Dec 26, 2013

प्राकृत गति


पत्थरों की दरारों में नयी घास उगी है ,
कल पकाए खाने में भी फफूंद लगी हे ,
जाने ये मच्छर कहाँ से आ जाते हैं ,
और ये झींगुर भी उत्पात मचाते हैं ॥

कल ही साफ़ किया था ये जंगल ,
आज फिर बारिश आ गयी ,
मेरा इकठ्ठा किया पानी ,
बाँध के साथ बह गया ॥

समय गुजरे की बात है ,
पूरी धरा को इमारत बना दिया था ,
नदियों को नाला, और नालों को नल ,
आज मशीनों पर काई जमी है ,
धरा पर फिर वनस्पतियाँ रमीं है ॥

उसकी बनावट मुझे सताती है ,
मेरी सजावट उसे नहीं भाती ,
मैं जो भी करूँ सब मर जाता है,
फिर वो ही दृश्य उभर आता है ॥

ना सृजन मरता है,
ना मृत्यु थकती है ,
फिर फिर वो ही प्रकृति बरसती है,
मेरे बदलाव की हर कोशिश अपने अस्तित्व को तरसती है ॥

ना मैं उसे समझ पाया ,
ना उसके हिसाब से ढल सका ,
ना उसको कभी खयाल आया ,
ना उसने खुद को बदलना चाहा ॥

बे-मायनी जद-ओ-जहद चलती रही ,
और ये ज़िन्दगी भी ,
चित्र विचित्र अनेकों कहानियों के साथ,
अपने अर्थ को तलाशती ॥

< अ-से >

आलोचना के स्वर : 1


देश 120 करोड़ का नेतृत्व की 12 भी दहाड़ नहीं ,
अनैतिकता की बैसाखियाँ लिए देश चलता है !!

रात भर गूंजता है सियारों का रूदन ,
आत्माएं बस भटकने को मजबूर हैं !!

बंदरों ने बाँट लिए हैं इलाके अपने ,
उनकी उछल कूद घरों तक पहुँच गयी हैं !!

बिल्लियाँ रखी गयी हैं दूध की रखवाली पर ,
चुहल करते मोटे चूहे मौज मेँ हैँ !!

कुत्तोँ ने बोटियोँ का ढेर लगा रखा है ,
तीखे दांत गुर्राते भेड़िये संगठित हैँ !!

गाय बकरियोँ और बछड़ों को काटा जा रहा है ,
मशीनों ने चूस लिया है स्तनों से रक्त तक !!

अच्छी नस्ल के साँड बैल बनाऐ जा रहे हैँ ,
आवारा साँड घुस जाते हैं बेफिक्र खेतों में !!

हिंसक बकरे बेबात सीँग मारने लगे हैँ ,
शरीफ बेचारे कुर्बान कर दिए जाते हैं !!

उल्लू दिन मेँ भी दिखाई देने लगे हैँ ,
चौकीदारी का इनाम पाने को 24*7 सक्रिय !!

गिद्ध हर गली सड़कों पर नज़रें गडाये रहते हैं ,
कौवोँ ने चेले बना लिऐ हैँ गूढ़ कायदों की चर्चा को !!

हाय तौबा करना हमारी संस्कृति ,
और हँगामा करना धर्म बचा है !!

उँची फैँकना , दिखावटी अंदाज , शाही झूठ परम्पराओं में शुमार हैं अब ,
और गुस्सा सिर्फ कम्युनिटी साइट्स के लिए बचा है !!

< अ-से >

पर : 1

Neither light nor a dark ,
a transperent space !

Neither hot nor a cold ,
an untouched atmosphere !

Neither your's nor a mine ,
just an invisible observation !

ना तो अँधेरा सा हो ना ही उजला ,
हो बस एक पारदर्शी आकाश !

ना ही ठंडा सा ना ही गर्म ,
बस एक अनछुआ एहसास !

ना तुम्हारा ना ही मेरा ,
सिर्फ एक अदृश्य दर्शनाक्ष !

< अ-से >

परिणामहीन : 1

कहीं पहाड़ हैं कहीं खायी कहीं पत्थर कहीं मिटटी ,
घास काई फफूंद हरियाली पेड़ पोधे जहाँ तहां बिखरे हैं पृथ्वी पर !!

पानी भी नदियों सागर नमी गड्डों में कहीं बहता सा कहीं रुका हुआ ,
इधर उधर लगी है आग भी आंच भी भट्टियों और सुलगते कोयलों में !!

हवा भी बंद है कहीं फेफड़ों में कहीं भीतियों के बीच तो कहीं बेसबब बहती रहती है ,
आवाजें भी आती है यहाँ वहां कहीं टकराहट चीखें कहीं गीत संगीत !!

बिखरे हैं मन भी यहाँ वहां , यहाँ वहाँ बहते से विचार भी है ,
अजीब सी उमंगें तरंगे भाव शोक दुःख हंसी ख़ुशी रोना ख्वाब ख्याल !!

इधर उधर अनगिनत भाषाओं के किस्से कहानियां कहावतें किताबें ,
कथ्य काव्य कायदे अजीब अमीर अथाह बातें हैं सुनने सुनाने को !!

और इसी तरह बिखरी पढ़ी है समझ बुद्धि मति कहीं कोनों कपालों कोश कोख में ,
जीवन भी यहाँ वहाँ हर जगह दौड़ता चलता सोता खोता नज़र आता है !!

संसार में सब कुछ जीवन मृत्यु गति स्थिरता जड़ चेतन पत्थर अनुभूतियाँ ,
बस यूँ ही बेवजह बेसबब बेमायने बेकार ही बढ़ते घटते चलते रुकते रहते हैं !!

और ना जाने क्यों ये शून्य पटल सबकुछ रिकॉर्ड करता रहता है ,
सबकुछ जिसका कुल .... परिणामहीन निर्मम निरपेक्ष और निरर्थक है !!

और क्योंकि निर्वचनीय भी एक शब्द है इसलिए कुछ और कहने का अब मन नहीं !!

< अ-से >

Dec 23, 2013

अलविदा

घर की हवा को अंतिम बार एक लम्बी साँस में भरकर ,
उसने छोड़ा ,
और फिर वो चला गया ;

दरवाजे खिड़कियाँ सब बंद हैं अब ,
भीतर अँधेरा है ,
सब खाली , खामोश , सुनसान ;

हवा रुक गयी है या अब भी बहती है , कोई बताने वाला नहीं ,
कुछ कुतरते दौड़ते चूहे , धूल की महक , मकड़ी के जाले ..
.. क्या आलम है क्या नहीं कौन जाने ;

आवाजें आती तो होंगी बाहर से , नल भी टपकता होगा ,
कोकरोच चीटियाँ मकड़ियां बहुत से जीव होंगे पर सब खामोश ,
परदे हिलते तो होंगे , कम्पन भी होते होंगे , पर कोई सुनने वाला नहीं ;

अब मकान यूँ ही पड़ा रहे या ढह जाए ,
कोई बाढ़ बहा ले जाए या मिट्टी निगल जाए ,
या चूहे उसे कुतर खाएं , किसे फर्क पड़ता है ;

देह पड़ी है जमीं पर , अचल ,
प्राण पखेरू उड़ चुके हैं !!

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी : 4

संसार एक अमूर्त मूरत है ,
सब कुछ सही जगह , स्वस्थ ,
सब कुछ रुका हुआ सा , स्थिर ,
और यहाँ घूमते रहते हैं मन ,
अनिश्चय में भटकते ,
आखिर वो चाहते क्या हैं !!

< अ-से >

Dec 21, 2013

अप्रासंगिकता

पत्ते झड़ते रहे लगते रहे हजारों ,
पत्ते झड जाने से ही वृक्ष नहीं मरता ...

वृक्ष गिरते रहे उगते रहे जंगल के जंगल ,
वृक्ष सूख जाने से पृथ्वी नष्ट नहीं होती ...

कितने ही ग्रह नक्षत्र पृथ्वी जैसे बन बिगड़ गए अब तक ,
पृथ्वी के विनाश से आकाश का पतन नहीं होता ...

पल भर में नए आकाश बना लेता है मन ,
आकाश के अवकाश ले लेने से मन नहीं मरता ...

पसंद नापसंद में बनता बिगड़ता रहता है मन पल पल ,
मन के सन्यास से बुद्धि अप्रासंगिक नहीं होती ,

न तो हर प्रश्न का उत्तर बुद्धि की सामर्थ्य में है ,
और ना ही बुद्धि के समाधिस्थ हो जाने से आत्म नष्ट होता है ...

आत्म भी अनेकों नज़र आते हैं अलग अलग ,
पर फिर किसी आत्म के अनस्तित्व हो जाने भर से उसका स्त्रोत नष्ट नहीं हो जाता ,

........................................
" मौसम बदलते रहते हैं ,
वक़्त के इशारे पर ,
यूँ ही खड़ा खड़ा ... दिल देखता है तमाशा !! "

< अ-से >

" बबुष्का-वास "

" बबुष्का-वास "

बबुश्काओं की भाँती ये एक ही असीमित पूर्णाकाश ,
फिलहाल नवें आकाश (space) तक ,
इन्द्रधनुश्की पट्टिकाओं सा बिखरा-फैला हुआ ...

भीतर से पहला सघन चेतन .. " प्रकाशाकाश " ,
जो किसी नन्हे बच्चे की भांति निश्चिन्त और प्रसन्न है ,

फिर मूल स्वभाव का " प्रधानाकाश " ,
जहाँ बालक अब दुनिया के सनातन धर्म कायदों को सीख रहा है ,
और साम्य को समझता हुआ , सम भाव , समदृष्टि का पाठ पढ़ रहा है ...

फिर महत्ता निर्धारण का " महानाकाश " ,
की ऊपर सर होना है नीचे पाँव ,
बायें ह्रदय होना है , दायें यकृत ,
पूर्व अभिमुख आँखें हों , पश्च अनुमान बुद्धि ,
की वास्तविक भौतिकी में दो दिशायें एक सी नहीं होती ....
जो श्री तत्व का ज्ञान सुनिश्चित करता बाल-तरुण है ,

भीतर से अगला आकाश ... " अहम् संज्ञक " मैं
जो अगले आकाशीय मैदानों पर अपने खेल का परचम लहराने को ,
अश्व सा स्फूर्त और आतुर ,
कीर्ति तत्व को जानता जीता पूर्ण तरुण सा ...

और फिर पंचम आकाश ये हमें जान पड़ता सा संसार " शब्द-आकाश " ,
जहाँ वास करती हैं अनगिनत आवाजें , गूढ़ कहावतें और पंचतंत्र की कहानियाँ ,
वाक् तत्व का सहज ज्ञान रखता सामाजिक जीवन में कदम रखता व्यक्ति सा ...

आगे के चारों आकाश
" स्पर्श-आकाश " " रूप-आकाश " " रस-आकाश " और " गंध आकाश "
जिनमें व्यक्ति क्रमशः स्मृति , मेधा , धारणा और क्षमा तत्व का ज्ञान सुनिश्चित करता है ,
उसकी आगे की जीवन अवस्थाओं में आसानी से नज़र आती है ,
जो की होती हर उम्र में है पर उनका प्रभाव समय के साथ सहज ही बदलता जाता है ...

वास्तव में ये सभी आकाश , अहम् आकाश के भीतर बाहर सब और विद्यमान हैं ...
आकाश में आकाश की स्थैतिक अभिव्यक्ति असंभव तो नहीं ,
पर वो फिर से संसार के रूप में ही संभव है ...

बबुष्का गुडियाएं शायद यही व्यक्त करती हैं ,
की जीव अन्य आधारों पर भी वास करते हैं ,
यही एक आकाश नहीं ... सिर्फ पृथ्वी ही आवास नहीं !!

हाँ पर ये पाठशाला जरूर है !!

< अ-से >

( वास्तव में ये सब किसी एक डायमेंशन में अन्दर बाहर लगता है तो किसी और डायमेंशन में ऊपर नीचे नज़र आता है ,
होने में सब पानी में पानी या आकाश में आकाश सा है ,

पर चेतना में सारी विभक्तियाँ ज्ञात है ... )

और वो चला गया

और वो चला गया ,
सब यहीं रखकर , यहीं दुनिया में ...

