Apr 2, 2014

The Thinker



उसी समय अपने घर के सभी दरवाजे बंद कर वहाँ दीवार लगा देता ,
जब ये आसान सा जान पड़ता सफ़र अगर ये बता देता की वो यूँ ही ख़त्म नहीं होता !!

तब तक कोई जल्दी नहीं थी मुझे , 
ना ही रूप परिवेश में कोई दिलचस्पी , 
तो आइना देखे बिना ही निकल पड़ा ,
अब लगता है काश वो ही देखा होता ...

दरवाजे के बाहर से गलियारे और मोहल्ले के छोर तक ,
हर दुआ सलाम करने वाले को मैंने प्यार से देखा ,
सफ़र बताया , रास्ता सलाहा , सर फिराया और फिर चल पड़ा ,
वो मुस्कुराए तो थे पर कुछ बता न पाए ,
शायद उन्हें अंदाजा भी न रहा होगा ,
जैसे मुझे ना था ,

सफ़र वास्तव में उतना मुश्किल नहीं था ,
जिनका उद्देश्य नितांत निश्चित था ,
उन्हें जल्द ही काम निपटा लौटते देखने की ,
और जो खासे बेईमान रहे थे अपने दिलों से
उनके भी अच्छी खासी दुनियादारी कमा
आधे रास्ते से ही लौट आने की कहानियाँ सुन चुका था मैं ,
मेरा कोई उद्देश्य भी था या नहीं
मुझे ध्यान नहीं आता ,
कुछ पाने की कभी कोई इच्छा भी नहीं रही ॥

तो मैं खालीपन के चौराहे पर ,
बिखरी हुयी बातों की सड़क को निहारता ,
उडती हुयी अफवाहों की गर्मी में ,
किसी भी आश्चर्य से अनजान खड़ा था ,
और तभी एक बेचैनी की तरह कोई बस आई ,
मेरी सोच का सफ़र शुरू हुआ ....

बस में मेरे अतीत के कई अलग अलग स्वभावों
और शक्ल की तरह के लोग थे ,
जो तरह तरह की धुन ओढ़े पहने ,
अपनी अपनी ढफलीयों पर गाते बजाते
और अपने ही गीत गुनगुनाते नज़र आते थे ,
कभी कभी कुछ दो चार की ताल बैठने लगती थी
पर ज्यादा देर तक नहीं ,
और अन्यथा ताल मिलाने का सबब ही न था ,
हाँ कुछ ताल ठोकते जरूर नजर आते थे ,

सब कुछ बातों का ही बना था ,
सब कुछ विचारों सा तैर रहा था ,
और उसमें एक समझ सा मैं रमने लगा ,
यही वो क्षण था जब मेरे खयाल में मेरा जन्म हुआ ,
शायद अभी तक तो मैं मेरे शांत घर की कोख में ही पल रहा था ,

" बस " अतीत के रास्ते पर बेतहाशा दौड़ने लगी
और बाहर के दृश्य धुंधलाने लगे ,
कुछ खासी यादें ही नज़र आती थी ,
और मैं रमने लगा ,
अब मुझे सहयात्रियों की चर्चाएं कुछ कुछ सुनाइ देने लगी ,
धर्म राजनीति खेल कूद और प्रेम
और न जाने किन किन विषयों के नदियाँ बह रही थी ,

