Oct 31, 2013

क्रिया और कर्म -- 2

क्रिया और कर्म -- 2
...............................

कोई भी क्रिया भूसे के ढेर में से सुई ढूँढना भर है ,
और कर्म सुई मिल जाने के बाद क्रिया त्याग देना !!

क्रिया किसी कारण से आरंभ होती है ... पर उसे जारी रहने के लिए कारण आवश्यक नहीं ...
.... वो प्रमाद में भी बदल सकती है ,
पर कर्म सीधा अतीत से , अपने मूल कारण से जुड़ा रहता है .... और पूर्णता पर उसी में लय हो जाता है !!
.............................................. अ-से अनुज ॥

" प्रेम "


जिस समय साँसों की घुटन से उपजी तीव्र वेदनाओं की सूक्ष्म धाराएं , मेरे संवेदन अस्तित्व की हर एक इकाई का सर उठाया गला , कसी हुयी सन की रस्सियोंसे कसकर , दर्द के सभी आयामों और विशेषणों का मर्म मेरे मानस को समझा रही थी , तब सुकून को छटपटाती मेरी संवेदना और वक़्त को छटपटाते मेरे प्राण मुझसे विनती कर रहे थे ,
कुछ और सब्र करने का ..... ॥

उन्हें मालूम था अब मैं उन्हें किसी भी वक़्त निर्मम बुद्ध सा त्याग चला जाऊँगा , दृश्य की किसी और धारा में अपने को बीज बनाये फिर से अंकुरित होने ,
पर वो जानते थे मेरी चाहत का अतीत भी ,वर्तमान भी ,
और करते थे उस दिल कशा का भी खयाल ,
जो नहीं पहचान पाएगी , मुझे किसी भी और शक्ल में ,
और उसके लिए वो (मेरे प्राण ) मुझे इसी शक्ल में बनाये रखने का अंतिम संघर्ष कर रहे थे ॥

समय के उस हसीन लम्हे में , नर्म धूप , सर्द हवा , उठती महक से मदकती तितलयों , कोंपलों , डंठलों और खिलखिलाते हुए सूरजमुखी के फूलों को चेहरा दिए , मेरी प्रेम कथा की नायिका , अपने प्रेम गीतों में मेरी सलामती और ख़ुशी गुनगुना रही थी ॥

वो बेहिचक हरे नीले सपनो को , सुनहरी पीली उम्मीदों के , बैंगनी परिंदे बनाये आकाश में उड़ा रही थी ,
और मैं निर्विकल्प अपने प्राणों के अंतिम संघर्ष को थामे रखकर उनके रंग बचा ले जाने का हर संभव प्रयास कर रहा था ॥

उस समय , काल के तख़्त पर चढ़ाये गए कई निरीह निरुद्देश्य मन के टुकड़े अपना सामान समेट वहाँ से विदा ले चुके थे ,
और सज़ा सुनाने वाले न्याय और तंत्र को समर्पित निसंदेह ह्रदय रावण को जलाये जाने की आतिशी खुशियाँ मना रहे थे ॥

तभी एक हवा के झोंके से बिखरा मेरा मन आकाश और अवकाश के सभी अवयवों को छानता छोड़ता मेरी अंतिम इच्छा को साकार करने सूरजमुखी पर पंख फैलाती एक तितली पर सिमट कर बैठ गया ॥

आह , कराहते हुए , वेदना के तीव्र स्वर , गुनगुनाते हुए दो होठों के गीतों की धुन से ताल मिला ख़ामोशी में लय हो गए ,
न प्राणों की दुआ क़ुबूल हुयी , न गीतों की फरमाइश ...
प्रेम कशिश के साक्षात् को खिंची मनः तितली मुस्कुराई ... और उसके फैलते हुए पंखों की खूबसूरती में ... वो दिलकश चेहरा खिलखिला उठा ... सूरजमुखी अब उसे देख रहे थे ॥

............................................................... अ-से अनुज ॥

क्रिया और कर्म -- (१)

हर प्रयास ,
कुछ हासिल करने का कयास है

हासिल करने का कयास  ,
जानने भर की उत्सुकता ,

जानने की उत्सुकता ,
उत्कंठा जीने भर की  ,

जीने की उत्कंठा है
अपने होने का ऐतबार कर लेना ,

अपने होने का ऐतबार ,
जिसके लिए जरूरी नहीं था 
कोई प्रयास ,

हर प्रयास ,
वृत्ति है प्रमाण की
एक टेम्पररी आश्वस्ति ,
अंतर्मन के भय की प्रतिक्रिया ,
आईने में झाँकना बार बार ,
खुद की याद बनाये रखना ,
सींचते रहना 
अपनी दीवारों को ,
और कर लेना कैद ह्रदय को ... उन सींखचों में ,.............
जो तुम्हारे ही संकल्पों के मजबूत लोहे से बने हैं !!

................................................................ अ-से 

कमजोरी ...

कौन है यहाँ .... जब किसी की परछाई नहीं ..
कमरा हर ओर बंद हैं ... पर आहट देती रहती हैं ..

