Aug 17, 2014

आकार


वो मुझे बाँधे रखना चाहती है ,
अपनी तय हदों तक , 
और मैं चाहता हूँ उसे आजादी देना ,
अपनी तय हदों तक
हमने गढ़ लिए हैं
आकार अपने ,
अपने अपने हिसाब से 
आदतों के चाक पर ,
और पका लिया है उन्हें ,
वक़्त की आँच पर ,
अब संभव नहीं ,
समा पाना ,
एक दुसरे के कनस्तरों में ,और वो भी सामान सहित ,मेरा आकार मेरा रंग ढंग नहीं बदलता अब ,केंचुली बदलने पर भी , 
भीतर कहीं बहुत गहरे में
रंगी गयी हैं
मेरे मानस की दीवारें !!

अ से 

अनवरत ..


निगाहों के सामर्थ्य के आखिरी किनारे से भी आगे तक ,

पाँचों दिशाओं में फैला हुआ , ये खाली अंत हीन आकाश , 
मीलों लम्बे फासले , कभी ना ख़त्म होने वाली दूरियाँ ,
और हमेशा बस यूँ ही बना रहने वाला ये सार-शून्य , 
अथाह अनंत असीम बेहद विशाल फैलाव ,
और अपने अस्तित्व के लिए पर मारता एक नन्हा सा पंछी , प्राण !

तिनका तिनका जोड़कर रहने के लिए बनाया ,
ये कच्चा सा मकान , जिस्म जान और जहान ,
और आँधियाँ बाढ़ भूकंप से ये खौफनाक तूफ़ान ,
उसमें अपने जोड़े हुए को बचाने का असफल प्रयास करता कतरा कतरा इंसान !

एक अथाह संसार सागर और सब कुछ हवा ,
सूक्ष्म से स्थूल तक , शून्य से समष्टि तक ,
महीन से महत तक , सब कुछ हवा ,
खाली आकाश में हिलोरें मारता इसका अस्तित्व ,
हर दिशा में बनती बिगडती उठती बैठती लहरें ,
कब क्या रूप ले लें , क्या बिगड़ जाए , क्या बना दें ,
किसको पता कब कौन क्या कहाँ कैसे ,
और कौन से भरोसे , कैसे संकल्प विकल्प ,
हवाओं में कुछ ठहरता है भला , वो भी वो जो खुद एक हवा हो !

ये टूट फूट , ये बुझा हुआ मन , ये बिखरा हुआ सामान ,
और ये धूल खाते सपने , ये सब मेरा चाहा हुआ नहीं था ,
ना ही इतने सारे जिस्म तोड़ प्रयास इस सबके लिए किये गए थे ,
अगर ये सृष्टि , मेरे अस्तित्व से लेकर ब्रह्माण्ड तक , कुछ भी रूप लेती है ,
तो इस में किसी का कोई दोष नहीं , ना ही मेरा , ना ही तेरा ,
ना ही उस ईश्वर का , जो चुपचाप कोई भी आकार ले लेता है !

अ से 

जो नहीं भूलना था ...


वो चिड़िया , 

आ जाती थी फुदकती हुयी , 
तुम्हे चैन से बैठा देखकर , 
बिना किसी डर के , 
और तुम डालते थे दाने , 
और वो मगन होकर चुगती रहती !

तुम भूल गए उसका फुदकते आना , 
तुम्हे याद रहे तुम्हारे दाने , 
और उसका आना , 
अब तुम दाने डाल चले जाना ,
और वो आदतन आ जायेगी ,
चुग लेगी दाना ,
दायें बायें देख देख कर ,
चुपचाप ,
और लौट जायेगी ,
खाली मन , पंख पसार !!

अ से 

Juan Ramon Jimenez की एक कविता

एक ख़ूबसूरत कविता पढ़िए .....

खो जाते किसी बच्चे की तरह मैं  ,
जिसे हाथ पकड़ कर खींच लेते हैं वो , 
दुनिया के इस मेले में  ,
जबकि अटकी रहती हैं मेरी नज़रें ,
चीजों पर , उदास ...
और कितना दुःख , जब वो खींच कर अलग कर देते हैं मुझे , उस सबसे !!
Juan Ramon Jimenez 

" गुलाब "


शीत-विदा की नर्म-सर्द-गुलाबी रुत-रंगत से लिपटे ,

मंद-स्वच्छंद बहती पवन के स्पर्श लिए खिलते ,
प्रेम-अनुभूति के मौसमी-मिजाज़ में सिमटे , 
चैती !!

रंगीन पंखुड़ि ' पाटल ' ,
सदैव तरूण ' तरूणी' , 
शत पत्र लिए ‘ शतपत्री ’ , 
कानों की आकृति बनाये ‘ कार्णिका ’ , 
सुन्दर केशर युक्त ‘ चारुकेशर ’,
लालिमा रंग लिए ‘लाक्षा’,
और गन्ध पूर्ण ' गन्धाढ्य '
गंध और रस के गुणों से गुणित-पूरित ,
कुण्डलिय वलय को वेदते ,
तितलियों भंवरों को मदमदाती महक केसर पर निमन्त्रते ,
मदन-मद !!

फारसी में गुलाब ,
अंगरेज़ी में रोज,
बंगला में गोलाप,
तामिल में इराशा,
तेलुगु में गुलाबि ,
अरबी में ‘वर्दे’ अहमर ,
रूप , लावण्य और सौन्दर्य की अद्भुत अभिव्यक्ति ,
देव पुष्प !!

पीड़ा


अपने दर्द भूलकर 

झांकता है आँखों से बाहर
हर जलन पर पानी पीकर 
मुस्कुराने का प्रयास करता है 
और टूट जाता है 
उसके प्रयासों में कोई मन नहीं है !

अपने से निकलकर
वो अपनों में जाता है 
अपने मुरझाये पौधों को देख 
साथ ले जाता है एक लौटा पानी
और लौटा लाता है
उसके पड़ोस में पौधे नहीं हैं !

अपनी समस्याओं को नकार
आस भर की हुंकार भरता है
अपने विश्वास का पायजामा पहन
समस्या के घर से निकल पड़ता है
और लौट आता है
उसका घर उसके साथ चलता है !

अ से 

उल्लू





फिर फिर खुद को देखकर चकित हूँ मैं 

एक हूँ की अनेक हूँ 
यहाँ हूँ या वहां हूँ 
अजीब सी हरकत हूँ कोई 
या चुपचाप ताकती नज़र 
आँखें हूँ या उल्लू हूँ मैं !!

अ से 

क्या तलाशती रहती हैं नज़रें इस खाली से आसमान में ...


क्या तलाशती रहती हैं नज़रें इस खाली से आसमान में

क्या देखकर ठहर जाता है दिल इस जादुई जहान में  !!

वो कौआ जाने किसकी राह तकता रहा अब तक 

जिसको पुकारते उसके गीत कर्कश हो गए हैं !

सारी रात किस इन्तेज़ार में काट दी है उन्होंने 
कि सुबह होते ही बतियाने लगी हैं ये गौरैया !

क्या राज दबाये रहते हैं क्या कहते हैं एक दुसरे से 
एकांत और सुकून तलाशते ये कबूतर के जोड़े !

अफवाहों के शोर में भी खामोश बहती ये हवायें
आखिर किसकी बातों में खोयी हुयी मद मस्त रहती हैं !

ठीक सुबह से अपने तप में लगा ये सूरज
समुद्र से मिलते इतना ठंडा क्यूँ पड़ जाता है !

कभी खिला हुआ कभी खोया हुआ सा ये चाँद
क्यों चला आता है हर रात तारों के बीच मुस्कुराने !

क्यों बैचैन टहलते हैं ये शेर इधर से उधर
पेट भरा होने पर भी इन पिंजरों में !

क्यों साँसों की सुध बुध छोड़ देती हैं ये औषधियां
और मदमस्त पकती रहती है रात की रोशनी में !

क्यों बहती रहती है नदियाँ अविरत चट्टानों को काटती
कहाँ पहुँचने की जल्दी रहती है उन्हें इस कदर !

क्यों ठहरा हुआ रहता है सागर खुद में ही हिलोरे मारते हुए
आखिर किसके लिए वो सूखने नहीं देता खुद को कभी !

आखिर क्यों घुल जाता है नमक इतनी आसानी से हर कहीं
किस के आँसूओं से भरा हुआ है पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा !!

अ से 

रात को मन नहीं था वापस आने का ...



रात को मन नहीं था वापस आने का

अल सुबह मौसम बदल जाता है
मौसम बहुत बदलते हैं आजकल
एक सा नहीं रहता मन का मिज़ाज़ 

कृत्रिम प्रयासों के कारण 
जो समझदारों की दुनिया में चाहिए थे 
भावनाओं का प्रवाह बिगड़ चुका है 
प्राकृतिक कुछ भी नहीं रह गया अब 
कितना कुछ अभिनय
कितनी औपचारिकताएं
कितना कुछ जख्म करता है ज़हन में

झूठ बोलना पड़ता है पारदर्शी
कितने ही लोगों की आँखों में झाँक कर
कसमों की मुहरें लगानी पढ़ती है
कितनी ही सच्ची सी बातों पर

चुनाव समस्या है हमेशा से
किसी का क्या दोष
जो उसे चुना जाए
या उसे ना चुना जाए
किसी भी बात में
किसी का क्या गुण

जबकि मौसमों का हाल सब तरफ एक सा है
कहीं भी कुछ नियत और स्थायी नहीं रहा
जिस रोज बदलती दुनिया को कभी दुत्कारा जाता था
जिन नाटक मंडलियों को निचले स्तर का कार्य माना जाता था
आज उसी रंग बदलते अस्थैर्य को और झूठ को पूजा जाता है
मनोरंजन आनंद को थाली से बाहर फेंक चुका है
और प्रमाद ने आचरण को अवसाद घोषित कर कूड़ेदान में फेंक दिया है

अब जबकि मौसम एक से नहीं रहते
तो मैं बहुत खुश हूँ
या मैं बहुत दुखी हूँ
या मैं अवसाद में हूँ उदास हूँ
या मैंने अब कुछ हासिल कर लिया है
इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता
अब जबकि बारिश हो रही है
तो मैंने अपनी छतरी फेंक दी है
अब वो आउट ऑफ़ फैशन हो चुकी है !!

अ से 

चौकीदार


चौकीदार 

देखता है आते जाते लोगों को 
ख़ुशी ख़ुशी मिलने आते लोग 
बड़बड़ाते हए निकल जाते लोग 
थके हुए घर आते 
किसी काम से बाहर निकल जाते 
बड़े गुस्से में आते  
बड़े गुस्से में निकल जाते 
खाली होकर आते 
भरकर खाली निकल जाते 
भरे हुए आते लोग
खाली होकर भरे हुए निकल जाते लोग

फिर से नया दिन
या किसी पुराने दिन का दोहराव
या किसी आने वाले दिन का पूर्व अभ्यास
फिर से एक दरवाजा
फिर सामने एक सड़क
फिर से आते जाते लोग
फिर बाहर एक दुनिया
फिर भीतर एक महफ़िल

चौकीदार दरवाजा है
वो दरवाजा जिसका कोई सम्मान नहीं है
दरवाजा चौकीदार है
वो चौकीदार जिसको कोई सुध नहीं है
चौकीदार इंसान है
वो इंसान जिसकी किसी को सुध नहीं है
हर दर बेजान है
पर वो बेजान जिसका कोई ना कोई मान है !!

अ से 

तराशे नहीं वो हाथ तुमने ...


नींव के पत्थरों को यूँ सुहाता नहीं रोना

खलिहानों में भाता नहीं किसी जलन को बोना , 

आधार के स्तम्भ बेख़बर खोये नहीं रहते , 
साध में लगे दीये ऐसे सोये नहीं रहते , 

दीवारों को नहीं ले जानी थी बाहर यूँ खबर , 
छतों को नहीं टपकाने थे आँसू दर पहर ,

तराशे नहीं वो हाथ तुमने और थमा दिए औज़ार 
और चाहते हो शिल्प निकले बीच सरे बाज़ार

शुरू जेब से करना टटोलना फकीरी जज़्बात तक
और अल सुबह से कोसना लकीरें फिर रात तक !!

अ से 

May 9, 2014

उतार लाऊं चंद तारे आसमां से ..


