"सम्प्रज्ञाः"
वो किसी वस्तु को सुन्दर कहें हम फलां फलां कमी निकाल देंगे ,
उसी वस्तु को वो बुरा कहें तो हम उसकी तारीफ़ में नग्में गड देंगे ,
हम वितर्कवादी लोग हैं ,
हमें स्वतः कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं लगता ,
हम इन्तेजार करतें हैं दूसरों के वक्तव्य का,
और उसकी बात के विपक्ष में खड़े हो जाते हैं,
क्योकि किसी भी बात के लिए सिर्फ अस्तु (ऐसा ही है ) नहीं कहा जा सकता ,
और हम ये बात अच्छे से जानते हैं ,
इसीलिए हम किसी भी निष्कर्ष तक पहुँचने से बचते हैं ,
जबकि हम इन सारी बातों से उदासीन हैं ,फिर भी हम बोलते हैं,
हम काफी लचीली जुबान के हैं बात को कैसे भी घुमा सकते हैं,
इसीलिए अपनी नज़रों में हम बहुत बुद्धिमान प्राणी हैं,
और ये हमारी सम्प्रज्ञा का पहला लक्षण है ॥
हम कुछ भी करने से पहले अव्वल तो उसकी उपयोगिता ढूंढते हैं ,
और क्योकि ये जानते हैं की सब कुछ सापेक्षिक है,
अतः हमें हर कार्य अनुपयोगी भी लगता है,
हम विचारवादी लोग हैं ,
कोई भी कार्य क्यों किया जाए,
फिर कैसे किया जाए और कब किया जाए ,
उसके संभावित परिणाम और मुश्किलें ,
और वो उस पर की जाने वाली मेहनत के अनुपात में फलदायी है या नहीं ,
सभी तरह से विचार करने के पश्चात ही हम कोई भी काम छोड़ते * हैं , (* यहाँ लेखक छेड़ते हैं भी लिखना चाहते हैं )
यूं ही नहीं , जैसा की हम पर आरोप किया जाता है ,
ये हमारी सम्प्रज्ञा का दूसरा लक्षण है ॥
घंटो तक अनवरत गाने सुनना , फिल्में देखना , मनोरंजन , सम-सामयिक विचार ,
लम्बी लम्बी बहस और डिस्कशन * , ( * यहाँ लेखक को हिंदी पर्याय याद नहीं आया )
दुनिया की हर बात को जानने की जिज्ञासा ,
जो मूलतः आत्म को जानने की इच्छा है (अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ) ,
ज़िन्दगी के हर रंग को अनुभव करने का ज़ज्बा ,
हम आनंद्प्रिय लोग हैं ,
हम युद्धों और क्रांतियो से ऊपर उठ चुके हैं ,
अब बातों भर का झगडा , मनमुटाव ,
धर्म और रंग के विवाद ,
भी हमें अप्रिय लगतें हैं ,
तेरी स्त्री मेरी स्त्री ,
तेरी भाषा और भूषा तथा मेरी भाषा और भूषा,
तुम पीते हो या खाते हो आदि ,
ऐसी बात बात पर तलवारें निकालना हमनें बंद सा * कर दिया है । ( * यहाँ लेखक "बंद सा" लिखने पर मजबूर है )
और ये हमारी सम्प्रग्यता का तीसरा सबूत है ॥
अब हम खेल-कूद ,ज्ञान-विज्ञान ,कला-कौशल ,
आदि बातों का आनन्द लेते हैं ,
फैशन , तौर-तरीके , साज-सज्जा ,
ये हमारे अस्तित्व में घुल चुके हैं ,
हम अस्मितानुगत हो चुके हैं ,
बजाये के युद्धों में जीतने के हम ओलंपिक्स में जीतना शान समझते हैं ,
मोडल्स और सुन्दर अभिनेता अभिनेत्रियों को सिपाही और पहलवानो से ज्यादा पूजा जाता है ,
हम साफ़ सुथरेपन और महंगे वस्त्रो को मजबूत और टिकाऊ पर तरजीह देने लगे हैं ,
ये अस्मिता अनुरूप व्यवहार हमारे सम्प्रज्ञ होने की अन्य निशानी है ॥
हम इस संस्कृति में इतना ढल चुके हैं की ये सब करने के लिये हमें सोचना नहीं पड़ता,
हम इसमें डूब चुके हैं और महर्षि पतंजलि के अनुसार ये हमारी सम्प्रज्ञा के लक्षण हैं ॥
" वितर्क-विचार-आनंद-अस्मिता-रूप-अनुगमात सम्प्रज्ञातः ॥ "
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