Aug 17, 2014

वक्त खामोश है - 2



वक्त खामोश है
पर मन अब भी घूमता रहता है
इसके सँकरे गलियारोँ मेँ ,
तलाशता रहता है
कोई जाना पहचाना चेहरा
कोई सुकूनबख्श जगह ,
जहाँ यह ठहर सके
और भर सके फेफड़ोँ को आश्वस्तता से ।

इस प्रपञ्च को लगातार देखते सुनते
बोझिल हुआ ये मन
अलग कर लेना चाहता है स्वयं को ,
पर कुछ पलोँ की कोशिश भर मेँ
सूखने लगते हैँ प्राण ,
आँखे बंद करते ही उपस्थित हो जाती है प्यास
उसे फिर से देखने की ,
जैसे अगले ही मोड़ पर खड़ा हो
 अतीत ।

जिन खुली आँखो मेँ
पूरा संसार बैचेनी का सबब होता है
उन्ही अधखुली आँखो को
एक चेहरा शाश्वतता का सुकून देता है
और उसको देखने की चाह
अधीरता ।

मन
समय की गलियोँ मेँ भटक रहा है
वो दोराहे
काफी पीछे छूट चुके हैँ
और चाहतेँ
चलन के चौराहोँ पर सिमट चुकी हैँ
प्रेम
अब जग मथाई के कुहासे मेँ ठीक से नज़र नहीँ आता
पर 
आँखे बँद कर लेनाइस सब के बावजूद अब भी आसान नहीँ 
कि मन
फिर फिर दौड़ता है प्यास मेँ उसकी ।

अ से 

वक्त खामोश है -1



वक्त खामोश है
पर लहरोँ का शोर सुनाई देता है
और कभी कभी सुनाई देती है उसकी खामोशी ,
कभी कभी ही तो शांत होती है वो
या अक्सर जब वो उदास होती है ।

शांत रातोँ मेँ मन का पोत इसी तरह हिलोरेँ खाता है , 
जब कुछ गुज़र जाता है तो वो एक लहर बन जाता है
और हर एक लहर के साथ थोड़ा और ठहर जाते हैँ हम ।
 

वो भी रात के खाली आसमान सी
मेरी दुनिया मेँ ठहर चुकी है
और हर एक गुज़रते लफ्ज़ के साथ
और गहराती जाती है
और उस गहराई स

उठती रहती हैँ अनजान यादेँ ,
जिनमेँ से कुछ मैँ भूलता रहता हूँ
और कुछ ठहर चुकी हैँ ,
अगर कुछ और वक्त साथ होता
तो कुछ और लहरेँ उठती ,
कुछ और ठहर जाते वो और मैँ ।

घड़ियाँ घूम रही हैँ
पर अब उनमेँ इंतज़ार का आकर्षण नहीँ
वो किसी बूढ़ी हो चुकी सुन्दरी सी
बिना किसी उम्मीद टहल रही हैँ
और मैँ इन ठहरी हुयी आँखो से कुछ नहीँ देखता
सिवाय किसी चित्राये हुये स्वप्न के
जिसमेँ चलती हैँ कुछ लहरेँ बहती हवा की ।

जैसे जैसे ये रात जवान होती है
ये लहरेँ अपने शबाब पर होती हैँ
और बूढ़ी होती रात के साथ ही
ये भी किसी ख्वाब सी दम तोड़ने लगती हैँ ।
पर फिर से एक सुबह होती है
और फिर से शुरु होता है एक रात का इंतेज़ार ।

अ से 

ऐसी यादों से है खतरा ..



ऐसी यादों से है खतरा जो आकर ठहर जाएँ ,

करे दिल लाख कोशिश भी करके ना उबर पाये ।

उन वादों पर हैं रहते जो कहकर मुकरते हैं ,
भले फिर लाख फरियादें अधूरी ही रह जाये ।

कुछ सवालों के दरम्यां उलझाया गया हैं यूँ ,
जवाब ताउम्र जिनका शख्स तलाशते गुज़र जाए ।

ज़िन्दगी सिर्फ खयालों में आये हैं हम सुनते ,
भले फिर ज़िन्दगी हर पल हमें छूकर गुजर जाए ।

अ से 

कल रात एक चिड़िया ख़ामोश गुजर गयी !


आसान था लिखना चिड़ियाओं का चहचहाना
पर कल रात एक चिड़िया ख़ामोश गुजर गयी !

जबकि मैं शब्दों में इन्द्रधनुष
और खिले हुए रंगों के सपने उकेर रहा था
तब कहीं एक शख्स
पहाड़ी के कोने पर खड़ा
अपने अंतिम पलों में
अपना पूरा अतीत झाँक रहा था !

