Feb 5, 2014

नृत्य करता संसार

घूमता पंखा ,
चौराहे के चारों और दौड़ते वाहन ,
विधुत प्रवाह ,
धधकते कोयलों से दौड़ते इंजन ,
प्रकृति की शक्तियां भी कितनी रोचक हैं ...

सूर्य पृथ्वी चाँद ,
विशालकाय पिंड ,
अति भार ,
आसानी से घूम रहे हैं ,
अनुशासित ,
नियत ,
अनवरत ...

सूर्य का अद्भुत प्रकाश ,
अग्नि ,
वायु का प्रचंड तेज ,
जल ,
गति मान दृश्य ,
सतत परिवर्तन ,
भीषण और मृदु ...

ई और इ
अक्ष के दो घुमाव ,
वामावर्त और दक्षिणावर्त ,
एक में प्राणों का प्रवाह अधो ,
दूसरे में ऊर्ध्व ...


आत्म आधार ,
आधार का भी आधार ,
अविचल ....


विस्तार ,
सम्पूर्ण ,
असीम ...


आनंद ,
सम्पूर्ण आत्म में आकाश में फैला हुआ ...

अक्षर
मूल इकाई ,
स्थिर ,
ठोस ,
सनातन ,
कितना शक्त संसार ...

मात्र
चेतना की सन्निधि ,
और नृत्य करता संसार !!

< अ-से >

किताबें खुल चुकी हैं ..

किताबें खुल चुकी हैं
अब बाहर आने लगे हैं वो ...

किरदार ,
जिनको कवियों ने बनाया है
अमर ...

बीता हुआ सब एक बीज में बदल जाता है ,
और चेतना के स्पर्श मात्र से वो बीज वृक्ष बन जाता है ,
जैसे एक लिंक को क्लिकते ही पूरा पेज खुल जाता है ,
जैसे एक विचार के आते ही पूरा स्वप्न बदल जाता है ...

वैसे ही किताबों के खुलने से बाहर आने लगे हैं वो ....

< अ-से >

वो पौधा कैसा है भला ??

वो पौधा कैसा है भला ??
अच्छा या बुरा , सच्चा या झूठ मूठ का ...

कहीं हरी भरी पत्तियाँ , कहीं मुरझायी जर्द , कुछ नीचे झढ़ी हुयी ,
शाख पर तीक्ष्ण काँटे साधे हुये ,
और कुछ पत्तियों पर ओस की बूंदे चमकती सी ,
साथ कुछ नयी कोंपलें और कलियाँ ,
और फूल , फूल ... महकते महकाते , लाल सुर्ख रंग की सुंदरता ,
और फिर कठोर शाखाएँ ...

अनेकों विचित्र विशेषणों से लदा .... वो पौधा ,
वो पौधा कैसा है भला ??

< अज्ञ >

वो उठा और दक्षिण की ओर चल दिया ...

एक स्पंद के साथ उसने आँखें खोली ,
कुछ विचलन था हृदि में ,
उसको जानना था कुछ ,
शायद कोई विज्ञान ...

वो उठा और दक्षिण की ओर चल दिया ...

उसने देखे पर्वत , नदी , मैदान , वृक्ष , फल , फूल और घास ...
उसने देखी जमीन और देखे अपने पाँव ,
उसने हाथ उठाया और अपनी उँगलियों में बहाव महसूस किया , वायु का ,
नदी के किनारे अंजुली भर पानी पिया , और जानी अपनी प्यास और तृप्ति ...

उसने हर वस्तु को चिन्हित किया , तर्जनी रखकर ,
अपनी स्मृति में ,
महासागर तक पहुँचते पहुँचते उसने जान लिया था संसार ,
और वो जल बनकर समा गया समुद्र में ,
अब कोई विचलन न था !!

< अज्ञ >

यूं ही -2

मुमुक्षु का मतलब तो आप जानते ही हो , मोक्ष की इच्छा रखने वाला !!
क्या इच्छाओ से भी मोक्ष मिलता है ??

