Feb 17, 2014

घडी :1

शायद पगला गयी थी घडी की सुइयाँ ,
या ये उनका सबसे समझदार प्रदर्शन था ,

कभी घंटे और सेकंड्स की सुई बदल जाती थी ,
कभी रुक सी जाती थी तीनो ,

उसकी टिक टिक भी पूरी सृष्टि में शोर के लिए काफी होती ,
तो कभी घंटे की आवाजें भी चुपचाप पीछे से सरक जाती ,

हर अलार्म पर मैं जागता था और खुद को सपने में पाता था ,
तो नींद में किसी जमीन पर कुदाली चलाते नज़र आता ,

इतना सब हुआ पर कुछ भी तो नहीं लगता ,
कुछ भी नहीं हुआ पर कितना वक़्त गुजर गया ,

आखिर स्वप्न की उम्र ही कितनी होती है !!

~ अ-से

नींबू निचोड़ना भी कला है


नींबू निचोड़ना भी कला है
कडवाहट नहीं आनी चाहिए

निचोड़ ही कला है
यही
सभ्यता का विकास है

और रसोस्वादन
संयम और मधुरता का कार्य है
कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं
स्वयमेव होते हुए से लय बैठाने की कला

एक चित्रकार की भाँती
जो इतने छद्म और अविरत परिवर्तनशील दृश्य पटल से
निचोड़ता है एक चित्र को , अपनी सरल दृष्टि से
घंटो एकटक देखता है मूर्तिमान होकर
और केनवास पर उतर आता है एक जीवंत रस

एक कवि की तरह
जो जानता है निचोड़ना दृश्यों से शब्दों को और शब्दों से मन को
वो उतने अँधेर तक भी जाता है जहाँ दृश्य नहीं पहुँचते
और निचोड़ लाता है ह्रदय से कुछ चुनिन्दा रसों को
जिसको जोड़कर बनाये जा सकते हैं जीवंत गहरे और सार्थक रिश्ते
शब्दों और अर्थों के बीच

एक संगीतकार की तरह
जो अनगिनत ध्वनियो के बेतरतीब सामूहिक नृत्य की भूलभुलैया में से
निचोड़ता है उस सुरीले रास्ते को
जिस पर ले जाए जा सकते हैं दो कान और एक दिल

और एक प्रेमी की तरह
जो निचोड़ लाता है
समय के अथाह भण्डार से , जीने के लिए दो पल
और भावनाओं के समुद्र से , दो नमकीन बूँदें
और उकेरता है , एक दग्ध ह्रदय की अभिव्यक्ति पर
एक मुस्कान , जो नज़र आये चहरे पर ॥

अ से

ओ दुनिया ! चुप हो जाओ !


शब्दों को बहुत ही गौर से सुना है मैंने ,
अपनी उदगार के बाद से ही धीमे और धीमे
और धीमे से हो जाते हैं ,
पर कभी खामोश नहीं होते ,
चाहता हूँ सुन सकूँ
उन शब्दों के पीछे अपने कान ले जा सकूँ ,
जो भी उसने कहे थे उस वक़्त ...

वो शब्द वो घोष वो उदगार वो गूँज ,
वो खिलखिलाहट वो नाद वो आल्हाद ,
वो सभी बातें ,
वो सब यहीं हैं ,
मुझे पता है ...

पर बहुत शांत सी हो चुकी है ध्वनि ,
और बहुत शोर है मेरे मन में ,
सामाजिक ताप से दग्ध ह्रदय में ,
हाय-तौबा से कम्पित कर्ण पटलों में ,
सामर्थ्य नहीं नज़र आता ,
कि सुन सकें ...

उस मधुर कविता को ,
उन गीतों को ,
जो वक़्त ने पिरोये थे मेरे लिए ,
सिर्फ मेरे लिए ...

और वो समाते जा रहें हैं इस शून्य बेपरवाह आकाश में ,
ओ दुनिया ! चुप हो जाओ , मुझे सुन लेने दो ,
क्या कहा था उसने ,यहीं इसी जगह,
उस वक़्त !!

