नींव के पत्थरों को यूँ सुहाता नहीं रोना
खलिहानों में भाता नहीं किसी जलन को बोना ,
आधार के स्तम्भ बेख़बर खोये नहीं रहते ,
साध में लगे दीये ऐसे सोये नहीं रहते ,
दीवारों को नहीं ले जानी थी बाहर यूँ खबर ,
छतों को नहीं टपकाने थे आँसू दर पहर ,
तराशे नहीं वो हाथ तुमने और थमा दिए औज़ार
और चाहते हो शिल्प निकले बीच सरे बाज़ार
शुरू जेब से करना टटोलना फकीरी जज़्बात तक
और अल सुबह से कोसना लकीरें फिर रात तक !!
अ से
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