हाँ !! काम (इच्छा) भी प्रकृति ही है ... अगर आपकी इच्छा प्रकृति की इच्छाओं के समन्वय में है तब भी आप मुक्त ही हो ... उसे प्राकृत लय कहते हैं !!
जैसे श्री और आत्मसम्मान की इच्छा !!

वेद तो पूरी तरह स्वस्थ इच्छाओं के ऋचा रूप पर बने हैं ... सामवेद जो की कृष्ण अपना ही स्वरुप बताते हैं उसमें भी प्रार्थनाएं और कामनाएं ही हैं ... पर वो शुद्ध कामनाएं हैं वैकारिक नहीं ... जैसे स्वस्थ भावनाओं की स्थिति में आप चाहते हो की सब सुखी रहे , कोई बीमार ना हो , कोई अज्ञान ना हो ... तो ये भी आपको मुक्त ही रखता है !!
बंधन विकृतियों से है , शुद्ध काम और शुद्ध ज्ञान से नहीं !!
भगवान् विष्णु का एक नाम शुद्ध काम भी है ... और इच्छाओं का अस्तित्व तो चेतन तक जुड़ा है,
" अथातो ब्रह्म जिज्ञासा " भी ज्ञान रूप काम ही है !!

मन को मारना मुक्ति नहीं ... मन का विवेक के अनुसार चलना मुक्ति है ...
मन की मजबूती ही तो इच्छा शक्ति है .. वो स्तर जहाँ आप अपनी इच्छा अनुसार चल सकते हैं , जी सकते हैं शरीर छोड़ सकते है और नया जन्म ले सकते हैं या स्व में ही स्थित रह सकते हैं !!
वो मन ही तो मुक्ति है ... ये शब्द ज्ञान के अजीब अर्थ निकलने पर और नाटकीय बाबाओं के कथन पर ' मन को मारना ' शब्द निकला है ...
मनुष्य की मुक्ति तो मन की प्रबलता ही है .. हाँ ब्रह्म स्वरुप की मुक्ति पर-ब्रह्म होना है जहाँ मनः शून्य की अवस्था आती है ... पर वो भी मन का मरना नहीं मन का लय हो जाना है उच्चतर भूमियों में !!

< अ-से >

यूं ही

उस (चेतन) की सन्निधि मात्र से ही जड़ सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।

जैसे पूर्व में सूर्य दिखाई देते हैं और पंछी चहचहाने लगते हैं , और रात की गहरी नींद से जाग सब काम काज में लग जाते हैं ।

उसी तरह प्राणों का संचार जब मन / बुद्धि के सूक्ष्म छोरों तक होता है , तो मन / बुद्धि के वो स्रोत सक्रिय हो जाते हैं , जितने स्त्रोत लिखे गए हैं वो सब यही करते हैं !!

एक ही अव्यक्त चित्त (आधार चित्त ) अनेकों (व्यक्त ) चित्तों का कारण बनता हैं , सभी ईश , देव , प्राणी , जीव के चित्त एक ही मूल चित्त की अलग अलग भाव (मुद्रा) स्थितियाँ हैं , जैसे कभी हम खुश होते हैं कभी दुखी ।

सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी गति है चेतन के कारण से ही है , पर वो चेतन गति नहीं करता , पर जहाँ तक उसकी पहुँच होती है वहाँ तक कि सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।

भग ह्रदय और संवेदना के अर्थ में लिया जाता है , भग-वान् शब्द का अर्थ भी -- संवेदन शील और महत्ता वान है , महत्ता इसीलिए क्योंकि चेतन/संवेदन का महत्त्व जड़ / बेजान से अधिक है ।

चेतना के संकल्प से ही ग्रंथियों का निर्माण होता है और उसी से देह आकार लेती है , ग्रंथों का मूल ये ही है। पर ग्रन्थ अत्यधिक संवेदनशील विषय है और इन्हें समझे बिना इन पर शोध खतरनाक है । ग्रन्थ , शब्द से सृष्टि निर्माण के व्याख्या रूप है ।

वैसे इस नोट का उद्देश्य ये सब बताना नहीं , बल्कि सभी ग्रंथों कि तरह ज्ञान और सृष्टि के प्रति सम्मान जताना है ।