मैं मन सा उनमें गोते खाने लगा ,
विषय विचार के बदलते ही भाव बदल से जाते थे ,
लोगों ने दल से बना लिए थे
और पक्ष विपक्ष की बातें होती थी ,
मुझे उनके हर पक्ष से इतर ,
कुछ न कुछ तो आसमान नज़र आता था ,
और मैं भी अपने बयान देने लगा ,
मेरे बयां किसी पक्ष में नहीं गए ,
वो जस की तस ,
कुछ नीरस और कुछ बहस रोकने की गुजारिश थी ,
तो कुछ अपनी ही दर्शन अभिव्यक्ति ,
और वो ऐसे में अपना हुल्लड़ छोड़ देने को कतई तैयार नहीं थे
मुझे या तो दोनों ही पक्ष सही और समान लगते थे
या फिर दोनों ही बेमायनी ,
पर उनके राग न मिलते ,
हाँ द्वेष कुछ एक सरीखे थे ,
तीसरे पक्ष की आलोचना पर वो एकमत से नज़र आते थे ,
मेरी कुछ बातों से वो प्रभावित होते तो थे ,
पर अपना पक्ष और ना जाने क्या खो देने के डर से पकडे रहते थे ,
वो अपनी अपनी मौज मस्तियों में डूबे हुए ,
बेतहाशा गाते हँसते और खुश रहते ,
कुछ स्वभाव मेरी ही तरह शांत थे ,
मेरे वक्तव्यों के समर्थन भी करते ,
पर उन्होंने किसी बेनतीजा बहस की उतपत्ति ,
और उसे बनाये रखने का कारण नहीं बनना चाहा ,
फिर भी जाने क्यों वो मुझे भाये ,
और कुछ एक ही सी बातों की मिठास भी फैली ,
मेरी ही बात को वो अपने ही अंदाज़ में किसी और तरह कहते ,
और उनकी ही किसी बात को मैं ,
सच कहूँ तो मुझे वो दो चार मानस ही सम समर्थ नजर आए ,
अन्य शोक और आशा के भंवर में फंसे हुए ॥

" और वो ही लोग आपको सच्चे लगते हैं जो आपके ही पक्ष में बोलें ,
फिर चाहे आप किसी पक्ष में हों किसी विपक्ष में या उदासीन "

" हर कोई अपनी ही मान्यताओं के प्रमाण तलाशता है ,
और जो कुछ सुनना चाहता है वही सुनता है ,
इसी से उसके अहम् को संतुष्टी मिलती है ,

" उदासीनता के पक्षी केंद्र की ओर उड़ान भरना पसंद करते हैं ,
इसके विपरीत सुख जैसे भावों की चाह रखने वाले ,
बाहर आकाश में पंख मारते भटकते फिरते हैं "

हर वृत्त के अन्दर वृत्त और उसके बाहर वृत्त की एक स्थिति है ,
और अब तक मुझे पता लग चुका है ,
की सोच और बहस के सफर में इन वृत्तों से बाहर नहीं निकला जा सकता ,
इन वृत्तों की खासियत ये है की ,
वक्रता त्रिज्या बढने के साथ ही ये उथले ,
और घटने पर गहरे व्याप्त और सूक्ष्म हो जाते हैं ,
पर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता ॥

समय गुजरने लगा , रात अन्धियाने लगी ,
अपने अपने टिफ़िन खा चुकने पर कुछ स्वभावतः सो गए ,
कुछ सफ़र में छूट गए और कुछ अँधेरे में डूब गए ,
कुछ इतने गहरे चले गए की फिर नज़र न आये ,

और उस वक़्त पहली बार ,
मैं कोई भीड़ नहीं था ,
तब आप मुझे अकेला कह सकते हो ,
इतनी बातों , किस्सों , कहानियों ,
लोकोक्ति , मुहवारों , सीख , समझों की श्रुतियों के साथ ,
उस सफ़र पर मेरा वास्तविक सफ़र शुरू हुआ ,
और पहले दफा की ख़ामोशी में मुझे नींद आ गयी ,
बस के नाईट लैंप का रैंडम टाइमर सक्रीय हुआ ,
स्वप्नमय संसार में कोई रौशनी मुझे फिर से उसी सफ़र पर ले चली ,
मैं निर्णय , निश्चय , तत्व , मंजिल ,
उद्देश्य के रास्तों पर बेवजह भटकने लगा ,
रात गुज़र गयी ,
सुबह मैं फिर से उसी बस में था ,
थोडा और बेबस ॥

सोच के सफ़र में यात्रा करना और लौट आना दो अलग अलग चीजें है ,
इसके चलते इसके यात्री एक समय बाद रूप और भाव भी बदल लेते हैं ,
वोंग कार वाई की यादों की ट्रेन की तरह ये बस भी बस चलती रहती है ,
नो एस्केप का हॉर्न बजाते हुए ॥

कभी कभी इनसे बाहर झाँकने का सौभाग्य और अनुभव तो मिलता है , पर सब क्षणिक ,
मैंने कई किस्से कहानियाँ सुने हैं , जो केंद्र की तरफ एक दरवाजा बताते हैं ,
जिसकी तरफ अधिकतर उदासीन पक्षी जाते हैं , पर वो अदृश्य निर्जीव बिंदु है ,

और दूसरी तरफ मोह की बढती वक्रता , पागलपन का रूप लेने लगती है ,
ममत्व के किनोरों पर , अहम् की ऊँचाइयों से बने ये वृत्त ,
एक सर्पिलाकार सीढ़ीनुमा जाल बना लेते हैं ,
और इस सबके बीच में कहीं खो गया हूँ मैं .... //

अ-से

दृश्य अनल

दृश्य अग्नि की आंच में 
जलते फूल होते महक 
मद्धम मद्धम
जलता जल शीतलता
मुक्तक शुद्धक पावक 
अनल करती व्याख्या 

फूल रहते हँसते गाते
भंवरे दूर से बतियाते 
तितलियाँ बैठ रंगती पंख
मधु मख चुरा ले जाती बातें
गोष्ठियों में संचता काव्यरस

अपने ही गीतों को
सुनने दौड़ता आसमान
अपनी ही छुअन से
जलने लगती हवा
खुद ही को देखकर
बहने लगती आग
खुद ही को रसकर
महक उठता जल

ह्रदय में संचारता
उड़ता प्रेम पराग
मन को तरंगता
सरगमी संसार
आकाश में गूंजता
धनकीला प्रकाश

अ-से

परफेक्ट दुनिया

दुनिया ,
अर्थ से पटी , ,
न्याय से भरी , ,

जहाँ नहीं किया जाता कुछ भी ,
जहाँ नहीं हो सकता कुछ भी ,
जहाँ नहीं होता कुछ भी ,
जो संभव ना हो ,
जो संभव ना हो किया जाना , 

परिणाम हीन ,
अपमान हीन ,
मान हीन ,

अच्छा बुरा पाप पुन्य
फहम वहम ,

सुख दुःख ख़ुशी गम ,
कल्पनाएँ ,
कल्पनाएँ कल्पनाएं ,

कल्पित दुःख दर्द ,
सच्ची शांति ,

जादूगरी ,
जादू से उभरी ,
जादू से भरी ,

हर बात का कारण ,
कारण का भी कारण ,
अकारण ,

ये दुनिया ,
एक परफेक्ट दुनिया !!

अ-से

तुम्हारे जाने पर

तुम्हारे जाने पर , 
विकल्प नहीं था सिवाय जीने के 
कभी तलाशा ही नहीं था कुछ और !

तुम चली गयी , 
हँसते रहना कहकर , 
आज तक आती है हंसी इस बेकार बात पर !

" तुम भूल जाओगे मुझे एक दिन " 
तुम्हारा ये कहना तो समझ आया था , 
पर इस बात के साथ याद रहती हो तुम अब तक !

तुम्हारा जाना भी ,
किसी गीत को सुनने सरीखा था ,
जो ख़त्म होने पर भी बाकी रह जाता है हमेशा !!

अ-से 

और सबसे बड़ा झूठ है दिल का धड़कना

और सबसे बड़ा झूठ है दिल का धड़कना 

मृत संसार 
बेहोश हवाएं
मृत ऊर्जा की बेसुध धारा से 
दौड़ाई जाती टनों वजनी धड़धड़ाती ट्रेनें 
लुढ़कती हुयी यहाँ वहाँ इंसानी संज्ञाएँ 
नाहक विचारों की तरंगें सोखती बुद्धि वृक्ष की जडें 

सारे ज्ञान विज्ञान सब सच ही हैं सिवाय गणित के 
सबसे बुरा हासिल है जीवन और

अ-से

फिजिक्स जब तुम्हारा कांसेप्ट तोड़ दे

फिजिक्स जब तुम्हारा कांसेप्ट तोड़ दे ,
केमेस्ट्री भी जब क्वार्क पर छोड़ दे ,
तब तुम वैशेषिक पर आना प्रिये
ये लोहा लोहा है लोहा ही रहेगा 
सदा के लिए

कोई रुल होते नहीं 'होने' के
मगर 'होना' शर्तों पे तुमने रखा
मैटर में अणु जो ढूंढे कभी
बनाने लगा 'पार्टिकल गॉड ' नया
हाइजेनबर्ग तुम्हें जब डराने लगे
हाईड्राजन आवर्तता में न आने लगे
तब तुम वैशेषिक पर आना प्रिये
ये लोहा लोहा है लोहा ही रहेगा
सदा के लिए

अभी तुमको इसकी जरूरत नहीं
बहुत राज़ तुमसे भी खुल जाएंगे
बहुत अंदर तक जो जाना पड़ा
पैराडॉक्स कई सारे मिल जाएंगे
दर्पण तुम्हें जब नकारा किये
शैलेन्द्र से भी जब तुम हारा किये
तब तुम ...

(Parody by Darpan)

मौलिकता

चुराई जा चुकी हैं मेरी कृतियाँ , 
मेरे लिखने से पहले ही ,
उनके द्वारा जो आ टपके थे दुनिया में ,
मेरे इस जन्म से भी पहले ,

कुछ भी लिखने लगता हूँ , 
फलाना नाम बता देते हैं दर्पण ,
और बची हुयी प्रेम कविताओं का तो ,
कॉपीराइट भी ले चुके हैं वो , 

गिने चुने तत्व हैं सृष्टि के ,
और सिर्फ उतने ही शब्द संभव हैं ,
जितने वो मूल अक्षर भाव ,
पर ये भी शैलेन्द्र पहले ही कह चुके हैं ,
वो फेसबुक पर पहले आ गए थे ,
कोट्स और उद्धृत वाक्य भी नहीं छोड़े उन्होंने ,

अजीब रेस है जिसमें ,
मैं हमेशा पिछड़ जाता हूँ ,
सारी सृष्टि होती है सामने ,
पर हर वस्तु पर किसी का नाम लिखा है ,

किसी ने कहा नाम में क्या रखा है ,
इसके आगे भी उन्ही का नाम लिख दिया गया ,
यहाँ तक की मेरे नाम के आगे भी किसी का नाम है ,
आखिरी लाइन के लिए भी कुछ मौलिक नहीं बचा है !!

अ-से  

अलविदा

अलविदा के लिए शब्द तलाशते , 
खामोश मन के गहरे संवेदन ,
और धुंधलाते परिदृश्य के बीच , 
वो मासूम चेहरा ,

चेहरा , जो उस वक़्त , 
अधिक मायने रखता था ,
किसी भी और बात से ,
जो समेटे था अपने में ,
मेरा पूरा संसार , 
और जिस पर चमकती थी ,
दो बड़ी बड़ी आँखें ,

आँखे , जो स्थिर थी मुझ पर ,
शब्दहीन , खामोश , अनजान सी ,
जो जानती नहीं थी ,
आने वाला पल ,
डबडबाने लगी ,
बिना हॉर्न दिए चलने लगी ट्रेन के साथ ,

ट्रेन , जो दूर जा चुकी थी ,
कुछ ही पल में ,
जबकि अभी वो पल ,
उतरा भी नहीं था , जहन में ठीक से
आँखों में थी बस अब ,
खाली पटरियां ,
और भर आये आंसू ,

आंसु , जिनको थामने का प्रयास ,
देने लगा गति ,
क़दमों को अनायास ,
परिदृश्य को चीरता ,
दौड़ने लगा मन ,

मन , जो अब ,
चाहता नहीं था रुकना कहीं ,
दौड़ता रहा , तब तक ,
जब तक अधखुला था ,
दुःख का संसार ,

दुःख , जो एक बीज सा ,
चला जा रहा था उड़ता हुआ ,
उस जमीन की तलाश में ,
जहाँ हो सके वो नम ,
और पाते ही वो जमीन ,
समा गया अँधेरे में ,