भाषा की उत्पत्ति
शायद झूठ के लिए ही हुयी थी
तभी तो लिखने की कला ने
कितनों को दृष्टि हीन कर दिया है !

जो कुछ मैंने पढ़ा है
उसने गहराई तक
मुझमें अँधेरा भर दिया है
इतना की
उसकी 
कोई थाह नहीं है ,
मेरा लिखना
मेरे मन के अँधेरे की चमक भर है !
मेरी आवाज़
जो हमेशा ही अनजाने भय से रंगी रहती है
झूठ के भारी पन और कड़वाहट मेँ
जो गले से खुल कर नहीं आती
वो सफ़ेद कागजों पर बुलंद हो जाती है ,
एक बिना आकाश की गूँज ,
जो लिखे हुए
जमे सधे अक्षरों में स्पष्ट नज़र आती है
वो मेरे मन की तरह
कितनी उलझी और अस्पष्ट है
ये वो कागज़ कभी नहीं बता सकते !

मेरा वो लिखावटी प्यार
जिसे मैंने सागर सतहों की वो गहराई दी है
जहाँ तक रोशनी भी नहीं पहुँच पायी
पर जहाँ से मैं मोती चुन लाया हूँ
धरातल पर आते ही
अपने अस्तित्व को बचाने की जुगत में
 स्याह हो जाता है
और जितनी यात्राएँ
मैं कलम की नोक पर कर आया हूँ
चार कदम चलते ही
मेरे घुटनों का दर्द बन जाती हैं !

शब्दों से क्रांतियों की ज्वाला भड़काना
हमेशा ही आसान रहा है
पर कल रात एक आदमी
क्रांतिकारियों की भीड़ में
कुचल कर मर गया

मेरे सच की तरह ही !!

कहाँ बसती हैं कवितायें ..


कहाँ बसती हैं कवितायें 

मानस में उभर आने से पहले 

कैसे शांत रहता है अव्यक्त 
कोई भी गीत गाने से पहले 

कितना संयम धरते हैं बादल 
धरा पर बरस जाने से पहले 

कहाँ रुके होते हैं आंसू 
आँखों से सरक जाने से पहले

प्रकृति शायद जानती है जरुरत समय की
कहाँ दुधाते हैं स्तन स्त्री के माँ होने के पहले

शायद जानती है वो हमारी जीने और मरने की इच्छा
वरना कहाँ होता है जहर साँप में दांत गड़ाने से पहले !!

अ से 

होश बिल्ली है ..



होश बिल्ली है

तेरे सधे हुये अंदाज़ मेँ 
सँकरे गलियारोँ मेँ डग भरती

आवाज़ गौरेया है
तेरे चहकते हुये मिज़ाज़ मेँ 
सुबह ओ शाम उमँगे भरती

जीवन हिरन है
तेरी खिली हुयी आँखो मेँ 
चंचलता का चेहरा लिये
ख्वाबोँ की कुँचाले भरता

प्रेम फाख्ता है
तेरे विश्वास भरे स्पर्श मेँ
एकांत की दुनिया बसाये
सुकून का सँदेश गढ़ता ।

अ से 

पर अब भी ...



मैँ बुझा हुआ हूँ 

पर दिल अब भी किसी दीये सा रौशन है 
कि रात के इस अँधेरे मेँ तेरे खयाल साफ नज़र आते हैँ 
कि अधजगी नीँद के ख्वावोँ मेँ तेरे चेहरे का नूर कम नहीँ होता
कि और कोई रौशनी ना होने पर भी मेरा जहां रौशन है तेरी यादोँ से ।

मैँ नीरस हो चुका हूँ
पर चाहतोँ से अब भी रस चूता है
कि इन खालीपन की बैठकोँ मेँ भी मन भरा हुआ रहता है
कि दिन का चेहरा पसीजता है और रात का आइना भीगा हुआ रहता है
कि अब भी तेरी बातोँ के ककहरे से कविताओँ का दरिया बहता है ।

क्या ये अजीब बात नहीं ..


चलो भूल जाते हैं 

तुम कौन हो मैं कौन हूँ 
वक़्त के दरमियां 

सामने देखो 
क्या तुम्हे नज़र आती है वो मेज़ लकड़ी की 
और उस पर रखे सामान 
उसकी दराजें 
उसके रंग 
अजीब बात है 
तुम्हे भी वही सब नज़र आता है जो मुझे नज़र आता है

पार्श्व में मधुर गीत सुनाई दे रहा है
बताओ तो उसकी गूँज क्या आकार ले रही है
क्या तुम्हे भी वही ध्वनि पुकार रही है
क्या ये अजीब बात नहीं

एक बार भूल कर देखो
अपनी पसंद नापसंद
चलो हम अपने अपने मन और चाहतों के परे देखते हैं
अपने अपने चुनावों के पीछे
क्या तुम्हे भी वही सब नज़र होता है जो मुझे होता है जो किसी और को होता

अजीब बात है
हम दोनों एक से हैं !!