वो जो शून्य से उपजा था ,
फिर से शून्या गया ,
ना , नहीं मिटा नहीं ,
अपने अनुभूत सभी वेद त्याग कर ,
सब कुछ भूल कर ,
वेदना से परे ,
वेदना जो की अपने संचय में देह और संसार रचती है ,
को त्याग शून्य चेतन हो गया ,
ठोस और अदृश्य हो गया !!

और वो छोड़ गया सब ,
सब कुछ ,
यहीं रखकर ,
यहीं , यहीं दुनिया में !!

अपने अतीत की सारी अनुभूतियाँ ,
सारी गतियाँ ,
और अपने शून्य गमन का मार्ग ,
चुनाव के चिन्ह ,
और विस्मरण का भाव !!

है ,
सब है ,
दोनों पहलू यहाँ है ,
व्यक्त संसार देह और अव्यक्त ह्रदय ,
बस मुझे एहसास नहीं होता ,
बहुत कोहरा छाया है यहाँ ,
झूठी सच्ची बातों का ,
गुणों-वेदनाओं का इंद्र-जाल बिछा है ,
मेरे पास भी है चुनाव ,
और भूलने की शक्ति भी ,
हिम्मत भी ,
ज्ञानशक्ति भी !!

नहीं है तो वो दृष्टि जो मेरी राह बने !!

< अ-से >

स्विच

स्वप्न से उब पलकों को हुआ इशारा ,
झपक कर उसने बदल दिया नज़ारा ,

याद आयी फिर से सारे दिन की धूप छाँव ,
मन के मुताबिक फिर चलने लगे पाँव !!

हाथ हिले दांत मजे पानी पर हुयी छ्पकियाँ ,
चेहरा धुला मौसम खिला दूर हो गयी झपकियाँ ,

लाइटर खटका उठा भभका शुरू हुआ नित्य कर्म ,
पत्ती शक्कर पानी दूध मिलकर हुए नर्म गर्म ,

फिर प्याले में थी ताम्बई रस भरी चाय ,
कुर्सी हिली कम्प्यूटर चला fb पर की hi ,

माउस के स्पीकरीय इशारे पर आकाश गाने लगा ,
संगीत के साथ फिर सारा समा गुनगुनाने लगा ,

अद्भुत स्विच हैं बुद्धि के , इशारे पर कलम चले ,
जागती सोती हंसती रोती जीवन की कहानी पले !!

< अ-से  >

ज्ञान विज्ञान

अश्वत्थ सा आत्मकेन्द्रित, तुलसी सा पवित्र विज्ञान ,
साध, भक्ति और समर्पण के साथ ।

बाँस और गन्ने सा बढता उत्तरोत्तर ज्ञान ,
सुगंध और मिठास की ऊर्ध्वाधर दिशा लिए ।

आम्र सा फलदायी , नीम सा गुणकारी ,
अपने को उपयोगी बनाने की होड़ में ।

विद्या के पौधे सा वेद्वित ,
ज्ञान शाखाओं की अनन्तता का भान कराता हुआ ।

वृहत से मूल , पत्ते से बीज तक की यात्रा ,
और उसका उपयोग जीव जगत की भलाई ..

व्यापक का आवश्यक खाँका खींचने की कला है ज्ञान विज्ञान ,
ना की बरगद की तरह फैलते विचारों को अस्तित्व देने का नाम ..

जमीन पानी और हवा हर जगह जडें फ़ैलाने वाला ,
सारे रसों और वेदनाओं में फंसा हुआ ,
हर ओर बढता फिर भी दिशाहीन ,
बिना रुके देखता , बिना सोचे चलता ,
कुबेर की तरह संचय को ही जीवन माने हुए ।

एक प्राचीन कहावत है , " बरगद और पीपल एक दुसरे की छाया तले नहीं पनपते " ,
कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान दुनिया में उन लोगों की है ,
जिनके लिए जीवन , साधना और बोधि-वृक्ष हुआ करता है ॥

< अ-से >

दर्पण - 1

दिखाएं कौन सा एक चेहरा तुम्हे ,
स्वभाव-रक्स में कुछ ठहरता नहीं ,
माया मरीचिका में मारा फिरता ,
ये शख्श क्यों कहीं उभरता नहीं ...

कांच-दीवार से गुजर कर बिफरा ,
बेरंग-प्रकाश कई रंग लिए ,
रजत-समतल सतह से आया ,
दृश्य-ख़त फिर एक अक्स लिए ...

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी - 3

प्रतिक्रिया के लिए किये गए कार्य अस्तित्व को अशांत करते हैं !
कार्य स्वयं से किया जाये तो सुकून और आत्म तक पहुँच देता है !!

मानस की शांति के लिए अहिंसा एक अच्छा अभ्यास मार्ग है !
अपने अस्तित्व को भीड़ होने से बचाया जाना चाहिए !!

कार्य परिणाम के लिए न किये जाएँ तो वो स्वयं तक ले जाते हैं !
तात्क्षणिकता और तत्परता कर्म के कौशल हैं !!

नाम इश्वर का रटो या प्रेमिका का ह्रदय की शुद्धि का साधन है !
प्रेम अध्यात्म का सीधा सरल मार्ग है !!

कोई भी कार्य जो संभव है प्रकृति के नियम के विरुद्ध नहीं !
अगर कार्य नाम के लिए किया जाता है तो दिल को दोष न दिया जाए !!

कार्य संसार में कोई बदलाव नहीं करता ,
नज़र आता बदलाव भी संसार में कोई बदलाव नहीं करता !
कार्य स्वयं के प्रकृति से लय के लिए , योग के लिए किये जाने हैं ,
अन्य सभी प्रयोजन व्यर्थ चेष्टा हैं !!

< अ-से >

Dec 4, 2013

दिल जानता है ...


आकाश अपने पास कुछ नहीं रखता ,
उसको दिया सब बिखर जाता है , वहीँ आकाश में !!

सोन चिड़ियाऐं गाती हैं सिर्फ प्रेम गीत ,
वो नहीं सुनती कोई भी बात , किसी मतलब की भी !!

अपनी हद पर खड़ा रहता है दरबान और चले जाना चाहता है ,
उसे नहीं वास्ता किसी रंगीन महफ़िल से !!

खिड़कियाँ नहीं रोकती मिलने से, भीतर और बाहर को ,
बस एक जरूरी दृश्य दूरी बनाये रखती हैं !!

पता है संगदिल तुझे ...
दिल दुनिया की सबसे खूबसूरत खिड़की है ,
सबसे सचेत दरबान ,
सबसे फैला आकाश ,
और एक सच्ची सोन चिड़िया !!

दिल जानता है...
आजादी जरूरी है जीने को ,
पर वो नहीं थोपता कोई भी निर्णय तुम पर ,
सिर्फ दिखाता है दृश्य ,
सुनाता है गीत ,
सबक देता है इंतज़ार का ,
कुछ नहीं कहता वो तुम्हे ,
सिर्फ एहसास देता रहता है ,
उसके होने का ....

आखिर तुम्हे भी तो जीना है ना !!

< अ-से >

Dec 3, 2013

अभिवैयक्तिकी

जो कुछ है .....
वही ज्ञान का विषय है ,
जो कुछ भी है जैसा भी है ,
शब्दों द्वारा उसी को संज्ञापित किया जाता है ,
उसी को परिभाषित किया जाता है ,
और प्रमाणों द्वारा उसी को सत्यापित किया जाता है ,

पर फिर प्रमाण का न उपलब्ध होना ,
संज्ञा और परिभाषाओं का असमर्थ होना ,
कतई ये नहीं जताता ,
की जो विषय इतनी समग्रता और इतना व्यापक रूप से जाना सुना जाता है ,
वो वस्तुतः है ही नहीं !!
किसी भी विषय में पढ़े जाने पर उस पर शंका रख कर नहीं पढ़ा जा सकता ,
ज्ञान जो है उसे ही जानने /समझने / गुनने की बात है ... !!

और जो कुछ है , वो वैसे भी है , चाहे उसे जाना जाये या नहीं ....
ज्ञानकर्म संन्यास योग .... कर्म के साथ ज्ञान की भी अनावश्यकता को बताता है !!
हाँ ये बात जरूर है की " ज्ञान जरूरी नहीं !! "

< अ-से >

अभिवैयक्तिकी - २

पूर्व (पहले ) की दिशा में ही घूमता है जीवन फिर फिर ,
पश्चिम में (पश्चात् ) अस्त होना ही है चेतना का सूरज ,
और फिर से भोर तक विराम !!

उत्तर और दक्षिण स्थिर ही रहने हैं सदा ,
परस्पर संयोजन से ...
उत्तर कला और प्रकृति और दक्षिण कौशल और कर्म के सहित ,
त्याग की धुरी बने रहते हैं !!

इस चतुर्भज की आवर्त गति से ही ये दुनिया गोल है शायद ,
यूं घूमते रहना ही समय है ... आखिर ... !!

< अ-से >

पोटली


आते वक़्त ही माँ ने एक पोटली दी थी ...
और कहा था अपना ख़याल रखना , पोटली से ज्यादा जरूरी तुम हो मेरे लिए ...

वक़्त के रास्ते मैं निकल पड़ा ,
राह में जो भी मिला जो भी जैसा भी लगा , मैं पोटली अपनी भरता रहा ..

पोटली के अन्दर एक अनोखी ही दुनिया रच बस गयी थी ,
सामान एक दुसरे से रिश्ते बनाने लगे जुड़ने लगे और सिस्टम आकार लेने लगा ,
वो नए आने वाले सामानों को भी कहीं अपने अनुसार ही व्यवस्थित कर देते थे ,
वहां जो आसानी से जगह बना लेते थे उन्होंने अलग ग्रुप बना लिया ,
वहां अक्सर चर्चाएं होती रहती और सामानों पर अच्छे बुरे की छाप भी लगने लगी ...

यूँ ही चलते चलते जब मैं थक जाता या मार्ग निर्धारण करना होता ,
तो उसमें झाँक कर देख लेता ...

पहले सब कुछ उसमें आसानी से आ जाता था और चलने पर चीजें उलटती पलटती रहती ,
पर बाद में चीजों की हवा बाहर निकली जाने लगी पोटली के कपड़े से और गतिहीनता के कारण उनमें शुद्धता नहीं रह गयी ,
फिर वो ठंडी भी होने लगी क्योंकि गर्म वस्तुएं ज्यादा जगह घेरती हैं ,
और बाद में सूख कर जमने लगी अब उनमें रस भी बाकी नहीं रहा ,
नए आने वाले सामान भी जल्द ही इस सिस्टम के अनुसार ढलने लगते ...

सघनता काफी बढ़ चुकी थी और पोटली भारी होने लगी ,
अब वो इधर उधर से फट भी चुकी थी , कई चीजें राह में ही कहीं बिखर चुकी थी ,

एक दिन बहुत उदास होने पर मैं एक पेड़ के नीचे बैठ अपनी पोटली निहारने लगा ,
देखा तो उसमें ऊपर ही कुछ साबुत सामान थे , थोड़े नीचे के टूटे फूटे से ,
और बाकी सिर्फ धूल और मिट्टी ...

मुझे दिखने लगा आगे ... एक दिन ये पोटली बहुत उधड जाने वाली है ,
और सारे अनुभव और स्मृतियाँ भी मिटटी हो जाने हैं ,
और तब मेरी यादों की पोटली मुझे छोड़नी ही है ,

आगे रह जाएगा सिर्फ ये रास्ता ...
पर परवाह नहीं अब ...
....... आखिर माँ ने कहा था मैं ज्यादा जरूरी हूँ उनके लिए !!

< अ-से >

त्रिपंक्तिकाएं


(1)
एक मदद का गुहार था ... हुआ तमाशबीनों का मेला ...
वो भला कौन शरीफ है जो तमाशाखोर भीड़ चाहे !!

( या तो राजनीती होगी या गरीब मजबूरी ... )

----------------------------------------------------

(2)

समझ नहीं आता बड़ा गुनाही कौन था ,
लड़ने वाला या लड़ाने वाला ... !!

(न चाहने वालों ने बेवजह भुगता ..... )


-------------------------------------------------------
(3)
पात्रता न तो कर्म से तय होती है ना ज्ञान से ...
वो तय होती है ह्रदय पात्र से ... !!


(आखिर दिल में कुछ भी रखा जा सकता है ... )

------------------------------------------------------

kya kuch bhi nahi ??

हर बात के बाद एक बात है ख़ामोशी ,
अभी कुछ कहा जाने को है ,
या शायद कुछ नहीं ....