कौन है वो आवाजें .. जो पहचान नहीं देती ...
सुनना नहीं चाहता ... फिर भी सुनाई देती हैं ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी हैं ... जो कान लगाये रहती है ॥

एक बेखबर सा मैं ... एक खबर सा सब ..
मेरे अलावा कौन है ... जो खबर में भीड़ है ..

किस भीड़ में खोया .. किसको रहा हूँ सुनता ..
जब कोई खबर मुझको ...अब खुद की ही नहीं है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है .. जो भीड़ लगाये रहती है ॥

न चाहिए जब कोई ... एक दुनिया की है चाहत ...
कौन सी ये खला है ... जो प्यास जगाये रहती है ..

ख्वाहिशों में पलकर ... किसको रहा हूँ बुनता ..
अपनी ही समझ की चादर ... जब उधड़ी सी हुयी है ..

मैं जानता हूँ ... मेरे दिल की कमजोरी है ... जो आस लगाये रहती है ॥

...................................................................................अ-से अनुज ॥ 

प्रिज़्म

वर्तमान के ब्लैक बोर्ड पर ,
भविष्य से आती रौशनी की रंगहीन उजली चॉक से ,
मैं उकेरने की कोशिश में रहता हूँ एक उज्जवल इतिहास ,
जो की मेरे साथ लिखा जायेगा ,
एक उपनाम की तरह ॥

पर मृत्यु भी किसी प्रिज्म की तरह रखी होती है ,
वहीँ आपके पास ,
वो प्रकाश को कतल कर बना देती है रंगीन ,
लाल पीले नीले रंगों सा नज़र आता है फिर अतीत ,
बेहतर लगता है , पर भव्यता खो जाती है ,
सारी मेहनत कहीं खो जाती है , उजास की तरह ॥

तीन रंगों से बने इन्द्रधनुषी अतीत में ,
खोजने निकलता हूँ रौशनी ,
और मायावी कांचों से गुजरते ,
अपवर्तन और परावर्तन में फंस सा जाता हूँ ,
आदत सी हो जाती है इन रंगीनियों की ॥

वक़्त के साथ भविष्य से आती रौशनी ,
खलने लगती है आँखों को ,
अब वो भरोसा नहीं देती ,
रंगों से आश्वस्त हुआ मैं ,
भूल सा जाता हूँ ,
उस खाली ब्लैक बोर्ड ,
और अपने हाथों मैं पकड़ी चॉक को ,
अब नहीं लिखा जाता कुछ भी ॥
............................................................अ-से अनुज ॥

गीतांजलि --- 1

तूने मुझे बिना किनारे का बना दिया है ,
तेरा मज़ा ही कुछ ऐसा है ,
ये छोटा सा पोत जिसे तू बार बार हवा से खाली कर देता है ,
और फिर इसमें नया जीवन भर देता है ॥

बांस की ये एक छोटी सी बांसुरी ,
जिसे तू हमेशा साथ लेकर चलता है ,
पहाड़ियों और घाटियों पर ,
जिससे सांस लेती हैं ,
चिर नवीना सरगम ॥

तेरे हाथों के अमृत स्पर्श पर ,
मेरा ये नादान सा दिल ,
ख़ुशी से उछलता अपनी हदें भूल जाता है ,
और जन्म देता है अनकही दास्तानों को ॥

तेरे अनंत उपहार मुझ तक पहुँचते हैं ,
सिर्फ इन छोटे हाथों में मेरे ,
सदियाँ बीत गयी हैं ,
अभी भी तू दिए जाता है ,
और अभी भी इनमें जगह खाली है ,
कुछ भरने को ॥

.................... ( गीतांजलि ) ....................

जय गाथा -- 1

जय-गाथा :
.....................

प्रलय के पश्चात .... एक दीर्घ काल तक ... सब शून्य था ... चेतना को जगत का बोध नहीं था ॥

अमावस की रात्रि के घने अन्धकार के पश्चात् ,
जिस तरह सूर्य उदित होता है कुछ उसी तरह ......

जब ये जगत ज्ञान और प्रकाश से शून्य और अन्धकार से पूर्ण था ....
तब चेतना के पूर्व से एक बहुत बड़ा गोलाकार अण्ड उदित हुआ ,
वो दिव्य , शक्त और ज्योतिर्मय था ,
वो सत्य बोध , सनातन और ज्योतिर्मय ब्रह्म था ॥

वो ब्रहम कल्पना और सत्य कुछ भी कहा जा सकता है ,
वो सर्वत्र सम , एक रस , और अविभेद था ,
मात्र कारण स्वरूप ॥

वो अविचारणीय और अलौकिक बोध मात्र था ॥

उस निजबोध , चेतन अण्ड से "अनुग्रह रूप लोक पितामह ब्रह्मा " उत्पन्न हुए ॥

सत्यकल्प ब्रहमा , स्वतः सृजन शक्ति हैं ,
जिस तरह से ऊष्मा और प्रकाश अग्नि की सहज शक्तियाँ हैं ,
और वो उससे अलग नहीं ,
ठीक उसी तरह सृष्टि सृजन ब्रह्मा से भिन्न नहीं,
वो स्वयं सत्य गुण हैं और उनकी कल्पना उनके संयोजन से सत्य रूप ही होती हैं ॥

