Feb 17, 2014

प्रीत से आहत मन

प्रीत से आहत मन ,
कुछ ही पलों में कर आता है अनगिनत यात्राएं ,
और आ कर बैठ जाता है फिर ह्रदय के अँधेरे में ,
रौशनी की और खुलने वाली सभी खिड़कियाँ बंद कर ,
अपनी ख़ामोशी तक अपनी दुनिया सीमित कर ,
उस बच्चे की तरह जो कहीं से झगड कर आया है ,
उस वृद्ध की तरह जिसे अब और कहीं जाना नहीं ॥

और फिर से कोई शोर,
देने लगता है मानस पटों पर ,
दस्तक पर दस्तक ,
सभी स्मृतियाँ सशरीर गुंजायमान होने लगती हैं ,
बैचैन मस्तिष्क भूल सा जाता है सांस लेना ,
और तभी ,
एक अहम् शांत कर देता है सब कुछ ,
याद दिलाता है वस्तु स्थिति ,
और भी कई काम हैं ,
किये जाने की प्रतीक्षा में ॥

कोई एक काम किया जाता है शुरू ,
बेमन से ,
नाखुशी की उठती गिरती लहरों के बीच ,,
कभी शोर को दबाया जाता है ,
कभी आहत भावनाओं से ध्यान हटाया जाता है ,
काफी जद ओ जहद के बाद आखिर ,
संभलता है ये दिल ,
खुद से किये इस वादे पर ,
की बस ,
अब और नहीं ॥

< अ से >

Feb 13, 2014

शांति


एक चाँद ऊपर ठहरा है ,
एक बहती हुयी झील है ,
एक पंछी डाल पर बैठा है ...

सूरज की चमक चाँद पर पड़ती है ,
चाँद की चमक झील पर पड़ती है ,
झील की चमक पंछी की आँखों में ...

और सब खामोश हैं !!

शून्य


पात्र का भराव , पात्र से ज्यादा कहाँ होता ,
सब कुछ इस शून्य आकाश में है शून्य भर !!

शून्य का अंत कहाँ होता , हद कहाँ होती ,
असीम और अनंत सब कुछ है शून्य भर !!

जिसे भी आधार माना जाता , वो कहाँ कहीं जाता ,
आधार अचल रहा और हर गति शून्य भर !!

मन कहाँ रूप लेता , मन कहाँ गिनती में आता ,
भावों का समुद्र मन भी है बस शून्य भर !!

शून्य से उत्पन्न सृष्टि शून्य में टिकी रहती ,
शून्य में विलीन हो जाती कुल परिणाम शून्य भर !!

 अ से 

मैं खुद से भाग कर कहाँ जाता !


भागता रहा , यहाँ वहाँ ,
पर खुद से भाग कर कहाँ जाता ,

गढ़ता रहा , हज़ार झूठ ,
पर खुद को कैसे झुठला पाता ,

नज़रें बचाता रहा , यहाँ वहां देख कर ,
पर सामने से ठीक ना हटा पाया ,

कुछ " गुनाह " कहे गए थे , गुनाह हों या नहीं ,
पर अंतस को कभी ना मना पाया ,

मिलना चाहता था , बहुत एक अरसे से ,
सीधे सीधे हिम्मत नहीं जुटा पाया ,

काफी वक़्त गुजर गया लगता है ,
हरकतें अब मन छोड़ रही हैं ,
समझ बस उतनी ही शेष है ,
आँखें स्वभाव तक नम हैं ,

अब ,
उसके द्वार खुले हुए हैं ,
और मेरा दिल भरा हुआ ... !!

अ से 

Feb 9, 2014

परिंदे

वो देखता था परिंदे ,
रंग बिरंगे परिंदे ,
और पाता था खुद को उनमें ...

फिर वो दौड़ने लगा उनके पीछे ,
उनको पकड़ने ,
उन बागानों में , मैदानों में ...

थकता , हांफता , शांत होता ,
और फिर दौड़ता ,
उनके पीछे ..

जब एक दिन ऊब गया ,
तो पाया ,
वो सब परिंदे खयाली थे ..

उसके खुदके खयाल ,
रंग बिरंगे ,
उड़ते भागते ,
मुक्त आकाश में ,
और अब वो दौड़ नहीं पाया ,
उनके पीछे ...

अब ,
ना कहीं वो परिंदे थे ,
ना ही कोई मैदान !!

