हर बार
वो लौट कर आती
देखती आइना
और बिलख पड़ती
जाते समय भी
वो देखती थी आइना
देर तक बारीकी से
हर बार
वो खूबसूरत निगाहें
खूबसूरत नज़र भी
चुनती रही तिनक तिनका
दुनिया की खूबसूरती
और गढ़ती रही खुदको
वो मंझी हुयी सी कलाकार
झोंकती खुदको आईने में
और फिर कुछ याद कर हो जाती हताश
एक दिन जाने से पहले
उसने तोड़ दिया आइना
और खिलखिला उठी
बिखरे कांच के टुकड़ों की चमक में
उसे नहीं जताना था अब
कुछ भी किसी को
आज वो जा रही थी
मुक्त हिरणी सी
गाते हुए
उत्सव मनाते हुए
हंसती खिलखिलाती
झरती बहती लहलहाती
उसे नहीं होना था शामिल
किसी बेमनी दौड़ में
No comments:
Post a Comment