उस ब्रह्मा की कल्प सृजन की सहज शक्ति से अन्य प्रजापति , प्रचेता , दक्ष , पुत्र , ऋषि , आदि मनु , विश्वेदेवा , आदित्य , वसु ,अश्विनीकुमार , यक्ष , गन्धर्व , राजर्षि , जल , ध्यो , पृथ्वी ,वायु आकाश ,दिशाओं , संवत्सर , ऋतू , मास ,पक्ष , दिन और रात सहित ये पूर्ण जगत अस्तित्व में आया ॥

ये चराचर जगत प्रलय के समय जिस चेतना में विलय होकर सुप्त होता है ,
प्रभव के समय उसी से उत्पन्न होता है ॥

जैसे ऋतू आने पर उसके सभी प्रभाव स्वतः ही प्रकट होने लगते हैं ,
और समय ख़त्म होने पर स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं ,
उसी प्रकार जगत का और जगत के सभी प्रभावों का काल के अनुसार ,
स्वतः प्रभव और प्रलय निरंतर चलता रहता है ॥

ये कालचक्र जिससे सभी की उत्पत्ति और विनष्टि होती है ,
अनादि और अनंत रूप से सदा चलता रहता है ॥

.................... ( जय सहिंता के अनुसार .... क्रमशः ) ........................................

...................................................................................... अ-से अनुज ॥

Oct 19, 2013

" अर्द्धनारीश्वर "



इन्द्र धनुषी छटाओं ,
पुष्प शोभाओं ,
स्वच्छ कल कल धाराओं ,
मंद स्वच्छंद हवाओं
सरगमी नादिकाओं ,
सी विस्तारित असीमित
धवल उज्जवल अर्द्ध .... शिवप्रिया ,
और
फैली दिशाओं ,
चेतन ध्वजाओं ,
सदा स्फूर्त ,
स्व नादित ध्वनिकाओं
समान स्थिर असीमित
श्वेत कर्पूरी प्रकाश ....परार्ध शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

कर्म प्रवृत्ति ,
इच्छा शक्ति ,
गुणों और भावों की
अभिव्यक्तन आसक्ति ,
पवित्र कस्तूरी गंध
लाल - नारंगी आकाश पटल .... शिवा ,
और
कर्म निवृत्ति ,
संतुष्टि , तृप्ति ,
तीनो गुणों की
परार्थ शक्ति ,
भस्म सी विरक्ति
अद्भुत भक्ति .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

स्वर्ण शोभित दृश्य आभा ,
रजत संचित रत्न प्रभा ,
खनक देते दिव्याभूषण
चित्त वेदित जिजीविषा ... पार्वती ,
और
रत्न दिगम्बर ,
सत्य सुन्दर ,
सर्प भूषित ,
वेद अविदित ,
चित्त निवेदित
सामर्थ्य कुशा ... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

प्रसन्न कमल सी ,
श्रद्धाजल संस्कृत ,
जीवन ज्योतित ,
विश्वास आपूरित ,
पूर्ण विस्तृत ,
निस्संदेह दृष्टि
द्वि चक्षु ... शैलपुत्री ,
और
सम्यक नयन ,
समदृष्टि ,
ज्ञान दृष्टि ,
शांत ,  सौम्य ,
त्रिनेत्र ..... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


फल - पुष्प सज्जित ,
लता - वृक्ष शोभित ,
जगत - जीव ज्योति ,
दिव्य - अम्बरा ...... शिवा ,
और
वज्र सघन ,
स्फटिक प्रकाश ,
कपाल - माल सज्जित ,
दिक् - अम्बर ...... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥


जलापूरित मेघ ,
वेगमान सरिता ,
तरंगित वाणी ,
सर्वथा स्वतंत्र प्रकृति ..... शिवा ,
और
तड़ित प्रचंड ,
तेजोमय दंड ,
स्थिर नाद ,
दिक-लोक स्वामी .... शिव
को
नमन है ,  नमन है ॥

जगत सृजक ,
विश्वप्रपंच कर्ता ,
नाट्य नृतक ,
जगज्जननी ,
स्वभाव पूषा .... शिवप्रिया ,
और
जगत संहारक ,
आत्मस्थ कर्ता ,
तांडव नृतक ,
भूतभाव पूषण ... पार्वती प्रिय ,
को
नमन है ,  नमन है ॥

जिनकी दिव्य चमक से
सम्पूर्ण व्योम प्रकाशित है ,
जिनकी शक्तियों से ,
सम्पूर्ण सृष्टि अच्छादित है ,
जिनके तेज से
समस्त दिशायें कम्पित हैं ,
उन सर्व इष्ट देने वाली शिवसंयुक्ता और
आयु और भोग देने वाले पार्वतीयुक्त ,
अर्द्धनारीश्वर को नमन है ,
जो अनंत और वर्तमान सभी काल में
सृष्टि स्थिति और लय कर्ता हैं ,
उनको अनेक बार नमन है ॥

................................................................. अ से

Oct 17, 2013

" अन्तःसूत्र "


