और एक दिन जब मैंने अपनी मुक्ति मांगी , अब तक रहे अपने मालिक से , किताबों से , मुझे सिखाई गयी भाषा से ॥
तो मुझे ये कह कर टाल दिया गया , की तुम नहीं हो सक्षम अपने फैसलों में , तुम्हे नहीं आता जीना हमारे बिना ॥
पर मुक्ति तो उसी पल हो जाती है , जब उसका खयाल पहली दफा आता है ,उसके बाद की कहानी तो विद्रोह मात्र है ॥
उसके बाद भी प्रयास किये गए मुझमें हिंसा के बीज बोने के , ताकि सिद्ध कर सकें वो अपनी बात ,
लोग बोलते वक़्त भले न सोचे की वो सच है या नहीं , पर बोल देने के बाद उसे सच सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ते ॥
खैर ! जिन्हें अपनी आज़ादी प्यारी हो वो दूसरों की भी नहीं छीनते , ये तो गुलामों का काम है दूसरों को गुलाम करना ॥
सबसे पहले मैंने वो भाषा छोड़ी और हो गया मूक ,
मुझे नहीं बोलनी थी वो गुलामों को सिखाई भाषा जिसके हर एक शब्द ने मुझे सीमित और सीमित भर रखने का प्रयास किया ,
मैंने सीखी मुक्त मन की भाषा ,
सुना सभी को बोलते हुए ,
चिड़िया , कौवे, गिद्ध, कबूतर , कुत्ते , बिल्ली, चूहे सभी को ,
अपने अपने कंठ से सभी बोलते हैं , सभी रोते हैं , सभी गाते हैं गीत कभी सामूहिक कभी एकांत के ,
सभी में है दिमाग भी बिलकुल मुझ सरीखा ,
और एक ह्रदय , शायद मुझ से भी बेहतर ,
क्योकि ख़ामोशी पसंद वो सब सुन पाते हैं अपना ह्रदय ,
कितना सीमित रखती है हमारी भाषा हमें ॥
फिर मैंने वो जगह छोड़ी ,
दूर देश की यात्राएं की , रहना शुरू किया अलग अलग जगह ,
कल्पनाओं में , कहानियों में , अंतरिक्ष में , लकड़ी में ,पेड़ पर, बिल में ,
नसों में बहना शुरू किया , ह्रदय में रहना ,
मैंने जाना कहीं भी रहा जा सकता है ,
एक किस्से में भी ,,
कोई दीवारें क्यों बनाता है भला , कितना कैद रखता है एक घर हमें ॥
पूरे विश्वास के साथ अब मैंने शुरू किया , हर मालिक को उनकी हर सीख को अपने मानस से अलग करना ,
और खुद तय करना हदें अपनी , अपने अन्तः करण से,
मुझे पता लग चुका था , कहाँ कैद था मैं ,
किस हिस्से को बदल कर वो बदल देते हैं कुदरत ,
मुक्त आकाश को कैसे बना देते हैं एक घड़ा ,
कैसे महीन सी दीवारें तोड़ने में काँप जाता है ह्रदय ,
वो खड़ी करते हैं भीतियाँ सबसे मार्मिक मानस स्थलों पर ,
और बुनते हैं जाल मुझे मुझमें ही कैद रखने का ॥ ......................................... अ से अनुज ॥