Mar 18, 2014

प्रेम ही जड़त्व है ...


प्रेम ही जड़त्व है , 

भारीपन से भर जाते हैं लोग ,

प्रेम ही अन्धकार है ,
पार देखते ही डर जाते हैं लोग ,

प्रेम अवसाद है ,
बुझे बुझे मर जाते हैं लोग ,

प्रेम अंधा बहरा गूंगा , उ म म का दलदल ,
डूबते उबरते खिर जाते हैं लोग !!

अ-से

उत्सव

चुकने को हैं प्राण मेरे ,
वीरान खाली मैंदान में ,
जमा हो चुके हैं ,
अनेकों गिद्ध , कौव्वे , चीलें ,
कुत्ते , गीदढ़ , सियार ,
चूहे और चीटियों को भी आने लगी है गंध ,
अजीब सा संगीत , रूदन क्रंदन चकचकाहट ,
अजीब सी बैचैनी के साथ खुश हैं सभी
कोई उत्सव सा नज़र आता है दुनिया में ...

जैसे कोई विवाह ,
जिसको भुनाने आ जाता है पूरा समाज ,
नाचते उछलते भूतों की टोलियाँ ,
व्यापार और जग मथाई का उत्सव ...

जैसे कोई बीमार ,
जिसको भुनाने लगता है ,
छद्म चिकित्सा संसार ,
नीम हकीम सफ़ेद कोट और आला ,
सभी मिल बाँट खाने को तैयार ,
जान और जहान ...

पर जीने के लिए ,
सब जायज है शायद ,
की उत्सव है संसार ,
और सारी विभीषिकाओं के बावजूद ,
बहते हैं प्राण ,
होता है अनवरत नृत्य ,
दुःख और सुख का ...

शोक हो या ख़ुशी ,
जन्म हो मृत्यु हो या विवाह कोई ,
आखिर सभी माहौल के लिए ,
तैयार हैं गीत ,
और धुनें भी ...

अ-से 

आत्मनिर्भरता

खुद ही तारीफ लेता हूँ खुद को ,
और तौल लेता हूँ दीवारों से अपनी मजबूती ,

आईने में नाप लेता हूँ अपनी सुन्दरता ,
किसी से नहीं पूछता कैसा लग रहा हूँ मैं ,

अब नहीं झांकता अपने मन में ,
मुझे पता है खुश ही रहना है मुझे हर हाल ,

और नहीं बताता सच , क्या जी चुका हूँ मैं ,
मुझे पता है अपनी कहानी का एकमात्र पाठक हूँ मैं !!

अ-से 

बच्चे देख पाते हैं ...

बच्चे देख पाते हैं ... 

बदलाव 
भरते घाव 
टिकते कदम 
बढ़ते कद 
और 
कर लेते हैं भरोसा 
अपनी अनुभूतियों पर 

बच्चे देख पाते हैं ....

चहकती खुशियाँ
टपकते आंसू
खनकते शब्द
उजले दृश्य
और
सहेज लेते हैं भाव
अपने ह्रदय में ...

अज्ञ

कदम



कुछ सूखे पत्ते ,

बिखरी सी धूल ,
सूखी दूब ,
खाली मैदान ,
सर पर सूरज ,
चमकती धूप ,
और आवारा से दो कदम ...

कोई चल रहा है ,
यूँ ही ,
तय दिशा नहीं ,
कुछ कंकडों को पैर मारता ,
बेपरवाह , बे सबब , बेखयाल सा ...

जीवन नाम है चलते रहने का ,
वो कहते हैं ,
पर कोई दिशा नहीं बता पाते ,
ठीक से , किस ओर ...

अक्सर वो दिखाते हैं ,
मंजिलें उसे ,
अनुमान से ,
वो पहुंचे नहीं कभी ,
या शायद ,
पहुँच कर भी ,
वहां ठहर नहीं पाए ,
पर चाहते है ,
कुछ कहना जताना चाहते हैं ,
पर क्या चाहते हैं ,
उन्हें पता नहीं ...

