वक्त खामोश है
पर मन अब भी घूमता रहता है
इसके सँकरे गलियारोँ मेँ ,
तलाशता रहता है
कोई जाना पहचाना चेहरा
कोई सुकूनबख्श जगह ,
जहाँ यह ठहर सके
और भर सके फेफड़ोँ को आश्वस्तता से ।
इस प्रपञ्च को लगातार देखते सुनते
बोझिल हुआ ये मन
अलग कर लेना चाहता है स्वयं को ,
पर कुछ पलोँ की कोशिश भर मेँ
सूखने लगते हैँ प्राण ,
आँखे बंद करते ही उपस्थित हो जाती है प्यास
उसे फिर से देखने की ,
जैसे अगले ही मोड़ पर खड़ा हो अतीत ।
जिन खुली आँखो मेँ
पूरा संसार बैचेनी का सबब होता है
उन्ही अधखुली आँखो को
एक चेहरा शाश्वतता का सुकून देता है
और उसको देखने की चाह
अधीरता ।
मन
समय की गलियोँ मेँ भटक रहा है
वो दोराहे
काफी पीछे छूट चुके हैँ
और चाहतेँ
चलन के चौराहोँ पर सिमट चुकी हैँ
प्रेम
अब जग मथाई के कुहासे मेँ ठीक से नज़र नहीँ आता
पर आँखे बँद कर लेनाइस सब के बावजूद अब भी आसान नहीँ
कि मन
फिर फिर दौड़ता है प्यास मेँ उसकी ।
अ से
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