< अ-से >

Feb 8, 2014

विश्वसाघात :1


ये तेरी छाँव सी जुल्फें ,
जिसमें से छन कर आती है रौशनी ,
Photo: ये तेरी छाँव सी जुल्फें ,
जिसमें से छन कर आती है रौशनी  ,
ये तेरा चाँद सा उफ्फाक चेहरा , 
अँधेरे को मद्धम चाँदनी बख्शता  ,
रस-ओ-गुल से भरे तेरे लब ,
हूँ उतरता डूबता तेरी मौज-ए-इश्क में ,
की इन बाहों में समेट लूं तुझको ...

" मुझे ख़ुशी है की तुम्हे मुझसे इतना इश्क है  , 
अब जब तुम पिता बनने वाले हो इसके ,
तो फक्र है कि मैंने तुमसे मुहब्बत की "

क्या ? कब ? किसका ? ओह ... 

" कहाँ जा रहे हो ? "

अब बचा क्या है यहाँ , ना हूर , ना नूर , 
मुझे इश्क था एक नाजनी से ,
एक जवाँ शोखी से ...
मैं नहीं देख सकता तुझे एक माँ ,
और नहीं झेल सकता किसी को ,
मा मा मा करके रोते हुए !!

< अदना >
ये तेरा चाँद सा उफ्फाक चेहरा ,
अँधेरे को मद्धम चाँदनी बख्शता ,
रस-ओ-गुल से भरे तेरे लब ,
हूँ उतरता डूबता तेरी मौज-ए-इश्क में ,
की इन बाहों में समेट लूं तुझको ...

" मुझे ख़ुशी है की तुम्हे मुझसे इतना इश्क है ,
अब जब तुम पिता बनने वाले हो इसके ,
तो फक्र है कि मैंने तुमसे मुहब्बत की "

क्या ? कब ? किसका ? ओह ...

" कहाँ जा रहे हो ? "

अब बचा क्या है यहाँ , ना हूर , ना नूर ,
मुझे इश्क था एक नाजनी से ,
एक जवाँ शोखी से ...
मैं नहीं देख सकता तुझे एक माँ ,
और नहीं झेल सकता किसी को ,
मा मा मा करके रोते हुए !!

< अ-से >

कौन मरा है भला आज तक

दृश्यों की अनंत धाराओं में से एक का हिस्सा हुआ मैं,
जोड़ता हूँ उसी दृश्य के अन्य हिस्सों को ,
और बुनता हूँ एक कहानी ॥

उस कहानी के अनेकों पात्रों में कुछ उस धारा से पृथक हो ,
जुड़ जातें हैं किसी अन्य दृश्य धारा से ,
कहानी के कुछ पात्र डूब जातें हैं शोक में ॥

इस धरा के सभी तथाकथित निवासी कभी छूते नहीं ज़मीन ,
वो आकाश से अलग होकर बसते हैं ,
खुद ही की माया में ॥

पलक झपकते ही बदल जाती है दृश्य धारा ,
पलक दरियाव के हर बहाव से बचता बचाता ,
जी रहा हूँ मैं खुदको ॥

आँखों से नज़र आती मन से बुनी हुयी ,
बनते बिगड़ते दृश्यों की अस्तित्वहीन सत्ता से पृथक ,
दृश्यों की अनंत असीम धाराओं के तबादले में बचा रहता हूँ मैं ॥

कोई किसी दृश्य धारा में बहे, किसी से पृथक हो , किसी से जुड़े ,
पर क्योंकि वो स्वयं में स्थित है , वो चिर स्थिर है ,
कौन मरा है भला आज तक ॥