हर शब्द के बाद एक शब्द है मौन ,
कुछ तो मतलब है ,
या कुछ भी नहीं ....

तुम हंस कर जाने को हो ,
हम अब तक सोच में हैं ,
क्या , कुछ बीत गया ,
या कुछ भी नहीं ....

अभी और वक़्त है ,
कोई भी मुकाम आने में ,
कह दो कुछ और ,
की बात बदल जाए ....

यूँ ही बहते रहें ,
और जज़्बात बदल जाएँ ,
रुक जाओ कि ,
अभी बहुत लम्बा है सफ़र ...

क्या , कुछ अंजाम है ,
कहानी का मेरी ,
या ये भी एक कहानी ही है
और कुछ भी नहीं ...

< अ-से >

कौन जाने


सही लगे जिस भी लफ़्ज में तुमको ,
कह दो जो भी कहना हो आज ,
किसे खबर याद रहेगा कितना ,
अंदाज़ बरसती बातों का फिर ...

मौसम है माकूल तुम्हे तो ,
झूम लो दिल खोल के आज ,
किसे मालूम कल रहेगा कैसा
मिजाज तरसती रातों का फिर ...

निकल पड़ो क़दमों के रस्ते ,
दूर तलक जिस पर दिल कहे ,
किसे पता रखना था कब तक ,
हिसाब बदलती राहों का फिर ...

फिर किसी चाँद की ख्वाहिश कर ,
झिलमिलालो तुम भी तारों के साथ ,
किसे खयाल दिल को है कब तक ,
ऐतबार चमकती चाहों का फिर ...

अ से 

Nov 27, 2013

और क्या लिखूं ...

कुछ लिखने का मन है , क्या लिखूं !!

सागर नदी झील झरने तो सब लिखे जा चुके ,
चलो लिखते हैं एक चुल्लू भर पानी ,
कि क्या इसमें डूब कर मरा जा सकता है ,

हुम्मं !! डूबने के लिए पानी नहीं , संवेदनाएँ चाहिए ,
तैरती तो लाशें भी है ॥

हवा फिजा घटा समां भी खूब काले हुये हैं कागजों पर ,
चलो लिखते हैं , एक खुली साँस ,
कि क्या इससे कुछ बदल जाता है ,

हाँ , सोचने के लिए सिर्फ हवा नहीं , आज़ाद समां भी चाहिए ,
साँसें तो पिंज़रे के पंछी भी लेते हैं ॥

प्यार तकरार जंग और जूनून ने भी खूब किताबें जलाई है ,
चलो लिखते हैं , एक स्वच्छंदता ,
की क्यों उलझा पड़ा है इंसान समाज के जंजाल में ,

अरे , कैसे बन पाएंगे कुछ लोग भगवान् ,
अपने में तो इंसान भी जी लेते हैं ॥

< अ-से >

kya socha kya paaya ...

भरने आया था डूब कर भी खाली निकला,
होश में आया तो आलम ये खयाली निकला।।

मस्त होने को पीता रहा हर घूँट जिसे,
मेरी किस्मत कि वो प्याला भी जाली निकला।।

पढते आये थे जो भी हम किताबो में,
सोच के देखा हर जवाब सवाली निकला।।

तब तक ना समझा है तू तेरी भूल बन्दे ,
ना लगे की हर तमाचा कोई ताली निकला।।

< अ-से >

Nov 26, 2013

विद्रोह

Painting - Neogene Irom Sharmila / Google
विद्रोह : 

एक लम्बी कैद में " हया " ने कई जन्म और मृत्यु देख लिए ,
उस-ने अपने दिल पर हाथ रखा और दिल भभक उठा ....

तय समय पर शैतान ने चाबुक उठाया , 
परपीड़ा का नशाखोर , काममद से हिनहिना उठा ,
क्रंदन गीत सुनने का मन लिए वो पहुंचा जहाँ हया कैद थी ,
उसके मनोरंजन का समय हो चुका था ....

वो बुरा नहीं था ... उसने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा ,
वो बस अपना आनंद किसी कीमत पर नहीं खो सकता था ,
उसने अंतस के अनेकों युद्धों में सत्य धर्म प्रेम और शान्ति को पस्त किया था ,
हाँ सीधी लड़ाई से वो डरता रहा था इसीलिए ये अभी भी परास्त नहीं हुए थे ,
और फिर फिर उसको ललकारते थे ... ह्रदय के बेचारे अबला से अंग ....

खैर वो जानता था कोई ईश्वर नहीं आएगा उसे चुनौती देने ,
ये भी उसके खेल कूद जैसे ही था ... शतरंज उसको ख़ासा भाता था ....

कैद खाने के दरवाजों को एक बेसब्री से खींचकर वो अन्दर आया ,
बदहवास सा होकर कोड़े बरसाने लगा ,
पर आज कुछ कम था उसे कुछ अजीब लगा ,
उसने पूरा जोर लगाकर और चाबुक मारे .....

मुस्कुराती हया का चेहरा तप्त रक्तिम था ,
वो हंसने लगी ,
उसकी तीखी हंसी शैतान को अन्दर तक भेद गयी ,
उसने पीठ के पीछे से हाथ खींचकर एक और चाबुक चलाया ,
तीखा क्रंदन उठा पर उसमें रूदन नहीं था एक अट्टाहास था ,
शैतान बुरी तरह विचलित हो उठा उसने चाबुक उठाया ,
और अपनी तमतमाई बेबसी से क्रोध बरसाने लगा ,
हया को जैसे कोई असर नहीं था उसकी देह , मृत कपड़ों सी निर्जीव थी ,
वो आँखों में अंगार सी चमक लिए अपनी रक्त आवृत देह का ध्यान न कर बस हंस रही थी ,
उसने ठान लिया था किसी भी कीमत पर वो शैतान को जीतने नहीं देगी ...

उस रात शैतान पहली दफा मात खाया सा अनमना बैचैन और फडफडाता जाकर लेट गया ,
आँखों में कहीं नींद नहीं थी ... वो कंठ तक सोच में डूबा था ...

वो हंस कैसे सकती है ... किसी की चीखों में अट्टाहास कैसे आ सकता है ...
दर्द पाकर भी कोई जीत कैसे सकता है ...
सुबह होते ही वो फिर वहां गया जहाँ जंजीरों में कैद खून की लकीरों से सजी एक देह बेसुध पड़ी थी ,
जमीन पर रक्त से उकेरा हुआ एक सन्देश था ... उसके नाम ....
तुम कभी नहीं हरा पाए मुझको ,
तुम्हारी सारी मेहनत व्यर्थ गयी ,
जानते हो तुम्हे क्यों कभी ख़ुशी नहीं मिलती ....
क्योंकि तुम्हारी माँ ने एक मृत शिशु को जन्म दिया था जो एक मृत सहवास का परिणाम था ,
तुम्हारी माँ ने तुममे ह्रदय का बीज कभी डाला ही नहीं ,
तुम प्रकृति के एक मृत नियम का परिणाम भर थे जिसके अनुसार हर कार्य का फल पैदा होना ही था ,
चाहे वो कार्य किसी विध्युत चालित यंत्र ने ही किया हो ...

तुम्हारा पिता कोई मानुष नहीं था उस रात जब तुम्हे बीजा गया वो प्रकृति के मृत हिस्से का एक यंत्र भर था ,
तुम एक यंत्र की पैदाइश हो ....

और जब तुम जीवित ही नहीं तो तुम्हारा खेलना कोई भी मायने नहीं रखता इस संसार के ह्रदय में ,
जब तुम्हारी लाश को तुम्हारे अनुत्पन्न हृदय के साथ पृथ्वी से बाहर फेंका जा रहा होगा ,
तब संसार में उत्सव का माहौल होगा ....
और तुम एक सामूहिक गिद्ध भोज के साधन मात्र होंगे ...
हाँ पर उस वक़्त तुम हंस पाओगे अपनी मृत देह से क्योंकि पहली दफा कहीं शांति होगी ....
और पहली बार तुम्हारे कारण से संसार में खुशियाँ होंगी .... !!

< अ-से >

painting : Neogene Irom Sharmila // google "
.......................................................


सम्प्रज्ञाः

"सम्प्रज्ञाः"

वो किसी वस्तु को सुन्दर कहें हम फलां फलां कमी निकाल देंगे ,
उसी वस्तु को वो बुरा कहें तो हम उसकी तारीफ़ में नग्में गड देंगे ,
हम वितर्कवादी लोग हैं ,

हमें स्वतः कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं लगता ,
हम इन्तेजार करतें हैं दूसरों के वक्तव्य का,
और उसकी बात के विपक्ष में खड़े हो जाते हैं,

क्योकि किसी भी बात के लिए सिर्फ अस्तु (ऐसा ही है ) नहीं कहा जा सकता ,
और हम ये बात अच्छे से जानते हैं ,
इसीलिए हम किसी भी निष्कर्ष तक पहुँचने से बचते हैं ,

जबकि हम इन सारी बातों से उदासीन हैं ,फिर भी हम बोलते हैं,
हम काफी लचीली जुबान के हैं बात को कैसे भी घुमा सकते हैं,
इसीलिए अपनी नज़रों में हम बहुत बुद्धिमान प्राणी हैं,
और ये हमारी सम्प्रज्ञा का पहला लक्षण है ॥ 

हम कुछ भी करने से पहले अव्वल तो उसकी उपयोगिता ढूंढते हैं ,
और क्योकि ये जानते हैं की सब कुछ सापेक्षिक है,
अतः हमें हर कार्य अनुपयोगी भी लगता है,
हम विचारवादी लोग हैं ,

कोई भी कार्य क्यों किया जाए,
फिर कैसे किया जाए और कब किया जाए ,
उसके संभावित परिणाम और मुश्किलें ,
और वो उस पर की जाने वाली मेहनत के अनुपात में फलदायी है या नहीं ,
सभी तरह से विचार करने के पश्चात ही हम कोई भी काम छोड़ते * हैं , (* यहाँ लेखक छेड़ते हैं भी लिखना चाहते हैं )
यूं ही नहीं , जैसा की हम पर आरोप किया जाता है ,
ये हमारी सम्प्रज्ञा का दूसरा लक्षण है ॥ 

घंटो तक अनवरत गाने सुनना , फिल्में देखना , मनोरंजन , सम-सामयिक विचार ,
लम्बी लम्बी बहस और डिस्कशन * , ( * यहाँ लेखक को हिंदी पर्याय याद नहीं आया  )
दुनिया की हर बात को जानने की जिज्ञासा ,
जो मूलतः आत्म को जानने की इच्छा है (अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ) ,
ज़िन्दगी के हर रंग को अनुभव करने का ज़ज्बा ,
हम आनंद्प्रिय लोग हैं ,

हम युद्धों और क्रांतियो से ऊपर उठ चुके हैं ,
अब बातों भर का झगडा , मनमुटाव ,
धर्म और रंग के विवाद ,
भी हमें अप्रिय लगतें हैं ,

तेरी स्त्री मेरी स्त्री ,
तेरी भाषा और भूषा तथा मेरी भाषा और भूषा,
तुम पीते हो या खाते हो आदि ,
ऐसी बात बात पर तलवारें निकालना हमनें बंद सा * कर दिया है । ( * यहाँ लेखक "बंद सा" लिखने पर मजबूर है )
और ये हमारी सम्प्रग्यता का तीसरा सबूत है ॥ 

अब हम खेल-कूद ,ज्ञान-विज्ञान ,कला-कौशल ,
आदि बातों का आनन्द लेते हैं ,
फैशन , तौर-तरीके , साज-सज्जा ,
ये हमारे अस्तित्व में घुल चुके हैं ,
हम अस्मितानुगत हो चुके हैं ,

बजाये के युद्धों में जीतने के हम ओलंपिक्स में जीतना शान समझते हैं ,
मोडल्स और सुन्दर अभिनेता अभिनेत्रियों को सिपाही और पहलवानो से ज्यादा पूजा जाता है ,
हम साफ़ सुथरेपन और महंगे वस्त्रो को मजबूत और टिकाऊ पर तरजीह देने लगे हैं ,
ये अस्मिता अनुरूप व्यवहार हमारे सम्प्रज्ञ होने की अन्य निशानी है ॥ 

हम इस संस्कृति में इतना ढल चुके हैं की ये सब करने के लिये हमें सोचना नहीं पड़ता,
हम इसमें डूब चुके हैं और महर्षि पतंजलि के अनुसार ये हमारी सम्प्रज्ञा के लक्षण हैं ॥

" वितर्क-विचार-आनंद-अस्मिता-रूप-अनुगमात सम्प्रज्ञातः ॥ "

... < अ-से > ...   