< अ-से >

टाइम पास


सब जग ढूंढो प्रेम नू , मिले न प्रेमी कोए ।
आपहूँ दिल जब जागे प्रीत , सब जग प्रेमी होए ।।
फिर भर बरबस बरसे प्रेम , आनंद घनेरा बोए ।
जो इक प्रेमी ते दूजा मिलै , सब तप शीतल होए ।।

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इक रात की नरमाई में घन घोर सवेरा हुआ ,
तन्हाई को तबाह कर दुनिया का बसेरा हुआ ,
खामोश दिल को चीरता शोर पनपने लगा ,
और दुनियावी चकाचौंध का सूरज चमकने लगा !!

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देखता हूँ सब और ...


देखता हूँ सब ,
एक दुनिया और अनेकों विचित्र आयाम ,
सरल दुनिया और जटिल मन मानस ...

एप्पल नीचे क्यों गिरता है , उसे ऊपर उठना चाहिए ,
पानी बहता क्यों है , उसे उड़ना चहिये ..

बदल देना चाहता हूँ सब ,
सुन्दर मनमाने आकार देना चाहता हूँ ,
सोचता हूँ समझता हूँ और उपाय ढूंढता हूँ ,
प्रयास करता हूँ कभी सायास कभी अनायास ,
और ये बन जाती है जिद मेरी ...

हाथ उग आते हैं शिल्प को ,
पैर उग आते हैं गति को ,
बदलने लगता हूँ मैं शक्ल दुनिया की ...

पर कुछ नहीं बदलता , सिवाय बाहरी सजावट के ,
मन चाहता है नये आकार , नए रंग , नए नियम ,
अजीब-ओ-गरीब चाहतों में खो जाता है ...

वो बंध जाता है अपने ही मत संकल्पों से ,
घुटने लगता है दम , साँसे भारी हो जाती हैं ,
धीमी हो जाती है समझ , जड़ ,
मेरा होना ही मेरी समस्या बन जाता है ...

अनमने ढंग से मैं लौटता हूँ ,
फिर से प्रकृति की तरफ ,
धीरे धीरे फिर से समझता हूँ उसको ,
जस का तस , अपने प्रायः स्फूर्त रूप में ...

स्वीकारता हूँ उसको , स्वीकारने लगता हूँ खुदको ,
नकारता हूँ कमजोरियां और पैठने लगता हूँ स्व में ...

मेरा होना भर ही पूर्ण होता है मेरे लिए ,
और शेष नहीं रहती कोई चाहत स्वयं के लिए ...

अ से

एक विज्ञानी ने कहा शक्तिशाली ही जीवित है ...


एक विज्ञानी ने कहा शक्तिशाली ही जीवित है ,
और सारे जीव अवसाद में आ गए ॥

प्रसन्नता का प्रकाश फ़ैलाने को प्रकट हुई अग्नि ,
उनकी ख़ुशी में जल जल मरी दुनिया सारी ॥

एक और बुद्ध निकला घर से ,
उसकी पत्नी ने उसे भगोड़ा घोषित कर दिया ॥

कूद पड़े पतंगे खुदकुशी करने को ,
नहीं आया नाखुश दुनिया में खुश रहना उन्हें ॥

शोक त्यागकर वो अशोक क्या बना ,
कि पूरा कलिंग शोकमग्न हो गया ॥

एक चंगेज और निर्मम हुआ ,
मारी गयी ममता हज़ारों की ॥

वो सिखाते रहे करम आगे बढ़ने का ,
और हर कदम को पाप बताते रहे ॥

सभी तरह की गुलामियों में सबसे बुरी है प्रेम में गुलामी ,
सब जानते बूझते भी बेगारी और दासता स्वीकार करना ॥

< अ-से >

प्रीत से आहत मन

प्रीत से आहत मन ,
कुछ ही पलों में कर आता है अनगिनत यात्राएं ,
और आ कर बैठ जाता है फिर ह्रदय के अँधेरे में ,
रौशनी की और खुलने वाली सभी खिड़कियाँ बंद कर ,
अपनी ख़ामोशी तक अपनी दुनिया सीमित कर ,
उस बच्चे की तरह जो कहीं से झगड कर आया है ,
उस वृद्ध की तरह जिसे अब और कहीं जाना नहीं ॥

