Aug 17, 2014

प्रपंच



आकाश हर वक़्त सुन रहा है ख़ामोशी से 

कितनी आवाजें हैं कहीं और कहीं कितना खालीपन 
बहती हुयी हवायें छू रही हैं एहसासों को 
कितने तूफ़ान उठते हैं फिर भी कितनी शांति है 
उठती हुई ज्वालायें देख रहीं हैं दृश्य अपनी रौशनी में 
कहाँ कैसा रंग है कहाँ कैसा रूप और कहाँ कितनी आंच 
लहराती हुयी नदी बुझा रही है थकान अपनी शीतलता से 
किसमें कैसा रस है किसमें कैसी प्यास और कितनी कितनी तृप्ति 
और ठहरी हुयी जमीन झुला रही है हमें अपने पालने में 
किसका क्या गुनाह किसको क्या क्षमा !!

अ से 

No comments: