शब्दों को बहुत ही गौर से सुना है मैंने ,
अपनी उदगार के बाद से ही धीमे और धीमे
और धीमे से हो जाते हैं ,
पर कभी खामोश नहीं होते ,
चाहता हूँ सुन सकूँ
उन शब्दों के पीछे अपने कान ले जा सकूँ ,
जो भी उसने कहे थे उस वक़्त ...
वो शब्द वो घोष वो उदगार वो गूँज ,
वो खिलखिलाहट वो नाद वो आल्हाद ,
वो सभी बातें ,
वो सब यहीं हैं ,
मुझे पता है ...
पर बहुत शांत सी हो चुकी है ध्वनि ,
और बहुत शोर है मेरे मन में ,
सामाजिक ताप से दग्ध ह्रदय में ,
हाय-तौबा से कम्पित कर्ण पटलों में ,
सामर्थ्य नहीं नज़र आता ,
कि सुन सकें ...
उस मधुर कविता को ,
उन गीतों को ,
जो वक़्त ने पिरोये थे मेरे लिए ,
सिर्फ मेरे लिए ...
और वो समाते जा रहें हैं इस शून्य बेपरवाह आकाश में ,
ओ दुनिया ! चुप हो जाओ , मुझे सुन लेने दो ,
क्या कहा था उसने ,यहीं इसी जगह,
उस वक़्त !!
< अ-से >
No comments:
Post a Comment