" कण कण में भगवान् है " इस तरह के वाक्यों में उसे जानना नहीं होता , बल्कि उसके प्रति सम्मान रखना होता है । सूर्य चन्द्र पृथ्वी नक्षत्र पेड़ पहाड़ कुंवे सभी को पूजने कि जो परंपरा हमारे यहाँ है , उसका मूल भी सम्मान कि समष्टि ही है , सम्मान करने से ह्रदय में सम्मान का भाव पैदा होता है , इसी तरह प्रेम देने से प्रेम का भाव पैदा होता है , ( जाकी रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी ) ।

अधिकतर आध्यात्मिक आख्यान ' श्री ' विषयक हैं , ( सम्मान / आत्मसम्मान , श्री के सबसे करीब वो शब्द हैं , जो मैं जानता हूँ , exact नहीं पर करीब ) जब तक उनके प्रति सम्मान की दृष्टि नहीं होती उनका मूल भाव जानने में नहीं आता।

भक्ति , पूजन , प्रार्थना आदि सबका मूल भी हृदय में सम्मान का भाव पैदा करना है ।

सोऽहं , शिवोऽहं , अहम् ब्रह्म अस्मि , तत त्वं असि , आदि ब्रह्म वाक्यों से भी यही बताया जाता है कि आप वो ही हो , इसीलिए स्वयं के प्रति भी सम्मान कि दृष्टि हो , कोई अवसाद ना रहे ।

अंत में भगवद गीता का एक श्लोक ... उद्धरेत् आत्मना आत्मानं ना आत्मानं अवसादयेत् । आत्मैव आत्मनो बंधू , आत्मैव रिपुः आत्मनः ।। ( स्वयं ही स्वयं का उद्धार करें खुद को अवसाद में न रखें , आप खुद ही खुद के मित्र हो और खुद ही खुद के शत्रु । )

< अ-से >

अव्यक्त

अभिव्यक्ति में जिसकी ब्रह्मा पूरा संसार सतत रचते रहे ,
आनंद को जिसके निरंतर भावते हुए विष्णु नियत डूबे रहे ,
रूद्र अपनी अग्नि से जिसे एकसार करने में रहे लगे ,
महेश्वर जिसको एक रूप से दूसरे रूप तक बदलते रहे ,
वो अव्यक्त शिव तब भी अव्यक्त ही है !!

< अ-से >

Dec 26, 2013

प्राकृत गति


पत्थरों की दरारों में नयी घास उगी है ,
कल पकाए खाने में भी फफूंद लगी हे ,
जाने ये मच्छर कहाँ से आ जाते हैं ,
और ये झींगुर भी उत्पात मचाते हैं ॥

कल ही साफ़ किया था ये जंगल ,
आज फिर बारिश आ गयी ,
मेरा इकठ्ठा किया पानी ,
बाँध के साथ बह गया ॥

समय गुजरे की बात है ,
पूरी धरा को इमारत बना दिया था ,
नदियों को नाला, और नालों को नल ,
आज मशीनों पर काई जमी है ,
धरा पर फिर वनस्पतियाँ रमीं है ॥

उसकी बनावट मुझे सताती है ,
मेरी सजावट उसे नहीं भाती ,
मैं जो भी करूँ सब मर जाता है,
फिर वो ही दृश्य उभर आता है ॥

ना सृजन मरता है,
ना मृत्यु थकती है ,
फिर फिर वो ही प्रकृति बरसती है,
मेरे बदलाव की हर कोशिश अपने अस्तित्व को तरसती है ॥

ना मैं उसे समझ पाया ,
ना उसके हिसाब से ढल सका ,
ना उसको कभी खयाल आया ,
ना उसने खुद को बदलना चाहा ॥

बे-मायनी जद-ओ-जहद चलती रही ,
और ये ज़िन्दगी भी ,
चित्र विचित्र अनेकों कहानियों के साथ,
अपने अर्थ को तलाशती ॥

< अ-से >

आलोचना के स्वर : 1


देश 120 करोड़ का नेतृत्व की 12 भी दहाड़ नहीं ,
अनैतिकता की बैसाखियाँ लिए देश चलता है !!

