उस (चेतन) की सन्निधि मात्र से ही जड़ सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।
जैसे पूर्व में सूर्य दिखाई देते हैं और पंछी चहचहाने लगते हैं , और रात की गहरी नींद से जाग सब काम काज में लग जाते हैं ।
उसी तरह प्राणों का संचार जब मन / बुद्धि के सूक्ष्म छोरों तक होता है , तो मन / बुद्धि के वो स्रोत सक्रिय हो जाते हैं , जितने स्त्रोत लिखे गए हैं वो सब यही करते हैं !!
एक ही अव्यक्त चित्त (आधार चित्त ) अनेकों (व्यक्त ) चित्तों का कारण बनता हैं , सभी ईश , देव , प्राणी , जीव के चित्त एक ही मूल चित्त की अलग अलग भाव (मुद्रा) स्थितियाँ हैं , जैसे कभी हम खुश होते हैं कभी दुखी ।
सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी गति है चेतन के कारण से ही है , पर वो चेतन गति नहीं करता , पर जहाँ तक उसकी पहुँच होती है वहाँ तक कि सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।
भग ह्रदय और संवेदना के अर्थ में लिया जाता है , भग-वान् शब्द का अर्थ भी -- संवेदन शील और महत्ता वान है , महत्ता इसीलिए क्योंकि चेतन/संवेदन का महत्त्व जड़ / बेजान से अधिक है ।
चेतना के संकल्प से ही ग्रंथियों का निर्माण होता है और उसी से देह आकार लेती है , ग्रंथों का मूल ये ही है। पर ग्रन्थ अत्यधिक संवेदनशील विषय है और इन्हें समझे बिना इन पर शोध खतरनाक है । ग्रन्थ , शब्द से सृष्टि निर्माण के व्याख्या रूप है ।
वैसे इस नोट का उद्देश्य ये सब बताना नहीं , बल्कि सभी ग्रंथों कि तरह ज्ञान और सृष्टि के प्रति सम्मान जताना है ।
" कण कण में भगवान् है " इस तरह के वाक्यों में उसे जानना नहीं होता , बल्कि उसके प्रति सम्मान रखना होता है । सूर्य चन्द्र पृथ्वी नक्षत्र पेड़ पहाड़ कुंवे सभी को पूजने कि जो परंपरा हमारे यहाँ है , उसका मूल भी सम्मान कि समष्टि ही है , सम्मान करने से ह्रदय में सम्मान का भाव पैदा होता है , इसी तरह प्रेम देने से प्रेम का भाव पैदा होता है , ( जाकी रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी ) ।
अधिकतर आध्यात्मिक आख्यान ' श्री ' विषयक हैं , ( सम्मान / आत्मसम्मान , श्री के सबसे करीब वो शब्द हैं , जो मैं जानता हूँ , exact नहीं पर करीब ) जब तक उनके प्रति सम्मान की दृष्टि नहीं होती उनका मूल भाव जानने में नहीं आता।
भक्ति , पूजन , प्रार्थना आदि सबका मूल भी हृदय में सम्मान का भाव पैदा करना है ।
सोऽहं , शिवोऽहं , अहम् ब्रह्म अस्मि , तत त्वं असि , आदि ब्रह्म वाक्यों से भी यही बताया जाता है कि आप वो ही हो , इसीलिए स्वयं के प्रति भी सम्मान कि दृष्टि हो , कोई अवसाद ना रहे ।
अंत में भगवद गीता का एक श्लोक ... उद्धरेत् आत्मना आत्मानं ना आत्मानं अवसादयेत् । आत्मैव आत्मनो बंधू , आत्मैव रिपुः आत्मनः ।। ( स्वयं ही स्वयं का उद्धार करें खुद को अवसाद में न रखें , आप खुद ही खुद के मित्र हो और खुद ही खुद के शत्रु । )
< अ-से >
जैसे पूर्व में सूर्य दिखाई देते हैं और पंछी चहचहाने लगते हैं , और रात की गहरी नींद से जाग सब काम काज में लग जाते हैं ।
उसी तरह प्राणों का संचार जब मन / बुद्धि के सूक्ष्म छोरों तक होता है , तो मन / बुद्धि के वो स्रोत सक्रिय हो जाते हैं , जितने स्त्रोत लिखे गए हैं वो सब यही करते हैं !!
एक ही अव्यक्त चित्त (आधार चित्त ) अनेकों (व्यक्त ) चित्तों का कारण बनता हैं , सभी ईश , देव , प्राणी , जीव के चित्त एक ही मूल चित्त की अलग अलग भाव (मुद्रा) स्थितियाँ हैं , जैसे कभी हम खुश होते हैं कभी दुखी ।
सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी गति है चेतन के कारण से ही है , पर वो चेतन गति नहीं करता , पर जहाँ तक उसकी पहुँच होती है वहाँ तक कि सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।
भग ह्रदय और संवेदना के अर्थ में लिया जाता है , भग-वान् शब्द का अर्थ भी -- संवेदन शील और महत्ता वान है , महत्ता इसीलिए क्योंकि चेतन/संवेदन का महत्त्व जड़ / बेजान से अधिक है ।
चेतना के संकल्प से ही ग्रंथियों का निर्माण होता है और उसी से देह आकार लेती है , ग्रंथों का मूल ये ही है। पर ग्रन्थ अत्यधिक संवेदनशील विषय है और इन्हें समझे बिना इन पर शोध खतरनाक है । ग्रन्थ , शब्द से सृष्टि निर्माण के व्याख्या रूप है ।
वैसे इस नोट का उद्देश्य ये सब बताना नहीं , बल्कि सभी ग्रंथों कि तरह ज्ञान और सृष्टि के प्रति सम्मान जताना है ।
" कण कण में भगवान् है " इस तरह के वाक्यों में उसे जानना नहीं होता , बल्कि उसके प्रति सम्मान रखना होता है । सूर्य चन्द्र पृथ्वी नक्षत्र पेड़ पहाड़ कुंवे सभी को पूजने कि जो परंपरा हमारे यहाँ है , उसका मूल भी सम्मान कि समष्टि ही है , सम्मान करने से ह्रदय में सम्मान का भाव पैदा होता है , इसी तरह प्रेम देने से प्रेम का भाव पैदा होता है , ( जाकी रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी ) ।
अधिकतर आध्यात्मिक आख्यान ' श्री ' विषयक हैं , ( सम्मान / आत्मसम्मान , श्री के सबसे करीब वो शब्द हैं , जो मैं जानता हूँ , exact नहीं पर करीब ) जब तक उनके प्रति सम्मान की दृष्टि नहीं होती उनका मूल भाव जानने में नहीं आता।
भक्ति , पूजन , प्रार्थना आदि सबका मूल भी हृदय में सम्मान का भाव पैदा करना है ।
सोऽहं , शिवोऽहं , अहम् ब्रह्म अस्मि , तत त्वं असि , आदि ब्रह्म वाक्यों से भी यही बताया जाता है कि आप वो ही हो , इसीलिए स्वयं के प्रति भी सम्मान कि दृष्टि हो , कोई अवसाद ना रहे ।
अंत में भगवद गीता का एक श्लोक ... उद्धरेत् आत्मना आत्मानं ना आत्मानं अवसादयेत् । आत्मैव आत्मनो बंधू , आत्मैव रिपुः आत्मनः ।। ( स्वयं ही स्वयं का उद्धार करें खुद को अवसाद में न रखें , आप खुद ही खुद के मित्र हो और खुद ही खुद के शत्रु । )
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