रात की सर्द हवा की खामोश लहरों में 

भीनी सी मुस्कराहट के साथ 
तारों को निहारती आँखें तुम्हारी 
कुछ इस तरह चमकती है 
की उतार लाऊं चंद तारे आसमां से 
और तुम झुमका लो उन्हें अपने कानों में 

चाँद अपनी ठंडी रोशनी में छुपा ले तुम्हे 
और अँधेरों की आंच ना पहुंचे तुम तक 
अनजानी सी ख़ुशी की किसी धुन पर 
तुम नाचने लगो लहराकर सरगम कोई गाकर
उन पत्तियों की तरह शाखों को लहराती हैं जो
रात की सर्द हवा की खामोश लहरों में

अ-से

अम्लान -- 2

अम्लान --2 
--------------

खिड़की से बहकर आती 
चाँद की रोशनी से धुल कर 
अँधेरे में खिल आता उसका चेहरा भर 
और श्वेत-स्याम दृश्य में उभर आते मन के रंग 
दो हाथ उँगलियाँ बांधे निहारते एकटक 
एक दुसरे की आँखों में सींचते " अम्लान "

सम्मोहन का लावण्य .... आपे का खोना
प्रेम की कस्तूरी ... मदहोश होना
स्पर्श के आश्वासन ... प्रेम मय स्मृतियाँ
रास उल्लास .... आनंदमय विस्मृतियाँ

अब जब तुम मिलती हो मुझसे
अब जब मैं मिलता हूँ तुमसे
हम झांकते हैं एक दुसरे में
एक दुसरे की आँखों में आत्मा में

जबान खामोश हो या कहती हो कहानियाँ
शरीर स्थिर हो या छुपाता हो रवानियाँ
पर ये जो अम्लान हैं आँखों में मेरी तुम्हारी
ये सब बयां कर देता है ....
कितनी नमी बाकी है अभी इसमें !!


सबकुछ
थोडा थोड़ा कुछ नहीं

अ-से

अम्लान --1


नीले चादर का झीना सा झिलमिलाता सा तम्बू 
एक कोने में जलते हुए चाँद की रोशनी से लबालब 
और दो ठहरी हुयी साँसों के दरम्यान रखा हुआ " अम्लान "

साँसों की नमी से सींचा था जिसे हमने , पूरी रात 
ना तुम सोयी थी ना मैं , सुबह तक 
कान रखकर सुनी थी तुम्हारी साँसें शोर करते , पहली दफा
और इसमें सहेज कर रखी थी हमनें एक ख्वाहिश , प्राणों की

हमें बचाना था इसे मुरझाने से
इसे बचाना था हमें मुरझाने से
हमें बचाना था हमें मुरझाने से

हम खुद से सच छुपा सकते हैं
हम एक दुसरे से झूठ बोल सकते हैं
पर अम्लान को पता चल जाता है
उन साँसों में कितनी नमी बाकी है अब तक !!

for my endless poem
for my eternal wish

अ-से 

पाप पुन्य


पाप कुछ नहीं होता , 

न ही पुन्य कुछ होता है ,
पर झूठ जैसी कोई चीज होती है शायद !

सही गलत कुछ नहीं ,
कायदे कानून बनाये जाते हैं ,
ताकि जो चीजें एक से अधिक को शेयर करनी है वहाँ टकराव ना हों !

ये दुनिया किसी अकेले की बपौती नहीं 
कि किसी एक की मर्जी किसी दूसरे पर थोपी जा सके ,
पर उनका क्या जो पागलपन करना चाहता है (और वो उसके लिए पागलपन है भी नहीं )
जिसकी बचपन से फेंटेसी रही है रेप और सीरियल किलिंग
जिसने इस रंगमंच पर अपना किरदार उसी तरह चुना है
क्या उसे रोकना जबरदस्ती की परिभाषा में आना चाहिए !

अगर अहिंसा को आधार मानें ,
तो फिर जंगली / जानवरों को समझाने की जिम्मेदारी किसकी है ,
अपने ह्रदय अपने अन्तः करण को आधार मानें
तो वहां भी सब अपने अपने अवसाद और ग्लानियों से भरे हुए हैं !
और जिसका अंतःकरण भारहीन है
उसे किसी की हत्या करने का क्या दुःख !

अगर बहुमत के हिसाब से ही फैसले लिए जाएँ
और सही गलत का फैसला किया जाए तो ये भेडचाल है ,
सब स्वतंत्र अंतःकरण से नहीं सोच पाते ,
ना ही सबको सब बातों की जानकारियाँ होती है
और वैसे भी हजारों में एक महापुरुष बुद्ध ईसा महावीर
या पिकासो आइन्स्टाइन गांधी होता है तो बहुमत का कोई अर्थ नहीं ॥

जेक स्पैरो के डायालोगानुसार सिर्फ दो बातें महत्त्व रखती हैं ,
एक आप क्या कर सकते हैं , और दूसरी आप क्या नहीं कर सकते ॥

खैर करने में तो एक बच्चा भी क़त्ल कर सकता है ॥

गीता कहती है कैसे कोई मरता है कैसे कोई मारता है भला ,
दर्पण साह भी कहते हैं कौन मरा है भला आज तक ,
तो कैसा क़त्ल और कैसी सजा !

मैं तो यही कहता हूँ आप social हो सकते हो , non -social हो सकते हो ,
आप स्वतंत्र हो आप anti-social भी हो सकते हो ,
पर यह आपकी जान के लिए अच्छा नहीं !

फिर से आप स्वतंत्र हो आप कुछ भी सोच सकते हो
कोई भी सपना देख बुन सकते हो ,
पर उसमें छोड़ना चाहिए एक दरवाजा एस्केप का
आखिर में अपने ही सपनों से डर जाने और उनमें कैद हो जाने की भी सम्भावना होती है !

जो आप खुद सहन कर सकते हो वही व्यवहार दुनिया के साथ करो ये सलाह भी गलत है ,
सबकी क्षमता अलग अलग है , एक पहलवान और दूसरा बीमार भी हो सकता है ॥

जरूरी है की बड़े ही प्यार से खुद को इस सबसे अलग कर लो
और एक मंझे हुए अभिनेता की भांती इस ड्रामे में डूबते उबरते रहो !

जीने की इच्छा भोग है
और जीते रहने की इच्छा बंधन ,
जिन्दगी भर इंसान जीभ और उपस्थ के चलाये चलता है
सभी तरह के कृत्य करता है इन्ही का पेट भरता है
जबकि कर्म मात्र ही वासना पूर्ण है तो सारी बातें बेमायनी हैं !

जिस का जीवन भोग से मन ऊब चुका हो ,
जिसे किसी की चाहत न रह गयी हो ,
उसके लिए सारा ज्ञान विज्ञान , तमीज और कायदा ,
दोस्ती, धन संपत्ति , प्रेम और प्रेमिका कोई मायने नहीं रखती ,
ये सब कुछ आखिर इंसान के सुख के लिए ही तो है !

अ-से

एकतारा

कान में जमा हुआ ये मैल ,
अफवाह और झूठी बातें हैं ,
की बातों का बाजार सजा हुआ है , 
और लोग आते हैं अच्छी अच्छे बातें खरीदने ,
ताजा और इन फैशन !!

संसार में वो रहता था कांच के कंचे के भीतर , 
अब दुनिया छोड़ कर वो बस गया है आकाश में 
जहाँ से उसका काश उसका भाव होता है रोशन ,
ध्यान में मग्न होकर वो हो जाता है एक तारा ,
कितने ही लोग तो सितारे ही बनकर बस गए ,

" एकतारा " जिसकी अपनी आवाज है
जिसके अपनी रोशनी है
और " शब्द " जो एक तारा भी है एकतारा भी
वो खुद पूरा जहाँ है ,
वो जहाँ है खुद में भी
जिसमें आवाज भी है रौशनी भी ,
अर्थ और भाव भी ,

प्यार करके मैं उसका ख्याल तो रख सकता हूँ ,
प्यार करके उसके ख्याल मैं भी रह सकता हूँ ,
पर प्यार करके मजाक नहीं कर सकता ,
की उसको हंसा सकूँ ,
और मैं उसको हंसा तो सकता हूँ ,
पर मजाक करके प्यार नहीं कर सकता ,

झूठ सुन्दर बिलकुल नहीं होता ,
पर मोहक होता है हमेशा ,
कभी चाहत जैसा कभी परवाह जैसा
कभी नशे की तरह कभी मजे की तरह

की सच नज़र नहीं आता आकाश में ,
सिर्फ रोशन होता है सूरज के साथ
की झूठ सुनाई देता है जमीन पर
और तारे कभी झूठ नहीं बोलते
की चाँद की रोशनी में पकती है नशीली बूटियाँ
जो प्रतिबिम्ब की अग्नि पर सिकती हैं !!

अ-से

लकीरें

बहुत कोशिश की 
सीधी लकीर नहीं खींच पाये,
लकीरो में उलझ कर रह गए,

क्या इसका था क्या उसका,
कहाँ कहाँ और कहाँ लकीर खींचते भला,
विभक्तियाँ कभी स्पष्ट नहीं हो पाती,

और फिर अपनी ही खींची लकीरों 
का पार पाना असंभव सा है

बस लकीर पीटता रहता है इंसान ताउम्र,
और अपने ही बनाये यंत्रों में उलझे हुए अस्तित्व में
लकीर का फ़कीर बना भटकता रह जाता है,

आड़ी तिरछी लकीरों के बीच
खुद को कोसते हुए
लकीरों को बदलने की असफल कोशिशें करते हुए
अपने अहम को पुष्ट करते हुए
एक दिन हो जाते है पत्थर हम
जिन पर उभर जाती है कुछ और लकीरें!!

अ-से

( प्यासे पंछी -11 )

कभी घोंसलों में 
कभी सूखी टहनियों पर 
बैठे रहे बिताते रहे 
बदलते मौसम बदलते आशियाने 
पंख फडफडाते रहे रह रह कर 


रुंधे हुए गले से गीत गाते 
चहचहाते , और थक कर चुप हो जाते 
रात तक उड़ते बेसबब 
और फिर अंधेरों में खो जाते
करते सुबह का इन्तेजार

बारिशों में भिगो लेते पंख
बेबस फिर उड़ नहीं पाते कुछ देर तक
और फिर से वही तलाश
फिर से बेतरह उड़ते फिरना

आसमान सर पर है
जमीन कहीं नहीं नज़र आती
और जो नज़र आती है उसका समय तय है
फिर से छोड़ देना है आशियाँ
की पर मारते रहना ही है नियति

आखिर कितना भर चाहिए था
गला तर करने को
पर मन की प्यास है
की बुझती नहीं है
कि फिर तलाशा जाएगा
एक नया आशियाँ
बनाया जाएगा एक नया घोंसला ...

शब्द कणिंकाएं


एक विशेष प्रकार की कणिंकाएं 

हैं उनके रक्त में
शब्द कणिंकाएं
उनके भाव शब्दमय हैं
जो हर संवेदना पर छलक जाते हैं
पलकों के भीतर से 

वो लोग जिनके दर्द, खुशी सब शब्द हो जाते हैं
इतने मूर्त कि आँखों से दिखाई देते हैं
उन्हें ज़बान की जरुरत नहीं
उनकी नसों में बहते हैं लफ्ज़
उनकी जिंदगी कहानी हो चुकी है
और हर अनुभव कविता
हर संवेदना, हर टीस, हर एहसास
कुछ भी अनकहा नहीं
उनके पास अनेको स्वर हैं
पर फिर भी
वे अपनी बात नहीं कह पाते
के उनके शब्दों को समझना
बेदिल बेख्याल लोगों के बस का नहीं
के लिख देने भर से बात नहीं पहुंच जाती
नर्म गीली ज़मीन चाहिए
उन्हें किसी दिल में उपजने को !!

अ से 

गर्मियों के नीरस में हलके हलके सुख ...



सब कंचे चमकते हैं अलग अलग सी ख़ुशी से ,

कुछ कंचे उदास भी हैं , बावजूद इसके वो भी चमकते हैं ,
रंगीन कांच , बर्नियों के पार देखना , 
गर्मियों के नीरस में हलके हलके सुख ...

सीढियां , चटाई , फर्श , आइना और उदासी ,
मेज , दीवार घडी और ये की-बोर्ड 
तुम्हारी आँखों की चमक ,
सब तो है यहाँ ,
सब की खनक है ...

सब कुछ तो बात करता है ,
फिर इतना सन्नाटा क्यों हैं ,
जबकि मैं खाली हूँ किसी भी दुःख से ,
कोई बहाव नहीं ,
किसी ख़ुशी की चमक है हलकी सी चेहरे पर ,
पर लहर नहीं आती ,
फिर बिना सागर ये दो सीप क्यों हैं ...

जिंदगी सतत चमक रही है सूरज सी ,
सपनों में लहर है पानी सी ,
ठहराव कहाँ उसमें ,
कहाँ संभव है हर ख्वाब का बस पाना !!

~ अ-से