रात भर गूंजता है सियारों का रूदन ,
आत्माएं बस भटकने को मजबूर हैं !!

बंदरों ने बाँट लिए हैं इलाके अपने ,
उनकी उछल कूद घरों तक पहुँच गयी हैं !!

बिल्लियाँ रखी गयी हैं दूध की रखवाली पर ,
चुहल करते मोटे चूहे मौज मेँ हैँ !!

कुत्तोँ ने बोटियोँ का ढेर लगा रखा है ,
तीखे दांत गुर्राते भेड़िये संगठित हैँ !!

गाय बकरियोँ और बछड़ों को काटा जा रहा है ,
मशीनों ने चूस लिया है स्तनों से रक्त तक !!

अच्छी नस्ल के साँड बैल बनाऐ जा रहे हैँ ,
आवारा साँड घुस जाते हैं बेफिक्र खेतों में !!

हिंसक बकरे बेबात सीँग मारने लगे हैँ ,
शरीफ बेचारे कुर्बान कर दिए जाते हैं !!

उल्लू दिन मेँ भी दिखाई देने लगे हैँ ,
चौकीदारी का इनाम पाने को 24*7 सक्रिय !!

गिद्ध हर गली सड़कों पर नज़रें गडाये रहते हैं ,
कौवोँ ने चेले बना लिऐ हैँ गूढ़ कायदों की चर्चा को !!

हाय तौबा करना हमारी संस्कृति ,
और हँगामा करना धर्म बचा है !!

उँची फैँकना , दिखावटी अंदाज , शाही झूठ परम्पराओं में शुमार हैं अब ,
और गुस्सा सिर्फ कम्युनिटी साइट्स के लिए बचा है !!

< अ-से >

पर : 1

Neither light nor a dark ,
a transperent space !

Neither hot nor a cold ,
an untouched atmosphere !

Neither your's nor a mine ,
just an invisible observation !

ना तो अँधेरा सा हो ना ही उजला ,
हो बस एक पारदर्शी आकाश !

ना ही ठंडा सा ना ही गर्म ,
बस एक अनछुआ एहसास !

ना तुम्हारा ना ही मेरा ,
सिर्फ एक अदृश्य दर्शनाक्ष !

< अ-से >

परिणामहीन : 1

कहीं पहाड़ हैं कहीं खायी कहीं पत्थर कहीं मिटटी ,
घास काई फफूंद हरियाली पेड़ पोधे जहाँ तहां बिखरे हैं पृथ्वी पर !!

पानी भी नदियों सागर नमी गड्डों में कहीं बहता सा कहीं रुका हुआ ,
इधर उधर लगी है आग भी आंच भी भट्टियों और सुलगते कोयलों में !!

हवा भी बंद है कहीं फेफड़ों में कहीं भीतियों के बीच तो कहीं बेसबब बहती रहती है ,
आवाजें भी आती है यहाँ वहां कहीं टकराहट चीखें कहीं गीत संगीत !!

बिखरे हैं मन भी यहाँ वहां , यहाँ वहाँ बहते से विचार भी है ,
अजीब सी उमंगें तरंगे भाव शोक दुःख हंसी ख़ुशी रोना ख्वाब ख्याल !!

इधर उधर अनगिनत भाषाओं के किस्से कहानियां कहावतें किताबें ,
कथ्य काव्य कायदे अजीब अमीर अथाह बातें हैं सुनने सुनाने को !!

और इसी तरह बिखरी पढ़ी है समझ बुद्धि मति कहीं कोनों कपालों कोश कोख में ,
जीवन भी यहाँ वहाँ हर जगह दौड़ता चलता सोता खोता नज़र आता है !!

संसार में सब कुछ जीवन मृत्यु गति स्थिरता जड़ चेतन पत्थर अनुभूतियाँ ,
बस यूँ ही बेवजह बेसबब बेमायने बेकार ही बढ़ते घटते चलते रुकते रहते हैं !!

और ना जाने क्यों ये शून्य पटल सबकुछ रिकॉर्ड करता रहता है ,
सबकुछ जिसका कुल .... परिणामहीन निर्मम निरपेक्ष और निरर्थक है !!

