Feb 17, 2014

देखता हूँ सब और ...


देखता हूँ सब ,
एक दुनिया और अनेकों विचित्र आयाम ,
सरल दुनिया और जटिल मन मानस ...

एप्पल नीचे क्यों गिरता है , उसे ऊपर उठना चाहिए ,
पानी बहता क्यों है , उसे उड़ना चहिये ..

बदल देना चाहता हूँ सब ,
सुन्दर मनमाने आकार देना चाहता हूँ ,
सोचता हूँ समझता हूँ और उपाय ढूंढता हूँ ,
प्रयास करता हूँ कभी सायास कभी अनायास ,
और ये बन जाती है जिद मेरी ...

हाथ उग आते हैं शिल्प को ,
पैर उग आते हैं गति को ,
बदलने लगता हूँ मैं शक्ल दुनिया की ...

पर कुछ नहीं बदलता , सिवाय बाहरी सजावट के ,
मन चाहता है नये आकार , नए रंग , नए नियम ,
अजीब-ओ-गरीब चाहतों में खो जाता है ...

वो बंध जाता है अपने ही मत संकल्पों से ,
घुटने लगता है दम , साँसे भारी हो जाती हैं ,
धीमी हो जाती है समझ , जड़ ,
मेरा होना ही मेरी समस्या बन जाता है ...

अनमने ढंग से मैं लौटता हूँ ,
फिर से प्रकृति की तरफ ,
धीरे धीरे फिर से समझता हूँ उसको ,
जस का तस , अपने प्रायः स्फूर्त रूप में ...

स्वीकारता हूँ उसको , स्वीकारने लगता हूँ खुदको ,
नकारता हूँ कमजोरियां और पैठने लगता हूँ स्व में ...

मेरा होना भर ही पूर्ण होता है मेरे लिए ,
और शेष नहीं रहती कोई चाहत स्वयं के लिए ...

अ से

No comments: