Aug 17, 2014

कुछ वक़्त का साथ है , कुछ वक़्त का साथ है



कुछ वक़्त का साथ है 

कुछ वक़्त का साथ है

अब तारों से भला कैसी शिकायत 
कहाँ लापता थे वो सुबह से बेखबर बनकर 
महीने में कहीं एक बार चाँद पूरा होता है 
और अब समय देखने की चाहत नहीँ ।

आओ ! उकेरते हैं यादें 
समय के आकाश पर
शब्दों के झिलमिलाते तारे
मिलाते है जमीँ की कोर को फलक के छोर से
अंजाने बनकर गढ़ते है
कोई चेहरा उफक पर
तलाशते हैँ कोई अनदेखा रंग
सफर को नज़रोँ से टटोल कर
और अब पलक झपकने की चाहत नहीँ ।

कुछ वक़्त साथ हैँ
कुछ वक़्त साथ है

नहीं याद इससे बाद क्या होगा
तुम क्या होगी समय का बहाव क्या होगा
पर आज जो भी होगा दर्ज
समय के इस दस्तावेज पर
उसे भविष्य बदल नहीं पायेगा
यहाँ अतीत में आकर
हमारे हाथोँ के अक्षर
भले ही नहीँ खीँच पायेँ
प्रारब्ध की कोई तय रेखा
पर चमकते रहेँगे ये लम्हे
जो ठहर जायेँगे आज
इन अहसासोँ की स्याही मेँ
पिघला हुआ स्वर्ण बनकर
और अब समय रोकने की चाहत नहीँ ।

अ से

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