और क्योंकि निर्वचनीय भी एक शब्द है इसलिए कुछ और कहने का अब मन नहीं !!

< अ-से >

Dec 23, 2013

अलविदा

घर की हवा को अंतिम बार एक लम्बी साँस में भरकर ,
उसने छोड़ा ,
और फिर वो चला गया ;

दरवाजे खिड़कियाँ सब बंद हैं अब ,
भीतर अँधेरा है ,
सब खाली , खामोश , सुनसान ;

हवा रुक गयी है या अब भी बहती है , कोई बताने वाला नहीं ,
कुछ कुतरते दौड़ते चूहे , धूल की महक , मकड़ी के जाले ..
.. क्या आलम है क्या नहीं कौन जाने ;

आवाजें आती तो होंगी बाहर से , नल भी टपकता होगा ,
कोकरोच चीटियाँ मकड़ियां बहुत से जीव होंगे पर सब खामोश ,
परदे हिलते तो होंगे , कम्पन भी होते होंगे , पर कोई सुनने वाला नहीं ;

अब मकान यूँ ही पड़ा रहे या ढह जाए ,
कोई बाढ़ बहा ले जाए या मिट्टी निगल जाए ,
या चूहे उसे कुतर खाएं , किसे फर्क पड़ता है ;

देह पड़ी है जमीं पर , अचल ,
प्राण पखेरू उड़ चुके हैं !!

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी : 4

संसार एक अमूर्त मूरत है ,
सब कुछ सही जगह , स्वस्थ ,
सब कुछ रुका हुआ सा , स्थिर ,
और यहाँ घूमते रहते हैं मन ,
अनिश्चय में भटकते ,
आखिर वो चाहते क्या हैं !!

< अ-से >

Dec 21, 2013

अप्रासंगिकता

पत्ते झड़ते रहे लगते रहे हजारों ,
पत्ते झड जाने से ही वृक्ष नहीं मरता ...

वृक्ष गिरते रहे उगते रहे जंगल के जंगल ,
वृक्ष सूख जाने से पृथ्वी नष्ट नहीं होती ...

कितने ही ग्रह नक्षत्र पृथ्वी जैसे बन बिगड़ गए अब तक ,
पृथ्वी के विनाश से आकाश का पतन नहीं होता ...

पल भर में नए आकाश बना लेता है मन ,
आकाश के अवकाश ले लेने से मन नहीं मरता ...

पसंद नापसंद में बनता बिगड़ता रहता है मन पल पल ,
मन के सन्यास से बुद्धि अप्रासंगिक नहीं होती ,

न तो हर प्रश्न का उत्तर बुद्धि की सामर्थ्य में है ,
और ना ही बुद्धि के समाधिस्थ हो जाने से आत्म नष्ट होता है ...

आत्म भी अनेकों नज़र आते हैं अलग अलग ,
पर फिर किसी आत्म के अनस्तित्व हो जाने भर से उसका स्त्रोत नष्ट नहीं हो जाता ,

........................................
" मौसम बदलते रहते हैं ,
वक़्त के इशारे पर ,
यूँ ही खड़ा खड़ा ... दिल देखता है तमाशा !! "

< अ-से >

" बबुष्का-वास "

" बबुष्का-वास "

बबुश्काओं की भाँती ये एक ही असीमित पूर्णाकाश ,
फिलहाल नवें आकाश (space) तक ,
इन्द्रधनुश्की पट्टिकाओं सा बिखरा-फैला हुआ ...

भीतर से पहला सघन चेतन .. " प्रकाशाकाश " ,
जो किसी नन्हे बच्चे की भांति निश्चिन्त और प्रसन्न है ,

फिर मूल स्वभाव का " प्रधानाकाश " ,
जहाँ बालक अब दुनिया के सनातन धर्म कायदों को सीख रहा है ,
और साम्य को समझता हुआ , सम भाव , समदृष्टि का पाठ पढ़ रहा है ...