Nov 24, 2013

प्रकृति बोध -नशा

चेतना निरपेक्ष है
उसे आगम की अपेक्षा नहीं क्षेत्र के ज्ञान के लिए
वो स्वतः क्षेत्रज्ञ है

बुद्धि की जड़ता चेतना में
और चेतना की ज्ञानशक्ति बुद्धि में
दोनों घुलकर अजीब विकृतियाँ पैदा करती /कर सकती है
जैसे तपते लोहे में आग और आग में गर्म छड दिखाई देती है

अक्सर मजे के लिए प्रयुक्त चीजें सन , तम्बाकू और मदिरा
जोड़ने लगती है बुद्धि के खुले सिरों को

शब्द जो निर्मल ज्ञान है 
अपनी प्राकृत अवस्था में
स्पर्श संवेदन से जुड़ने लगता है
और स्पर्श रूप संवेदन से ,

याद आने लगते हैं आगम में जमा दृश्य
चमकने लगते हैं
वर्तमान धुंधला जाता है
रसने लगती हैं यादें
व्यक्त का मोह ग्रसने लगता है चेतना को
और जड़ विकृतियाँ ले लेती हैं स्थान स्वस्थ प्रकृति का

और तब संयम और समय का ही आसरा होता है
आयुर्वेद के अनुसार बचाव ही सबसे बेहतर उपाय है !

अ से 

( प्रकृति बोध - माँ )


" तुम्हे हर ओर से जलना होगा .... भीतर तक पिघलना होगा "
... परम शान्तिमय व्याप्त अ-कार में एक शब्द हुआ ... एक बोध हुआ ... ,

तब प्रकट हुए सूर और हर ओर से जलने लगे , चमकने लगा सूर्य ... एक प्रचंड आ- नाद फैलने लगा ...

अकार ... आकार लेने लगा ... उजस उठी सृष्टि ...

पृथ्वी प्रकट हुयी ... सुनी उसने उद्घोषणा ...
माँ का दिल जल उठा ... तब कुपित हुयी पूषणा ...

कृ-कार (धरा) ने सूर्य से कहा मुझे मंजूर नहीं ये ,
आपके परम बोध का तेज ... अभी से कैसे सहेंगे मेरे नादान मनवान बच्चे ..
उन्हें भी कुछ वक़्त मिले ... तब तक तो आपको ढलना होगा ...

सूर्य ने कहा धरा से .... अपनी ममता का खयाल तुम्हे खुद ही करना होगा ,
अगर उन्हें बचाना है तो तुम्हे भी खुद ही जलना होगा ...
यह कह कर वो कुछ शांत हुए ... नाद कुछ आल्हाद में बदला ... कुछ प्रकाश में ... कुछ बोध में ... कुछ अवकाश में ....

धरा ने सूर्य के इस अकहे कर्म को फिर नमन किया ,
और अपने बच्चों को अपनी पीठ पर लाद ... अपनी ममता की ओढ़नी से बाँध लिया ...

और उसने लिखी प्रकृति की किताबें अपनी देह पर ... की उसके बच्चे भी सीखें उस परम बोध से .... कैसे प्रकाशते हैं जग को .... !!


उसके ओट में दिन ... रात हुआ ,
उसके आँचल में ... दिल सांच हुआ ,
उसकी गोद में सिमटा हुआ सा प्रेम ,
उसकी बातों से जग ज्ञात हुआ !!

..............
... < अ-से > ......................

Pic Courtsey: Google / " Debdutta Nundi "

just fun

चला जाऊँगा घर अपने
अभी पता पूछने दो ..... आदेश शुक्ल

हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल, उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती ... ... वसीम बरेलवी (वाया -- निशांत मिश्रा )

खोये हैं , घर का पता मांगते हैं उनसे ,
जो नहीं जानते लेकिन की घर बला क्या चीज है ... अनुज
पूछ लें गूगल से बेशक हर गली हर रास्ता,
इतना हो बस आप अपना ही पता मत मांगिये !! ... दर्पण साह

सुना था शब्द से अर्थ का निकलना लेकिन ,
बड़े बेमायनी होकर तेरे कूचे से हम निकले .... अनुज
वो रहे बे-मयाने जो बनते थे बड़े सयाने ,
अब इक अदद रहने को , जगह ढूंढते हैं .... आदेश शुक्ल

रास्ता-ए-घर के बिना राहों के छोर बंद हैं .
अब जाइये द्वार द्वार क्या , पुकारिए ओये ओये क्यों ... अनुज

परदे के पीछे

शब्दों में प्यार भी भरा होना चाहिए ,
शब्दों का तरकश भी भरा रखता हूँ ,
दिमाग की नसें और कस जाती हैं ,
मिली जुली जबान कोई बनाये रखता हूँ ,

परदे के पीछे मेरा मतलब क्या है ...

इस सुन्दरता के बीच भी चमकना होता है ,
भयावहता में भी अस्तित्व बचाये रखता हूँ ,
वेदना के संगीत की कुछ धुनें ओढ़ कर ,
मिला जुला चेहरा कोई लगाये रखता हूँ ,

परदे के पीछे मेरा चेहरा कैसा है ....

हर जरूरी चीज जोड़ लेनी होती है ,
अपना कह कर उसे बचाए रखता हूँ ,
दिल में थोडा सा और दर्द लेकर ,
अपनी दुनिया छोटी सी बसाये रखता हूँ ,

परदे के पीछे मेरे साथ क्या है ...

< अ-से >

it is

Question changed from " How it works " ,
to " How it thinks " ,
and then " How it understands " the thought ,
but what ramains same is the quriousity .

Question changed from " How it understnds "
to " How it observes "
and then " how it is present " to observe ,
but what remains same is the persistence .

Question changed from " what is presence "
to " what is existence " ,
and then " what it is " to be exist ,
but what remains same is that " it is " .

either accept it or ignore it ....
.............................................
< अ-से >

Nov 17, 2013

( प्रकृति बोध - 1 )


अगर चूहे नृत्य करते दिखें या कव्वे गीत गाते ,
तो यह एक कवी का उनके प्रति प्रेम भर है ,

की चूहे दौडाए जाते हैं अपनी चुहल द्वारा ,
उन की बुद्धि तीव्र हो सकती है ,
पर उनमें इतना संयम नहीं , की वो समीक्षा सकें अपने कार्यों को ,
उन्हें नियंत्रित करने के लिए चाहिए विवेक और संयम ,
अगर चूहों में संयम होता तो वो चूहे नहीं रहते , वो हो जाते कोई कछुआ ,
अगर उनमें विवेक ही होता तो वो कोई हाथी हो जाते ...

पर हाथी में भी तेज नहीं ,
हाथी कोई चीता नहीं ,
न ही चीते में वो हिम्मत है जो उसे शेर बना दे ...

कव्वे गीत गाना जानते तो वो कोयल हो जाते ,
वो जानते हैं सिर्फ आलोचना ,
पर कव्वे जमीनी हकीक़त से मुंह नहीं फेर पाते ...

पेड़ नहीं छोड़ पाते जमीन ,
वो मग्न हैं नित्य रसन में ... जड़ से लेकर पत्तियों तक ,
वो प्रकृति का भोग त्यागने में असमर्थ हैं .... उनके लिए गति का सुख नगण्य है ... भले ही वो जानते हैं इसे भी ,
आखिर पेड़ कोई चर चार पाँव के जंतु नहीं ....

मरीचिका में बुरी तरह से डूबे चार पाँव के मृगी भी ,
नहीं जानते भुजबल ,
हाँ ... वर्ना वो कोई भालू या वानर सरीखे होते ...

और भालू वानर का भी नहीं नियंत्रण अपने कन्धों पर ,
इंसान बहुत बाद में आते हैं ...

पत्थर सब जानकारी रखते होंगे ,
पर पत्थर नहीं समझते की वो क्या जानते हैं ,
वर्ना वो पत्थर नहीं होते ...

पत्थर को जो पूज रहे हैं ... ये उनके प्राण है ,
पत्थर में प्राणों की प्रतिष्ठा जादूगरी है ,
जादूगर रख देते थे तोते में जान अपनी ....

मैंने भी ऐसे ही एक दिन एक जादू देखा था ,
किसी में अपने प्राण बसते देखे थे ,
उसके जाने के ख्याल भर से ... मौत आती थी ....
शायद मैं प्रेम में था ...

अब नहीं आती ...
मुझे जो मरना भाता होता किसी के लिए ..... तो प्रेम जीवन्त हो उठता ...

जीवंत हो उठना भी जिजीविषा के अंत की शुरुआत ही है ...
ये अमृत की तरफ जीव का पहला कदम है ...
अमृत स्थायित्व है ... दौड़ते समय में अपने पाँव न उखड़ने देने का हुनर ...

सभी ओर की गति के मध्य में भी ... मृत्यु स्थिर है मेरी अनुपस्थिति के अंश में ... वर्तमान भी समय का अक्षर है ...
अमृत भी स्थिर है स्थिरता ही अमृत है चेतन उपस्थिति में .... और ....
मैं भी हूँ यहाँ ... खुद को इन सबसे अहम् मानता ... इन्ही सब के किसी क्रमचयों में कोई एक .... !!



... < अ-से > ...

कोई चाहे उसे कहानी कहे


कोई चाहे उसे कहानी कहे
बेबस दो आँखों के पानी सा वो
अपनी ही धुन में खोया रहा
अपने ही लहू की गुमनामी सा वो

फिर किसी शायर ने कुछ लफ्ज कहे
और यूँ किसी ने समझा उसे
पथरायी कोई मूरत ना समझो उसे
टूट चुके दिल की एक सूरत सा वो

अ से 

( प्यासे पंछी - 9 )

बातों से ही समस्या हल हो जाती ... तो .... मैं ताउम्र खुद से ही बातें करता रहता ...
कोई मतलब नहीं था कभी ... कुछ भी कहने सुनने का ...

चौराहे पर मूर्ती सा मुझे रख दिया था तुम्हारी बातों ने ,
आती जाती गतिमान वस्तुओं के मध्य में ...
रोबोटिक देह , मशीनी जंतुओं और धुंधलाते रंगों की दौड़ के बीच ...

अब भीड़ में भी मुझे कोई संवेदन नज़र नहीं आता ...
ठहर गया हूँ यहीं .... स्तब्ध .... खड़ा रह गया हूँ अकेला .... भागते झांकते लोगों के बीच अब ...
.... अब और कोई साँसे नहीं सुनाई देती ....

मीलों सफ़र के बाद फिर ... जो भी मिला ... पर पानी न था ...
न कोई बैठने को कहने वाला ...

फिर नयी ज़मीन की तलाश में उड़ता है पंछी ... मीलों दायरे तय कर ....
फिर कहीं एक डाल पर ... अकेले बैठना है उसे ....

... < अ-से > ...

Nov 16, 2013

बुढ़ापा


ह्रदय ठोस हो गया है ,
और उसके स्थान पर जिस्म फड़फडाता है ,

अँधेरा होते ही आँखों को एक बैचेनी खा जाती है ,
एक हलकी सी आहट पर सांस अटक जाती है ,

अब कुछ भी भूलना मुश्किल होता है ,
जबकि याद कुछ नहीं आता ,

कुछ पुराने रूमानी दृश्य अब चोट पहुंचाते हैं मस्तिष्क को ,
सख्त हथोड़ो की तरह, पास आते ही ,

बच्चों की निश्छल ध्वनि जो कभी कानों में अमृत घोलती थी ,
विषबुझे तीरों से भेदती है ह्रदय के मर्म स्थानों को ,

वो भोली हँसी और मासूम सी मुस्कान जो हवा से भी हलकी ,
कलकल करती बहती थी और खनकती थी कानो में ,
अब हजारों भुतहा चेहरों से अट्टाहास करती है ,
अंतस के हर एक कर्ण छिद्र को बहरा कर देती है ,

शर-शैया पर सोया है वर्तमान उसका ,
अतीत का हर एक झोंका देता है असहनीय तकलीफ ,

जिस बेटे को उसने तराशा था ,
एक मूर्तिकार की तरह ,
और दिया था नाम अपना ,
थोड़ी और रौशनी के लिए ,
आज वो ही देता है जब उसे  दुत्कार ,
जगह देता है बस कोनों में चार ,
निकाल देता है कभी दखल
से , कभी घर से बाहर ,
और करता है सवाल ,
की आखिर कौन सा एहसान किया था उसने ॥

.............................. अ-से अनुज ..................................

त्रस्त ( वर्तमान राजनीति पर )

एक लोकतंत्र जिस पर राज परिवार कायम है ,
एक प्रधानमन्त्री नौकरशाही का अनमोल नमूना पेश करता है ॥

एक महारानी जो अपने मंत्री को तख़्त पर बैठाती है ,
एक अर्थशास्त्री जो सत्ता के हिसाब में उलझा पड़ा है ॥

एक देश में किसी मुद्दे पर एकदेश से फैसला नहीं होता ,
एक कौम जिसका अपना कोई देश नहीं होता ॥

वो लोग जो अपने ही घर में बेगाने हैं ,
और वो लोग जो गाते विदेशी तराने हैं ॥

वो कानून जहाँ कायदा गुनाह है ,
वो अदालत जहा मुजरिम बेगुनाह है ॥

वो सोच जो भाषा पर विभाजन चाहती है ,
और वो सोच जो भाषा पर नियंत्रण नहीं रखती ॥

एक व्यक्ति जो बुद्धि से गरीब है ,
जिसके लिए गरीबी बुद्धि की एक अवस्था ॥

एक तथाकथित युवराज जो धूप में नहीं तपा ,छिला नहीं कटा नहीं ,
एक माँ जो 40 बरस के बेटे को गोद में खिलाती है ॥

अंधेर नगरी चौपट राजा ,
टका सेर भाजी , टका सेर खाजा ॥ ............................................  ॥

.... < अ-से > .......

( ढाई आखर )


फिर से अनपढ़ ,
हो जाता है हर शख्स ,
जिसने पड़ी थी सैकडों भाषाएँ ,
गड़ी थी हजारों बातें ,
और लिखे थे लाखों शब्द ,
सामाजिक , अर्थशास्र , कूटनीति और विज्ञान ,
ढाई आखर के लिए .....

उस ख़ामोशी के लिए ,
उस सूनेपन , खलिश और विरह के लिए ,
उन आँसुओ और उस दर्द के लिए ,
जिससे वो भाग रहा था , भागता रहा था ,
और सीख रहा था जीने की कला ,
तिनकों भरी ढाढ़ीयों से ,
ज्ञानवान अनाड़ीयों से
अनपड़ चर्मकारो से और निर्दयी देह विज्ञानियों से ।

वो ढाई ,
उसने अंग्रेजी चार में भी खोजे ,
पर पहुँच न पाये ,
अंतिम वेदना तक ,
परदेह संवेदना तक ,
दूर न हो पाया कभी बाज़ारू बही से ,
जो किया तो जाता रहा पर हुआ नहीं ।

वो ढाई
जो गढ़ते रहे जाते ,
तो उभर आते एक पत्थर पर भी ,
और जब कभी नमी पाते ही उग आते ,
तो गहरे तक जड़ जमा जाते
ऊपर घने जंगल हो जाते ,
जिन पर ,
बसते फिर चहचहाते पंछी ,
दौड़ती आजाद गिलहरियाँ ,
फैलती खुशियाँ ,
जिन्हें उजाड़ ना पाते कभी ,
वो भूकंप भी ,
जो तैयार रहते है हर मौका ,
गहरी कोई दरार लिए ।

....................... < अ-से > ...................

Nov 12, 2013

प्यासे पंछी - 8

बाकी दुनिया से बच छूट कर ही आता है मन यहाँ ...
यहाँ भी बेमन से बैठा हूँ ,
वास्तविकता के रंग भी फीके हो ही जाते हैं ...

बिताए हुये दिनों की खूबसूरती ,
भविष्य के रंगीन ख्वाब बुन तो लेती है ... पर वर्तमान के आधार पर , वो हमेशा ही ठहर पाएँ ये जरूरी नहीं ...

मन बस में नहीं था ... जब तुमसे वो सब कहा था ...
तब तुम्हें भी तो लुभाता था ... वही सब कहना सुनना ...

क्या उन बातों में अब भी प्राण बचें हैं ... क्या शब्द कभी नहीं कमजोर पड़ते ... क्या सब कुछ एक सा बनाये रखना संभव है ...

कुछ तुम जानती हो ... कुछ मैं भी जानता हूँ .....
पर भीतर के सन्नाटे का शोर बहुत तीव्र होता है ....

मैं रुक नहीं पाता .... आस मानव अस्तित्व की हथकड़ी है कोई ...
जिसमें बांधकर वलयाकार नियति हमें वर्तुल आदतों की चक्की पिसवाती रहती है ...

फिर यहीं आ जाता हूँ ... इतिहास को ढूँढता ....
शायद किसी किस्से में जान बची हो ...
शायद कुछ शब्द अभी भी प्राण अटकाए ... मुझे पुकार रहे हों ...

सूने खंडहरों के ऊपर ,
जाने किस आस पर मँडराते ...
चक्कर लगाए जाते ....
प्यासे पंछी ...... ॥

............................. < अ-से > ...................

प्यासे पंछी -7


हर बार "इस दफा" की कोशिश असफल ही रही ,
मज़े के प्रयोजन में की हुयी हर कोशिश रसभंग हो गयी ....

चूने पर पानी डाल कर भी उसके न बिखरने की अपेक्षा आखिर कितनी सच्ची होती ,
बिना परिणाम विदित किए किया गया तो प्रेम भी कड़वाहट ही देता है ...
और परिणाम जानते हुये भी जहर खाकर जिंदगी की क्या कर उम्मीद ...

फिर फिर सब जानकर भी उसी उसी रास्ते कदम चले जाना ...
चले जाना नहीं ले जाये जाना है ... पर मैं सिर्फ उसे मन का नाम ही दे सका ...

ये मरीचिका अज्ञान वश नहीं थी ... पर विपरीतिका वश जरूर थी ...

न तो कोई जल ही मिला जो इन श्रापों से मुक्ति दिला सके ... न ही कोई घर मिला जहां कंधों को आराम मिले ....
बुद्धि से गर्दन तक सब समवेदनाएँ सुप्त हो चुकी थी .... मंथन का आंच उनकी तरलता को लील गया ...

जिद को कुदाल बनाकर मैं खोदता रहा उर ऊसर
जहां पानी ही न था वहाँ निकलता भी क्या ...


धूप चिलचिलाने लगी है ... पंख भारी हो चुके हैं ... घूमते आकाश में दिशाहीन सा ...↑
प्यासा पंछी ...

............................................................... < अ-से > ................................... 

प्यासे पंछी - 6

पात्रता और क्या है .... अगर सुन सकने की क्षमता नहीं तो ...

हजारों सालों से कई कानों और मुखों से छन कर आई हुयी .... बातें , किस्से और कहानियाँ .... सुन सकते ...... तो बात ही क्या थी ....

कही - सुनी जाने वाली बातें ... लोक में प्रसिद्ध कहानियाँ ..... देश काल की सच्ची तस्वीर कहती ही रही ... माँ भी सभी नाराज होती हैं -- ' तू बात नहीं सुनता ' ...

पर कहाँ गर्दन स्थिरती है ... कोई गहरा सच आते ही ... अनमना सा हो जाता है मन .... हृद किसी साँप के बिल सा हो जाता है जिसके मुहाने पर कान हों ...

मुझे पता था अंजाम .... सभी कहते रहते थे ....
पर सुनना कौन चाहता था तब ...

मैं तब तक उड़ता रहा उम्मीदों के पर लगाए अपने ही ख़यालों में ... तब तक झूमता रहा रंगीन ख्वाबों में .... जब तक सर पर सीधी आंच न थी ..... जब तक सच की ठंडी जमीन न जानी थी ॥

ठोस हकीकत दिखते ही ... कोई प्यास सी जग आई .... उड़ते रहने का मन तो नहीं छोड़ा गया .... पर परकटा पंछी कब तक उड़ान भरता ....

अंतर्द्वंदों से थक कर .... बैठा है एक पेड़ के ऊंचे शिखर पर .... न फिर फिर उड़ान भरने का मन है ...
ना जमीन पर ही आया जाता है ..... ॥

........................................< अ-से > ............................................

प्यासे पंछी - 5

दिन भर के खर्चों में से बस वही कुछ पल निकलते थे ....
........................... सच कहूँ तो वो भी बचा लाता था ,

दीवारें कहाँ नहीं होती ....... आखिर , दुनिया दीवार ही तो है सब ओर ...
पर दीवारों के भीतर भी रोशन होती हैं खुशियाँ ... बाहर नहीं जा सके तो क्या ....

उनके भीतर भी कम नहीं थी जिंदगी ... अगर स्वाद ले सको तो ....
जो नहीं मिल पाया की शिकायत में ... जो है वो नज़र नहीं आता ... जो खर्च गया उसके अफसोस में ... जो बचा वो भी नहीं बचा पाते ...

क्या गला भी भीग पाता इतने पानी से ... सो मैंने फेंक दिया ...
थोड़ी तरावट ... चार कदम और चलने की अर्जी मैंने ठुकरा दी ...
मुझे दिखा नहीं था ... थोड़ा आगे तालाब था ...

खैर , पंछी अधिकतर प्यास से ही दम तोड़ते हैं ...
ये पंछी स्वभाव की नियति ही है ...

...................................... < अ-से > .....................

प्यासे पंछी - 4

आम के पेड़ ने ज्यादा पानी पिया था या खजूर के ने ...............
..........................................ये किसी महत्व का नहीं है ,
मुझे हमेशा ही आम ज्यादा मीठे लगे ,

बरगद कितनी जड़ों का जाल बिछाए दुनिया को चख रहा है .... कितना फैल गया है ,
कुकुरमुत्ते पूरी दुनिया में यहाँ वहाँ उग आए हैं ... किसने क्या जाना कौन जाने ...

मुझे तुमसे कोई जलन नहीं थी ..... बस मैं चाहता था तुम भी जानो ,
तुम दौड़ रही थी ... सब अचीव करने को ...
पर कुछ हासिल करने से क्या हासिल होता है ... आखिर सब यहीं सजा देना होता है ... यही दुनिया में ...
तुम्हारे तमगे तुम्हें मुक्त आकाश नहीं देते ... न ही तुम्हारी MNC की जॉब तुम्हें जीवन के मायने देती है ....

कोई भी अचीवमेंट्स क्या मायने रखता है ... दुनिया से कितना ले पाये की ही रेस होती ... तो सबसे बड़ा लुटेरा / गोदामी सेठ सबसे ज्यादा सुखी होता ...

मुझे तुम्हारी कोई सफलता विफलता समझ नहीं आयी , तो उनसे फर्क भी भला क्या पड़ता ... मुझे फिक्र हुयी तो बस तुम्हारी ...

मैं बस इतना बताना चाहता हूँ ... दिल की प्यास कम की जा सके तो अच्छा है ....
तुम थम जाती ... तो मुझे भी सुकून मिलता .... जुड़ाव भी अजीब से होते हैं ...

वरना दौड़ तो रहे ही हैं .... जाने क्या हासिल होगा ....

.....................................< अ-से >............................... 

प्यासे पंछी - 3

तपती गर्मी का बाज़ार सजा था .. हर चीज पर धूप चिलचिलाती ..
प्यासा था पंछी ... पानी काफी नीचे था .. घड़े में
कंकड़ों की भी प्यास नहीं बुझ पाती उससे ... ऊपर नहीं आना था वो ..

इतना ही बचा था हमारे बीच भी ..
कोई सेतु सम्भव न था .. जो हमें फिर से ...

और फिर तुम्हे तो पता ही होगा हाल मेरा ..
क्या करोगी फिर से जानकर .. सुना है ... तुमने भी शादी नहीं की अब तक ..

हर कमी अकल से नहीं भरी जा सकती ..
................................... न ही प्रेम बेमौसम बरसता है ,

आंखे सूखी हैं ... फैल कर देखती हैं हर चीज़ ... पर मन कहाँ लगता है कुछ देखने में ...
काश आँखें भी खुद कुछ देख पाती ...

जीवन का एक दौर तो थार में ही ही गुज़र गया ....
.................................... प्यास गले से नीचे उतर आयी है ..