अ से 

कल्पना करो ..


तुम आकाश हो और तुम्हे नहीं पता तुम कहाँ तक हो 

अब क्यूंकि तुम रीत चुके हो और अनन्त शान्ति के सिवा कुछ शेष नहीं 
तो कुछ जुगनू तुम में जलने बुझने लगे हैं 
और उन जुगनुओं का आकार सूर्य जितना है 
पर इतनी सी आंच से तुम्हे हवा तक नहीं लगती !
कल्पना करो की तुम आकाश की तरह बहुत छोटे बहुत बहुत छोटे हो गए हो 
इतने छोटे की सारी सृष्टि तुममें समा गयी है 
बिलकुल शून्य हो चुके हो तुम !!

कल्पना करो तुम मन हो 
और मन में यानी तुम में ये सारा आकाश है
और सिर्फ यही आकाश नहीं
ऐसे कई शून्य तुम में हैं
ऐसे अनंत शून्य तुम में हैं जिनमें हैं और भी कई संसार
पर फिर भी उसका कुल परिमाण शून्य है
और तुम रौशनी जितने हलके हो
बल्कि रोशनी से भी हलके
अँधेरे जितने !!

कल्पना करो की तुम बुद्धि हो ,
जिसमें कई मन हर पल बनते बिगड़ते रहते हैं ,
जिनमें हैं और भी कई आकाश और जिनमें हैं और भी कई संसार !!

कल्पना करो की तुम मात्र अहंकार हो
और लेते रहते हो हर पल कई संकल्प
जिनके विकल्पों के साथ तुममें जन्म लेती हैं कई सारी बुद्धियाँ
कल्पना करो की तुम्हारे एक संकल्प से एक पल में कितनी सृष्टि और प्रलय एक साथ होते हैं और यही नहीं उस असंख्य गणना का हर हिसाब किताब तुम्हारे पास है
सारे गुणन और भागों के फल के साथ
और तुम समय के हर क्षण के अदमवें हिस्से के पदमवें भाग में ये सब जान लेते हो !!

कल्पना करो की तुम सिर्फ बोध हो
वो बोध जिसमें अहंकार इतना सूक्ष्म है की उसे नगण्य माना जा सकता है
जिसमें अहंकार की वही औकात है जैसे अनन्त आकाश में एक तारे की !!

कल्पना करो की तुम वही बोध हो
जिसमें संकल्प लेने और उन्हें मिटाने की अद्भुत शक्ति है
और जिसमें शंखों शंख संकल्प के साथ ये और ऐसी कई सृष्टियाँ स्थिरता के साथ विद्यमान हैं !!

कल्पना करो की तुम्हारी हर कल्पना सत्य है
कल्पना करो की कल्पना करना भी एक कर्म है
कल्पना करो की कल्प स्वतः है और उसकी उत्पत्ति और अंत को कोई नहीं जानता !!

कल्पना करो और कल्पना में खो जाओ
की सब कुछ पाकर भी तुम मात्र कल्पना ही पाते हो
जो ना तो तुम्हारे होश में आने से पहले कहीं थी ना ही होश खोने के बाद कहीं होगी !!

अ से 

a poem on flirt


Listen Dear ,

love is so boring , flirt is so sweet ,
dont come with promises , just gossip and do tweet , 

to love and being loved is like a silly bussiness, 
tell me whatever u like and let everything diminish ,

just respect your heart and speak me some sugar ,
Dont tell me love is true , eternal , full of wonder ,

How long these feeling go on you should know ,
one shouldnt be surprised with heat and snow ,

show your seductive stunts or sing me a song ,
dont get into my heart and dreams you not belong ,

take a good long look at my profile and the world ,
it isnt as potent as you think but just puzzeled ,

my feelings for anyone isnt bad and i m harmless ,
but love isnt for me , i m flirty and careless .

समस्या


समस्या ये है
की आप स्वप्न देखने में व्यस्त हो ,
स्वप्न में आनंद लेते हो
और किसी स्वप्न के खोने पर
बैचैन होकर
उसकी फिर से तलाश करते हो ,
वहीँ से
जहाँ से वो छूटा था ,

सो जाओ ,
सारे ख्वाब छोड़ कर
चैन से
चैन से सो जाने की आवश्यकता है ,
और जैसे ही आप सो जाओगे
आप की नींद खुल जायेगी !