अँधेरा , जहाँ कुछ और नहीं था ,
सिवाय खामोश टपकते आंसुओं के ,
उस ट्रेन के साथ दौड़ती यादों के ,
और खाली पटरी सरी चाहत के ,

चाहत , आखिरी दो शब्द की ,
जो फंस गए थे कहीं ,
उस आखिरी पल
और पटरियों पर फिसलते वक़्त के बीच ,
शब्द जो दब गए ,
जो पकड़ नहीं पाए ,
उस ट्रेन की साजिश और गति को ,

शब्द , जो आज तक तलाशते हैं ,
अपना मुकाम ,
वो दिल ,
जहाँ बोये जाने थे वो ,
अलविदा के लिए , रखे हुए ,
प्रेम बीज !!

अ-से

लिखने के लिए

लिखने के लिए ,
जीना पड़ता है शब्दों को ,

बंद कमरे में अकेले बैठा इंसान ,
फिर क्या लिखे कुछ ,
जबकि नहीं मुस्कुराती दीवारें उसकी बातों से ,
ना ही बेहोश घुमते पंखे ,
और बेवजह बहती हवा को कोई सुध है ,
की कौन है वहां ,

अनुमान के आधार पर ,
अतीत की गहराइयों में से ,
निकाल कर रखे जा सकते हैं कुछ रंगीन पत्थर ,
पर उनकी चमक अब जा चुकी है ,

जो लिखी जा सकती थी ,
20 की उम्र में ,
वो प्रेम कहानियाँ ,
अब अगर लिखी जाए ,
तो नादानी , अवसाद और शतरंज का किस्सा हो जाएगा ,

शब्द सांस लेते होने चाहिए ,
प्रणव नाद हो जिनमें ,
और मायने जिनके खामोशी हों ,
जो सर का भारीपन ना हो ,
बल्कि राहत का सन्देश बने ,

लिखने के लिए ,
होना चाहिए था मुझे किसी कहानी का हिस्सा ,
जो की शायद मैं नहीं हूँ ,
या अगर हूँ भी ,
तो बंद कमरे में सोते हुए ,
एक इंसान की कहानी ,
जिसमें शायद ही कोई दिलचस्पी लेना चाहे ,
सिवाय इस बात के ,
की बंद कमरों में झाँकने का भी अपना एक मजा है !! 

अ-से

Mar 18, 2014

प्रेम ही जड़त्व है ...


प्रेम ही जड़त्व है , 

भारीपन से भर जाते हैं लोग ,

प्रेम ही अन्धकार है ,
पार देखते ही डर जाते हैं लोग ,

प्रेम अवसाद है ,
बुझे बुझे मर जाते हैं लोग ,

प्रेम अंधा बहरा गूंगा , उ म म का दलदल ,
डूबते उबरते खिर जाते हैं लोग !!

अ-से

उत्सव

चुकने को हैं प्राण मेरे ,
वीरान खाली मैंदान में ,
जमा हो चुके हैं ,
अनेकों गिद्ध , कौव्वे , चीलें ,
कुत्ते , गीदढ़ , सियार ,
चूहे और चीटियों को भी आने लगी है गंध ,
अजीब सा संगीत , रूदन क्रंदन चकचकाहट ,
अजीब सी बैचैनी के साथ खुश हैं सभी
कोई उत्सव सा नज़र आता है दुनिया में ...

जैसे कोई विवाह ,
जिसको भुनाने आ जाता है पूरा समाज ,
नाचते उछलते भूतों की टोलियाँ ,
व्यापार और जग मथाई का उत्सव ...

जैसे कोई बीमार ,
जिसको भुनाने लगता है ,
छद्म चिकित्सा संसार ,
नीम हकीम सफ़ेद कोट और आला ,
सभी मिल बाँट खाने को तैयार ,
जान और जहान ...

पर जीने के लिए ,
सब जायज है शायद ,
की उत्सव है संसार ,
और सारी विभीषिकाओं के बावजूद ,
बहते हैं प्राण ,
होता है अनवरत नृत्य ,
दुःख और सुख का ...