शायद दिल तक .......................... !!

................................ < अ-से > ......................

प्यासे पंछी - 1

वक़्त ऐसा मौसम है ... जिसका असर बना रहता है , हमेशा ..... ॥

कुछ चीजें वक़्त के साथ पुरानी नहीं होती ,
कुछ बहुत धीरे धीरे बुढ़ाती हैं ..

लक्ष्मी चिर नवीना हैं ...नित्य नूतन .... उनका श्रृंगार बदल जाता है ... पर शोभा कम नहीं होती ...
माया ... धन ...और ... मादकता ...
बड़ी नाच नचाती हैं ..

हर बार चाहत होती है भर जाने की ..
हर बार प्यास बढ़ जाती है ...

तलब जीने की ... कितने कड़वे घूंठ ... कितना सच्चा प्यार ...

..... with love for every one ... without love to someone ..

.................( प्यासे पंछी -- 1 )...................... < अ-से > ..........

प्यासे पंछी - 2

हर टुकड़े में तेरा ही चेहरा दिखा ...
................................मैं समेट लाया वो आइना ।

आज फुर्सत में था .. तो जोड़ बैठा हर बात ..
लफ्ज पिरोये तेरे ... और एक धड़कन सुनाई दी ....
................................ टुकड़े टुकड़े दिल देती रही तुम मुझको ।

मुझे भी ये खेल कुछ जँच रहा था ..
पीपरमेंट सी ठंडी आह , एक सुकून भरी सांस ... जब्त जज़बे ... और फाख्ता अकल ..

पारस्परिक पागलपन .... भी ......... कोई प्रेम सा नज़र आता है ना ..........!!

..................................... < अ-से > ............................................

Oct 31, 2013

क्रिया और कर्म -- 2

क्रिया और कर्म -- 2
...............................

कोई भी क्रिया भूसे के ढेर में से सुई ढूँढना भर है ,
और कर्म सुई मिल जाने के बाद क्रिया त्याग देना !!

क्रिया किसी कारण से आरंभ होती है ... पर उसे जारी रहने के लिए कारण आवश्यक नहीं ...
.... वो प्रमाद में भी बदल सकती है ,
पर कर्म सीधा अतीत से , अपने मूल कारण से जुड़ा रहता है .... और पूर्णता पर उसी में लय हो जाता है !!
.............................................. अ-से अनुज ॥

" प्रेम "


जिस समय साँसों की घुटन से उपजी तीव्र वेदनाओं की सूक्ष्म धाराएं , मेरे संवेदन अस्तित्व की हर एक इकाई का सर उठाया गला , कसी हुयी सन की रस्सियोंसे कसकर , दर्द के सभी आयामों और विशेषणों का मर्म मेरे मानस को समझा रही थी , तब सुकून को छटपटाती मेरी संवेदना और वक़्त को छटपटाते मेरे प्राण मुझसे विनती कर रहे थे ,
कुछ और सब्र करने का ..... ॥

उन्हें मालूम था अब मैं उन्हें किसी भी वक़्त निर्मम बुद्ध सा त्याग चला जाऊँगा , दृश्य की किसी और धारा में अपने को बीज बनाये फिर से अंकुरित होने ,
पर वो जानते थे मेरी चाहत का अतीत भी ,वर्तमान भी ,
और करते थे उस दिल कशा का भी खयाल ,
जो नहीं पहचान पाएगी , मुझे किसी भी और शक्ल में ,
और उसके लिए वो (मेरे प्राण ) मुझे इसी शक्ल में बनाये रखने का अंतिम संघर्ष कर रहे थे ॥

समय के उस हसीन लम्हे में , नर्म धूप , सर्द हवा , उठती महक से मदकती तितलयों , कोंपलों , डंठलों और खिलखिलाते हुए सूरजमुखी के फूलों को चेहरा दिए , मेरी प्रेम कथा की नायिका , अपने प्रेम गीतों में मेरी सलामती और ख़ुशी गुनगुना रही थी ॥

वो बेहिचक हरे नीले सपनो को , सुनहरी पीली उम्मीदों के , बैंगनी परिंदे बनाये आकाश में उड़ा रही थी ,
और मैं निर्विकल्प अपने प्राणों के अंतिम संघर्ष को थामे रखकर उनके रंग बचा ले जाने का हर संभव प्रयास कर रहा था ॥

उस समय , काल के तख़्त पर चढ़ाये गए कई निरीह निरुद्देश्य मन के टुकड़े अपना सामान समेट वहाँ से विदा ले चुके थे ,
और सज़ा सुनाने वाले न्याय और तंत्र को समर्पित निसंदेह ह्रदय रावण को जलाये जाने की आतिशी खुशियाँ मना रहे थे ॥

तभी एक हवा के झोंके से बिखरा मेरा मन आकाश और अवकाश के सभी अवयवों को छानता छोड़ता मेरी अंतिम इच्छा को साकार करने सूरजमुखी पर पंख फैलाती एक तितली पर सिमट कर बैठ गया ॥

आह , कराहते हुए , वेदना के तीव्र स्वर , गुनगुनाते हुए दो होठों के गीतों की धुन से ताल मिला ख़ामोशी में लय हो गए ,
न प्राणों की दुआ क़ुबूल हुयी , न गीतों की फरमाइश ...
प्रेम कशिश के साक्षात् को खिंची मनः तितली मुस्कुराई ... और उसके फैलते हुए पंखों की खूबसूरती में ... वो दिलकश चेहरा खिलखिला उठा ... सूरजमुखी अब उसे देख रहे थे ॥

............................................................... अ-से अनुज ॥

क्रिया और कर्म -- (१)

हर प्रयास ,
कुछ हासिल करने का कयास है

हासिल करने का कयास  ,
जानने भर की उत्सुकता ,

जानने की उत्सुकता ,
उत्कंठा जीने भर की  ,

जीने की उत्कंठा है
अपने होने का ऐतबार कर लेना ,

अपने होने का ऐतबार ,
जिसके लिए जरूरी नहीं था 
कोई प्रयास ,

हर प्रयास ,
वृत्ति है प्रमाण की
एक टेम्पररी आश्वस्ति ,
अंतर्मन के भय की प्रतिक्रिया ,
आईने में झाँकना बार बार ,
खुद की याद बनाये रखना ,
सींचते रहना 
अपनी दीवारों को ,
और कर लेना कैद ह्रदय को ... उन सींखचों में ,.............
जो तुम्हारे ही संकल्पों के मजबूत लोहे से बने हैं !!

................................................................ अ-से 

कमजोरी ...

कौन है यहाँ .... जब किसी की परछाई नहीं ..
कमरा हर ओर बंद हैं ... पर आहट देती रहती हैं ..

कौन है वो आवाजें .. जो पहचान नहीं देती ...
सुनना नहीं चाहता ... फिर भी सुनाई देती हैं ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी हैं ... जो कान लगाये रहती है ॥

एक बेखबर सा मैं ... एक खबर सा सब ..
मेरे अलावा कौन है ... जो खबर में भीड़ है ..

किस भीड़ में खोया .. किसको रहा हूँ सुनता ..
जब कोई खबर मुझको ...अब खुद की ही नहीं है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है .. जो भीड़ लगाये रहती है ॥

न चाहिए जब कोई ... एक दुनिया की है चाहत ...
कौन सी ये खला है ... जो प्यास जगाये रहती है ..

ख्वाहिशों में पलकर ... किसको रहा हूँ बुनता ..
अपनी ही समझ की चादर ... जब उधड़ी सी हुयी है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है ... जो आस लगाये रहती है ॥

...................................................................................अ-से अनुज ॥ 

प्रिज़्म

वर्तमान के ब्लैक बोर्ड पर ,
भविष्य से आती रौशनी की रंगहीन उजली चॉक से ,
मैं उकेरने की कोशिश में रहता हूँ एक उज्जवल इतिहास ,
जो की मेरे साथ लिखा जायेगा ,
एक उपनाम की तरह ॥

पर मृत्यु भी किसी प्रिज्म की तरह रखी होती है ,
वहीँ आपके पास ,
वो प्रकाश को कतल कर बना देती है रंगीन ,
लाल पीले नीले रंगों सा नज़र आता है फिर अतीत ,
बेहतर लगता है , पर भव्यता खो जाती है ,
सारी मेहनत कहीं खो जाती है , उजास की तरह ॥

तीन रंगों से बने इन्द्रधनुषी अतीत में ,
खोजने निकलता हूँ रौशनी ,
और मायावी कांचों से गुजरते ,
अपवर्तन और परावर्तन में फंस सा जाता हूँ ,
आदत सी हो जाती है इन रंगीनियों की ॥

वक़्त के साथ भविष्य से आती रौशनी ,
खलने लगती है आँखों को ,
अब वो भरोसा नहीं देती ,
रंगों से आश्वस्त हुआ मैं ,
भूल सा जाता हूँ ,
उस खाली ब्लैक बोर्ड ,
और अपने हाथों मैं पकड़ी चॉक को ,
अब नहीं लिखा जाता कुछ भी ॥
............................................................अ-से अनुज ॥

गीतांजलि --- 1

तूने मुझे बिना किनारे का बना दिया है ,
तेरा मज़ा ही कुछ ऐसा है ,
ये छोटा सा पोत जिसे तू बार बार हवा से खाली कर देता है ,
और फिर इसमें नया जीवन भर देता है ॥

बांस की ये एक छोटी सी बांसुरी ,
जिसे तू हमेशा साथ लेकर चलता है ,
पहाड़ियों और घाटियों पर ,
जिससे सांस लेती हैं ,
चिर नवीना सरगम ॥

तेरे हाथों के अमृत स्पर्श पर ,
मेरा ये नादान सा दिल ,
ख़ुशी से उछलता अपनी हदें भूल जाता है ,
और जन्म देता है अनकही दास्तानों को ॥

तेरे अनंत उपहार मुझ तक पहुँचते हैं ,
सिर्फ इन छोटे हाथों में मेरे ,
सदियाँ बीत गयी हैं ,
अभी भी तू दिए जाता है ,
और अभी भी इनमें जगह खाली है ,
कुछ भरने को ॥

.................... ( गीतांजलि ) ....................

जय गाथा -- 1

जय-गाथा :
.....................

प्रलय के पश्चात .... एक दीर्घ काल तक ... सब शून्य था ... चेतना को जगत का बोध नहीं था ॥

अमावस की रात्रि के घने अन्धकार के पश्चात् ,
जिस तरह सूर्य उदित होता है कुछ उसी तरह ......

जब ये जगत ज्ञान और प्रकाश से शून्य और अन्धकार से पूर्ण था ....
तब चेतना के पूर्व से एक बहुत बड़ा गोलाकार अण्ड उदित हुआ ,
वो दिव्य , शक्त और ज्योतिर्मय था ,
वो सत्य बोध , सनातन और ज्योतिर्मय ब्रह्म था ॥

वो ब्रहम कल्पना और सत्य कुछ भी कहा जा सकता है ,
वो सर्वत्र सम , एक रस , और अविभेद था ,
मात्र कारण स्वरूप ॥

वो अविचारणीय और अलौकिक बोध मात्र था ॥

उस निजबोध , चेतन अण्ड से "अनुग्रह रूप लोक पितामह ब्रह्मा " उत्पन्न हुए ॥

सत्यकल्प ब्रहमा , स्वतः सृजन शक्ति हैं ,
जिस तरह से ऊष्मा और प्रकाश अग्नि की सहज शक्तियाँ हैं ,
और वो उससे अलग नहीं ,
ठीक उसी तरह सृष्टि सृजन ब्रह्मा से भिन्न नहीं,
वो स्वयं सत्य गुण हैं और उनकी कल्पना उनके संयोजन से सत्य रूप ही होती हैं ॥

उस ब्रह्मा की कल्प सृजन की सहज शक्ति से अन्य प्रजापति , प्रचेता , दक्ष , पुत्र , ऋषि , आदि मनु , विश्वेदेवा , आदित्य , वसु ,अश्विनीकुमार , यक्ष , गन्धर्व , राजर्षि , जल , ध्यो , पृथ्वी ,वायु आकाश ,दिशाओं , संवत्सर , ऋतू , मास ,पक्ष , दिन और रात सहित ये पूर्ण जगत अस्तित्व में आया ॥

ये चराचर जगत प्रलय के समय जिस चेतना में विलय होकर सुप्त होता है ,
प्रभव के समय उसी से उत्पन्न होता है ॥

जैसे ऋतू आने पर उसके सभी प्रभाव स्वतः ही प्रकट होने लगते हैं ,
और समय ख़त्म होने पर स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं ,
उसी प्रकार जगत का और जगत के सभी प्रभावों का काल के अनुसार ,
स्वतः प्रभव और प्रलय निरंतर चलता रहता है ॥

ये कालचक्र जिससे सभी की उत्पत्ति और विनष्टि होती है ,
अनादि और अनंत रूप से सदा चलता रहता है ॥

.................... ( जय सहिंता के अनुसार .... क्रमशः ) ........................................

...................................................................................... अ-से अनुज ॥

Oct 19, 2013

" अर्द्धनारीश्वर "



इन्द्र धनुषी छटाओं ,
पुष्प शोभाओं ,
स्वच्छ कल कल धाराओं ,
मंद स्वच्छंद हवाओं
सरगमी नादिकाओं ,
सी विस्तारित असीमित
धवल उज्जवल अर्द्ध .... शिवप्रिया ,
और
फैली दिशाओं ,
चेतन ध्वजाओं ,
सदा स्फूर्त ,
स्व नादित ध्वनिकाओं
समान स्थिर असीमित
श्वेत कर्पूरी प्रकाश ....परार्ध शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

कर्म प्रवृत्ति ,
इच्छा शक्ति ,
गुणों और भावों की
अभिव्यक्तन आसक्ति ,
पवित्र कस्तूरी गंध
लाल - नारंगी आकाश पटल .... शिवा ,
और
कर्म निवृत्ति ,
संतुष्टि , तृप्ति ,
तीनो गुणों की
परार्थ शक्ति ,
भस्म सी विरक्ति
अद्भुत भक्ति .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

स्वर्ण शोभित दृश्य आभा ,
रजत संचित रत्न प्रभा ,
खनक देते दिव्याभूषण
चित्त वेदित जिजीविषा ... पार्वती ,
और
रत्न दिगम्बर ,
सत्य सुन्दर ,
सर्प भूषित ,
वेद अविदित ,
चित्त निवेदित
सामर्थ्य कुशा ... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

प्रसन्न कमल सी ,
श्रद्धाजल संस्कृत ,
जीवन ज्योतित ,
विश्वास आपूरित ,
पूर्ण विस्तृत ,
निस्संदेह दृष्टि
द्वि चक्षु ... शैलपुत्री ,
और
सम्यक नयन ,
समदृष्टि ,
ज्ञान दृष्टि ,
शांत ,  सौम्य ,
त्रिनेत्र ..... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


फल - पुष्प सज्जित ,
लता - वृक्ष शोभित ,
जगत - जीव ज्योति ,
दिव्य - अम्बरा ...... शिवा ,
और
वज्र सघन ,
स्फटिक प्रकाश ,
कपाल - माल सज्जित ,
दिक् - अम्बर ...... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


जलापूरित मेघ ,
वेगमान सरिता ,
तरंगित वाणी ,
सर्वथा स्वतंत्र प्रकृति ..... शिवा ,
और
तड़ित प्रचंड ,
तेजोमय दंड ,
स्थिर नाद ,
दिक-लोक स्वामी .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

जगत सृजक ,
विश्वप्रपंच कर्ता ,
नाट्य नृतक ,
जगज्जननी ,
स्वभाव पूषा .... शिवप्रिया ,
और
जगत संहारक ,
आत्मस्थ कर्ता ,
तांडव नृतक ,
भूतभाव पूषण ... पार्वती प्रिय ,
को
नमन है ,  नमन है ॥

जिनकी दिव्य चमक से
सम्पूर्ण व्योम प्रकाशित है ,
जिनकी शक्तियों से ,
सम्पूर्ण सृष्टि अच्छादित है ,
जिनके तेज से
समस्त दिशायें कम्पित हैं ,
उन सर्व इष्ट देने वाली शिवसंयुक्ता और
आयु और भोग देने वाले पार्वतीयुक्त ,
अर्द्धनारीश्वर को नमन है ,
जो अनंत और वर्तमान सभी काल में
सृष्टि स्थिति और लय कर्ता हैं ,
उनको अनेक बार नमन है ॥

................................................................. अ से

Oct 17, 2013

" अन्तःसूत्र "


War Painting by Pablo Picasso
जादूगर की जान तोते में थी ..
तोता विरही निकला ,
एक दिन आत्महत्या कर बैठा ,

जादूगरी काम न आ सकी ॥

सोणी महिवाल , लैला मजनू , हीर राँझा , सस्सी पुन्नू ,
रोमियो जूलियट , शीरी फ़रियाद और न जाने कितने ,
बंधे थे ... अंतस के प्राण सूत्र से ,
एक का दर्द दूसरा न सह सका ॥

पुत्र में ममता थी ,
उसकी मृत्यु के प्रमाण भर से द्रोण ने युद्ध और संसार दोनों छोड़ दिया ,
भुजाओं का अकूट महासंग्राम ,
ह्रदय की सूक्ष्म सी नाड़ी पर जाकर थम गया ॥

नीड़ का निर्माण भी जरूरी था ,
एक तिनका भर संपत्ति के लिए हुई महाभारत में ,
एक चिड़े ने दम तोड़ दिया ,
चिड़िया जीत कर भी खुश न थी ,
घायल अवस्था में भी उसे बच्चों के लिए दानों का इंतज़ाम करना था ॥

जब इज्ज़त पर आ गुज़री ,
पुजारी और पादरी कुछ शब्दों की जंग में दो सियासत लड़ा बैठे ,
मौलवी खुदा का शुक्रिया अदा करने निकल पड़े ॥

उसकी देशभक्ति उसका जूनून बन गया ,
विगत इतिहास की बेईज्ज़ती का बदला उसने प्रारब्ध तय किया ,
प्रकृति से भी क्रूर , बहती खून की नदियाँ ,
एक-एक हिटलर ने समाज - सभ्यता पर तमाचा जड़ दिया ॥

इधर सावन झूम कर बरसा है ,
प्रेम सजल से भीगकर पत्ता पत्ता निखरा है ,
अमृत- तृप्त धरा पर हरा बचपन उभर आया है ,
पतझड़-जर अनंत अंधेरों में गहराया गया है ,
और आज शेर भी हिरन के संग नदी की तरफ निकला है ॥


ममता में निकले गए कितनों के प्राण ,
अपनत्व ने ली कितनो की जान ,
भाईचारे के कारण सारा युद्ध छिड़ा है ,
मोह के तिनके पर संसार खड़ा है ,
आँखों में यादों का जाला पड़ा है
विस्मृति-अमृत को संसार भूला पड़ा है ॥
-------------------------------------------- अ-से अनुज ॥

Oct 16, 2013

" बुद्धं शरणम् गच्छामि "



.........................................

बारिश गुज़र चुकी थी , रात भी ,
उठती हुई आवाजें भी अब बैचेन न थी और हवा को भी कोई जल्दी नहीं नज़र आती थी ,
हल्की नर्म धूप में सुस्ताने ,
बाहर निकला वो अलसाया सा मेंढक ,
रात भर खौफ में टर्राते , अपने बाकी साथियों के साथ , वो थक चुका था ,
पूरी रात उसने सुबह के इंतज़ार में काटी थी ॥

बाहर बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा थी ,
उसे दिखी तो नहीं उसकी दृष्टि के सामर्थ्य से वो काफी ऊंची थी ,
पर वहां एक अप्रतिम शान्ति थी ,
शायद उस पत्थर में जंगल की बाकी गीली जमीन से ज्यादा गर्माहट थी ,
वहां सो रहे थे कुछ पंछी और कुछ और जानवर , जो आम तौर पर सूरज की इस ऊँचाई पर शांत नहीं बैठते ,
फुदक कर वो सबसे निचले पत्थर पर चढ़ गया और सो गया ॥

नींद में बनते बिगड़ते सपनो में उसे प्रश्न आया की वो मेंढक कैसे बन गया ,
वो तो एक नवयुवक भिक्षु था ,
जो संन्यास लिए किसी जंगल में ज्ञान की प्राप्ति को निकला था ,
उसके अस्थिर मस्तिष्क के किसी संयमशील हिस्से में ठहरी चेतना ने उबासी ली ,
पूर्व की दिशा में उसका सर उठ गया ,
उसके गुरु ने उसे बताया था ,
अपराध और पाप के विषय में उसकी उत्तेजनाओं को शांत करने के लिए ,
पाप वस्तुतः नहीं होता , अंगुलिमाल भी उसे क्रमशः याद आया ,
गुरु के कई उपदेशों में से कुछ कुछ उसे याद आया ,
उसे याद आया , वो किस तलाश में निकला था ,
उसे तलाश थी बुद्ध की ,
भगवान् बुद्ध उसके समकालीन नहीं थे पर उसने बहुत सुना था उनके बारे में ,
तो वो जानना चाहता था बुद्ध को ,
निर्वाण उसकी प्राथमिकी न थी ॥

वो एक पास वाली छोटी पहाड़ी पर रहने लगा था ,
वो जानना चाहता था बुद्ध को , वो क्या थे , कैसे थे , क्या बुद्ध का अभी भी अस्तित्व है ,
और अगर नहीं तो फिर साधारण मनुष्य और उनमें क्या फर्क आ गया ,
इन्ही प्रश्नों की उधेड़बुन में उसके सारे मौसम एक हो गए थे ,
कांटो पर चलने तक के स्पर्श उसे देह की सुध नहीं देते थे ,
स्वाद वो भूल चुका था , मृत्यु और मोक्ष उसके ज्ञान का विषय न थे ,
और
कोई प्रेम कथा अभी उसने जानी न थी ॥

उस पहाड़ी के दूसरी ओर एक गाँव था ,
कुछ लोग लकड़ी आदि अन्य आवश्यकताओं के लिए जंगल की तरफ आते रहते थे ,
एक बार एक स्त्री उधर से गुजरी थी ,
नीले वस्त्र , पीले फूलों का श्रृंगार ,
गेहुआं वर्ण , छोटे तीखे नेत्र , भरे हुए गालों और तेज कदमताल ,
उसकी नज़र जब हटी तो दूर गाँव की तरफ की पगडण्डी के आखिरी छोर पर कुछ गति सी थी , जो अब नहीं थी ॥

तीक्ष्ण हुयी जिज्ञासाएं लक्ष्य बदलते ही अपने शब्द रूप बदल लेती हैं ,
कहानी बदलने लगी , आते जाते अब वो उसे कई बार देख चुका था ,
एक बार सहायता प्रदान करने के वाकिये के साथ सिलसिला चल पढ़ा ,
अब मन की जिज्ञासा नयनों से गुजरने लगी ,
बुद्धि , बुद्ध से ध्यान हटा कृष्ण और फिर काम हो गयी ,
कामदेव सजल नेत्रों से मुस्कुराने लगे ,
प्रेम के अक्षर पढ़ाने को अब उनके पास एक शिष्य था , और एक शिष्या भी ,
वो नित नयी पंचरंगी कहानियाँ सुनाने लगे ,
दोनों शिष्यों में समर्पण भाव जागने लगा और भेद ख़त्म होने लगा ,
समय के परे तक अब प्रेम की पहुँच थी ,
मृत्यु, उत्पत्ति और बुद्ध भाव अब उसके मन मानस से गुज़रते न थे ॥

वर्ष गुज़र गया और बुद्धि में चित्रित कर गया ,
कई सुहाने मौसम , अनेकों भाव , अनोखे स्पर्श, रूप, और शब्दमय मात्राओं के चिन्ह ॥

एक दिन कायनात में बिजली गूंजी ,
चमक नहीं थी उसमें कोई घनघोर था ,
गाँव में गीत गाये गए थे , कोई उत्सव का माहौल था ,
किसी राजा या बड़े मंत्री की नज़र लग चुकी थी उसकी अनुभूतियों पर ,
असहाय नारी कर चुकी थी त्याग अपने प्रेम का , आज उसका विवाह , उसके परिवार का सम्बन्ध किसी भव्य वैभव से था ,
और उस आकाशीय बिजली का आघात किसी ह्रदय को सहना पड़ा ॥

बेबस आँखे विरह की अग्नि में सूखते बिखरते आंसुओं में जल जल कर पिछले मौसम के ठहरे हुए दृश्य दिखाती थी ,
और किसी त्राटका की छाया युवक पर पड़ चुकी थी , अब वो सोता नहीं था ,
देखता रहता था एकटक ,
कबूतर कबूतरी के जोड़े , कव्वे , हंस , भँवरे और चिड़ियाएं ,
अल सुबह से देर रात तक सब को मगन देखता था वो ,
उसने काम के सुन्दर और भयावह रूप देखे ,
और कभी कभी चुभते थे उसे स्पर्श ,
वो जानना चाहता था ,
की उसकी प्रेमिका में ऐसा क्या था , जो और किसी में नहीं ,
वो क्या है जो उसे और कुछ भी नहीं भाता , सिर्फ अतीत चाहता है ॥

.................................................................................................