फिर महत्ता निर्धारण का " महानाकाश " ,
की ऊपर सर होना है नीचे पाँव ,
बायें ह्रदय होना है , दायें यकृत ,
पूर्व अभिमुख आँखें हों , पश्च अनुमान बुद्धि ,
की वास्तविक भौतिकी में दो दिशायें एक सी नहीं होती ....
जो श्री तत्व का ज्ञान सुनिश्चित करता बाल-तरुण है ,

भीतर से अगला आकाश ... " अहम् संज्ञक " मैं
जो अगले आकाशीय मैदानों पर अपने खेल का परचम लहराने को ,
अश्व सा स्फूर्त और आतुर ,
कीर्ति तत्व को जानता जीता पूर्ण तरुण सा ...

और फिर पंचम आकाश ये हमें जान पड़ता सा संसार " शब्द-आकाश " ,
जहाँ वास करती हैं अनगिनत आवाजें , गूढ़ कहावतें और पंचतंत्र की कहानियाँ ,
वाक् तत्व का सहज ज्ञान रखता सामाजिक जीवन में कदम रखता व्यक्ति सा ...

आगे के चारों आकाश
" स्पर्श-आकाश " " रूप-आकाश " " रस-आकाश " और " गंध आकाश "
जिनमें व्यक्ति क्रमशः स्मृति , मेधा , धारणा और क्षमा तत्व का ज्ञान सुनिश्चित करता है ,
उसकी आगे की जीवन अवस्थाओं में आसानी से नज़र आती है ,
जो की होती हर उम्र में है पर उनका प्रभाव समय के साथ सहज ही बदलता जाता है ...

वास्तव में ये सभी आकाश , अहम् आकाश के भीतर बाहर सब और विद्यमान हैं ...
आकाश में आकाश की स्थैतिक अभिव्यक्ति असंभव तो नहीं ,
पर वो फिर से संसार के रूप में ही संभव है ...

बबुष्का गुडियाएं शायद यही व्यक्त करती हैं ,
की जीव अन्य आधारों पर भी वास करते हैं ,
यही एक आकाश नहीं ... सिर्फ पृथ्वी ही आवास नहीं !!

हाँ पर ये पाठशाला जरूर है !!

< अ-से >

( वास्तव में ये सब किसी एक डायमेंशन में अन्दर बाहर लगता है तो किसी और डायमेंशन में ऊपर नीचे नज़र आता है ,
होने में सब पानी में पानी या आकाश में आकाश सा है ,

पर चेतना में सारी विभक्तियाँ ज्ञात है ... )

और वो चला गया

और वो चला गया ,
सब यहीं रखकर , यहीं दुनिया में ...

वो जो शून्य से उपजा था ,
फिर से शून्या गया ,
ना , नहीं मिटा नहीं ,
अपने अनुभूत सभी वेद त्याग कर ,
सब कुछ भूल कर ,
वेदना से परे ,
वेदना जो की अपने संचय में देह और संसार रचती है ,
को त्याग शून्य चेतन हो गया ,
ठोस और अदृश्य हो गया !!

और वो छोड़ गया सब ,
सब कुछ ,
यहीं रखकर ,
यहीं , यहीं दुनिया में !!

अपने अतीत की सारी अनुभूतियाँ ,
सारी गतियाँ ,
और अपने शून्य गमन का मार्ग ,
चुनाव के चिन्ह ,
और विस्मरण का भाव !!

है ,
सब है ,
दोनों पहलू यहाँ है ,
व्यक्त संसार देह और अव्यक्त ह्रदय ,
बस मुझे एहसास नहीं होता ,
बहुत कोहरा छाया है यहाँ ,
झूठी सच्ची बातों का ,
गुणों-वेदनाओं का इंद्र-जाल बिछा है ,
मेरे पास भी है चुनाव ,
और भूलने की शक्ति भी ,
हिम्मत भी ,
ज्ञानशक्ति भी !!

नहीं है तो वो दृष्टि जो मेरी राह बने !!

< अ-से >

स्विच

स्वप्न से उब पलकों को हुआ इशारा ,
झपक कर उसने बदल दिया नज़ारा ,

याद आयी फिर से सारे दिन की धूप छाँव ,
मन के मुताबिक फिर चलने लगे पाँव !!

हाथ हिले दांत मजे पानी पर हुयी छ्पकियाँ ,
चेहरा धुला मौसम खिला दूर हो गयी झपकियाँ ,

लाइटर खटका उठा भभका शुरू हुआ नित्य कर्म ,
पत्ती शक्कर पानी दूध मिलकर हुए नर्म गर्म ,

फिर प्याले में थी ताम्बई रस भरी चाय ,
कुर्सी हिली कम्प्यूटर चला fb पर की hi ,

माउस के स्पीकरीय इशारे पर आकाश गाने लगा ,
संगीत के साथ फिर सारा समा गुनगुनाने लगा ,

अद्भुत स्विच हैं बुद्धि के , इशारे पर कलम चले ,
जागती सोती हंसती रोती जीवन की कहानी पले !!

< अ-से  >

ज्ञान विज्ञान

अश्वत्थ सा आत्मकेन्द्रित, तुलसी सा पवित्र विज्ञान ,
साध, भक्ति और समर्पण के साथ ।

बाँस और गन्ने सा बढता उत्तरोत्तर ज्ञान ,
सुगंध और मिठास की ऊर्ध्वाधर दिशा लिए ।

आम्र सा फलदायी , नीम सा गुणकारी ,
अपने को उपयोगी बनाने की होड़ में ।

विद्या के पौधे सा वेद्वित ,
ज्ञान शाखाओं की अनन्तता का भान कराता हुआ ।

वृहत से मूल , पत्ते से बीज तक की यात्रा ,
और उसका उपयोग जीव जगत की भलाई ..

व्यापक का आवश्यक खाँका खींचने की कला है ज्ञान विज्ञान ,
ना की बरगद की तरह फैलते विचारों को अस्तित्व देने का नाम ..

जमीन पानी और हवा हर जगह जडें फ़ैलाने वाला ,
सारे रसों और वेदनाओं में फंसा हुआ ,
हर ओर बढता फिर भी दिशाहीन ,
बिना रुके देखता , बिना सोचे चलता ,
कुबेर की तरह संचय को ही जीवन माने हुए ।

एक प्राचीन कहावत है , " बरगद और पीपल एक दुसरे की छाया तले नहीं पनपते " ,
कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान दुनिया में उन लोगों की है ,
जिनके लिए जीवन , साधना और बोधि-वृक्ष हुआ करता है ॥

< अ-से >

दर्पण - 1

दिखाएं कौन सा एक चेहरा तुम्हे ,
स्वभाव-रक्स में कुछ ठहरता नहीं ,
माया मरीचिका में मारा फिरता ,
ये शख्श क्यों कहीं उभरता नहीं ...

कांच-दीवार से गुजर कर बिफरा ,
बेरंग-प्रकाश कई रंग लिए ,
रजत-समतल सतह से आया ,
दृश्य-ख़त फिर एक अक्स लिए ...

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी - 3

प्रतिक्रिया के लिए किये गए कार्य अस्तित्व को अशांत करते हैं !
कार्य स्वयं से किया जाये तो सुकून और आत्म तक पहुँच देता है !!

मानस की शांति के लिए अहिंसा एक अच्छा अभ्यास मार्ग है !
अपने अस्तित्व को भीड़ होने से बचाया जाना चाहिए !!

कार्य परिणाम के लिए न किये जाएँ तो वो स्वयं तक ले जाते हैं !
तात्क्षणिकता और तत्परता कर्म के कौशल हैं !!

नाम इश्वर का रटो या प्रेमिका का ह्रदय की शुद्धि का साधन है !
प्रेम अध्यात्म का सीधा सरल मार्ग है !!

कोई भी कार्य जो संभव है प्रकृति के नियम के विरुद्ध नहीं !
अगर कार्य नाम के लिए किया जाता है तो दिल को दोष न दिया जाए !!

कार्य संसार में कोई बदलाव नहीं करता ,
नज़र आता बदलाव भी संसार में कोई बदलाव नहीं करता !
कार्य स्वयं के प्रकृति से लय के लिए , योग के लिए किये जाने हैं ,
अन्य सभी प्रयोजन व्यर्थ चेष्टा हैं !!

< अ-से >