शोक हो या ख़ुशी ,
जन्म हो मृत्यु हो या विवाह कोई ,
आखिर सभी माहौल के लिए ,
तैयार हैं गीत ,
और धुनें भी ...

अ-से 

आत्मनिर्भरता

खुद ही तारीफ लेता हूँ खुद को ,
और तौल लेता हूँ दीवारों से अपनी मजबूती ,

आईने में नाप लेता हूँ अपनी सुन्दरता ,
किसी से नहीं पूछता कैसा लग रहा हूँ मैं ,

अब नहीं झांकता अपने मन में ,
मुझे पता है खुश ही रहना है मुझे हर हाल ,

और नहीं बताता सच , क्या जी चुका हूँ मैं ,
मुझे पता है अपनी कहानी का एकमात्र पाठक हूँ मैं !!

अ-से 

बच्चे देख पाते हैं ...

बच्चे देख पाते हैं ... 

बदलाव 
भरते घाव 
टिकते कदम 
बढ़ते कद 
और 
कर लेते हैं भरोसा 
अपनी अनुभूतियों पर 

बच्चे देख पाते हैं ....

चहकती खुशियाँ
टपकते आंसू
खनकते शब्द
उजले दृश्य
और
सहेज लेते हैं भाव
अपने ह्रदय में ...

अज्ञ

कदम



कुछ सूखे पत्ते ,

बिखरी सी धूल ,
सूखी दूब ,
खाली मैदान ,
सर पर सूरज ,
चमकती धूप ,
और आवारा से दो कदम ...

कोई चल रहा है ,
यूँ ही ,
तय दिशा नहीं ,
कुछ कंकडों को पैर मारता ,
बेपरवाह , बे सबब , बेखयाल सा ...

जीवन नाम है चलते रहने का ,
वो कहते हैं ,
पर कोई दिशा नहीं बता पाते ,
ठीक से , किस ओर ...

अक्सर वो दिखाते हैं ,
मंजिलें उसे ,
अनुमान से ,
वो पहुंचे नहीं कभी ,
या शायद ,
पहुँच कर भी ,
वहां ठहर नहीं पाए ,
पर चाहते है ,
कुछ कहना जताना चाहते हैं ,
पर क्या चाहते हैं ,
उन्हें पता नहीं ...

बस चाहते हैं कुछ ,
पर क्या कुछ ,
शायद सब कुछ ,
या कुछ भी नहीं ...


अ-से 

ध्रुव


जमीन पर टिकते नहीं पाँव उनके ,

वो आसमां निहारा करते हैं ,
चाँद को देख मन ही मन ,
आँखों में ,
एक तारा संवारा करते हैं ...

डरना किसी के प्यार से ,
आखिर ये कौनसा मर्ज है ,
डरना था जबकि चाह से जिसकी ,
उसको गंवारा करते हैं ...

चाह , चिपक , लगाव , खींच ,
ये होने थे डर के सबब ,
मिला कर वो दिल और दुनिया ,
प्रेम को खारिज करते हैं ...

देख पाए जो कोई दूर तलक ,
एक झिलमिलाता तारा है ,
ना आता है पास ना जाता है दूर कभी ,
प्रेम है बस वो ही एक ,
जिसे ध्रुव पुकारा करते हैं ...

अ-से

Mar 11, 2014

पात्रता

अंधा अगर आइना , 
दंतहीन अगर ईख ,
बेसुरा जो बांसुरी ,
संदेही अगर सीख ,
पा भी जाए तो क्या ...

पात्र हो तो धन मिले पात्र हो तो धुन , 
पात्र को तो ज्ञान हो , पात्र हो तो गुण ,

योग कर्म कौशल्य है , पात्र है अगुन !!

~ अ-से

माँ

" तुम्हे हर ओर से जलना होगा , भीतर तक पिघलना होगा "
परम शांतिमय स्वव्याप्त अ-कार में ,
हुआ एक शब्द ,
हुआ एक बोध ,

प्रकट हुए सूर तब जलने लगे सब ओर , 
चमकने लगे सूर्य हुयी आभा हर ओर ,
और फैलने लगा प्रचंड आ- नाद चारों छोर ,

अकार ... आकार लेने लगा ... उजस उठी सृष्टि ,

प्रकट पृथ्वी हुयी तभी , सुनी उसने उद्घोषणा ,
माँ का दिल जल उठा , कुपित हुयी तब पूषणा ,

कृ-कार (धरा) ने कहा हे देव सूर्य ,
ये मुझे मंजूर नहीं ,
आप हो एक परम बोध ,
बच्चे मेरे इतने ऊर्ज नहीं ,
आप परम तेज पुंज ,
नादान मेरे मनवान बच्चे ,
कैसे सहेंगे आपको ,
उन्हें भी कुछ वक़्त बख्शें ,
आपको थोडा ढलना होगा ,
गुजारिश है ये आपसे ,

सूर्य ने कहा धरा से ममता ,
खयाल उनका तुम्हे ही रखना होगा ,
अगर उन्हें बचाना है तो ,
तुम्हे भी खुद ही जलना होगा ,

पर ये कह कर वो कुछ शांत हुए ,
नाद कुछ आल्हाद में बदला ,
वो प्रकाश , बोध , प्रशांत हुए ,

सूर्य के इस अकहे कर्म को ,
धरा ने फिर फिर नमन किया ,
और अपने बच्चों को पीठ पर लाद ,
ममता की ओढ़नी से छाँव बंध किया ,

और उसने लिखी प्रकृति की किताबें ,
और गाया प्रकाश कर्म का ,
की उसके बच्चे भी सीखें परम बोध से ,
गुणगान सृष्टि धर्म का , .... !!

उसके ओट में दिन ... रात हुआ ,
उसके आँचल में ... दिल सांच हुआ ,
उसकी गोद में सिमटा हुआ सा प्रेम ,
उसकी बातों से जग ज्ञात हुआ !!

~ अ-से

pic courtsey: गूगल / " Debdutta Nundi "

जड़ जीवन

चले आते हैं मुंह उठाये खयाल बे तरह के ,
किसी तरह सवाल-ओ-जवाबों के सिरे जोड़ता हूँ !!

चलते हैं अंधड़ भावनाओं के तूफ़ान उमड़ते हैं ,
कैसे तैसे करके जाने उनका रुख मोड़ता हूँ !!

कौन है क्या है कैसा है वो जुर्म मेरे सर ,
जो जोड़ा तोडा सब छोड़ मैं ता-दिन दौड़ता हूँ !!

ख्वाबों के पत्थरों पर मार सच्चाई के हथोडे ,
जहांगुजारी में ताउम्र अपना सर फोड़ता हूँ !!

~ अ-से 

कुछ झपकियाँ

आकाश वाणी पर उनका कब्जा था ,
लोगों तक वही सूचनाएं पहुँचती थी जो वो सुनाना चाहते थे ,
हवा में मद और जहर बहता था ,
लोग झूमते हुए चलते थे , आधे होश में साँसे लेते हुए ,
सब महंगा था अनाज जमीन और कपड़े भी ,
पर उनकी चमकदार छवियाँ मुफ्त मिल जाती थी , तिलक-माल के साथ !!

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जहर प्राकृतिक तोहफा है ,
खंजर , गोली और बम कृत्रिम ,
मानव के सबसे अच्छे आविष्कार ,
कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है ,
अब भूख के दिनों में ये अच्छी चीजें हैं खाने को !!

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मैं जहाँ कहीं जाता हूँ लोग व्यस्त नज़र आते हैं , कुछ न कुछ कर ही रहे होते हैं सब , 
पर क्या कर रहे होते हैं , ये कम ही लोगों को देखकर समझ आता है !!

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~ अ-से 

जान जहान

खंगालते हैं सामान सारा ,
निकालते हैं म्यान से आरा ,
काटते हैं जब नब्ज़ अपनी ,
बहा डालते हैं ज्ञान सारा .

हाथ आता कुछ नहीं ,
प्राणों की कोई सुध नहीं ,
ज्ञान में जहान है ,
जहान तो बे जान है .

~ अ-से