War Painting by Pablo Picasso
जादूगर की जान तोते में थी ..
तोता विरही निकला ,
एक दिन आत्महत्या कर बैठा ,

जादूगरी काम न आ सकी ॥

सोणी महिवाल , लैला मजनू , हीर राँझा , सस्सी पुन्नू ,
रोमियो जूलियट , शीरी फ़रियाद और न जाने कितने ,
बंधे थे ... अंतस के प्राण सूत्र से ,
एक का दर्द दूसरा न सह सका ॥

पुत्र में ममता थी ,
उसकी मृत्यु के प्रमाण भर से द्रोण ने युद्ध और संसार दोनों छोड़ दिया ,
भुजाओं का अकूट महासंग्राम ,
ह्रदय की सूक्ष्म सी नाड़ी पर जाकर थम गया ॥

नीड़ का निर्माण भी जरूरी था ,
एक तिनका भर संपत्ति के लिए हुई महाभारत में ,
एक चिड़े ने दम तोड़ दिया ,
चिड़िया जीत कर भी खुश न थी ,
घायल अवस्था में भी उसे बच्चों के लिए दानों का इंतज़ाम करना था ॥

जब इज्ज़त पर आ गुज़री ,
पुजारी और पादरी कुछ शब्दों की जंग में दो सियासत लड़ा बैठे ,
मौलवी खुदा का शुक्रिया अदा करने निकल पड़े ॥

उसकी देशभक्ति उसका जूनून बन गया ,
विगत इतिहास की बेईज्ज़ती का बदला उसने प्रारब्ध तय किया ,
प्रकृति से भी क्रूर , बहती खून की नदियाँ ,
एक-एक हिटलर ने समाज - सभ्यता पर तमाचा जड़ दिया ॥

इधर सावन झूम कर बरसा है ,
प्रेम सजल से भीगकर पत्ता पत्ता निखरा है ,
अमृत- तृप्त धरा पर हरा बचपन उभर आया है ,
पतझड़-जर अनंत अंधेरों में गहराया गया है ,
और आज शेर भी हिरन के संग नदी की तरफ निकला है ॥


ममता में निकले गए कितनों के प्राण ,
अपनत्व ने ली कितनो की जान ,
भाईचारे के कारण सारा युद्ध छिड़ा है ,
मोह के तिनके पर संसार खड़ा है ,
आँखों में यादों का जाला पड़ा है
विस्मृति-अमृत को संसार भूला पड़ा है ॥
-------------------------------------------- अ-से अनुज ॥

Oct 16, 2013

" बुद्धं शरणम् गच्छामि "



.........................................

बारिश गुज़र चुकी थी , रात भी ,
उठती हुई आवाजें भी अब बैचेन न थी और हवा को भी कोई जल्दी नहीं नज़र आती थी ,
हल्की नर्म धूप में सुस्ताने ,
बाहर निकला वो अलसाया सा मेंढक ,
रात भर खौफ में टर्राते , अपने बाकी साथियों के साथ , वो थक चुका था ,
पूरी रात उसने सुबह के इंतज़ार में काटी थी ॥

बाहर बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा थी ,
उसे दिखी तो नहीं उसकी दृष्टि के सामर्थ्य से वो काफी ऊंची थी ,
पर वहां एक अप्रतिम शान्ति थी ,
शायद उस पत्थर में जंगल की बाकी गीली जमीन से ज्यादा गर्माहट थी ,
वहां सो रहे थे कुछ पंछी और कुछ और जानवर , जो आम तौर पर सूरज की इस ऊँचाई पर शांत नहीं बैठते ,
फुदक कर वो सबसे निचले पत्थर पर चढ़ गया और सो गया ॥

नींद में बनते बिगड़ते सपनो में उसे प्रश्न आया की वो मेंढक कैसे बन गया ,
वो तो एक नवयुवक भिक्षु था ,
जो संन्यास लिए किसी जंगल में ज्ञान की प्राप्ति को निकला था ,
उसके अस्थिर मस्तिष्क के किसी संयमशील हिस्से में ठहरी चेतना ने उबासी ली ,
पूर्व की दिशा में उसका सर उठ गया ,
उसके गुरु ने उसे बताया था ,
अपराध और पाप के विषय में उसकी उत्तेजनाओं को शांत करने के लिए ,
पाप वस्तुतः नहीं होता , अंगुलिमाल भी उसे क्रमशः याद आया ,
गुरु के कई उपदेशों में से कुछ कुछ उसे याद आया ,
उसे याद आया , वो किस तलाश में निकला था ,
उसे तलाश थी बुद्ध की ,
भगवान् बुद्ध उसके समकालीन नहीं थे पर उसने बहुत सुना था उनके बारे में ,
तो वो जानना चाहता था बुद्ध को ,
निर्वाण उसकी प्राथमिकी न थी ॥

वो एक पास वाली छोटी पहाड़ी पर रहने लगा था ,
वो जानना चाहता था बुद्ध को , वो क्या थे , कैसे थे , क्या बुद्ध का अभी भी अस्तित्व है ,
और अगर नहीं तो फिर साधारण मनुष्य और उनमें क्या फर्क आ गया ,
इन्ही प्रश्नों की उधेड़बुन में उसके सारे मौसम एक हो गए थे ,
कांटो पर चलने तक के स्पर्श उसे देह की सुध नहीं देते थे ,
स्वाद वो भूल चुका था , मृत्यु और मोक्ष उसके ज्ञान का विषय न थे ,
और
कोई प्रेम कथा अभी उसने जानी न थी ॥

उस पहाड़ी के दूसरी ओर एक गाँव था ,
कुछ लोग लकड़ी आदि अन्य आवश्यकताओं के लिए जंगल की तरफ आते रहते थे ,
एक बार एक स्त्री उधर से गुजरी थी ,
नीले वस्त्र , पीले फूलों का श्रृंगार ,
गेहुआं वर्ण , छोटे तीखे नेत्र , भरे हुए गालों और तेज कदमताल ,
उसकी नज़र जब हटी तो दूर गाँव की तरफ की पगडण्डी के आखिरी छोर पर कुछ गति सी थी , जो अब नहीं थी ॥

तीक्ष्ण हुयी जिज्ञासाएं लक्ष्य बदलते ही अपने शब्द रूप बदल लेती हैं ,
कहानी बदलने लगी , आते जाते अब वो उसे कई बार देख चुका था ,
एक बार सहायता प्रदान करने के वाकिये के साथ सिलसिला चल पढ़ा ,
अब मन की जिज्ञासा नयनों से गुजरने लगी ,
बुद्धि , बुद्ध से ध्यान हटा कृष्ण और फिर काम हो गयी ,
कामदेव सजल नेत्रों से मुस्कुराने लगे ,
प्रेम के अक्षर पढ़ाने को अब उनके पास एक शिष्य था , और एक शिष्या भी ,
वो नित नयी पंचरंगी कहानियाँ सुनाने लगे ,
दोनों शिष्यों में समर्पण भाव जागने लगा और भेद ख़त्म होने लगा ,
समय के परे तक अब प्रेम की पहुँच थी ,
मृत्यु, उत्पत्ति और बुद्ध भाव अब उसके मन मानस से गुज़रते न थे ॥

वर्ष गुज़र गया और बुद्धि में चित्रित कर गया ,
कई सुहाने मौसम , अनेकों भाव , अनोखे स्पर्श, रूप, और शब्दमय मात्राओं के चिन्ह ॥

एक दिन कायनात में बिजली गूंजी ,
चमक नहीं थी उसमें कोई घनघोर था ,
गाँव में गीत गाये गए थे , कोई उत्सव का माहौल था ,
किसी राजा या बड़े मंत्री की नज़र लग चुकी थी उसकी अनुभूतियों पर ,
असहाय नारी कर चुकी थी त्याग अपने प्रेम का , आज उसका विवाह , उसके परिवार का सम्बन्ध किसी भव्य वैभव से था ,
और उस आकाशीय बिजली का आघात किसी ह्रदय को सहना पड़ा ॥

बेबस आँखे विरह की अग्नि में सूखते बिखरते आंसुओं में जल जल कर पिछले मौसम के ठहरे हुए दृश्य दिखाती थी ,
और किसी त्राटका की छाया युवक पर पड़ चुकी थी , अब वो सोता नहीं था ,
देखता रहता था एकटक ,
कबूतर कबूतरी के जोड़े , कव्वे , हंस , भँवरे और चिड़ियाएं ,
अल सुबह से देर रात तक सब को मगन देखता था वो ,
उसने काम के सुन्दर और भयावह रूप देखे ,
और कभी कभी चुभते थे उसे स्पर्श ,
वो जानना चाहता था ,
की उसकी प्रेमिका में ऐसा क्या था , जो और किसी में नहीं ,
वो क्या है जो उसे और कुछ भी नहीं भाता , सिर्फ अतीत चाहता है ॥

.................................................................................................

अब प्रकृति के क्रिया कलाप और जीव जंतुओं के आचार व्यवहार देखना ही उसकी दिनचर्या हो गयी ,
उन्हें दौड़ते , खेलते , लड़ते , मरते , मारते , भोग और सम्भोग करते ॥
जिस चट्टान पर वो अक्सर बैठता था ,
उसके पास ही एक गंदले पानी के गढ्ढे में कुछ मेंढक रहते थे ,
जो सांझ होते ही अलग हो हो कर फुदकते लगते ,
पर वो ज्यादा दूर ना जाते थे ,
फिर टर्राने लगते , और जीभ लपका कर उड़ते बैठते कीड़े खाते ,
उनमें कुछ मेंढक अपना गला फुलाकर रंग बिरंगा कर लेते ,
अलग अलग टर्राहटों से अपने साथी को आकर्षित करते ,
साथी के पास आने पर अलग अलग नृत्य मुद्राओं में कूदते फुदकते ,
इस तरह ही पूरी सांझ और रात निकाल देते ॥

