Feb 19, 2014

" The Facebook School "





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रात्रिकालीन कक्षा थी .....
सभी बच्चे अपने अपने अपने होमवर्क से मुक्त हो हर रोज की तरह ,
यहाँ बैठे आपस में बतिया रहे थे , कि
दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर साहब के क़दमों की आहट हुयी ,
उनके आते ही बातचीत खुसफुसाहट में बदल कर एक गहन शांति में तब्दील हो गयी ,
शब्दों को अगर रंग कहें तो वहां कृष्ण रंग भर गया ...

वो अपने हाथो में पकडे हुए एक गुलाब को घूरते हुए से आये ,
कुछ देर खामोश रहे ... और बोले ...
देखो इस गुलाब को ध्यान से देखो ... इसके प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारो ...
इसके रंग इसके आकार इसके गुणों को देखकर बताओ की ये प्रकृति की कौनसी अभिव्यक्ति है ,
इसके माध्यम से प्रकृति क्या कहती है ... चेतना में ये कैसी गंध बिखेरता है आखिर ....

सभी बच्चे गर्दन मोड़ घुमा एक दुसरे की तरफ देखने लगे ,
तब एक बच्चा खड़ा हुआ और हिम्मत करके बोला ...

गोरिल्ला फिंगा : अब मैं तो गलती से यहाँ आ गया ... मैं तो इधर से गुजर रहा था ... दा को देखा तो इधर मुड़ गया ... सच कहता हूँ !!

अध्यापक : कोई बात नहीं , दर्शन तो सबके लिए एक सा ही है पर फिर भी सब अपनी अपनी दृशी शक्ति से उसे अलग अलग देख कर अपने स्वभाव अनुसार ही तो व्यक्त करते हैं , तो बताओ तुम इसे देखकर ... क्या महसूस होता है !!

गोरिल्ला फिंगा : ( है भोले कहाँ फंसा दिया ) इस संसार में निर्गुण सगुन सृष्टि सृष्टा ... कुछ नहीं है ... कुछ भी नहीं .. सिर्फ और सिर्फ भाव है , एक ही विशुद्ध चेतना से निकले हुए , सर !!
तो मुझे तो यह फूल भी बहुत भोला ही लग रहा है , मुझे लगता है जब मैं इसे देख रहा हूँ तब कहीं किसी और जगह शायद किसी पेरेलल यूनिवर्स में गुलाबों का एक बगीचा खिल आया होगा !!

सभी बच्चे खिलखिलाने लगे ... अध्यापक उन्हें शांत होने का इशारा करने लगे ,

गोरिल्ला उनकी ओर मुड़कर बोला : अब हँस क्यूँ रहे हो बे ,
सकपका रहा है भेजा , लगता तो जो भी है अब तुमसे क्या छुपाना है !!

तब अध्यापक ने एक अन्य छात्र की और इशारा किया , और वो खड़ा हुआ ...

मुकेश चन्द्र पाण्डेय : सर , मैं तो इसकी खुशबू से ही खुश सा होने लगा हूँ , मैं तो इसकी महक में ही खो जाऊँगा , क्या फूल है सर ,
मैं तो इसी की जीवनी लिख देना चाहता हूँ ... मैं आज इसे देखकर बहुत इन्स्पायर हुआ हूँ और जिंदगी भर इसकी खुशबू पर लिखता रहूँगा !!

अध्यापक : वो तो ठीक है बेटा पर तुम्हे इसे देखकर क्या लगता है क्या कहता है ये ??

तभी दरवाजे से एक और बच्चा कक्षा में प्रवेश करता है और मस्त क़दमों से बढ़कर कहता है ....

दर्पण साह : गुलाब अपने समस्त काँटों के बावजूद " इजीयेस्ट टू होल्ड इन हैण्ड " और अपनी अप्रतिम सुन्दरता के बावजूद " हार्डेस्ट टू गिव टू समवन " है !! मैं इसे प्रेम में पड़े किसी व्यक्ति की सोच " she loves me , she loves me not " का मूर्त रूप मानता हूँ !!

...... सॉरी सर मैं लेट हो गया .... ऑटो में एक पुराने गाने की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई थी तो उनकी पेरोडी बनाने में वक़्त लग गया , वो क्या है न ऑटो रिक्शा भी " डांस विद द ट्रेक " पर चल रहा था !!
सर पुनश्च :
बदले हैं तेवर मूड भी बदल गया होगा ,
पकडे हो अब गुलाब की माजरा क्या है !!

अ-से अनुज : दर्पण यार तुम्हारा भी जवाब नहीं , क्या कहा है मस्त , इसी तर्ज पर एक मेरा भी ...
अकड़े से हैं तेवर फूल भी झड गया होगा ,
जानते हुए मिजाज भी लाये ये खामखां क्या हैं !!

अध्यापक थोडा मुस्कुरा कर दर्पण को बैठने को कहते हैं , और कक्षा में एक इंटेलीजेंट से दिखते एक बच्चे को ,
जो की काफी देर से कुछ कहना चाह रहा सा जान पड़ता है , पर सही मौके का इन्तेजार कर रहा है , की तरफ इशारा करके कहते हैं ,
बेटा आप शायद कुछ कहना चाहते हो , कहो आपको क्या नज़र आता है ...

शैलेन्द्र सिंह राठौर : मैं भला क्यों कुछ कहना चाहूँगा , जबकि मुझे पता है की वो गुलाब खुद क्या कह रहा है , ज्ञान के स्तर पर भी और ईगो के भी (भला दुनिया मैं कुछ है जो चेतना को न पता हो ) हाँ पर विखंडनवाद के अनुसार रूप और वाक् के वैयक्तिक तत्व विभेदात्मक संबंधों पर आश्रित होने के कारण यहाँ गुलाब का कथन ' उपस्थित ' नहीं हैं पर ' अनुपस्थित ' भी नहीं क्यूंकि ' वाक् ' अपनी झलक उन अदृश्य तत्वों की सहायता से दिखाता है जिनके विभेद से वो स्थापित है..इसलिए निर्धारित कथन की उपस्थिति अशक्य है और जो कुछ है वो वाक्य का 'प्रभाव' है ...... सो गुलाब के रूप से पता लग जाता है गुलाब के वाक्य के बारे में..... पर उसके दृश्य रूप से उसके आत्म के सम्पूर्ण का कनेक्शन तो कहाँ होता है भला !!

“Yesterday's rose endures in its name, we hold empty names.”
― Umberto Eco, The Name of the Rose

here is one more from ' The Book of Disquiet '

“Life is full of paradoxes, as roses are of thorns.”
― Fernando Pessoa .

दर्पण : अब गुलाब से ही पूछिए सब हाल- ओ- खयाल , जो की बगीचे से कैसे चुराये जाएँ से तुम्हे किस बहाने दिए जाएँ के बीच की जद्दोजहद में मेरा दिल बना हुआ है !! " आखिर कौन बता पाया है आज तक !! "

ऐसे प्रतिभावान बच्चों से काफी प्रसन्न नजर आते अध्यापक ने तब एक सजग से बच्चे को देखकर जो कक्षा की खिड़की के बाहर उड़ती किसी तितली को काफी गौर से देख रहा था , से पुछा .... बेटा क्या देख रहे हो और ये गुलाब तुम्हे क्या कहता है ...

मनास ग्रेवाल : मैं देख रहा हूँ एक मादा तितली भी अपने अण्डों को नर तितली के भरोसे छोड़ने का जोखिम नहीं उठाती क्यों की वो जानती है कि ये कदम पृथ्वी पर मादाओं के अस्तित्व के अंत का सन्देश होगा ... उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा अपने लचीले पंखों से ही करनी होगी !!

फिर अगर मैं कहूँगा गुलाब ,
तो पृथ्वी पर सब स्त्रियाँ शस्त्र उठा लेंगी ,
वो अब और किसी को अपने जिस्म को कोई मखमली शाल सा नहीं ओढ़ने देंगी ,
बल्कि तेज नुकीले कांटो सा पैना चरित्र भी अपने अस्तित्व में गढ़ लेंगी ,
जो उनकी कोख और ममता के रक्षक तो बनेंगे ही ,
उनकी अस्मिता और सुन्दरता को भी छीने जाने के खिलाफ क्रांति और संघर्ष की मशाल बनेंगे !!

अध्यापक ने उसे शाबासी दी और इधर उधर के खयालों में खोये एक बच्चे से कहा ...
बेटा अब तक तुमने अपने सहपाठियों से इतनी अच्छी अच्छी व्याख्याएं सुनी ... अब तुम भी कुछ कहो क्यों गुमसुम से बैठे हो ...

अ-से अनुज : सर , मैं इस कक्षा में नया हूँ , अभी दो चार दिन पहले ही आया हूँ ,
ये फूल भी मैंने आज ही देखा है और आप ही से सुना की ये गुलाब है ,
सच कहता हूँ ... मैंने आज तक ये या ऐसा कुछ किसी को नहीं दिया !!

अध्यापक : बेटा , वो तो ठीक है पर जो भी तुम्हे लगता हो वो ही कहो ...

अ-से अनुज : अतीत के सबसे अंतिम जड़ छोर पर सोये एक संवेदन को ,
स्पंदन होने पर जानने में आये अपने आत्म और अपने अभ्युदय के लिए ,
काँटों सी वेदनाओं और गुरुत्वीय भार सी रुकावटों से गुजरना पड़ा ,
वहां से ... उसका ... मृदु वेद और क्रियाशीलता लिए पत्तियों तक का सफ़र एक पौधे की जड़ों और तने में बदल गया ,
और इस सफलता से प्रेरित वो संवेदन अब अपने सकल अस्तित्व को सुधारने ,
और अपने प्रेम से बाकी सुप्त पढ़ी संवेदनाओं को जगाने और साथ खिलखिलाने के लिए ,
वाग्मयी प्रकृति के घुमावदार रास्तों से शब्द दर शब्द गुजरने लगा ,
हर खूबसूरत शब्द कोई लाल सी रंगत ली हुयी पत्ती बन गया ,
और जैसे जैसे संवेदन अपने आत्म पर केन्द्रित होने लगा ,
वो एक गुलाब सा खिल कर महकने लगा !!

तब एक संकोच में पड़ी हुयी , खुशनुमा सरल बच्ची को देखकर टीचर को बड़ा प्यार आया , उन्होंने उससे पुछा क्या लिख रही हो ,
वो बोली ,

अपर्णा अनेकवर्णा : सर मैं सुनाऊं !!

अंतस की ,
एक उत्फुल्ल सरलता ,
एक प्रफुल्लित भाव ,
जीवन के आँगन में यूं कैद ,
गरजती लहरों पर ,
लरजती नाव सी बहने ,
बस यूँ ही चहक जाने को मुस्तैद ,

कैसे आये वो सर्द बहार ,
कैसे हो जीवन साकार ,
कहाँ होगा वो मृदु जहान
कब मिलेगा खुला आसमां ,

मौसम दर मौसम ,
काँटों के बीच ,
सहेजती रही जो मिठास ,
अपनी मीठी गंध को ,
अब देना है प्रश्वास ,

अपने प्रेम , अपनी ख़ुशी ,
अपने उत्सव को दे सकूँ वर्ण ,
थाम कर ये लोक-प्रलाप ,
गुलाबी रंगत , कोमल पांखुरे ,
नयनाभिराम अपने एहसासों को ,
बना देना है अब एक गुलाब !!

वाह बहुत सुन्दर , अध्यापक ने कहा ,
हिम्मत पाकर वो फिर बोली ,

जाने कब से था ये दिल के बहिश्त में कैद ,
इस जज़्बात को अब जीने की चाह मारी है ,

बंद लफ्जों के एहसास जो चुभते थे कभी शूल से
ये खिला गुलाब अब उसी की जवाब दारी है !!

सभी ने उसके प्रयास को सराहा , अध्यापक ने भी थपथपाया !!

क्लास की एक बच्ची को पोएम लिखने का बहुत शौक था ,
उसने सर से पूछा और गुलाब के बारे में अपनी बात कही ...

राजेश जोशी :
it's ,
a story of love ,
an eternal bliss ,
an endless poem ,

she gifted ,
the most wonderfull thing ,
to her lover
who for her the god of love ,

when they didnt let her ,
go with him ,

she melted and lost in soil ,
and started to live ,
with the dew ,
with the vibrations ,

and some days later ,
in calm and cool ,
and pleasuring atmosphere ,
when he came there ,
he found a plant ,
with a wonderfull flower ,
laced in a sweet fragrance ,
wrapped in silence ,
revealing secrets,
reminding him of her
enveloped in Love ,
the rose !!

सब एक पल खामोश थे , और अगले पल खुश !!
फिर एक खुशमिजाज और बाकी से अनुभवी लगती बच्ची अब उस देवपुष्प को अपने शब्द देती है !!

वीना बुंदेला :
हर पूर्णता समेटे है अपने में दो पहलू ,
एक श्वेत और एक श्याम ,
एक जमीं हैं ख्वाब की , एक आकार ,

जब मिलता है कहीं से सबब जीवन का ,
भरोसा सच्चे मन का ,
कोई शाख हरी , कन्धों पर लेती है रक्षा भार ,
कांटे बचाए रखते हैं नमी बरकरार ,

उस दिन वहां सपने स्वर्ग से उतरते हैं ,
प्रेम की खुशबू से सराबोर ,
गुलाबी मृदुता या सुर्ख समर्पण के ,
और खिल जाते हैं ,
सच्चाई की शाख पर ,
एक गुलाब बनकर !!

और तभी बाहर मिड-ब्रेक के लिए घंटी बज उठी और सभी बच्चों के चेहरे खिल उठे ,
अध्यापक ने ब्रेक के बाद बाकी बच्चों से भी तैयार रहने को कहा और चले गए ...

वो गुलाब अब कक्षा के बंद कमरे के शांत अँधेरे में एक मेज़ पर लेटा हुआ है ...
और जाने क्या गुनगुना रहा है !!


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ब्रेक के बाद अब कक्षा चहली-पहली है , बच्चे अपनी दिनभर कि मौज मस्ती बाँट-बतिया रहे हैं ,
तरह तरह के टॉपिक्सों गाने , पोयम्स , राजनीति और खेल कूद पर वो अपना ज्ञान सुलझा रहे हैं ,
दर्शन के अध्यापक फिर से कक्षा में प्रवेश करते हैं … अब उनके हाथ में एक किताब है ,
वो किताब मेज़ पर रख कुर्सी पीछे खींच कर उस पर बैठते हैं ... एक ठंडी आह लेते हैं ... और फिर किताब को कहीं बीच में से खोलते हैं ,
उसके बीच एक सूखा हुआ गुलाब रखा है ... वो उसे एक पूरी नज़र भर देखते हैं ... और फिर बच्चों की तरफ सर घुमा कर कहते हैं ....

" दो जिंदगियों के बीच में कहीं सहेजा हुआ सा प्रेम , दो अधूरे किस्से और पूरा हुआ सा प्रेम ,
वक़्त के भंवर में बचा रह जाता है अगर कुछ , तो यादों की किताब और सूखा हुआ गुलाब !! "

और फिर थोड़े गुस्से में कहते हैं --- Guerrilla ! stop jumping on the desk , just sit in the proper way !!
और फिर शांत हो मुकेश की तरफ निगाह कर लेते हैं !!

मुकेश चन्द्र पाण्डेय : Sir ... This rose is whispering silence in my ears ...

it says ...
I never was a part of this book ,
but i have been an important chapter in between ,
I feel glad belonging to those true hearts ,
where silence could be felt,
where , there are ...
no complains, no make over ,
no feelings of sorry for whatever happened .

love is the light comes through a burning filament
bound between the two hearts set in the bulb of life ,
where there is no need of any Sun or moon ,
it is an independent source of light which makes us free .

" The love atteched with me will never die ."

सभी बच्चे भावुक हो गए और तब गुरिल्ला ने टेबल बजा और एक गजल गा कर माहौल सामान्य किया ...
टीचर ने शायराना अंदाज लिए बैठे एक बच्चे को खड़ा किया ...

संदीप रावत :
गुलाब की पत्तियां कई किस्से कहती रही ...
बाकी बचा रहा किसी एक का प्यार ....

उसके संदेशों को भर भर आँखें देखकर ,
सबकी नज़रों से छुपाते रहे ,
एक लम्हे को जिन्दा रखा ,
एक हिस्से को मार कर ,
और खोते हुए रंगों में से ,
बचा लिया एक ,
मगर बचा कर रखते भी तो कहाँ ,
दुनिया छोटी थी ,
दिल कमज़ोर ,
एक अलग सी दुनिया में ,
पाक से एक हिस्से में ,
सहेजा हुआ है , अब उसको !!

एक बच्चा अचानक पीछे से बोला ....

दर्पण साह : प्रेम का सूखा हुआ गुलाब किसी भी ताजे फूल से ज्यादा हरा होता है क्योंकि वो अपने समस्त सूखेपन के बावजूद यादों में नम रहता है

शैलेन्द सिंह राठौर : " आँखे नीली कर गया सूखा हुआ गुलाब " .... भारतेंदु हरिश्चंद्र

टीचर ने तब अपर्णा से पुछा कुछ लिखा ?
वो बोली ,

अपर्णा अनेकवर्णा : हाँ सर , ये रहा ...

लिखे सजे थे जो पन्ने ,
कोरे शब्दों से बस ,
थी वो किसी जीवन की किताब ,
दो लम्हों के बीच कहीं ,
जाने कहाँ निकल आया ये गुलाब ,

इसी ने रंगे मायने ,
कोरे शब्दों पर ,
इसी से खिली बहार ,
सूखे रास्तों पर ,

सूखा है गुलाब ,
पर सुर्ख हैं वो यादें ,
जो सहेजी गयी हैं ,
दो कागजों के बीच !!

टीचर की नज़र एक शांत और सह्रदय सी बच्ची पर गयी उन्हें खड़ा किया गया , और उन्होंने अपने विचार रखे ...

प्रोमिल्ला काजी :
गुलाब ह्रदय के रस की बूँद ,
कांटे अतीत की टीस भर ...

यादों की किताब में
किसी एक पन्ने पर
मुझे दिखाई देता है
तुम्हारा दिल ,
सब बैठ जाता है वहीँ ,
सिर्फ एक महक उठती है !!

और इसके साथ ही फिर से घंटी बजी , अध्यापक को नमस्ते , बाय और विदा सर से नवाज बच्चे अपने बस्ते उठा दौड़ने लगे !! टीचर की यादों में कुछ खुशबू बसी सी है अब , कुछ सूखे गुलाब की , कुछ बच्चों के अंदाज की !!

~ अ-से

Feb 17, 2014

घडी : 3

कहीं कुछ कम सा था ,
बैचैन कुछ मन सा था ,
नज़रों की टटोल ,
खामोश घडी ने खोली पोल ,

कोई टिक टिक नहीं ,
झुकी हुयी ,
कल तक चलती थी जो ,
आज रुकी हुयी ,

वक़्त की जानकारी में ,
वो काफी जहीन थी ,
गति की समझ उसकी ,
काफी महीन थी ...

वो लिख लेती थी ,
बहती धारा से उत्पन्न ,
स्पंदों की नियमितता ,
और आज दिखा रही है ,
जीवन की अनित्यता ...

जाने कौनसा वो पल था ,
जब उसका संवेदन चुक गया ,
जाने कब सेल से मिलता हुआ ,
धारा प्रवाह रुक गया ...

~ अ-से

घडी : 2

एक घडी है बहुत बड़ी ,
उसमें कांटे हैं ढेर सारे ,
एक मौसम-ओ-मिजाज़ का ,
एक हकीक़त -ओ- ख्वाब का ,
एक साल दर साल का
एक दिन-ओ-रात का ,
और भी कई ,
हर पलक-ओ-पहर के !!

~ अ-से

घडी :1

शायद पगला गयी थी घडी की सुइयाँ ,
या ये उनका सबसे समझदार प्रदर्शन था ,

कभी घंटे और सेकंड्स की सुई बदल जाती थी ,
कभी रुक सी जाती थी तीनो ,

उसकी टिक टिक भी पूरी सृष्टि में शोर के लिए काफी होती ,
तो कभी घंटे की आवाजें भी चुपचाप पीछे से सरक जाती ,

हर अलार्म पर मैं जागता था और खुद को सपने में पाता था ,
तो नींद में किसी जमीन पर कुदाली चलाते नज़र आता ,

इतना सब हुआ पर कुछ भी तो नहीं लगता ,
कुछ भी नहीं हुआ पर कितना वक़्त गुजर गया ,

आखिर स्वप्न की उम्र ही कितनी होती है !!

~ अ-से

नींबू निचोड़ना भी कला है


नींबू निचोड़ना भी कला है
कडवाहट नहीं आनी चाहिए

निचोड़ ही कला है
यही
सभ्यता का विकास है

और रसोस्वादन
संयम और मधुरता का कार्य है
कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं
स्वयमेव होते हुए से लय बैठाने की कला

एक चित्रकार की भाँती
जो इतने छद्म और अविरत परिवर्तनशील दृश्य पटल से
निचोड़ता है एक चित्र को , अपनी सरल दृष्टि से
घंटो एकटक देखता है मूर्तिमान होकर
और केनवास पर उतर आता है एक जीवंत रस

एक कवि की तरह
जो जानता है निचोड़ना दृश्यों से शब्दों को और शब्दों से मन को
वो उतने अँधेर तक भी जाता है जहाँ दृश्य नहीं पहुँचते
और निचोड़ लाता है ह्रदय से कुछ चुनिन्दा रसों को
जिसको जोड़कर बनाये जा सकते हैं जीवंत गहरे और सार्थक रिश्ते
शब्दों और अर्थों के बीच

एक संगीतकार की तरह
जो अनगिनत ध्वनियो के बेतरतीब सामूहिक नृत्य की भूलभुलैया में से
निचोड़ता है उस सुरीले रास्ते को
जिस पर ले जाए जा सकते हैं दो कान और एक दिल

और एक प्रेमी की तरह
जो निचोड़ लाता है
समय के अथाह भण्डार से , जीने के लिए दो पल
और भावनाओं के समुद्र से , दो नमकीन बूँदें
और उकेरता है , एक दग्ध ह्रदय की अभिव्यक्ति पर
एक मुस्कान , जो नज़र आये चहरे पर ॥

अ से

ओ दुनिया ! चुप हो जाओ !


शब्दों को बहुत ही गौर से सुना है मैंने ,
अपनी उदगार के बाद से ही धीमे और धीमे
और धीमे से हो जाते हैं ,
पर कभी खामोश नहीं होते ,
चाहता हूँ सुन सकूँ
उन शब्दों के पीछे अपने कान ले जा सकूँ ,
जो भी उसने कहे थे उस वक़्त ...

वो शब्द वो घोष वो उदगार वो गूँज ,
वो खिलखिलाहट वो नाद वो आल्हाद ,
वो सभी बातें ,
वो सब यहीं हैं ,
मुझे पता है ...

पर बहुत शांत सी हो चुकी है ध्वनि ,
और बहुत शोर है मेरे मन में ,
सामाजिक ताप से दग्ध ह्रदय में ,
हाय-तौबा से कम्पित कर्ण पटलों में ,
सामर्थ्य नहीं नज़र आता ,
कि सुन सकें ...

उस मधुर कविता को ,
उन गीतों को ,
जो वक़्त ने पिरोये थे मेरे लिए ,
सिर्फ मेरे लिए ...

और वो समाते जा रहें हैं इस शून्य बेपरवाह आकाश में ,
ओ दुनिया ! चुप हो जाओ , मुझे सुन लेने दो ,
क्या कहा था उसने ,यहीं इसी जगह,
उस वक़्त !!

< अ-से >

टाइम पास


सब जग ढूंढो प्रेम नू , मिले न प्रेमी कोए ।
आपहूँ दिल जब जागे प्रीत , सब जग प्रेमी होए ।।
फिर भर बरबस बरसे प्रेम , आनंद घनेरा बोए ।
जो इक प्रेमी ते दूजा मिलै , सब तप शीतल होए ।।

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इक रात की नरमाई में घन घोर सवेरा हुआ ,
तन्हाई को तबाह कर दुनिया का बसेरा हुआ ,
खामोश दिल को चीरता शोर पनपने लगा ,
और दुनियावी चकाचौंध का सूरज चमकने लगा !!

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देखता हूँ सब और ...


देखता हूँ सब ,
एक दुनिया और अनेकों विचित्र आयाम ,
सरल दुनिया और जटिल मन मानस ...

एप्पल नीचे क्यों गिरता है , उसे ऊपर उठना चाहिए ,
पानी बहता क्यों है , उसे उड़ना चहिये ..

बदल देना चाहता हूँ सब ,
सुन्दर मनमाने आकार देना चाहता हूँ ,
सोचता हूँ समझता हूँ और उपाय ढूंढता हूँ ,
प्रयास करता हूँ कभी सायास कभी अनायास ,
और ये बन जाती है जिद मेरी ...

हाथ उग आते हैं शिल्प को ,
पैर उग आते हैं गति को ,
बदलने लगता हूँ मैं शक्ल दुनिया की ...

पर कुछ नहीं बदलता , सिवाय बाहरी सजावट के ,
मन चाहता है नये आकार , नए रंग , नए नियम ,
अजीब-ओ-गरीब चाहतों में खो जाता है ...

वो बंध जाता है अपने ही मत संकल्पों से ,
घुटने लगता है दम , साँसे भारी हो जाती हैं ,
धीमी हो जाती है समझ , जड़ ,
मेरा होना ही मेरी समस्या बन जाता है ...

अनमने ढंग से मैं लौटता हूँ ,
फिर से प्रकृति की तरफ ,
धीरे धीरे फिर से समझता हूँ उसको ,
जस का तस , अपने प्रायः स्फूर्त रूप में ...

स्वीकारता हूँ उसको , स्वीकारने लगता हूँ खुदको ,
नकारता हूँ कमजोरियां और पैठने लगता हूँ स्व में ...

मेरा होना भर ही पूर्ण होता है मेरे लिए ,
और शेष नहीं रहती कोई चाहत स्वयं के लिए ...

अ से

एक विज्ञानी ने कहा शक्तिशाली ही जीवित है ...


एक विज्ञानी ने कहा शक्तिशाली ही जीवित है ,
और सारे जीव अवसाद में आ गए ॥

प्रसन्नता का प्रकाश फ़ैलाने को प्रकट हुई अग्नि ,
उनकी ख़ुशी में जल जल मरी दुनिया सारी ॥

एक और बुद्ध निकला घर से ,
उसकी पत्नी ने उसे भगोड़ा घोषित कर दिया ॥

कूद पड़े पतंगे खुदकुशी करने को ,
नहीं आया नाखुश दुनिया में खुश रहना उन्हें ॥

शोक त्यागकर वो अशोक क्या बना ,
कि पूरा कलिंग शोकमग्न हो गया ॥

एक चंगेज और निर्मम हुआ ,
मारी गयी ममता हज़ारों की ॥

वो सिखाते रहे करम आगे बढ़ने का ,
और हर कदम को पाप बताते रहे ॥

सभी तरह की गुलामियों में सबसे बुरी है प्रेम में गुलामी ,
सब जानते बूझते भी बेगारी और दासता स्वीकार करना ॥

< अ-से >

प्रीत से आहत मन

प्रीत से आहत मन ,
कुछ ही पलों में कर आता है अनगिनत यात्राएं ,
और आ कर बैठ जाता है फिर ह्रदय के अँधेरे में ,
रौशनी की और खुलने वाली सभी खिड़कियाँ बंद कर ,
अपनी ख़ामोशी तक अपनी दुनिया सीमित कर ,
उस बच्चे की तरह जो कहीं से झगड कर आया है ,
उस वृद्ध की तरह जिसे अब और कहीं जाना नहीं ॥

और फिर से कोई शोर,
देने लगता है मानस पटों पर ,
दस्तक पर दस्तक ,
सभी स्मृतियाँ सशरीर गुंजायमान होने लगती हैं ,
बैचैन मस्तिष्क भूल सा जाता है सांस लेना ,
और तभी ,
एक अहम् शांत कर देता है सब कुछ ,
याद दिलाता है वस्तु स्थिति ,
और भी कई काम हैं ,
किये जाने की प्रतीक्षा में ॥

कोई एक काम किया जाता है शुरू ,
बेमन से ,
नाखुशी की उठती गिरती लहरों के बीच ,,
कभी शोर को दबाया जाता है ,
कभी आहत भावनाओं से ध्यान हटाया जाता है ,
काफी जद ओ जहद के बाद आखिर ,
संभलता है ये दिल ,
खुद से किये इस वादे पर ,
की बस ,
अब और नहीं ॥

< अ से >

Feb 13, 2014

शांति


एक चाँद ऊपर ठहरा है ,
एक बहती हुयी झील है ,
एक पंछी डाल पर बैठा है ...

सूरज की चमक चाँद पर पड़ती है ,
चाँद की चमक झील पर पड़ती है ,
झील की चमक पंछी की आँखों में ...

और सब खामोश हैं !!

शून्य


पात्र का भराव , पात्र से ज्यादा कहाँ होता ,
सब कुछ इस शून्य आकाश में है शून्य भर !!

शून्य का अंत कहाँ होता , हद कहाँ होती ,
असीम और अनंत सब कुछ है शून्य भर !!

जिसे भी आधार माना जाता , वो कहाँ कहीं जाता ,
आधार अचल रहा और हर गति शून्य भर !!

मन कहाँ रूप लेता , मन कहाँ गिनती में आता ,
भावों का समुद्र मन भी है बस शून्य भर !!

शून्य से उत्पन्न सृष्टि शून्य में टिकी रहती ,
शून्य में विलीन हो जाती कुल परिणाम शून्य भर !!

 अ से 

मैं खुद से भाग कर कहाँ जाता !


भागता रहा , यहाँ वहाँ ,
पर खुद से भाग कर कहाँ जाता ,

गढ़ता रहा , हज़ार झूठ ,
पर खुद को कैसे झुठला पाता ,

नज़रें बचाता रहा , यहाँ वहां देख कर ,
पर सामने से ठीक ना हटा पाया ,

कुछ " गुनाह " कहे गए थे , गुनाह हों या नहीं ,
पर अंतस को कभी ना मना पाया ,

मिलना चाहता था , बहुत एक अरसे से ,
सीधे सीधे हिम्मत नहीं जुटा पाया ,

काफी वक़्त गुजर गया लगता है ,
हरकतें अब मन छोड़ रही हैं ,
समझ बस उतनी ही शेष है ,
आँखें स्वभाव तक नम हैं ,

अब ,
उसके द्वार खुले हुए हैं ,
और मेरा दिल भरा हुआ ... !!

अ से 

Feb 9, 2014

परिंदे

वो देखता था परिंदे ,
रंग बिरंगे परिंदे ,
और पाता था खुद को उनमें ...

फिर वो दौड़ने लगा उनके पीछे ,
उनको पकड़ने ,
उन बागानों में , मैदानों में ...

थकता , हांफता , शांत होता ,
और फिर दौड़ता ,
उनके पीछे ..

जब एक दिन ऊब गया ,
तो पाया ,
वो सब परिंदे खयाली थे ..

उसके खुदके खयाल ,
रंग बिरंगे ,
उड़ते भागते ,
मुक्त आकाश में ,
और अब वो दौड़ नहीं पाया ,
उनके पीछे ...

अब ,
ना कहीं वो परिंदे थे ,
ना ही कोई मैदान !!

< अ-से >

Feb 8, 2014

विश्वसाघात :1


ये तेरी छाँव सी जुल्फें ,
जिसमें से छन कर आती है रौशनी ,
Photo: ये तेरी छाँव सी जुल्फें ,
जिसमें से छन कर आती है रौशनी  ,
ये तेरा चाँद सा उफ्फाक चेहरा , 
अँधेरे को मद्धम चाँदनी बख्शता  ,
रस-ओ-गुल से भरे तेरे लब ,
हूँ उतरता डूबता तेरी मौज-ए-इश्क में ,
की इन बाहों में समेट लूं तुझको ...

" मुझे ख़ुशी है की तुम्हे मुझसे इतना इश्क है  , 
अब जब तुम पिता बनने वाले हो इसके ,
तो फक्र है कि मैंने तुमसे मुहब्बत की "

क्या ? कब ? किसका ? ओह ... 

" कहाँ जा रहे हो ? "

अब बचा क्या है यहाँ , ना हूर , ना नूर , 
मुझे इश्क था एक नाजनी से ,
एक जवाँ शोखी से ...
मैं नहीं देख सकता तुझे एक माँ ,
और नहीं झेल सकता किसी को ,
मा मा मा करके रोते हुए !!

< अदना >
ये तेरा चाँद सा उफ्फाक चेहरा ,
अँधेरे को मद्धम चाँदनी बख्शता ,
रस-ओ-गुल से भरे तेरे लब ,
हूँ उतरता डूबता तेरी मौज-ए-इश्क में ,
की इन बाहों में समेट लूं तुझको ...

" मुझे ख़ुशी है की तुम्हे मुझसे इतना इश्क है ,
अब जब तुम पिता बनने वाले हो इसके ,
तो फक्र है कि मैंने तुमसे मुहब्बत की "

क्या ? कब ? किसका ? ओह ...

" कहाँ जा रहे हो ? "

अब बचा क्या है यहाँ , ना हूर , ना नूर ,
मुझे इश्क था एक नाजनी से ,
एक जवाँ शोखी से ...
मैं नहीं देख सकता तुझे एक माँ ,
और नहीं झेल सकता किसी को ,
मा मा मा करके रोते हुए !!

< अ-से >

कौन मरा है भला आज तक

दृश्यों की अनंत धाराओं में से एक का हिस्सा हुआ मैं,
जोड़ता हूँ उसी दृश्य के अन्य हिस्सों को ,
और बुनता हूँ एक कहानी ॥

उस कहानी के अनेकों पात्रों में कुछ उस धारा से पृथक हो ,
जुड़ जातें हैं किसी अन्य दृश्य धारा से ,
कहानी के कुछ पात्र डूब जातें हैं शोक में ॥

इस धरा के सभी तथाकथित निवासी कभी छूते नहीं ज़मीन ,
वो आकाश से अलग होकर बसते हैं ,
खुद ही की माया में ॥

पलक झपकते ही बदल जाती है दृश्य धारा ,
पलक दरियाव के हर बहाव से बचता बचाता ,
जी रहा हूँ मैं खुदको ॥

आँखों से नज़र आती मन से बुनी हुयी ,
बनते बिगड़ते दृश्यों की अस्तित्वहीन सत्ता से पृथक ,
दृश्यों की अनंत असीम धाराओं के तबादले में बचा रहता हूँ मैं ॥

कोई किसी दृश्य धारा में बहे, किसी से पृथक हो , किसी से जुड़े ,
पर क्योंकि वो स्वयं में स्थित है , वो चिर स्थिर है ,
कौन मरा है भला आज तक ॥

< अ-से >

वादा

जब वो वादा किया गया था ...
किसे पता था कहीं एक गाँठ उपजेगी आकाश में
जो तब भी वहीँ होगी जबकि पूरा ना किया जा सकेगा
वो वादा जो बंध जाता है एक गाँठ सा अस्तित्व के धागों में !
फिर चलती हुयी आंधियों ने चिपका दी उस पर मिट्टी ,
मौसम की नमी ने उसे कई बार भिगोया ,
बहुत से फफूंद अब शरीर हो चुके थे उसका ,
कई बार की धूप में सूख कर फिर वो सख्त होने लगी !
फिर उस गाँठ ने स्वीकार किया वहीँ बसना ,
बीच बीच में किये जाते रहे और भी वादों के साथ ,
कुछ वादे विरोधी निकले कुछ परस्पर प्रेमी ,
वहां बन निकली एक बस्ती उनके नाम की ,
लड़ना झगड़ना रोना धोना खिंचाव तनाव
बस कर हो गया पूरा शहर
नदी नाले सड़क बाज़ार घंटाघर चौक दीवार ,
सब कुछ बातों का ही बना हुआ !
अब वो गाँठ पक चुकी थी ,
लहसुन की सी सड़ांध आती थी उससे ,
बातें रिसने लगी वो जो नहीं बताई जानी थी
और वो जो बताई जानी थी खामोशी से ,
भीड़ जमा होने लगी तमाशे को ,
और फिर उस हिस्से में लगने लगा जाम ,
हवा का भी आवागमन बंद होने लगा ,
कोई आवाज़ भी बमुश्किल पहुँचती थी वहाँ ,
साँस लेना लगातार मुश्किल हो रहा है ,
और समझ नहीं आता था कुछ भी ॥
ठूंठ बनने से पहले ,
याद आती थी कभी कभी उन वादों की ,
पर कैसे खुले वो गाँठे समझ नहीं आता था ,
खुली हवा का स्वाद लेने की तड़प तो कई दफा उठती थी ,
पर धीरे धीरे उन साँसों ने दम छोड़ दिया !!
अ से

Feb 6, 2014

गुलाब ( happy rose day )



शीत-विदा की नर्म-सर्द-गुलाबी रुत-रंगत से लिपटे ,
मंद-स्वच्छंद बहती पवन के स्पर्श लिए खिलते ,
प्रेम-अनुभूति के मौसमी-मिजाज़ में सिमटे ,
चैती !!

रंगीन पंखुड़ि ' पाटल ' ,
सदैव तरूण ' तरूणी' ,
शत पत्र लिए ‘ शतपत्री ’ ,
कानों की आकृति बनाये ‘ कार्णिका ’ ,
सुन्दर केशर युक्त ‘ चारुकेशर ’,
लालिमा रंग लिए ‘लाक्षा’,
और गन्ध पूर्ण ' गन्धाढ्य '
गंध और रस के गुणों से गुणित-पूरित ,
कुण्डलिय वलय को वेदते ,
तितलियों भंवरों को मदमदाती महक केसर पर निमन्त्रते ,
मदन-मद !!

फारसी में गुलाब ,
अंगरेज़ी में रोज,
बंगला में गोलाप,
तामिल में इराशा,
तेलुगु में गुलाबि ,
अरबी में ‘वर्दे’ अहमर ,
रूप , लावण्य और सौन्दर्य की अद्भुत अभिव्यक्ति ,
देव पुष्प !!

< अ-से >

Feb 5, 2014

Song -1

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

अपने ही जहाँ में हूँ बसा ,
अपने ही ख़याल में डूबता ,
आँखों में आसमान हो ,
मन को वो फिर आफताब दे ,
मुझको भी कोई ख्वाब हो ,
वो अश्क बेहिसाब दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

बेखबर सा हूँ एक अरसे से ,
अपनी ही खबर की तलाश है
बेसबब है ये दिल यहाँ ,
इश्क सी कोई शराब से ...
मुझको आकर जताए फिर ,
मुझको भी कोई प्यास है ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

मुझ को भी जीना करार दे ..
मेरी सांसों में पुकार दे ...
अब तलक हूँ मैं यहाँ , मुझको कोई ऐतबार दे ...

< अनुज >

कवि और चितेरा

उसने कूँची चलाई ,
खिल मिल उठे सब रंग ,
साकार हुए रस रूप ,

उसने कलम उठाई ,
घुल मिल ने लगे सब शब्द ,
बहने लगे राग भाव ,

किसी ने संज्ञा उसे कवि ,
अहम् कवि सा हो गया ,
संसार कोई गुंजायमान कविता ,

किसी ने संज्ञा चितेरा
अहम् चितेरा हो गया ,
संसार एक बहता हुआ चित्र ,

अब आत्म कवि का ,
रति है ,
सुरसति है ,
सुनता है जहान ,
गढ़ता है जमीन ,
और रचता है वाक्य ,
जहन में ,
आकाश भर के !!

और अब चितेरा ,
रमा है ,
उमा है ,
देखता है दृश्य ,
रंगता है जमीन ,
ह्रदय में ,
प्रकाश भर के !!

< अ-से >

स्त्री

मुझे तुम्हारी खूबसूरती आकर्षित नहीं करती , ये कहना झूठ होगा ,
पर मुझे अधिक आकर्षित करती है, तुम्हारी सुन्दर दिखने की चाहत ॥

तुम्हारे करीने सलीके मुझे मजबूर करते हैं तुम्हे पसंद करने को ,
बिना किसी जोर आजमाइश के मन मुताबिक घुमाव देना हर चीज को ,
स्पर्श की अद्भुत कला लिए हैं तुम्हारे हाथ ॥

इसे स्वार्थ समझा जा सकता है , पर ये किसी भी इश्वर के स्तर का आत्मनियंत्रण है ,
जब तुम शालीनता से मुस्कुराती या शरारत से खिलखिलाती हो ,
तब जबकि सब और दुःख ही बिखरा हुआ है ॥

पूरे परिदृश्य को एक सार में समझ पाने के लिए विरक्त होना ही होता है ,
पर दृश्य का हिस्सा बन के जीना इससे कहीं मुश्किल है ,
ये अभिनय का वो स्तर है , जहाँ सत्य कल्पना को गले लग कर सुबकता है ,
मुझे पसंद है तुम्हारी अनुरक्ति ,
तुम्हे दृश्य से अलग कर पाने की तमाम कोशिशें नाकाम है ,
तुम्ह विरक्तियों को भी दृश्य में घोल सकती हो ॥

फिर भी मैं तुम्हे अनुरक्त पुरुष नहीं कहलाना चाहता ,
न ही किसी बारिश की तरह सृष्टि को देखता हूँ अब और ,
मैं एक नर का विरक्त स्त्री कहलाना पसंद करूंगा ,
और किसी वृक्ष की तरह उपजती सृष्टि नीचे से ऊपर की ओर ॥

मैं तुम्हे किसी महकते गुलाब की तरह नहीं सूंघ सकता ,
न ही तुम्हे किसी रेशमी शॉल की तरह ओढ़ना चाहता हूँ ,
तुमसे मेरा प्रेम तुम्हारे आत्म सम्मान से जुड़ा है ,
मुझे पसंद है तुम्हारा वो रूप जिसमें श्री और मेधा झलकती हो ,
जिसमें रंग की उजास से ज्यादा व्यक्तित्व की चमक नज़र आती हो ॥

अगली दफा जब मैं अध्यात्म लिखूंगा ,
मैं लिखूंगा पुरुष को स्त्री का अंश ,
जैसे लगते हैं किसी पेड़ में फल ,
जैसे एक पौधे में खिलते हैं कमल ,
बस , वैसे ही ॥

< अ-से >

पठन


लिखी पढ़ी हर किताब का अर्थ बस मैं ही था !!

मैं शब्दों में खुद ही को सुनता रहा ,
वो अर्थों में मुझको ही कहते रहे !!

मैं प्राण की तरह बहता दृश्यों में
और भावनाओं में रंग कर लौट आता !!

एक लेखनी खाली कागज़ पर बिखरा देती संसार ,
और मनो पंछी चुन लेता अपने आत्म का चित्र !!

एक विचित्र सत्य लोक की यात्रा के बाद ,
फिर लौट आता इस स्वप्न संसार में !!

< अज्ञ >


नृत्य करता संसार

घूमता पंखा ,
चौराहे के चारों और दौड़ते वाहन ,
विधुत प्रवाह ,
धधकते कोयलों से दौड़ते इंजन ,
प्रकृति की शक्तियां भी कितनी रोचक हैं ...

सूर्य पृथ्वी चाँद ,
विशालकाय पिंड ,
अति भार ,
आसानी से घूम रहे हैं ,
अनुशासित ,
नियत ,
अनवरत ...

सूर्य का अद्भुत प्रकाश ,
अग्नि ,
वायु का प्रचंड तेज ,
जल ,
गति मान दृश्य ,
सतत परिवर्तन ,
भीषण और मृदु ...

ई और इ
अक्ष के दो घुमाव ,
वामावर्त और दक्षिणावर्त ,
एक में प्राणों का प्रवाह अधो ,
दूसरे में ऊर्ध्व ...


आत्म आधार ,
आधार का भी आधार ,
अविचल ....


विस्तार ,
सम्पूर्ण ,
असीम ...


आनंद ,
सम्पूर्ण आत्म में आकाश में फैला हुआ ...

अक्षर
मूल इकाई ,
स्थिर ,
ठोस ,
सनातन ,
कितना शक्त संसार ...

मात्र
चेतना की सन्निधि ,
और नृत्य करता संसार !!

< अ-से >

किताबें खुल चुकी हैं ..

किताबें खुल चुकी हैं
अब बाहर आने लगे हैं वो ...

किरदार ,
जिनको कवियों ने बनाया है
अमर ...

बीता हुआ सब एक बीज में बदल जाता है ,
और चेतना के स्पर्श मात्र से वो बीज वृक्ष बन जाता है ,
जैसे एक लिंक को क्लिकते ही पूरा पेज खुल जाता है ,
जैसे एक विचार के आते ही पूरा स्वप्न बदल जाता है ...

वैसे ही किताबों के खुलने से बाहर आने लगे हैं वो ....

< अ-से >

वो पौधा कैसा है भला ??

वो पौधा कैसा है भला ??
अच्छा या बुरा , सच्चा या झूठ मूठ का ...

कहीं हरी भरी पत्तियाँ , कहीं मुरझायी जर्द , कुछ नीचे झढ़ी हुयी ,
शाख पर तीक्ष्ण काँटे साधे हुये ,
और कुछ पत्तियों पर ओस की बूंदे चमकती सी ,
साथ कुछ नयी कोंपलें और कलियाँ ,
और फूल , फूल ... महकते महकाते , लाल सुर्ख रंग की सुंदरता ,
और फिर कठोर शाखाएँ ...

अनेकों विचित्र विशेषणों से लदा .... वो पौधा ,
वो पौधा कैसा है भला ??

< अज्ञ >

वो उठा और दक्षिण की ओर चल दिया ...

एक स्पंद के साथ उसने आँखें खोली ,
कुछ विचलन था हृदि में ,
उसको जानना था कुछ ,
शायद कोई विज्ञान ...

वो उठा और दक्षिण की ओर चल दिया ...

उसने देखे पर्वत , नदी , मैदान , वृक्ष , फल , फूल और घास ...
उसने देखी जमीन और देखे अपने पाँव ,
उसने हाथ उठाया और अपनी उँगलियों में बहाव महसूस किया , वायु का ,
नदी के किनारे अंजुली भर पानी पिया , और जानी अपनी प्यास और तृप्ति ...

उसने हर वस्तु को चिन्हित किया , तर्जनी रखकर ,
अपनी स्मृति में ,
महासागर तक पहुँचते पहुँचते उसने जान लिया था संसार ,
और वो जल बनकर समा गया समुद्र में ,
अब कोई विचलन न था !!

