिखने का मन है , क्या लिखूं !!

सागर नदी झील झरने तो सब लिखे जा चुके ,
चलो लिखते हैं एक चुल्लू भर पानी ,
कि क्या इसमें डूब कर मरा जा सकता है ,

हुम्मं !! डूबने के लिए पानी नहीं , संवेदनाएँ चाहिए ,
तैरती तो लाशें भी है ॥

हवा फिजा घटा समां भी खूब काले हुये हैं कागजों पर ,
चलो लिखते हैं , एक खुली साँस ,
कि क्या इससे कुछ बदल जाता है ,

हाँ , सोचने के लिए सिर्फ हवा नहीं , आज़ाद समां भी चाहिए ,
साँसें तो पिंज़रे के पंछी भी लेते हैं ॥

प्यार तकरार जंग और जूनून ने भी खूब किताबें जलाई है ,
चलो लिखते हैं , एक स्वच्छंदता ,
की क्यों उलझा पड़ा है इंसान समाज के जंजाल में ,

अरे , कैसे बन पाएंगे कुछ लोग भगवान् ,
अपने में तो इंसान भी जी लेते हैं ॥

< अ-से >

kya socha kya paaya ...

भरने आया था डूब कर भी खाली निकला,
होश में आया तो आलम ये खयाली निकला।।

मस्त होने को पीता रहा हर घूँट जिसे,
मेरी किस्मत कि वो प्याला भी जाली निकला।।

पढते आये थे जो भी हम किताबो में,
सोच के देखा हर जवाब सवाली निकला।।

तब तक ना समझा है तू तेरी भूल बन्दे ,
ना लगे की हर तमाचा कोई ताली निकला।।

< अ-से >

Nov 26, 2013

विद्रोह

Painting - Neogene Irom Sharmila / Google
विद्रोह : 

एक लम्बी कैद में " हया " ने कई जन्म और मृत्यु देख लिए ,
उस-ने अपने दिल पर हाथ रखा और दिल भभक उठा ....

तय समय पर शैतान ने चाबुक उठाया , 
परपीड़ा का नशाखोर , काममद से हिनहिना उठा ,
क्रंदन गीत सुनने का मन लिए वो पहुंचा जहाँ हया कैद थी ,
उसके मनोरंजन का समय हो चुका था ....

वो बुरा नहीं था ... उसने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा ,
वो बस अपना आनंद किसी कीमत पर नहीं खो सकता था ,
उसने अंतस के अनेकों युद्धों में सत्य धर्म प्रेम और शान्ति को पस्त किया था ,
हाँ सीधी लड़ाई से वो डरता रहा था इसीलिए ये अभी भी परास्त नहीं हुए थे ,
और फिर फिर उसको ललकारते थे ... ह्रदय के बेचारे अबला से अंग ....

खैर वो जानता था कोई ईश्वर नहीं आएगा उसे चुनौती देने ,
ये भी उसके खेल कूद जैसे ही था ... शतरंज उसको ख़ासा भाता था ....

कैद खाने के दरवाजों को एक बेसब्री से खींचकर वो अन्दर आया ,
बदहवास सा होकर कोड़े बरसाने लगा ,
पर आज कुछ कम था उसे कुछ अजीब लगा ,
उसने पूरा जोर लगाकर और चाबुक मारे .....

मुस्कुराती हया का चेहरा तप्त रक्तिम था ,
वो हंसने लगी ,
उसकी तीखी हंसी शैतान को अन्दर तक भेद गयी ,
उसने पीठ के पीछे से हाथ खींचकर एक और चाबुक चलाया ,
तीखा क्रंदन उठा पर उसमें रूदन नहीं था एक अट्टाहास था ,
शैतान बुरी तरह विचलित हो उठा उसने चाबुक उठाया ,
और अपनी तमतमाई बेबसी से क्रोध बरसाने लगा ,
हया को जैसे कोई असर नहीं था उसकी देह , मृत कपड़ों सी निर्जीव थी ,
वो आँखों में अंगार सी चमक लिए अपनी रक्त आवृत देह का ध्यान न कर बस हंस रही थी ,
उसने ठान लिया था किसी भी कीमत पर वो शैतान को जीतने नहीं देगी ...

उस रात शैतान पहली दफा मात खाया सा अनमना बैचैन और फडफडाता जाकर लेट गया ,
आँखों में कहीं नींद नहीं थी ... वो कंठ तक सोच में डूबा था ...

वो हंस कैसे सकती है ... किसी की चीखों में अट्टाहास कैसे आ सकता है ...
दर्द पाकर भी कोई जीत कैसे सकता है ...
सुबह होते ही वो फिर वहां गया जहाँ जंजीरों में कैद खून की लकीरों से सजी एक देह बेसुध पड़ी थी ,
जमीन पर रक्त से उकेरा हुआ एक सन्देश था ... उसके नाम ....
तुम कभी नहीं हरा पाए मुझको ,
तुम्हारी सारी मेहनत व्यर्थ गयी ,
जानते हो तुम्हे क्यों कभी ख़ुशी नहीं मिलती ....
क्योंकि तुम्हारी माँ ने एक मृत शिशु को जन्म दिया था जो एक मृत सहवास का परिणाम था ,
तुम्हारी माँ ने तुममे ह्रदय का बीज कभी डाला ही नहीं ,
तुम प्रकृति के एक मृत नियम का परिणाम भर थे जिसके अनुसार हर कार्य का फल पैदा होना ही था ,
चाहे वो कार्य किसी विध्युत चालित यंत्र ने ही किया हो ...

तुम्हारा पिता कोई मानुष नहीं था उस रात जब तुम्हे बीजा गया वो प्रकृति के मृत हिस्से का एक यंत्र भर था ,
तुम एक यंत्र की पैदाइश हो ....

और जब तुम जीवित ही नहीं तो तुम्हारा खेलना कोई भी मायने नहीं रखता इस संसार के ह्रदय में ,
जब तुम्हारी लाश को तुम्हारे अनुत्पन्न हृदय के साथ पृथ्वी से बाहर फेंका जा रहा होगा ,
तब संसार में उत्सव का माहौल होगा ....
और तुम एक सामूहिक गिद्ध भोज के साधन मात्र होंगे ...
हाँ पर उस वक़्त तुम हंस पाओगे अपनी मृत देह से क्योंकि पहली दफा कहीं शांति होगी ....
और पहली बार तुम्हारे कारण से संसार में खुशियाँ होंगी .... !!

< अ-से >

painting : Neogene Irom Sharmila // google "
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