उन्हें देखकर उसे अपनी प्रेयसी की याद सताने लगती , उसका गला सूखने लगता तो वो वही गन्दला पानी पी लेता ,
वो बस उसे कम से कम एक बार तो देखना चाहता था जी भर के ,
उसे इन नन्हे मेंढको का भाग्य भी स्वयं से बेहतर लगने लगा ,
अनजाने में पाए दुःख को नियति समझ विधाता को कोसने लगा ,
उसे हर चीज हर बात से शिकायत होने लगी ,
वो समाज को गाली देता , अकेले में बडबडाता , किसी जीव को लकड़ी मरता , किसी पर पत्थर फेंकता ,
पंछियों के अंडे , खरगोश , कबूतर का मांस खाकर जीने लगा , हाल का , सड़ा , कैसा भी ॥

संसार में सुख , दुःख , प्रेम , परिहास का कोई परिमाण (माप तौल) नहीं होता ,
अन्य की तुलना में किसी चीज से वंचित लोग कुंठा का शिकार हो जाते हैं ,
कुंठा से दायरे सिमटने लगते हैं ,
और व्यक्ति किसी कीड़े की तरह एक छोटी सी डंठल को कुरेदने में ही जीवन बिता देता है ॥

वक़्त गुजरा अब उसे किसी बात का ध्यान नहीं रहता था , विक्षिप्त सा , जंतुओं से लड़ता झगड़ता ,
वो विक्षत और बीमार हो चुका था , उसका अंतिम वक़्त वो मेंढक थे , वो या शायद दूसरे ,
जो कभी उसे अच्छे लगते , कभी बुरे और कभी बैचेन करते ,
उनमें वो उदासीन न था , वो उसकी भावनात्मक आसक्ति बन चुके थे ॥

अपनी कुंठा में वो युवक उसी गढ्ढे के पास से उस दृश्य भाग से गुज़र चुका था , ( कुछ गिद्ध जमा थे वहाँ )
आगे वहाँ क्या हुआ क्या पता ,
उसके बाद वो कभी होश कभी बेहोश, घने अंधेरों के बीच रह रहकर सिसकता था और फिर बेहोश हो जाता था ,
जब कभी उसने उठने की कोशिश की तो स्वयं को असंख्य चट्टानों के भार तले महसूस किया ,
पलक उठाना कभी असंभव लगता तो कभी सूरज को आँखे दिखाना ,
अस्तित्व की तलाश में उसका सब कुछ जलता पिघलता जकड़ता सा लगता था ॥

और फिर जब वो उठा था तो उसने खुद को पानी में पाया था ,
हाँ तभी उसकी साँसे चली थी और वो फुदक कर बाहर आया था ॥

...............................................................................................

अजीब सी प्यास सताए रहने लगी उसको ,
भूखी जीभ उड़ते कीड़ों की ताक लगाए रहती ,
और लपक कर मूँह में भींच लेती , पूरी निर्ममता से भींच कर मूंह बंद रखना होता था ,
जब तक फड़फड़ाती वो जान दम न तोड़ देती ,
गीलापन , गन्दगी , रौशनी से डर, आँच की असहनीयता और अकेलापन ,
बाकी मेंढको के बीच उसका मन न लगता ॥

पर कमजोर निरीह मन , भूख ,संवेदनाओं , मृत्यु और कुछ छूट जाने के भय के आगे कब टिका है ,
और वो भी एक छोटे से दायरे में सीमित जीव जिसकी दृष्टि खुले आकाश को देख पाने में असमर्थ हो , उसका मन ,
पर कुछ था जो उसे बाकी से अलग रखता था ,
शायद उसका अकेलापन , कोई गहरी जिज्ञासा , और ह्रदय के अंतर पर ठहरा अस्पर्श्य प्रेम ॥

वो बाकी मेंढकों के साथ ही उनके पीछे उनसे अलग उनसे स्वतंत्र समझ लिए ,
अधिकतर कुछ ना खाए समय बिता रहा था ,
और पिछले सूरज ही तो वो इस ओर आया था ,
अपना पुराना गढ्ढा छोड़कर , जहाँ एक चूहे की सड़ी पडी हुयी देह की दुर्गन्ध से दूर वो किसी ताज़ा हवा की तलाश में था ,
और सांझ होते ही बारिश होने लगी थी ,
वो जाग चुका था , भीतर तक ॥

स्मृतियाँ वक़्त के साथ अंतर्मन पर आवरण बनाने लगती है , और उसके नीचे , बहुत नीचे ,
कहीं गहरे दब जाता है ह्रदय और स्वास्थ्य , फिर रौशनी वहाँ से बाहर नहीं झांकती , मुक्त आकाश भी भय और चिंता का सबब बन जाता है ,
तब सब भूल जाना ही एक उपाय होता है , भावनाओं के सामान्य प्रवाह में मिल जाने तक , चेतना जब तक स्वच्छ न हो ,
और तब पुरानी स्मृतियों से ही बल भी मिलता है , संबल भी , और सबसे जरूरी ज्ञान भी ॥