< अ-से >

वादा

जब वो वादा किया गया था ...
किसे पता था कहीं एक गाँठ उपजेगी आकाश में
जो तब भी वहीँ होगी जबकि पूरा ना किया जा सकेगा
वो वादा जो बंध जाता है एक गाँठ सा अस्तित्व के धागों में !
फिर चलती हुयी आंधियों ने चिपका दी उस पर मिट्टी ,
मौसम की नमी ने उसे कई बार भिगोया ,
बहुत से फफूंद अब शरीर हो चुके थे उसका ,
कई बार की धूप में सूख कर फिर वो सख्त होने लगी !
फिर उस गाँठ ने स्वीकार किया वहीँ बसना ,
बीच बीच में किये जाते रहे और भी वादों के साथ ,
कुछ वादे विरोधी निकले कुछ परस्पर प्रेमी ,
वहां बन निकली एक बस्ती उनके नाम की ,
लड़ना झगड़ना रोना धोना खिंचाव तनाव
बस कर हो गया पूरा शहर
नदी नाले सड़क बाज़ार घंटाघर चौक दीवार ,
सब कुछ बातों का ही बना हुआ !
अब वो गाँठ पक चुकी थी ,
लहसुन की सी सड़ांध आती थी उससे ,
बातें रिसने लगी वो जो नहीं बताई जानी थी
और वो जो बताई जानी थी खामोशी से ,
भीड़ जमा होने लगी तमाशे को ,
और फिर उस हिस्से में लगने लगा जाम ,
हवा का भी आवागमन बंद होने लगा ,
कोई आवाज़ भी बमुश्किल पहुँचती थी वहाँ ,
साँस लेना लगातार मुश्किल हो रहा है ,
और समझ नहीं आता था कुछ भी ॥
ठूंठ बनने से पहले ,
याद आती थी कभी कभी उन वादों की ,
पर कैसे खुले वो गाँठे समझ नहीं आता था ,
खुली हवा का स्वाद लेने की तड़प तो कई दफा उठती थी ,
पर धीरे धीरे उन साँसों ने दम छोड़ दिया !!
अ से

Feb 6, 2014

गुलाब ( happy rose day )



शीत-विदा की नर्म-सर्द-गुलाबी रुत-रंगत से लिपटे ,
मंद-स्वच्छंद बहती पवन के स्पर्श लिए खिलते ,
प्रेम-अनुभूति के मौसमी-मिजाज़ में सिमटे ,
चैती !!

रंगीन पंखुड़ि ' पाटल ' ,
सदैव तरूण ' तरूणी' ,
शत पत्र लिए ‘ शतपत्री ’ ,
कानों की आकृति बनाये ‘ कार्णिका ’ ,
सुन्दर केशर युक्त ‘ चारुकेशर ’,
लालिमा रंग लिए ‘लाक्षा’,
और गन्ध पूर्ण ' गन्धाढ्य '
गंध और रस के गुणों से गुणित-पूरित ,
कुण्डलिय वलय को वेदते ,
तितलियों भंवरों को मदमदाती महक केसर पर निमन्त्रते ,
मदन-मद !!

फारसी में गुलाब ,
अंगरेज़ी में रोज,
बंगला में गोलाप,
तामिल में इराशा,
तेलुगु में गुलाबि ,
अरबी में ‘वर्दे’ अहमर ,
रूप , लावण्य और सौन्दर्य की अद्भुत अभिव्यक्ति ,
देव पुष्प !!

< अ-से >

Feb 5, 2014

Song -1

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

अपने ही जहाँ में हूँ बसा ,
अपने ही ख़याल में डूबता ,
आँखों में आसमान हो ,
मन को वो फिर आफताब दे ,
मुझको भी कोई ख्वाब हो ,
वो अश्क बेहिसाब दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

बेखबर सा हूँ एक अरसे से ,
अपनी ही खबर की तलाश है
बेसबब है ये दिल यहाँ ,
इश्क सी कोई शराब से ...
मुझको आकर जताए फिर ,
मुझको भी कोई प्यास है ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

< अनुज >

कवि और चितेरा

उसने कूँची चलाई ,
खिल मिल उठे सब रंग ,
साकार हुए रस रूप ,

उसने कलम उठाई ,
घुल मिल ने लगे सब शब्द ,
बहने लगे राग भाव ,

किसी ने संज्ञा उसे कवि ,
अहम् कवि सा हो गया ,
संसार कोई गुंजायमान कविता ,

किसी ने संज्ञा चितेरा
अहम् चितेरा हो गया ,
संसार एक बहता हुआ चित्र ,

अब आत्म कवि का ,
रति है ,
सुरसति है ,
सुनता है जहान ,
गढ़ता है जमीन ,
और रचता है वाक्य ,
जहन में ,
आकाश भर के !!

और अब चितेरा ,
रमा है ,
उमा है ,
देखता है दृश्य ,
रंगता है जमीन ,
ह्रदय में ,
प्रकाश भर के !!

