Feb 8, 2014

वादा

जब वो वादा किया गया था ...
किसे पता था कहीं एक गाँठ उपजेगी आकाश में
जो तब भी वहीँ होगी जबकि पूरा ना किया जा सकेगा
वो वादा जो बंध जाता है एक गाँठ सा अस्तित्व के धागों में !
फिर चलती हुयी आंधियों ने चिपका दी उस पर मिट्टी ,
मौसम की नमी ने उसे कई बार भिगोया ,
बहुत से फफूंद अब शरीर हो चुके थे उसका ,
कई बार की धूप में सूख कर फिर वो सख्त होने लगी !
फिर उस गाँठ ने स्वीकार किया वहीँ बसना ,
बीच बीच में किये जाते रहे और भी वादों के साथ ,
कुछ वादे विरोधी निकले कुछ परस्पर प्रेमी ,
वहां बन निकली एक बस्ती उनके नाम की ,
लड़ना झगड़ना रोना धोना खिंचाव तनाव
बस कर हो गया पूरा शहर
नदी नाले सड़क बाज़ार घंटाघर चौक दीवार ,
सब कुछ बातों का ही बना हुआ !
अब वो गाँठ पक चुकी थी ,
लहसुन की सी सड़ांध आती थी उससे ,
बातें रिसने लगी वो जो नहीं बताई जानी थी
और वो जो बताई जानी थी खामोशी से ,
भीड़ जमा होने लगी तमाशे को ,
और फिर उस हिस्से में लगने लगा जाम ,
हवा का भी आवागमन बंद होने लगा ,
कोई आवाज़ भी बमुश्किल पहुँचती थी वहाँ ,
साँस लेना लगातार मुश्किल हो रहा है ,
और समझ नहीं आता था कुछ भी ॥
ठूंठ बनने से पहले ,
याद आती थी कभी कभी उन वादों की ,
पर कैसे खुले वो गाँठे समझ नहीं आता था ,
खुली हवा का स्वाद लेने की तड़प तो कई दफा उठती थी ,
पर धीरे धीरे उन साँसों ने दम छोड़ दिया !!
अ से

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