और फिर से कोई शोर,
देने लगता है मानस पटों पर ,
दस्तक पर दस्तक ,
सभी स्मृतियाँ सशरीर गुंजायमान होने लगती हैं ,
बैचैन मस्तिष्क भूल सा जाता है सांस लेना ,
और तभी ,
एक अहम् शांत कर देता है सब कुछ ,
याद दिलाता है वस्तु स्थिति ,
और भी कई काम हैं ,
किये जाने की प्रतीक्षा में ॥

कोई एक काम किया जाता है शुरू ,
बेमन से ,
नाखुशी की उठती गिरती लहरों के बीच ,,
कभी शोर को दबाया जाता है ,
कभी आहत भावनाओं से ध्यान हटाया जाता है ,
काफी जद ओ जहद के बाद आखिर ,
संभलता है ये दिल ,
खुद से किये इस वादे पर ,
की बस ,
अब और नहीं ॥

< अ से >

Feb 13, 2014

शांति


एक चाँद ऊपर ठहरा है ,
एक बहती हुयी झील है ,
एक पंछी डाल पर बैठा है ...

सूरज की चमक चाँद पर पड़ती है ,
चाँद की चमक झील पर पड़ती है ,
झील की चमक पंछी की आँखों में ...

और सब खामोश हैं !!

शून्य


पात्र का भराव , पात्र से ज्यादा कहाँ होता ,
सब कुछ इस शून्य आकाश में है शून्य भर !!

शून्य का अंत कहाँ होता , हद कहाँ होती ,
असीम और अनंत सब कुछ है शून्य भर !!

जिसे भी आधार माना जाता , वो कहाँ कहीं जाता ,
आधार अचल रहा और हर गति शून्य भर !!

मन कहाँ रूप लेता , मन कहाँ गिनती में आता ,
भावों का समुद्र मन भी है बस शून्य भर !!

शून्य से उत्पन्न सृष्टि शून्य में टिकी रहती ,
शून्य में विलीन हो जाती कुल परिणाम शून्य भर !!

 अ से 

मैं खुद से भाग कर कहाँ जाता !


भागता रहा , यहाँ वहाँ ,
पर खुद से भाग कर कहाँ जाता ,

गढ़ता रहा , हज़ार झूठ ,
पर खुद को कैसे झुठला पाता ,

नज़रें बचाता रहा , यहाँ वहां देख कर ,
पर सामने से ठीक ना हटा पाया ,

कुछ " गुनाह " कहे गए थे , गुनाह हों या नहीं ,
पर अंतस को कभी ना मना पाया ,

मिलना चाहता था , बहुत एक अरसे से ,
सीधे सीधे हिम्मत नहीं जुटा पाया ,

काफी वक़्त गुजर गया लगता है ,
हरकतें अब मन छोड़ रही हैं ,
समझ बस उतनी ही शेष है ,
आँखें स्वभाव तक नम हैं ,

अब ,
उसके द्वार खुले हुए हैं ,
और मेरा दिल भरा हुआ ... !!

अ से 

Feb 9, 2014

परिंदे

वो देखता था परिंदे ,
रंग बिरंगे परिंदे ,
और पाता था खुद को उनमें ...

फिर वो दौड़ने लगा उनके पीछे ,
उनको पकड़ने ,
उन बागानों में , मैदानों में ...

थकता , हांफता , शांत होता ,
और फिर दौड़ता ,
उनके पीछे ..

जब एक दिन ऊब गया ,
तो पाया ,
वो सब परिंदे खयाली थे ..

उसके खुदके खयाल ,
रंग बिरंगे ,
उड़ते भागते ,
मुक्त आकाश में ,
और अब वो दौड़ नहीं पाया ,
उनके पीछे ...

अब ,
ना कहीं वो परिंदे थे ,
ना ही कोई मैदान !!

< अ-से >

Feb 8, 2014

विश्वसाघात :1


ये तेरी छाँव सी जुल्फें ,
जिसमें से छन कर आती है रौशनी ,
Photo: ये तेरी छाँव सी जुल्फें ,
जिसमें से छन कर आती है रौशनी  ,
ये तेरा चाँद सा उफ्फाक चेहरा , 
अँधेरे को मद्धम चाँदनी बख्शता  ,
रस-ओ-गुल से भरे तेरे लब ,
हूँ उतरता डूबता तेरी मौज-ए-इश्क में ,
की इन बाहों में समेट लूं तुझको ...