उसे उसके उद्देश्य ज्ञात हो चुके थे , और वो अब वहीँ रहने लगा , उसी पत्थर पर ,
उसे एक सुकून था वहां और वो रमने लगा ,
एक छोटी सी प्रकृति , एक दुर्बल सा स्वभाव , नन्हा सा मन , अनंत के एक नगण्य हिस्से में रमने लगा था ,
अब उसकी भूख प्यास जाती रही , अकेले , अन्य समकक्षों के साथ न रहने के कारण प्राकृतिक प्रवृत्ति भी जाती रही ,
चेतना पुष्ठ , और स्वच्छ होने लगी , उस पर छाया देह का अँधेरा कम होने लगा ,
अब उड़ कर आये एक सूखे पत्ते की ओट भी उसे पसंद न थी ,
अब वो सर उठा कर देखने लगा था , उस पत्थर को ,
वहाँ उसे अब कोई छत कोई दीवार कोई दायरा नहीं दिखता था ,
सिवाय उस सुकून भरे आसरे , उस पत्थर के ॥
...........................................................................................

दिन गुज़रते गए , और उसकी स्मृति और विस्मृति प्रखर होने लगी ,
याददाश्त समझ और भूल जाने की क्षमता परस्पर एक ही सर्प के तीन मुख हैं जो गर्दन पर उसकी चेतना से जुडी हैं॥

मेंढक निरीह सा जीव था , उसकी स्मृति इतनी स्थिर न थी , पर अब उनकी आवाजाही बढ़ गयी थी ,
कभी कभी उसे अपना विगत याद आता , कभी अपने प्रश्न , कभी प्रेम और कभी पानी ,
कभी कभी अपने प्रश्नों की स्मृति आने पर वो निश्चिंतता से चिंतता था बुद्ध को , वो थे या हैं ,
एक साधारण सदेह मनुष्य का बुद्धा जाना, वो क्या है जो उसे मनुष्य से अलग कीर्ति दे गया ॥

फिर एक दिन मेंढक को जिज्ञासा हुयी , उस पत्थर के ऊपर तक जाने की ,
वो फुदकता हुआ उसकी सभी दिशाओं में यात्रा कर आया ,
और हिस्से जुड़ते गए उसके चेतन में स्थित स्मृतियों के ,
" हाँ ये तो बुद्ध है , और ये बदलाव बुद्ध की शरण है ,
वो ना जाने कब से उसी आधार पर जीवित था ,
ना जाने कितना कुछ गुज़र गया पर कुछ नहीं बदला ,
अचानक वो खामोश हो गया , ये ही तो बुद्ध है ,
उसने नज़र घुमा के चारों और का दृश्य देखा , सब और एक सुकून बिखरा हुआ था ,
आसमान में बादल न थे , पर सब तरफ बरस रही थी ख़ामोशी ,जो जमीन पर बिखर रही थी शीतल होकर ,
पृथ्वी ने स्वच्छ चेतना की चादर ओढ़ ली थी और उसकी मिट्टी से उठ रही थी सुगंध , वातावरण को महकाती हुयी ॥

मेंढक शांत हो गया , पूर्ण स्तब्ध , जैसे दृश्य प्रकाश थम गया हो ,
वो सब जानता था बस इस ही एक बात के अलावा , वो सब जानता था ,
प्रारब्ध से अब दृश्य नहीं सिर्फ कुछ ध्वनि आ रही थी , जो उसके मन से गुज़र रही थी ,
शुरुआत का छोर कुछ भी हो वो यहीं पूर्ण कहलाता है , सबका अंतिम लम्हा यही है ,
कहानी कहीं तक जाए शुरुआत यहीं से होती है , सबका जन्म समय भी यही है ॥

पूर्णता , हर लम्हे पूर्ण होती है और वो अपनी पूर्णता से थकती नहीं ,
पूर्णता भरी होती है अनंत उपलब्धियों से पर इससे उसकी पात्रता कम नहीं होती ,
जीवन सब और दुःख है और यहीं विरक्ति है ,
जिजीविषा ही जिज्ञासा है , बुभुक्षा भी और मृत्यु कहीं नहीं है ,
जानना भर जान लेना है और यहाँ कभी कुछ नहीं बदलता ॥

उसका यहाँ तक का सारा जीवन विगता गया , स्थिर हो गया ,  कभी न बदलने वाला अतीत ,
सारी अनुभूतियाँ अनुभूत हो गयी ,उसकी तृष्णा गुज़र गयी ,
मन मस्तिष्क से विरक्त हो चेतना तक पहुँच गया ,
सब कुछ जाना हुआ बुद्धि से बोध हो गया ॥

एक पल को वहाँ सिर्फ आनंद था ,
संसार न था ,
और फिर
सिर्फ एक स्थिर संसार , शेष ,
और बोध जो उसमें निर्बाध गति देखता रहा , बोध जो अविशेष था ,
(बोध जो न एक कहा जा सकता है न शून्य न ही अनंत , उसमें परिमाण का गुण नहीं , न ही कोई विशेषता ,
और इसीलिए वो हर परिमाण का आधार बनता है , समय का भी , गति का भी , कर्म का भी , न्याय का भी ) ॥

युवक को सदा से जीवन से लगाव था , फिर प्रेम से हुआ , फिर पानी से , और अब शांति से ,
जंगल में चर्चा थी , किसी बुद्धिमान मेंढक की फैलाई हुयी कि अमुक मेंढक बुद्धा गया ॥

उस समय एक मेंढक पौधे की छाँव में फुदक रहा था ,
एक तितली पंख फैला रही थी ,
और एक भंवरा फूल पर मंडरा रहा था ॥

" सब कुछ पुनः सोये हुए बुद्ध की शरण में "

....................... (बुद्धं शरणम् गच्छामि ) ...................