बस चाहते हैं कुछ ,
पर क्या कुछ ,
शायद सब कुछ ,
या कुछ भी नहीं ...


अ-से 

ध्रुव


जमीन पर टिकते नहीं पाँव उनके ,

वो आसमां निहारा करते हैं ,
चाँद को देख मन ही मन ,
आँखों में ,
एक तारा संवारा करते हैं ...

डरना किसी के प्यार से ,
आखिर ये कौनसा मर्ज है ,
डरना था जबकि चाह से जिसकी ,
उसको गंवारा करते हैं ...

चाह , चिपक , लगाव , खींच ,
ये होने थे डर के सबब ,
मिला कर वो दिल और दुनिया ,
प्रेम को खारिज करते हैं ...

देख पाए जो कोई दूर तलक ,
एक झिलमिलाता तारा है ,
ना आता है पास ना जाता है दूर कभी ,
प्रेम है बस वो ही एक ,
जिसे ध्रुव पुकारा करते हैं ...

अ-से

Mar 11, 2014

पात्रता

अंधा अगर आइना , 
दंतहीन अगर ईख ,
बेसुरा जो बांसुरी ,
संदेही अगर सीख ,
पा भी जाए तो क्या ...

पात्र हो तो धन मिले पात्र हो तो धुन , 
पात्र को तो ज्ञान हो , पात्र हो तो गुण ,

योग कर्म कौशल्य है , पात्र है अगुन !!

~ अ-से

माँ

" तुम्हे हर ओर से जलना होगा , भीतर तक पिघलना होगा "
परम शांतिमय स्वव्याप्त अ-कार में ,
हुआ एक शब्द ,
हुआ एक बोध ,

प्रकट हुए सूर तब जलने लगे सब ओर , 
चमकने लगे सूर्य हुयी आभा हर ओर ,
और फैलने लगा प्रचंड आ- नाद चारों छोर ,

अकार ... आकार लेने लगा ... उजस उठी सृष्टि ,

प्रकट पृथ्वी हुयी तभी , सुनी उसने उद्घोषणा ,
माँ का दिल जल उठा , कुपित हुयी तब पूषणा ,

कृ-कार (धरा) ने कहा हे देव सूर्य ,
ये मुझे मंजूर नहीं ,
आप हो एक परम बोध ,
बच्चे मेरे इतने ऊर्ज नहीं ,
आप परम तेज पुंज ,
नादान मेरे मनवान बच्चे ,
कैसे सहेंगे आपको ,
उन्हें भी कुछ वक़्त बख्शें ,
आपको थोडा ढलना होगा ,
गुजारिश है ये आपसे ,

सूर्य ने कहा धरा से ममता ,
खयाल उनका तुम्हे ही रखना होगा ,
अगर उन्हें बचाना है तो ,
तुम्हे भी खुद ही जलना होगा ,

पर ये कह कर वो कुछ शांत हुए ,
नाद कुछ आल्हाद में बदला ,
वो प्रकाश , बोध , प्रशांत हुए ,

सूर्य के इस अकहे कर्म को ,
धरा ने फिर फिर नमन किया ,
और अपने बच्चों को पीठ पर लाद ,
ममता की ओढ़नी से छाँव बंध किया ,

और उसने लिखी प्रकृति की किताबें ,
और गाया प्रकाश कर्म का ,
की उसके बच्चे भी सीखें परम बोध से ,
गुणगान सृष्टि धर्म का , .... !!

उसके ओट में दिन ... रात हुआ ,
उसके आँचल में ... दिल सांच हुआ ,
उसकी गोद में सिमटा हुआ सा प्रेम ,
उसकी बातों से जग ज्ञात हुआ !!

~ अ-से

pic courtsey: गूगल / " Debdutta Nundi "

जड़ जीवन

चले आते हैं मुंह उठाये खयाल बे तरह के ,
किसी तरह सवाल-ओ-जवाबों के सिरे जोड़ता हूँ !!