" मुझे ख़ुशी है की तुम्हे मुझसे इतना इश्क है  , 
अब जब तुम पिता बनने वाले हो इसके ,
तो फक्र है कि मैंने तुमसे मुहब्बत की "

क्या ? कब ? किसका ? ओह ... 

" कहाँ जा रहे हो ? "

अब बचा क्या है यहाँ , ना हूर , ना नूर , 
मुझे इश्क था एक नाजनी से ,
एक जवाँ शोखी से ...
मैं नहीं देख सकता तुझे एक माँ ,
और नहीं झेल सकता किसी को ,
मा मा मा करके रोते हुए !!

< अदना >
ये तेरा चाँद सा उफ्फाक चेहरा ,
अँधेरे को मद्धम चाँदनी बख्शता ,
रस-ओ-गुल से भरे तेरे लब ,
हूँ उतरता डूबता तेरी मौज-ए-इश्क में ,
की इन बाहों में समेट लूं तुझको ...

" मुझे ख़ुशी है की तुम्हे मुझसे इतना इश्क है ,
अब जब तुम पिता बनने वाले हो इसके ,
तो फक्र है कि मैंने तुमसे मुहब्बत की "

क्या ? कब ? किसका ? ओह ...

" कहाँ जा रहे हो ? "

अब बचा क्या है यहाँ , ना हूर , ना नूर ,
मुझे इश्क था एक नाजनी से ,
एक जवाँ शोखी से ...
मैं नहीं देख सकता तुझे एक माँ ,
और नहीं झेल सकता किसी को ,
मा मा मा करके रोते हुए !!

< अ-से >

कौन मरा है भला आज तक

दृश्यों की अनंत धाराओं में से एक का हिस्सा हुआ मैं,
जोड़ता हूँ उसी दृश्य के अन्य हिस्सों को ,
और बुनता हूँ एक कहानी ॥

उस कहानी के अनेकों पात्रों में कुछ उस धारा से पृथक हो ,
जुड़ जातें हैं किसी अन्य दृश्य धारा से ,
कहानी के कुछ पात्र डूब जातें हैं शोक में ॥

इस धरा के सभी तथाकथित निवासी कभी छूते नहीं ज़मीन ,
वो आकाश से अलग होकर बसते हैं ,
खुद ही की माया में ॥

पलक झपकते ही बदल जाती है दृश्य धारा ,
पलक दरियाव के हर बहाव से बचता बचाता ,
जी रहा हूँ मैं खुदको ॥

आँखों से नज़र आती मन से बुनी हुयी ,
बनते बिगड़ते दृश्यों की अस्तित्वहीन सत्ता से पृथक ,
दृश्यों की अनंत असीम धाराओं के तबादले में बचा रहता हूँ मैं ॥

कोई किसी दृश्य धारा में बहे, किसी से पृथक हो , किसी से जुड़े ,
पर क्योंकि वो स्वयं में स्थित है , वो चिर स्थिर है ,
कौन मरा है भला आज तक ॥

< अ-से >

वादा

जब वो वादा किया गया था ...
किसे पता था कहीं एक गाँठ उपजेगी आकाश में
जो तब भी वहीँ होगी जबकि पूरा ना किया जा सकेगा
वो वादा जो बंध जाता है एक गाँठ सा अस्तित्व के धागों में !
फिर चलती हुयी आंधियों ने चिपका दी उस पर मिट्टी ,
मौसम की नमी ने उसे कई बार भिगोया ,
बहुत से फफूंद अब शरीर हो चुके थे उसका ,
कई बार की धूप में सूख कर फिर वो सख्त होने लगी !
फिर उस गाँठ ने स्वीकार किया वहीँ बसना ,
बीच बीच में किये जाते रहे और भी वादों के साथ ,
कुछ वादे विरोधी निकले कुछ परस्पर प्रेमी ,
वहां बन निकली एक बस्ती उनके नाम की ,
लड़ना झगड़ना रोना धोना खिंचाव तनाव
बस कर हो गया पूरा शहर
नदी नाले सड़क बाज़ार घंटाघर चौक दीवार ,
सब कुछ बातों का ही बना हुआ !
अब वो गाँठ पक चुकी थी ,
लहसुन की सी सड़ांध आती थी उससे ,
बातें रिसने लगी वो जो नहीं बताई जानी थी
और वो जो बताई जानी थी खामोशी से ,
भीड़ जमा होने लगी तमाशे को ,
और फिर उस हिस्से में लगने लगा जाम ,
हवा का भी आवागमन बंद होने लगा ,
कोई आवाज़ भी बमुश्किल पहुँचती थी वहाँ ,
साँस लेना लगातार मुश्किल हो रहा है ,
और समझ नहीं आता था कुछ भी ॥
ठूंठ बनने से पहले ,
याद आती थी कभी कभी उन वादों की ,
पर कैसे खुले वो गाँठे समझ नहीं आता था ,
खुली हवा का स्वाद लेने की तड़प तो कई दफा उठती थी ,
पर धीरे धीरे उन साँसों ने दम छोड़ दिया !!
अ से