अब प्रकृति के क्रिया कलाप और जीव जंतुओं के आचार व्यवहार देखना ही उसकी दिनचर्या हो गयी ,
उन्हें दौड़ते , खेलते , लड़ते , मरते , मारते , भोग और सम्भोग करते ॥
जिस चट्टान पर वो अक्सर बैठता था ,
उसके पास ही एक गंदले पानी के गढ्ढे में कुछ मेंढक रहते थे ,
जो सांझ होते ही अलग हो हो कर फुदकते लगते ,
पर वो ज्यादा दूर ना जाते थे ,
फिर टर्राने लगते , और जीभ लपका कर उड़ते बैठते कीड़े खाते ,
उनमें कुछ मेंढक अपना गला फुलाकर रंग बिरंगा कर लेते ,
अलग अलग टर्राहटों से अपने साथी को आकर्षित करते ,
साथी के पास आने पर अलग अलग नृत्य मुद्राओं में कूदते फुदकते ,
इस तरह ही पूरी सांझ और रात निकाल देते ॥

उन्हें देखकर उसे अपनी प्रेयसी की याद सताने लगती , उसका गला सूखने लगता तो वो वही गन्दला पानी पी लेता ,
वो बस उसे कम से कम एक बार तो देखना चाहता था जी भर के ,
उसे इन नन्हे मेंढको का भाग्य भी स्वयं से बेहतर लगने लगा ,
अनजाने में पाए दुःख को नियति समझ विधाता को कोसने लगा ,
उसे हर चीज हर बात से शिकायत होने लगी ,
वो समाज को गाली देता , अकेले में बडबडाता , किसी जीव को लकड़ी मरता , किसी पर पत्थर फेंकता ,
पंछियों के अंडे , खरगोश , कबूतर का मांस खाकर जीने लगा , हाल का , सड़ा , कैसा भी ॥

संसार में सुख , दुःख , प्रेम , परिहास का कोई परिमाण (माप तौल) नहीं होता ,
अन्य की तुलना में किसी चीज से वंचित लोग कुंठा का शिकार हो जाते हैं ,
कुंठा से दायरे सिमटने लगते हैं ,
और व्यक्ति किसी कीड़े की तरह एक छोटी सी डंठल को कुरेदने में ही जीवन बिता देता है ॥

वक़्त गुजरा अब उसे किसी बात का ध्यान नहीं रहता था , विक्षिप्त सा , जंतुओं से लड़ता झगड़ता ,
वो विक्षत और बीमार हो चुका था , उसका अंतिम वक़्त वो मेंढक थे , वो या शायद दूसरे ,
जो कभी उसे अच्छे लगते , कभी बुरे और कभी बैचेन करते ,
उनमें वो उदासीन न था , वो उसकी भावनात्मक आसक्ति बन चुके थे ॥

अपनी कुंठा में वो युवक उसी गढ्ढे के पास से उस दृश्य भाग से गुज़र चुका था , ( कुछ गिद्ध जमा थे वहाँ )
आगे वहाँ क्या हुआ क्या पता ,
उसके बाद वो कभी होश कभी बेहोश, घने अंधेरों के बीच रह रहकर सिसकता था और फिर बेहोश हो जाता था ,
जब कभी उसने उठने की कोशिश की तो स्वयं को असंख्य चट्टानों के भार तले महसूस किया ,
पलक उठाना कभी असंभव लगता तो कभी सूरज को आँखे दिखाना ,
अस्तित्व की तलाश में उसका सब कुछ जलता पिघलता जकड़ता सा लगता था ॥

और फिर जब वो उठा था तो उसने खुद को पानी में पाया था ,
हाँ तभी उसकी साँसे चली थी और वो फुदक कर बाहर आया था ॥

...............................................................................................

अजीब सी प्यास सताए रहने लगी उसको ,
भूखी जीभ उड़ते कीड़ों की ताक लगाए रहती ,
और लपक कर मूँह में भींच लेती , पूरी निर्ममता से भींच कर मूंह बंद रखना होता था ,
जब तक फड़फड़ाती वो जान दम न तोड़ देती ,
गीलापन , गन्दगी , रौशनी से डर, आँच की असहनीयता और अकेलापन ,
बाकी मेंढको के बीच उसका मन न लगता ॥

पर कमजोर निरीह मन , भूख ,संवेदनाओं , मृत्यु और कुछ छूट जाने के भय के आगे कब टिका है ,
और वो भी एक छोटे से दायरे में सीमित जीव जिसकी दृष्टि खुले आकाश को देख पाने में असमर्थ हो , उसका मन ,
पर कुछ था जो उसे बाकी से अलग रखता था ,
शायद उसका अकेलापन , कोई गहरी जिज्ञासा , और ह्रदय के अंतर पर ठहरा अस्पर्श्य प्रेम ॥

वो बाकी मेंढकों के साथ ही उनके पीछे उनसे अलग उनसे स्वतंत्र समझ लिए ,
अधिकतर कुछ ना खाए समय बिता रहा था ,
और पिछले सूरज ही तो वो इस ओर आया था ,
अपना पुराना गढ्ढा छोड़कर , जहाँ एक चूहे की सड़ी पडी हुयी देह की दुर्गन्ध से दूर वो किसी ताज़ा हवा की तलाश में था ,
और सांझ होते ही बारिश होने लगी थी ,
वो जाग चुका था , भीतर तक ॥

स्मृतियाँ वक़्त के साथ अंतर्मन पर आवरण बनाने लगती है , और उसके नीचे , बहुत नीचे ,
कहीं गहरे दब जाता है ह्रदय और स्वास्थ्य , फिर रौशनी वहाँ से बाहर नहीं झांकती , मुक्त आकाश भी भय और चिंता का सबब बन जाता है ,
तब सब भूल जाना ही एक उपाय होता है , भावनाओं के सामान्य प्रवाह में मिल जाने तक , चेतना जब तक स्वच्छ न हो ,
और तब पुरानी स्मृतियों से ही बल भी मिलता है , संबल भी , और सबसे जरूरी ज्ञान भी ॥

उसे उसके उद्देश्य ज्ञात हो चुके थे , और वो अब वहीँ रहने लगा , उसी पत्थर पर ,
उसे एक सुकून था वहां और वो रमने लगा ,
एक छोटी सी प्रकृति , एक दुर्बल सा स्वभाव , नन्हा सा मन , अनंत के एक नगण्य हिस्से में रमने लगा था ,
अब उसकी भूख प्यास जाती रही , अकेले , अन्य समकक्षों के साथ न रहने के कारण प्राकृतिक प्रवृत्ति भी जाती रही ,
चेतना पुष्ठ , और स्वच्छ होने लगी , उस पर छाया देह का अँधेरा कम होने लगा ,
अब उड़ कर आये एक सूखे पत्ते की ओट भी उसे पसंद न थी ,
अब वो सर उठा कर देखने लगा था , उस पत्थर को ,
वहाँ उसे अब कोई छत कोई दीवार कोई दायरा नहीं दिखता था ,
सिवाय उस सुकून भरे आसरे , उस पत्थर के ॥
...........................................................................................

दिन गुज़रते गए , और उसकी स्मृति और विस्मृति प्रखर होने लगी ,
याददाश्त समझ और भूल जाने की क्षमता परस्पर एक ही सर्प के तीन मुख हैं जो गर्दन पर उसकी चेतना से जुडी हैं॥

मेंढक निरीह सा जीव था , उसकी स्मृति इतनी स्थिर न थी , पर अब उनकी आवाजाही बढ़ गयी थी ,
कभी कभी उसे अपना विगत याद आता , कभी अपने प्रश्न , कभी प्रेम और कभी पानी ,
कभी कभी अपने प्रश्नों की स्मृति आने पर वो निश्चिंतता से चिंतता था बुद्ध को , वो थे या हैं ,
एक साधारण सदेह मनुष्य का बुद्धा जाना, वो क्या है जो उसे मनुष्य से अलग कीर्ति दे गया ॥

फिर एक दिन मेंढक को जिज्ञासा हुयी , उस पत्थर के ऊपर तक जाने की ,
वो फुदकता हुआ उसकी सभी दिशाओं में यात्रा कर आया ,
और हिस्से जुड़ते गए उसके चेतन में स्थित स्मृतियों के ,
" हाँ ये तो बुद्ध है , और ये बदलाव बुद्ध की शरण है ,
वो ना जाने कब से उसी आधार पर जीवित था ,
ना जाने कितना कुछ गुज़र गया पर कुछ नहीं बदला ,
अचानक वो खामोश हो गया , ये ही तो बुद्ध है ,
उसने नज़र घुमा के चारों और का दृश्य देखा , सब और एक सुकून बिखरा हुआ था ,
आसमान में बादल न थे , पर सब तरफ बरस रही थी ख़ामोशी ,जो जमीन पर बिखर रही थी शीतल होकर ,
पृथ्वी ने स्वच्छ चेतना की चादर ओढ़ ली थी और उसकी मिट्टी से उठ रही थी सुगंध , वातावरण को महकाती हुयी ॥

मेंढक शांत हो गया , पूर्ण स्तब्ध , जैसे दृश्य प्रकाश थम गया हो ,
वो सब जानता था बस इस ही एक बात के अलावा , वो सब जानता था ,
प्रारब्ध से अब दृश्य नहीं सिर्फ कुछ ध्वनि आ रही थी , जो उसके मन से गुज़र रही थी ,
शुरुआत का छोर कुछ भी हो वो यहीं पूर्ण कहलाता है , सबका अंतिम लम्हा यही है ,
कहानी कहीं तक जाए शुरुआत यहीं से होती है , सबका जन्म समय भी यही है ॥

पूर्णता , हर लम्हे पूर्ण होती है और वो अपनी पूर्णता से थकती नहीं ,
पूर्णता भरी होती है अनंत उपलब्धियों से पर इससे उसकी पात्रता कम नहीं होती ,
जीवन सब और दुःख है और यहीं विरक्ति है ,
जिजीविषा ही जिज्ञासा है , बुभुक्षा भी और मृत्यु कहीं नहीं है ,
जानना भर जान लेना है और यहाँ कभी कुछ नहीं बदलता ॥

उसका यहाँ तक का सारा जीवन विगता गया , स्थिर हो गया ,  कभी न बदलने वाला अतीत ,
सारी अनुभूतियाँ अनुभूत हो गयी ,उसकी तृष्णा गुज़र गयी ,
मन मस्तिष्क से विरक्त हो चेतना तक पहुँच गया ,
सब कुछ जाना हुआ बुद्धि से बोध हो गया ॥

एक पल को वहाँ सिर्फ आनंद था ,
संसार न था ,
और फिर
सिर्फ एक स्थिर संसार , शेष ,
और बोध जो उसमें निर्बाध गति देखता रहा , बोध जो अविशेष था ,
(बोध जो न एक कहा जा सकता है न शून्य न ही अनंत , उसमें परिमाण का गुण नहीं , न ही कोई विशेषता ,
और इसीलिए वो हर परिमाण का आधार बनता है , समय का भी , गति का भी , कर्म का भी , न्याय का भी ) ॥

युवक को सदा से जीवन से लगाव था , फिर प्रेम से हुआ , फिर पानी से , और अब शांति से ,
जंगल में चर्चा थी , किसी बुद्धिमान मेंढक की फैलाई हुयी कि अमुक मेंढक बुद्धा गया ॥

उस समय एक मेंढक पौधे की छाँव में फुदक रहा था ,
एक तितली पंख फैला रही थी ,
और एक भंवरा फूल पर मंडरा रहा था ॥

" सब कुछ पुनः सोये हुए बुद्ध की शरण में "

....................... (बुद्धं शरणम् गच्छामि ) ...................

..............................................................................


अ से