चलते हैं अंधड़ भावनाओं के तूफ़ान उमड़ते हैं ,
कैसे तैसे करके जाने उनका रुख मोड़ता हूँ !!

कौन है क्या है कैसा है वो जुर्म मेरे सर ,
जो जोड़ा तोडा सब छोड़ मैं ता-दिन दौड़ता हूँ !!

ख्वाबों के पत्थरों पर मार सच्चाई के हथोडे ,
जहांगुजारी में ताउम्र अपना सर फोड़ता हूँ !!

~ अ-से 

कुछ झपकियाँ

आकाश वाणी पर उनका कब्जा था ,
लोगों तक वही सूचनाएं पहुँचती थी जो वो सुनाना चाहते थे ,
हवा में मद और जहर बहता था ,
लोग झूमते हुए चलते थे , आधे होश में साँसे लेते हुए ,
सब महंगा था अनाज जमीन और कपड़े भी ,
पर उनकी चमकदार छवियाँ मुफ्त मिल जाती थी , तिलक-माल के साथ !!

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जहर प्राकृतिक तोहफा है ,
खंजर , गोली और बम कृत्रिम ,
मानव के सबसे अच्छे आविष्कार ,
कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है ,
अब भूख के दिनों में ये अच्छी चीजें हैं खाने को !!

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मैं जहाँ कहीं जाता हूँ लोग व्यस्त नज़र आते हैं , कुछ न कुछ कर ही रहे होते हैं सब , 
पर क्या कर रहे होते हैं , ये कम ही लोगों को देखकर समझ आता है !!

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~ अ-से 

जान जहान

खंगालते हैं सामान सारा ,
निकालते हैं म्यान से आरा ,
काटते हैं जब नब्ज़ अपनी ,
बहा डालते हैं ज्ञान सारा .

हाथ आता कुछ नहीं ,
प्राणों की कोई सुध नहीं ,
ज्ञान में जहान है ,
जहान तो बे जान है .

~ अ-से 

न्याय

तराजू का कांटा ,
शिव की तीसरी आँख ,
निर्णय ..

मुक़र्रर फैसला ,
सनातन तय ,
सनातन तम , 
निश्चित पहले से ..

न्याय की देवी ,
आँखों पर काली पट्टी ,
ममता की ,
कोई गांधारी ...

फैसला ,
जहाँ प्राण ज्यादा बड़े हैं प्रेम से ...

प्रारब्ध ,
काल द्व्रारा तय शुदा ,
लिखा हुआ फैसला ...

निर्णय ,
एक भार ,
पलड़ा एक तरफ ,
जिसकी चाह भारी थी ,
अपराध भी उसका बड़ा था ,
पलड़ा उसी के पक्ष में पड़ा ...

जिसका प्रेम गहरा था ,
और दिल शांति चाहता था ,
चाह कुछ भी नही ,
या शायद सबसे बड़ी ,
जो इश्वर भी ना पूरी कर पाएं ...

~ अनुज

घर -1

घर की हवा में ,
आखिरी बार ,
एक लम्बी साँस ,
भरी और छोड़ दी गयी , 
या शायद खुद ही छूट गयी ,
और फिर वो चला गया ,

दरवाजे खिड़कियाँ बंद सब ,
एक सुनसान सा अँधेरा ,
भीतर सब खामोश , खाली , अचल ;

हवा रुक गयी है या अब भी बहती है , कोई बताने वाला नहीं ,
कुछ कुतरते दौड़ते चूहे , धूल की महक , मकड़ी के जाले ,
क्या आलम है क्या नहीं ,कौन जाने ;

आवाजें आती तो होंगी बाहर से , नल भी टपकता होगा ,
कोकरोच चीटियाँ मकड़ियां बहुत से जीव होंगे पर सब खामोश ,
परदे हिलते तो होंगे , कम्पन भी होते होंगे , पर कोई सुनने वाला नहीं ;

अब मकान यूँ ही पड़ा रहे या ढह जाए ,
कोई बाढ़ बहा ले जाए या मिट्टी निगल जाए ,
या चूहे उसे कुतर खाएं , किसे फर्क पड़ता है ;

देह पड़ी है जमीं पर , अचल ,
प्राण नहीं बसते अब इसमें !!