Feb 6, 2014

गुलाब ( happy rose day )



शीत-विदा की नर्म-सर्द-गुलाबी रुत-रंगत से लिपटे ,
मंद-स्वच्छंद बहती पवन के स्पर्श लिए खिलते ,
प्रेम-अनुभूति के मौसमी-मिजाज़ में सिमटे ,
चैती !!

रंगीन पंखुड़ि ' पाटल ' ,
सदैव तरूण ' तरूणी' ,
शत पत्र लिए ‘ शतपत्री ’ ,
कानों की आकृति बनाये ‘ कार्णिका ’ ,
सुन्दर केशर युक्त ‘ चारुकेशर ’,
लालिमा रंग लिए ‘लाक्षा’,
और गन्ध पूर्ण ' गन्धाढ्य '
गंध और रस के गुणों से गुणित-पूरित ,
कुण्डलिय वलय को वेदते ,
तितलियों भंवरों को मदमदाती महक केसर पर निमन्त्रते ,
मदन-मद !!

फारसी में गुलाब ,
अंगरेज़ी में रोज,
बंगला में गोलाप,
तामिल में इराशा,
तेलुगु में गुलाबि ,
अरबी में ‘वर्दे’ अहमर ,
रूप , लावण्य और सौन्दर्य की अद्भुत अभिव्यक्ति ,
देव पुष्प !!

< अ-से >

Feb 5, 2014

Song -1

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

अपने ही जहाँ में हूँ बसा ,
अपने ही ख़याल में डूबता ,
आँखों में आसमान हो ,
मन को वो फिर आफताब दे ,
मुझको भी कोई ख्वाब हो ,
वो अश्क बेहिसाब दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

बेखबर सा हूँ एक अरसे से ,
अपनी ही खबर की तलाश है
बेसबब है ये दिल यहाँ ,
इश्क सी कोई शराब से ...
मुझको आकर जताए फिर ,
मुझको भी कोई प्यास है ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

< अनुज >

कवि और चितेरा

उसने कूँची चलाई ,
खिल मिल उठे सब रंग ,
साकार हुए रस रूप ,

उसने कलम उठाई ,
घुल मिल ने लगे सब शब्द ,
बहने लगे राग भाव ,

किसी ने संज्ञा उसे कवि ,
अहम् कवि सा हो गया ,
संसार कोई गुंजायमान कविता ,

किसी ने संज्ञा चितेरा
अहम् चितेरा हो गया ,
संसार एक बहता हुआ चित्र ,

अब आत्म कवि का ,
रति है ,
सुरसति है ,
सुनता है जहान ,
गढ़ता है जमीन ,
और रचता है वाक्य ,
जहन में ,
आकाश भर के !!

और अब चितेरा ,
रमा है ,
उमा है ,
देखता है दृश्य ,
रंगता है जमीन ,
ह्रदय में ,
प्रकाश भर के !!