< अज्ञ >

यूं ही -2

मुमुक्षु का मतलब तो आप जानते ही हो , मोक्ष की इच्छा रखने वाला !!
क्या इच्छाओ से भी मोक्ष मिलता है ??

हाँ !! काम (इच्छा) भी प्रकृति ही है ... अगर आपकी इच्छा प्रकृति की इच्छाओं के समन्वय में है तब भी आप मुक्त ही हो ... उसे प्राकृत लय कहते हैं !!
जैसे श्री और आत्मसम्मान की इच्छा !!

वेद तो पूरी तरह स्वस्थ इच्छाओं के ऋचा रूप पर बने हैं ... सामवेद जो की कृष्ण अपना ही स्वरुप बताते हैं उसमें भी प्रार्थनाएं और कामनाएं ही हैं ... पर वो शुद्ध कामनाएं हैं वैकारिक नहीं ... जैसे स्वस्थ भावनाओं की स्थिति में आप चाहते हो की सब सुखी रहे , कोई बीमार ना हो , कोई अज्ञान ना हो ... तो ये भी आपको मुक्त ही रखता है !!
बंधन विकृतियों से है , शुद्ध काम और शुद्ध ज्ञान से नहीं !!
भगवान् विष्णु का एक नाम शुद्ध काम भी है ... और इच्छाओं का अस्तित्व तो चेतन तक जुड़ा है,
" अथातो ब्रह्म जिज्ञासा " भी ज्ञान रूप काम ही है !!

मन को मारना मुक्ति नहीं ... मन का विवेक के अनुसार चलना मुक्ति है ...
मन की मजबूती ही तो इच्छा शक्ति है .. वो स्तर जहाँ आप अपनी इच्छा अनुसार चल सकते हैं , जी सकते हैं शरीर छोड़ सकते है और नया जन्म ले सकते हैं या स्व में ही स्थित रह सकते हैं !!
वो मन ही तो मुक्ति है ... ये शब्द ज्ञान के अजीब अर्थ निकलने पर और नाटकीय बाबाओं के कथन पर ' मन को मारना ' शब्द निकला है ...
मनुष्य की मुक्ति तो मन की प्रबलता ही है .. हाँ ब्रह्म स्वरुप की मुक्ति पर-ब्रह्म होना है जहाँ मनः शून्य की अवस्था आती है ... पर वो भी मन का मरना नहीं मन का लय हो जाना है उच्चतर भूमियों में !!

< अ-से >

यूं ही

उस (चेतन) की सन्निधि मात्र से ही जड़ सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।

जैसे पूर्व में सूर्य दिखाई देते हैं और पंछी चहचहाने लगते हैं , और रात की गहरी नींद से जाग सब काम काज में लग जाते हैं ।

उसी तरह प्राणों का संचार जब मन / बुद्धि के सूक्ष्म छोरों तक होता है , तो मन / बुद्धि के वो स्रोत सक्रिय हो जाते हैं , जितने स्त्रोत लिखे गए हैं वो सब यही करते हैं !!

एक ही अव्यक्त चित्त (आधार चित्त ) अनेकों (व्यक्त ) चित्तों का कारण बनता हैं , सभी ईश , देव , प्राणी , जीव के चित्त एक ही मूल चित्त की अलग अलग भाव (मुद्रा) स्थितियाँ हैं , जैसे कभी हम खुश होते हैं कभी दुखी ।

सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी गति है चेतन के कारण से ही है , पर वो चेतन गति नहीं करता , पर जहाँ तक उसकी पहुँच होती है वहाँ तक कि सृष्टि में गति उत्पन्न हो जाती है ।

भग ह्रदय और संवेदना के अर्थ में लिया जाता है , भग-वान् शब्द का अर्थ भी -- संवेदन शील और महत्ता वान है , महत्ता इसीलिए क्योंकि चेतन/संवेदन का महत्त्व जड़ / बेजान से अधिक है ।

चेतना के संकल्प से ही ग्रंथियों का निर्माण होता है और उसी से देह आकार लेती है , ग्रंथों का मूल ये ही है। पर ग्रन्थ अत्यधिक संवेदनशील विषय है और इन्हें समझे बिना इन पर शोध खतरनाक है । ग्रन्थ , शब्द से सृष्टि निर्माण के व्याख्या रूप है ।

वैसे इस नोट का उद्देश्य ये सब बताना नहीं , बल्कि सभी ग्रंथों कि तरह ज्ञान और सृष्टि के प्रति सम्मान जताना है ।

" कण कण में भगवान् है " इस तरह के वाक्यों में उसे जानना नहीं होता , बल्कि उसके प्रति सम्मान रखना होता है । सूर्य चन्द्र पृथ्वी नक्षत्र पेड़ पहाड़ कुंवे सभी को पूजने कि जो परंपरा हमारे यहाँ है , उसका मूल भी सम्मान कि समष्टि ही है , सम्मान करने से ह्रदय में सम्मान का भाव पैदा होता है , इसी तरह प्रेम देने से प्रेम का भाव पैदा होता है , ( जाकी रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी ) ।

अधिकतर आध्यात्मिक आख्यान ' श्री ' विषयक हैं , ( सम्मान / आत्मसम्मान , श्री के सबसे करीब वो शब्द हैं , जो मैं जानता हूँ , exact नहीं पर करीब ) जब तक उनके प्रति सम्मान की दृष्टि नहीं होती उनका मूल भाव जानने में नहीं आता।

भक्ति , पूजन , प्रार्थना आदि सबका मूल भी हृदय में सम्मान का भाव पैदा करना है ।

सोऽहं , शिवोऽहं , अहम् ब्रह्म अस्मि , तत त्वं असि , आदि ब्रह्म वाक्यों से भी यही बताया जाता है कि आप वो ही हो , इसीलिए स्वयं के प्रति भी सम्मान कि दृष्टि हो , कोई अवसाद ना रहे ।

अंत में भगवद गीता का एक श्लोक ... उद्धरेत् आत्मना आत्मानं ना आत्मानं अवसादयेत् । आत्मैव आत्मनो बंधू , आत्मैव रिपुः आत्मनः ।। ( स्वयं ही स्वयं का उद्धार करें खुद को अवसाद में न रखें , आप खुद ही खुद के मित्र हो और खुद ही खुद के शत्रु । )

< अ-से >

अव्यक्त

अभिव्यक्ति में जिसकी ब्रह्मा पूरा संसार सतत रचते रहे ,
आनंद को जिसके निरंतर भावते हुए विष्णु नियत डूबे रहे ,
रूद्र अपनी अग्नि से जिसे एकसार करने में रहे लगे ,
महेश्वर जिसको एक रूप से दूसरे रूप तक बदलते रहे ,
वो अव्यक्त शिव तब भी अव्यक्त ही है !!

< अ-से >