< अ-से >

बावजूद इसके

सब कंचे चमकते हैं अलग अलग सी ख़ुशी से ,
कुछ कंचे उदास भी हैं , बावजूद इसके वो भी चमकते हैं ,
रंगीन कांच , बर्नियों के पार देखना , 
गर्मियों के नीरस में हलके हलके सुख ...

सीढियां , चटाई , फर्श , आइना और उदासी ,
मेज , दीवार घडी और ये की-बोर्ड 
तुम्हारी आँखों की चमक ,
सब तो है यहाँ ,
सब की खनक है ...

सब कुछ तो बात करता है ,
फिर इतना सन्नाटा क्यों हैं ,
जबकि मैं खाली हूँ किसी भी दुःख से ,
कोई बहाव नहीं ,
किसी ख़ुशी की चमक है हलकी सी चेहरे पर ,
पर लहर नहीं आती ,
फिर बिना सागर ये दो सीप क्यों हैं ...

जिंदगी सतत चमक रही है सूरज सी ,
सपनों में लहर है पानी सी ,
ठहराव कहाँ उसमें ,
कहाँ संभव है हर ख्वाब का बस पाना !!

~ अ-से

स्त्री -2

तुम सुन्दर तो हो ही 
उसकी कोई बात नहीं ,

बस तुम्हारीं आँखें ,
इन्हें थोडा विस्तार ले लेना चाहिए अब ,
निश्चिंतता से ,
इसमें चमकता सा तारा हो कोई ,
ख़ुशी का ,

और तुम्हारे गाल ,
थोड़े फूल जाने चाहिए ,
सुकून की हवा से ,
खिल ही जायेंगे ,
अगर तुम चहकती रहो ,

और तुम्हारा चित्त ,
इसे थोडा ठहर जाना चाहिए ,
फ़िक्र कुछ कम करो , दुनियावी ,
रहो की जैसे ये सब कुछ ,
बहुत मायने नहीं रखता तुम्हारे लिए ,
की तुम हो तो तुम्हारी दुनिया है तो ये सब लोग हैं ,

सुन्दर तो तुम हो , निश्चित ही ,
तुम बस खिलकर आओ सामने ,
खुलकर जियो ,

सहना तो हर हाल में है आखिर ,
जश्न भी है जख्म भी है ये जिंदगी !!

~ अ-से

प्रेम कहानियां

प्रेम कहानियाँ ,
तुम्हे पसंद हैं ना , 
मुझे भी ,
आखिर ये सब ,
अच्छा लगता है ,
तो बस कहानियों में ही ..

तोता मैना की कहानी ,
किसने नहीं सुनी फिर ,
अपना पक्ष , दुसरे को विपक्ष रखते ,
आखिर ,
वो भी फंस ही जाते हैं ,
इन प्रेम कहानियों के पंजों में ...

मुझे पसंद हैं प्रेम कहानियाँ ,
बचपन से ,
हो जाना चाहता हूँ ,
एक किस्सा ,
एक कहानी का पात्र  ...

पर एक ऐसी कहानी ,
अंत में जिसमें ,
सब ठीक हो जाये ,
जिग-सॉ पज़ल सरीखे ,
सब टुकड़े ठीक बैठ जाएँ ...

पर सुलझ जाना ,
सारे ही सिरे ,
जुड़ जाना ,
सारे टुकड़े ,
शेष ना रहना ,
कोई समस्या ,
शायद ये संभव है ,
किसी फिल्म में ही ,
2 घंटे का कल्प मात्र ...

पर वास्तविक जीवन ,
उसे चाहिए सांतत्य ,
उसे चाहिए विस्तार ,
रोज , प्रति पल , दृश्यों के बीच कोई झपक ना हो ,
एक समस्या का अंतिम सिरा मिले ,
तो वही दूसरी का शुरूआती हो ...