< अ-से >

स्त्री

मुझे तुम्हारी खूबसूरती आकर्षित नहीं करती , ये कहना झूठ होगा ,
पर मुझे अधिक आकर्षित करती है, तुम्हारी सुन्दर दिखने की चाहत ॥

तुम्हारे करीने सलीके मुझे मजबूर करते हैं तुम्हे पसंद करने को ,
बिना किसी जोर आजमाइश के मन मुताबिक घुमाव देना हर चीज को ,
स्पर्श की अद्भुत कला लिए हैं तुम्हारे हाथ ॥

इसे स्वार्थ समझा जा सकता है , पर ये किसी भी इश्वर के स्तर का आत्मनियंत्रण है ,
जब तुम शालीनता से मुस्कुराती या शरारत से खिलखिलाती हो ,
तब जबकि सब और दुःख ही बिखरा हुआ है ॥

पूरे परिदृश्य को एक सार में समझ पाने के लिए विरक्त होना ही होता है ,
पर दृश्य का हिस्सा बन के जीना इससे कहीं मुश्किल है ,
ये अभिनय का वो स्तर है , जहाँ सत्य कल्पना को गले लग कर सुबकता है ,
मुझे पसंद है तुम्हारी अनुरक्ति ,
तुम्हे दृश्य से अलग कर पाने की तमाम कोशिशें नाकाम है ,
तुम्ह विरक्तियों को भी दृश्य में घोल सकती हो ॥

फिर भी मैं तुम्हे अनुरक्त पुरुष नहीं कहलाना चाहता ,
न ही किसी बारिश की तरह सृष्टि को देखता हूँ अब और ,
मैं एक नर का विरक्त स्त्री कहलाना पसंद करूंगा ,
और किसी वृक्ष की तरह उपजती सृष्टि नीचे से ऊपर की ओर ॥

मैं तुम्हे किसी महकते गुलाब की तरह नहीं सूंघ सकता ,
न ही तुम्हे किसी रेशमी शॉल की तरह ओढ़ना चाहता हूँ ,
तुमसे मेरा प्रेम तुम्हारे आत्म सम्मान से जुड़ा है ,
मुझे पसंद है तुम्हारा वो रूप जिसमें श्री और मेधा झलकती हो ,
जिसमें रंग की उजास से ज्यादा व्यक्तित्व की चमक नज़र आती हो ॥

अगली दफा जब मैं अध्यात्म लिखूंगा ,
मैं लिखूंगा पुरुष को स्त्री का अंश ,
जैसे लगते हैं किसी पेड़ में फल ,
जैसे एक पौधे में खिलते हैं कमल ,
बस , वैसे ही ॥

< अ-से >

पठन


लिखी पढ़ी हर किताब का अर्थ बस मैं ही था !!

मैं शब्दों में खुद ही को सुनता रहा ,
वो अर्थों में मुझको ही कहते रहे !!

मैं प्राण की तरह बहता दृश्यों में
और भावनाओं में रंग कर लौट आता !!

एक लेखनी खाली कागज़ पर बिखरा देती संसार ,
और मनो पंछी चुन लेता अपने आत्म का चित्र !!

एक विचित्र सत्य लोक की यात्रा के बाद ,
फिर लौट आता इस स्वप्न संसार में !!

< अज्ञ >


नृत्य करता संसार

घूमता पंखा ,
चौराहे के चारों और दौड़ते वाहन ,
विधुत प्रवाह ,
धधकते कोयलों से दौड़ते इंजन ,
प्रकृति की शक्तियां भी कितनी रोचक हैं ...

सूर्य पृथ्वी चाँद ,
विशालकाय पिंड ,
अति भार ,
आसानी से घूम रहे हैं ,
अनुशासित ,
नियत ,
अनवरत ...

सूर्य का अद्भुत प्रकाश ,
अग्नि ,
वायु का प्रचंड तेज ,
जल ,
गति मान दृश्य ,
सतत परिवर्तन ,
भीषण और मृदु ...

ई और इ
अक्ष के दो घुमाव ,
वामावर्त और दक्षिणावर्त ,
एक में प्राणों का प्रवाह अधो ,
दूसरे में ऊर्ध्व ...


आत्म आधार ,
आधार का भी आधार ,
अविचल ....


विस्तार ,
सम्पूर्ण ,
असीम ...


आनंद ,
सम्पूर्ण आत्म में आकाश में फैला हुआ ...

अक्षर
मूल इकाई ,
स्थिर ,
ठोस ,
सनातन ,
कितना शक्त संसार ...

मात्र
चेतना की सन्निधि ,
और नृत्य करता संसार !!

< अ-से >