वास्तव में आप कभी नहीं सोते ,
आप सिर्फ अपने सपनो को सुलाते हो !!

अ से 

आईने का रंग


संसार को देखता है वो 

अँधेरे में झाँक कर
सुनता है
खामोशी में ठहरकर
और 
मन से अनुमान कर
समझ से मिला लेता है !

काला होता है आइने का रंग 
जैसे गहराती सांझ का रंग , 
जैसे पूनम की रात में झाँकता चंद्रमा ,
वैसे ही चमकता है वो आइना देख कर !

अ से 

आकार


वो मुझे बाँधे रखना चाहती है ,
अपनी तय हदों तक , 
और मैं चाहता हूँ उसे आजादी देना ,
अपनी तय हदों तक
हमने गढ़ लिए हैं
आकार अपने ,
अपने अपने हिसाब से 
आदतों के चाक पर ,
और पका लिया है उन्हें ,
वक़्त की आँच पर ,
अब संभव नहीं ,
समा पाना ,
एक दुसरे के कनस्तरों में ,और वो भी सामान सहित ,मेरा आकार मेरा रंग ढंग नहीं बदलता अब ,केंचुली बदलने पर भी , 
भीतर कहीं बहुत गहरे में
रंगी गयी हैं
मेरे मानस की दीवारें !!

अ से 

अनवरत ..


निगाहों के सामर्थ्य के आखिरी किनारे से भी आगे तक ,

पाँचों दिशाओं में फैला हुआ , ये खाली अंत हीन आकाश , 
मीलों लम्बे फासले , कभी ना ख़त्म होने वाली दूरियाँ ,
और हमेशा बस यूँ ही बना रहने वाला ये सार-शून्य , 
अथाह अनंत असीम बेहद विशाल फैलाव ,
और अपने अस्तित्व के लिए पर मारता एक नन्हा सा पंछी , प्राण !

तिनका तिनका जोड़कर रहने के लिए बनाया ,
ये कच्चा सा मकान , जिस्म जान और जहान ,
और आँधियाँ बाढ़ भूकंप से ये खौफनाक तूफ़ान ,
उसमें अपने जोड़े हुए को बचाने का असफल प्रयास करता कतरा कतरा इंसान !

एक अथाह संसार सागर और सब कुछ हवा ,
सूक्ष्म से स्थूल तक , शून्य से समष्टि तक ,
महीन से महत तक , सब कुछ हवा ,
खाली आकाश में हिलोरें मारता इसका अस्तित्व ,
हर दिशा में बनती बिगडती उठती बैठती लहरें ,
कब क्या रूप ले लें , क्या बिगड़ जाए , क्या बना दें ,
किसको पता कब कौन क्या कहाँ कैसे ,
और कौन से भरोसे , कैसे संकल्प विकल्प ,
हवाओं में कुछ ठहरता है भला , वो भी वो जो खुद एक हवा हो !

ये टूट फूट , ये बुझा हुआ मन , ये बिखरा हुआ सामान ,
और ये धूल खाते सपने , ये सब मेरा चाहा हुआ नहीं था ,
ना ही इतने सारे जिस्म तोड़ प्रयास इस सबके लिए किये गए थे ,
अगर ये सृष्टि , मेरे अस्तित्व से लेकर ब्रह्माण्ड तक , कुछ भी रूप लेती है ,
तो इस में किसी का कोई दोष नहीं , ना ही मेरा , ना ही तेरा ,
ना ही उस ईश्वर का , जो चुपचाप कोई भी आकार ले लेता है !

अ से 

जो नहीं भूलना था ...


वो चिड़िया , 

आ जाती थी फुदकती हुयी , 
तुम्हे चैन से बैठा देखकर , 
बिना किसी डर के , 
और तुम डालते थे दाने , 
और वो मगन होकर चुगती रहती !

तुम भूल गए उसका फुदकते आना , 
तुम्हे याद रहे तुम्हारे दाने , 
और उसका आना , 
अब तुम दाने डाल चले जाना ,
और वो आदतन आ जायेगी ,
चुग लेगी दाना ,
दायें बायें देख देख कर ,
चुपचाप ,
और लौट जायेगी ,
खाली मन , पंख पसार !!

अ से 

Juan Ramon Jimenez की एक कविता

एक ख़ूबसूरत कविता पढ़िए .....

खो जाते किसी बच्चे की तरह मैं  ,
जिसे हाथ पकड़ कर खींच लेते हैं वो , 
दुनिया के इस मेले में  ,
जबकि अटकी रहती हैं मेरी नज़रें ,
चीजों पर , उदास ...
और कितना दुःख , जब वो खींच कर अलग कर देते हैं मुझे , उस सबसे !!
Juan Ramon Jimenez 

" गुलाब "


शीत-विदा की नर्म-सर्द-गुलाबी रुत-रंगत से लिपटे ,

मंद-स्वच्छंद बहती पवन के स्पर्श लिए खिलते ,
प्रेम-अनुभूति के मौसमी-मिजाज़ में सिमटे , 
चैती !!

रंगीन पंखुड़ि ' पाटल ' ,
सदैव तरूण ' तरूणी' , 
शत पत्र लिए ‘ शतपत्री ’ , 
कानों की आकृति बनाये ‘ कार्णिका ’ , 
सुन्दर केशर युक्त ‘ चारुकेशर ’,
लालिमा रंग लिए ‘लाक्षा’,
और गन्ध पूर्ण ' गन्धाढ्य '
गंध और रस के गुणों से गुणित-पूरित ,
कुण्डलिय वलय को वेदते ,
तितलियों भंवरों को मदमदाती महक केसर पर निमन्त्रते ,
मदन-मद !!

फारसी में गुलाब ,
अंगरेज़ी में रोज,
बंगला में गोलाप,
तामिल में इराशा,
तेलुगु में गुलाबि ,
अरबी में ‘वर्दे’ अहमर ,
रूप , लावण्य और सौन्दर्य की अद्भुत अभिव्यक्ति ,
देव पुष्प !!

पीड़ा


अपने दर्द भूलकर 

झांकता है आँखों से बाहर
हर जलन पर पानी पीकर 
मुस्कुराने का प्रयास करता है 
और टूट जाता है 
उसके प्रयासों में कोई मन नहीं है !

अपने से निकलकर
वो अपनों में जाता है 
अपने मुरझाये पौधों को देख 
साथ ले जाता है एक लौटा पानी
और लौटा लाता है
उसके पड़ोस में पौधे नहीं हैं !

अपनी समस्याओं को नकार
आस भर की हुंकार भरता है
अपने विश्वास का पायजामा पहन
समस्या के घर से निकल पड़ता है
और लौट आता है
उसका घर उसके साथ चलता है !

अ से 

उल्लू





फिर फिर खुद को देखकर चकित हूँ मैं 

एक हूँ की अनेक हूँ 
यहाँ हूँ या वहां हूँ 
अजीब सी हरकत हूँ कोई 
या चुपचाप ताकती नज़र 
आँखें हूँ या उल्लू हूँ मैं !!

अ से 

क्या तलाशती रहती हैं नज़रें इस खाली से आसमान में ...


क्या तलाशती रहती हैं नज़रें इस खाली से आसमान में

क्या देखकर ठहर जाता है दिल इस जादुई जहान में  !!

वो कौआ जाने किसकी राह तकता रहा अब तक 

जिसको पुकारते उसके गीत कर्कश हो गए हैं !

सारी रात किस इन्तेज़ार में काट दी है उन्होंने 
कि सुबह होते ही बतियाने लगी हैं ये गौरैया !

क्या राज दबाये रहते हैं क्या कहते हैं एक दुसरे से 
एकांत और सुकून तलाशते ये कबूतर के जोड़े !

अफवाहों के शोर में भी खामोश बहती ये हवायें
आखिर किसकी बातों में खोयी हुयी मद मस्त रहती हैं !

ठीक सुबह से अपने तप में लगा ये सूरज
समुद्र से मिलते इतना ठंडा क्यूँ पड़ जाता है !

कभी खिला हुआ कभी खोया हुआ सा ये चाँद
क्यों चला आता है हर रात तारों के बीच मुस्कुराने !

क्यों बैचैन टहलते हैं ये शेर इधर से उधर
पेट भरा होने पर भी इन पिंजरों में !

क्यों साँसों की सुध बुध छोड़ देती हैं ये औषधियां
और मदमस्त पकती रहती है रात की रोशनी में !

क्यों बहती रहती है नदियाँ अविरत चट्टानों को काटती
कहाँ पहुँचने की जल्दी रहती है उन्हें इस कदर !

क्यों ठहरा हुआ रहता है सागर खुद में ही हिलोरे मारते हुए
आखिर किसके लिए वो सूखने नहीं देता खुद को कभी !

आखिर क्यों घुल जाता है नमक इतनी आसानी से हर कहीं
किस के आँसूओं से भरा हुआ है पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा !!

अ से