मुझे पसंद हैं ,
प्रेम कहानियाँ ,
सस्सी-पुन्नू ,
सोणी-महिवाल ,
हीर-रांझा ,
शीरीं-फ़रियाद ,
लैला-मजनूं ,
रोमिओ-जूलियट ,
इन सब सा ,
बन जाना चाहता हूँ ,
मैं भी कोई ,
द्वन्द समास ,
आखिर युद्ध भी हो तो ,
प्रेम सरीखा ,
दोनों पक्ष समान हो ,
और हार जीत ,
उसका फैसला न हो सके कभी !!

~ अ-से

स्त्री : 1

ग़म के अंधेरों में , 
ख़ामोशी लिबास ओढ़े , 
सिसकते एहसास , 
जहन में जलती रंगीन रोशनियाँ ,
और आँखों में सूखता जाता इंतज़ार ...

तेरे सृष्ट में समाई तेरी हर एक बयानी ॥

घायल एहसासों सी रीढ़ ,
बिखरे भरोसों के झुके काँधे ,
छलनी सा छिद्रित मन ,
और फिर से आस लगाता प्यार ...

तेरा पृष्ठ कहता है तेरी हर एक कहानी ॥

.................................................. ~ अ-से

मेरी अकड़

मैं और मेरी अकड़ ,
अक्सर ये बातें करते हैं ,
अगर मैं कीड़ा होता ,
कैसे दिखते मुझे ये लोग सारे ,
क्या दिखते भी ,
ये सारे पृथ्वी वासी देव गण ,
अकेले ही ,
कुरेदता रहता कोई एक ही डंठल ... 

मैं और मेरी अकड़ ,
अक्सर ये बातें करते हैं ,
अगर मैं सुअर होता ,
सोया रहता कीचड में ,
बेफिक्र ,
किसी और सूअर से सटा हुआ ,
रह लेता कहीं भी ...

मैं और मेरी अकड़ ,
अक्सर ये बातें करते हैं ,
अगर मैं कुत्ता होता ,
खुजली वाला ,
जगह जगह होते घाव ,
ना कोई मरहम ,
ना कोई पूछने सुधने वाला ,
पड़ा रहता कहीं भी ,
बिना किसी की आस लगाये ...

रोता नहीं , पुकारता नहीं , कम से कम किसी इंसान को तो बिलकुल नहीं !!

अ-से 

खोटा सिक्का

कहाँ हिलता पत्ता कोई , ये अगर ना माने तो ,
वो कोई और बात है फिर मना लिया जाता है , 
कभी मगरूर , कभी मजबूर , कभी अनमना सा ही ,
दिल ही तो है एक खोटा सिक्का जो चला लिया जाता है !!

अ-से

दो प्रेम कवितायें

मैं देखता रहा उसे देर तक ,
खुद से दूर जाते हुए , 
पीछे नहीं मुड पाया ,
कि उन आँखों में आंसू होंगे ,
वो खिड़की में कैद थी तब ,
मेरे कदम जमीन से भारी थे !! 

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मैं भी तो हूँ तेरी ही रूह का हिस्सा ना , 
क्या खयाल ना आता मुझे अपने दर्द का , 
मेरी समझ मात खायी है हर कदम माना , 
पर क्या ख़ुशी ख़ुशी हार जाना बिसात नहीं होता !! 

मैं भी हूँ देख तेरी आँखों के कोरों में ,
छलकता नहीं तो क्या भरा नहीं हूँ ,
जताता नहीं जज्बे जब्त किया रहता हूँ , 
क्या लगता है तुझे मैंने सोचा नहीं होगा !!

मैं आज यूँ अब तलक यहाँ तक इस समय ,
बहा हूँ एहसास साथ तेरे खयालों के ,
तू नहीं जानता ना ही आसान सब बताना ,
देख मैं पाता हूँ क्या हर कदम के आगे !!

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अ-से

दो झपकियाँ ..