< अ-से >

स्त्री

मुझे तुम्हारी खूबसूरती आकर्षित नहीं करती , ये कहना झूठ होगा ,
पर मुझे अधिक आकर्षित करती है, तुम्हारी सुन्दर दिखने की चाहत ॥

तुम्हारे करीने सलीके मुझे मजबूर करते हैं तुम्हे पसंद करने को ,
बिना किसी जोर आजमाइश के मन मुताबिक घुमाव देना हर चीज को ,
स्पर्श की अद्भुत कला लिए हैं तुम्हारे हाथ ॥

इसे स्वार्थ समझा जा सकता है , पर ये किसी भी इश्वर के स्तर का आत्मनियंत्रण है ,
जब तुम शालीनता से मुस्कुराती या शरारत से खिलखिलाती हो ,
तब जबकि सब और दुःख ही बिखरा हुआ है ॥

पूरे परिदृश्य को एक सार में समझ पाने के लिए विरक्त होना ही होता है ,
पर दृश्य का हिस्सा बन के जीना इससे कहीं मुश्किल है ,
ये अभिनय का वो स्तर है , जहाँ सत्य कल्पना को गले लग कर सुबकता है ,
मुझे पसंद है तुम्हारी अनुरक्ति ,
तुम्हे दृश्य से अलग कर पाने की तमाम कोशिशें नाकाम है ,
तुम्ह विरक्तियों को भी दृश्य में घोल सकती हो ॥

फिर भी मैं तुम्हे अनुरक्त पुरुष नहीं कहलाना चाहता ,
न ही किसी बारिश की तरह सृष्टि को देखता हूँ अब और ,
मैं एक नर का विरक्त स्त्री कहलाना पसंद करूंगा ,
और किसी वृक्ष की तरह उपजती सृष्टि नीचे से ऊपर की ओर ॥

मैं तुम्हे किसी महकते गुलाब की तरह नहीं सूंघ सकता ,
न ही तुम्हे किसी रेशमी शॉल की तरह ओढ़ना चाहता हूँ ,
तुमसे मेरा प्रेम तुम्हारे आत्म सम्मान से जुड़ा है ,
मुझे पसंद है तुम्हारा वो रूप जिसमें श्री और मेधा झलकती हो ,
जिसमें रंग की उजास से ज्यादा व्यक्तित्व की चमक नज़र आती हो ॥

अगली दफा जब मैं अध्यात्म लिखूंगा ,
मैं लिखूंगा पुरुष को स्त्री का अंश ,
जैसे लगते हैं किसी पेड़ में फल ,
जैसे एक पौधे में खिलते हैं कमल ,
बस , वैसे ही ॥

< अ-से >

पठन


लिखी पढ़ी हर किताब का अर्थ बस मैं ही था !!

मैं शब्दों में खुद ही को सुनता रहा ,
वो अर्थों में मुझको ही कहते रहे !!

मैं प्राण की तरह बहता दृश्यों में
और भावनाओं में रंग कर लौट आता !!

एक लेखनी खाली कागज़ पर बिखरा देती संसार ,
और मनो पंछी चुन लेता अपने आत्म का चित्र !!

एक विचित्र सत्य लोक की यात्रा के बाद ,
फिर लौट आता इस स्वप्न संसार में !!

< अज्ञ >


नृत्य करता संसार

घूमता पंखा ,
चौराहे के चारों और दौड़ते वाहन ,
विधुत प्रवाह ,
धधकते कोयलों से दौड़ते इंजन ,
प्रकृति की शक्तियां भी कितनी रोचक हैं ...

सूर्य पृथ्वी चाँद ,
विशालकाय पिंड ,
अति भार ,
आसानी से घूम रहे हैं ,
अनुशासित ,
नियत ,
अनवरत ...

सूर्य का अद्भुत प्रकाश ,
अग्नि ,
वायु का प्रचंड तेज ,
जल ,
गति मान दृश्य ,
सतत परिवर्तन ,
भीषण और मृदु ...

ई और इ
अक्ष के दो घुमाव ,
वामावर्त और दक्षिणावर्त ,
एक में प्राणों का प्रवाह अधो ,
दूसरे में ऊर्ध्व ...


आत्म आधार ,
आधार का भी आधार ,
अविचल ....


विस्तार ,
सम्पूर्ण ,
असीम ...


आनंद ,
सम्पूर्ण आत्म में आकाश में फैला हुआ ...

अक्षर
मूल इकाई ,
स्थिर ,
ठोस ,
सनातन ,
कितना शक्त संसार ...

मात्र
चेतना की सन्निधि ,
और नृत्य करता संसार !!

< अ-से >

किताबें खुल चुकी हैं ..

किताबें खुल चुकी हैं
अब बाहर आने लगे हैं वो ...

किरदार ,
जिनको कवियों ने बनाया है
अमर ...

