मोमबत्तियां जलें
दीयों में घी डलें
या फिर मशालें उठें
तब तो महफिलें रौशन हों
अब ये बल्ब क्या चीज है
आधुनिकता में सारी कवितायें खो गयी हैं कहीं
बैलगाड़ी खोकर कार हो गयी है
कला खोकर व्यापार हो गयी है
मूर्तियों के प्रमाण नहीं रहे
चिट्ठियों में प्राण नहीं रहे
लहज़ा और ज़बान जपानी हो गए हैं
मुँह में पान हैं अब भी पर वो बीती कहानी हो गए हैं
कच्ची डगर कुंवे पतझर
आम बागान नदी मैदान
कवितायें काट दी गयी हैं कुछ , कुछ पाट दी गयी हैं
कार्बन की जगह ' सिली '- कोन ले गयी है
इस्पात की मिलों में तेल जलाने के लिए
इंसान के दिलों में आग लगा दी गयी है
वक़्त से वक़्त के बीच के वक़्त का भी हिसाब किया जाता है
चुटकियाँ और क्षणिकायें कागजों की पनाह ले चुकी हैं
कवितायें चाहती हैं
12 घंटे काम हो 12 घंटे ज़माना आम हो
आवाज़ें कैद ना की जा सकें जो गुज़र गया उसका कुछ देर शोक भी मना सकें
किताबों से कवितायें भँवरे तितलियों सी निकलकर
पेड़ों की शाखों पर कोयल गौरैया हो जाएँ
बिजली के चले जाने पर बैचैनी ना हो
कि पेड़ झलते रहे हजारों पंखे यूँ ही धीरे धीरे !!
अ से
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