पुरुष बचता रहा , स्त्री होने से
स्त्री डरती रही , पुरुष होने से
अंत में दोनों ही हो गए एक ..

नाकाम हो जाना ही जीवन का रहस्य निकला !!

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मेरा स्त्री से प्रेम स्त्री से प्रेम नहीं , 
स्त्री के बहाने प्रेम है ;
प्रेम मेरे ही दिल में उपजा भाव है ,
और बाकी सब बहाना है उसका ,
निमित्त मात्र ,
माध्यम !!

पर मेरा स्त्री से प्रेम स्त्री से ही प्रेम है ,
भले ही वो बहाना है ,
पर वो बहाना जब वास्तविक हो जाता है ,
तो मेरा आनंद समाप्त हुआ जाता है !!

जबकि मेरा स्त्री से प्रेम मेरा स्त्री से प्रेम ही था ,
पर स्त्री अनावश्यक और अप्रासंगिक है ,
और उसका होना भी आवश्यक है !!

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पोटली

आते वक़्त ही माँ ने दी थी एक पोटली ... 
और कहा था अपना ख़याल रखना , 
पोटली से ज्यादा जरूरी तुम हो मेरे लिए ...

वक़्त के रास्ते मैं निकल पड़ा , 
जो भी मिला राह में ,
जैसा भी लगा ,
उस पर शब्द संज्ञाएँ चिपका ,
मैं पोटली अपनी भरता रहा ..

पोटली के अन्दर ,
रच बस गयी थी ,
एक अनोखी ही दुनिया ,
सामान जुड़ने लगे आपस में ,
और तंत्र आकार लेने लगा ,
पुराने सामान जडें जमा बैठे ,
और नए सामान जमाये जाते ,
उनकी सहूलियत अनुसार ,
जिन्हें अपनी जगह बनानी आती ,
उन्होंने संगठन बना लिए ,
वहां अक्सर चर्चाएं होती रहती ,
और सामानों पर विशेषणों की छाप भी लगने लगी ...

यूँ ही चलते चलते जब मैं थक जाता ,
या मार्ग निर्धारण करना होता ,
तो उसमें झाँक कर देख लेता ...

पहले सब कुछ उसमें आसानी से आ जाता था ,
और चलने पर चीजें उलटती पलटती रहती ,
पर बाद में चीजों की हवा बाहर निकली जाने लगी ,
पोटली के कपड़े से ,
और गतिहीनता के कारण उनमें शुद्धता नहीं रह गयी ,
फिर वो ठंडी भी होने लगी ,
क्योंकि गर्म वस्तुएं ज्यादा जगह घेरती हैं ,
और बाद में सूख कर जमने लगी ,
अब उनमें रस भी बाकी नहीं रहा ,
नए आने वाले सामान भी फिर ,
इस सिस्टम के अनुसार ढलने लगते ...

सघनता काफी बढ़ चुकी थी ,
और पोटली भारी होने लगी ,
अब वो इधर उधर से फट भी चुकी थी ,
कई चीजें राह में ही कहीं बिखर चुकी थी ,

एक दिन उदासी के घेरे में ,
मैं पीपल के के नीचे बैठ ,
अपनी पोटली निहारने लगा ,
देखा तो उसमें कुछ ही सामान साबुत बचे थे ,
जो की भीतर कहीं दबे थे ,
ऊपर के कुछ टूटे फूटे से ,
और बाकी सब सिर्फ धूल और मिट्टी ...

मुझे दिखने लगा आगे ...
एक दिन पोटली फट जानी है ,
और ये सब बिखर जाने वाला है ,
सारे अनुभव और स्मृतियाँ हो जाने हैं मिटटी ,
और तब ,
मेरी यादों की पोटली मुझे ही छोड़ देनी है ,

आगे रह जाएगा सिर्फ ये रास्ता ,
जो हर बार रह जाता है ,
पर परवाह नहीं अब ,
आखिर माँ ने कहा था मैं ज्यादा जरूरी हूँ उनके लिए !!

अ-से