बीता हुआ सब एक बीज में बदल जाता है ,
और चेतना के स्पर्श मात्र से वो बीज वृक्ष बन जाता है ,
जैसे एक लिंक को क्लिकते ही पूरा पेज खुल जाता है ,
जैसे एक विचार के आते ही पूरा स्वप्न बदल जाता है ...

वैसे ही किताबों के खुलने से बाहर आने लगे हैं वो ....

< अ-से >

वो पौधा कैसा है भला ??

वो पौधा कैसा है भला ??
अच्छा या बुरा , सच्चा या झूठ मूठ का ...

कहीं हरी भरी पत्तियाँ , कहीं मुरझायी जर्द , कुछ नीचे झढ़ी हुयी ,
शाख पर तीक्ष्ण काँटे साधे हुये ,
और कुछ पत्तियों पर ओस की बूंदे चमकती सी ,
साथ कुछ नयी कोंपलें और कलियाँ ,
और फूल , फूल ... महकते महकाते , लाल सुर्ख रंग की सुंदरता ,
और फिर कठोर शाखाएँ ...

अनेकों विचित्र विशेषणों से लदा .... वो पौधा ,
वो पौधा कैसा है भला ??

< अज्ञ >

वो उठा और दक्षिण की ओर चल दिया ...

एक स्पंद के साथ उसने आँखें खोली ,
कुछ विचलन था हृदि में ,
उसको जानना था कुछ ,
शायद कोई विज्ञान ...

वो उठा और दक्षिण की ओर चल दिया ...

उसने देखे पर्वत , नदी , मैदान , वृक्ष , फल , फूल और घास ...
उसने देखी जमीन और देखे अपने पाँव ,
उसने हाथ उठाया और अपनी उँगलियों में बहाव महसूस किया , वायु का ,
नदी के किनारे अंजुली भर पानी पिया , और जानी अपनी प्यास और तृप्ति ...

उसने हर वस्तु को चिन्हित किया , तर्जनी रखकर ,
अपनी स्मृति में ,
महासागर तक पहुँचते पहुँचते उसने जान लिया था संसार ,
और वो जल बनकर समा गया समुद्र में ,
अब कोई विचलन न था !!

< अज्ञ >

यूं ही -2

मुमुक्षु का मतलब तो आप जानते ही हो , मोक्ष की इच्छा रखने वाला !!
क्या इच्छाओ से भी मोक्ष मिलता है ??

हाँ !! काम (इच्छा) भी प्रकृति ही है ... अगर आपकी इच्छा प्रकृति की इच्छाओं के समन्वय में है तब भी आप मुक्त ही हो ... उसे प्राकृत लय कहते हैं !!
जैसे श्री और आत्मसम्मान की इच्छा !!

वेद तो पूरी तरह स्वस्थ इच्छाओं के ऋचा रूप पर बने हैं ... सामवेद जो की कृष्ण अपना ही स्वरुप बताते हैं उसमें भी प्रार्थनाएं और कामनाएं ही हैं ... पर वो शुद्ध कामनाएं हैं वैकारिक नहीं ... जैसे स्वस्थ भावनाओं की स्थिति में आप चाहते हो की सब सुखी रहे , कोई बीमार ना हो , कोई अज्ञान ना हो ... तो ये भी आपको मुक्त ही रखता है !!
बंधन विकृतियों से है , शुद्ध काम और शुद्ध ज्ञान से नहीं !!
भगवान् विष्णु का एक नाम शुद्ध काम भी है ... और इच्छाओं का अस्तित्व तो चेतन तक जुड़ा है,
" अथातो ब्रह्म जिज्ञासा " भी ज्ञान रूप काम ही है !!

मन को मारना मुक्ति नहीं ... मन का विवेक के अनुसार चलना मुक्ति है ...
मन की मजबूती ही तो इच्छा शक्ति है .. वो स्तर जहाँ आप अपनी इच्छा अनुसार चल सकते हैं , जी सकते हैं शरीर छोड़ सकते है और नया जन्म ले सकते हैं या स्व में ही स्थित रह सकते हैं !!
वो मन ही तो मुक्ति है ... ये शब्द ज्ञान के अजीब अर्थ निकलने पर और नाटकीय बाबाओं के कथन पर ' मन को मारना ' शब्द निकला है ...
मनुष्य की मुक्ति तो मन की प्रबलता ही है .. हाँ ब्रह्म स्वरुप की मुक्ति पर-ब्रह्म होना है जहाँ मनः शून्य की अवस्था आती है ... पर वो भी मन का मरना नहीं मन का लय हो जाना है उच्चतर भूमियों में !!

