
पर खुद से भाग कर कहाँ जाता ,
गढ़ता रहा , हज़ार झूठ ,
पर खुद को कैसे झुठला पाता ,
नज़रें बचाता रहा , यहाँ वहां देख कर ,
पर सामने से ठीक ना हटा पाया ,
कुछ " गुनाह " कहे गए थे , गुनाह हों या नहीं ,
पर अंतस को कभी ना मना पाया ,
मिलना चाहता था , बहुत एक अरसे से ,
सीधे सीधे हिम्मत नहीं जुटा पाया ,
काफी वक़्त गुजर गया लगता है ,
हरकतें अब मन छोड़ रही हैं ,
समझ बस उतनी ही शेष है ,
आँखें स्वभाव तक नम हैं ,
अब ,
उसके द्वार खुले हुए हैं ,
और मेरा दिल भरा हुआ ... !!
अ से
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