< अ-से >

यूं ही

उस (चेतन) की सन्निधि मात्र से ही जड़ सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।

जैसे पूर्व में सूर्य दिखाई देते हैं और पंछी चहचहाने लगते हैं , और रात की गहरी नींद से जाग सब काम काज में लग जाते हैं ।

उसी तरह प्राणों का संचार जब मन / बुद्धि के सूक्ष्म छोरों तक होता है , तो मन / बुद्धि के वो स्रोत सक्रिय हो जाते हैं , जितने स्त्रोत लिखे गए हैं वो सब यही करते हैं !!

एक ही अव्यक्त चित्त (आधार चित्त ) अनेकों (व्यक्त ) चित्तों का कारण बनता हैं , सभी ईश , देव , प्राणी , जीव के चित्त एक ही मूल चित्त की अलग अलग भाव (मुद्रा) स्थितियाँ हैं , जैसे कभी हम खुश होते हैं कभी दुखी ।

सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी गति है चेतन के कारण से ही है , पर वो चेतन गति नहीं करता , पर जहाँ तक उसकी पहुँच होती है वहाँ तक कि सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।

भग ह्रदय और संवेदना के अर्थ में लिया जाता है , भग-वान् शब्द का अर्थ भी -- संवेदन शील और महत्ता वान है , महत्ता इसीलिए क्योंकि चेतन/संवेदन का महत्त्व जड़ / बेजान से अधिक है ।

चेतना के संकल्प से ही ग्रंथियों का निर्माण होता है और उसी से देह आकार लेती है , ग्रंथों का मूल ये ही है। पर ग्रन्थ अत्यधिक संवेदनशील विषय है और इन्हें समझे बिना इन पर शोध खतरनाक है । ग्रन्थ , शब्द से सृष्टि निर्माण के व्याख्या रूप है ।

वैसे इस नोट का उद्देश्य ये सब बताना नहीं , बल्कि सभी ग्रंथों कि तरह ज्ञान और सृष्टि के प्रति सम्मान जताना है ।

" कण कण में भगवान् है " इस तरह के वाक्यों में उसे जानना नहीं होता , बल्कि उसके प्रति सम्मान रखना होता है । सूर्य चन्द्र पृथ्वी नक्षत्र पेड़ पहाड़ कुंवे सभी को पूजने कि जो परंपरा हमारे यहाँ है , उसका मूल भी सम्मान कि समष्टि ही है , सम्मान करने से ह्रदय में सम्मान का भाव पैदा होता है , इसी तरह प्रेम देने से प्रेम का भाव पैदा होता है , ( जाकी रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी ) ।

अधिकतर आध्यात्मिक आख्यान ' श्री ' विषयक हैं , ( सम्मान / आत्मसम्मान , श्री के सबसे करीब वो शब्द हैं , जो मैं जानता हूँ , exact नहीं पर करीब ) जब तक उनके प्रति सम्मान की दृष्टि नहीं होती उनका मूल भाव जानने में नहीं आता।

भक्ति , पूजन , प्रार्थना आदि सबका मूल भी हृदय में सम्मान का भाव पैदा करना है ।

सोऽहं , शिवोऽहं , अहम् ब्रह्म अस्मि , तत त्वं असि , आदि ब्रह्म वाक्यों से भी यही बताया जाता है कि आप वो ही हो , इसीलिए स्वयं के प्रति भी सम्मान कि दृष्टि हो , कोई अवसाद ना रहे ।

अंत में भगवद गीता का एक श्लोक ... उद्धरेत् आत्मना आत्मानं ना आत्मानं अवसादयेत् । आत्मैव आत्मनो बंधू , आत्मैव रिपुः आत्मनः ।। ( स्वयं ही स्वयं का उद्धार करें खुद को अवसाद में न रखें , आप खुद ही खुद के मित्र हो और खुद ही खुद के शत्रु । )

< अ-से >

अव्यक्त

अभिव्यक्ति में जिसकी ब्रह्मा पूरा संसार सतत रचते रहे ,
आनंद को जिसके निरंतर भावते हुए विष्णु नियत डूबे रहे ,
रूद्र अपनी अग्नि से जिसे एकसार करने में रहे लगे ,
महेश्वर जिसको एक रूप से दूसरे रूप तक बदलते रहे ,
वो अव्यक्त शिव तब भी अव्यक्त ही है !!

< अ-से >