..............................................................................


अ से 

" कठ पुतली "

ये काष्ठकार जानता था ,
काठ के खिलौने आखिर कब तक मन बहलाते ,
जब बच्चों का मन भर जाता है तो वो नहीं खरीदे जाते ॥
पर प्रश्न जीवन का था हमेशा की तरह , और वो एक सृजन ही उसका कुल धन था !!
बस ,
फिर उसके दिल में ये ही उठता रहा की जब प्रश्न सदा से जीवन का ही है ,
तो क्यों न जीवन ही डाला जाए इन लकड़ी के खिलौनों में ,
और बात दिल में बैठ गयी ॥

मूर्त से अमूर्त तक सब कुछ छान डाला उसने ,
की कोई मिले जो उसके खिलौनों में जान फूंक सके ,
शास्त्र कहानियाँ सुन उसने शिव-पार्वती की आराधना की ,
पार्वती जी प्रसन्न हुयी , शिव जी की कृपा से खिलौने जीवंत हो उठे ,
काष्ठकार खुश हुआ और खिलोनों को पकड़ने दौड़ा ,
उसका हाथ लगते ही वो सब मिटटी हो गए ,
उसने पूछा ये क्या ,
शिव बोले- धर्म ! इन्हें जीवन तो मिल सकता है पर तुम्हे नियंत्रण नहीं इन पर ,
काष्ठकार बोला , प्रभू मुझे कोई और उपाय बताओ ,
शिव ने कहा किसी के जीवन पर तो तुम्हे अधिकार नहीं दिया जा सकता ,
पर इन पुतलों को जीवन की नक़ल दी जा सकती है ,
तुम इन्हें ऐसे ही दिखाओ जैसे ये जीवित हो जाते हों और अपनी आजीविका चलाओ ,
हाँ पर जब तुम इन्हें जीवित दिखाओ तो इन्हें हाथ लगाना जीवन धर्म के विरुद्ध होगा ये ध्यान रखना ॥

और तब पार्वती जी ने उसे कुछ " प्राकृत देव सूत्र " ,खिलोनों पर नियंत्रण के लिए दिए
और महादेव ने उसे दिए दो दिव्य ज्ञान , उसके खेल में रचना की दिक् दृष्टि से , " कला और कौशल " ,
और वो दोनों अपने स्वयं बोध में सिमट गए ॥


काफी मेहनत के बाद आखिर वो खुश था ,
उसकी उंगलियों के इशारे पर उसके खिलौने एक जादू रचने लगे थे ,
अपने काठ के पुतलों , देव सूत्रों और कला कौशल के सहारे वो जीवंत कर देता था एक कठपुतली , एक दृश्य ॥
( पुतला - बनावटी देह , पुतली - आँख का गोलक , कठ - जड़ ,सांसारिक )
( कठ पुतली का अर्थ सांसारिक आँख या सांसारिक दृश्य से है ॥ )

खेल तमाशा चलने लगा , मनोरंजन , ज्ञान , आश्चर्य और अनुभव हर तरह से ये पसंद किया जाने लगा ,
कहानियाँ फैलने लगी लोक मानस में ,
और हर सृजन की तरह इसकी भी शाखाएं फैली ॥

पर हर सृजन की तरह , रचनाकार अपनी ही रचना के मोह में फंस गया ,
न होते हुए भी , वो उसमें जीवन देखने लगा ,
आनुपातिक रूप से अब कठपुतलियाँ चेतन होने लगी और काष्ठकार जड़ , बुद्धि और आत्म के सम्बन्ध की तरह ,
उसे पुतले ( यहाँ मूर्त की तरह प्रयुक्त हुआ है ) में ममता हो गयी ,
वो उसके सहारे जीवन को अनुभूत करने लगा ,
उन कहानियों में बसने लगा , उसकी हर वेदना संवेदना के प्रति वो सजग हो उठा ,
उसे सजाने लगा , सर्दी गर्मी से बचाने लगा , अपने ख़ास पुतले की तरह दुसरे पुतलों में भी उसकी चेतना उलझने लगी ,
और एक दिन उसने खुद को एक काठ का पुतला पाया !!

वो अहम् गर्वित हो उठा ,
उसने फूंक दिए थे प्राण एक पुतले में ,
जिस पर वो नियंत्रण भी कर सकता था क्योंकि ये जीवन उसका स्वयं का था , जीवन धर्म के विरुद्ध न था ,
और वो उसकी सहायता से रच सकता था ,स्वांग ...
............................................................................... ( १/२ जारी )

कठपुतली (2/2) ....

गली - गली , दर - पहर , वो अब नए नए स्वांग रचाने लगा ,
नित्य अजब अनोखे आयामों से जीवन कठपुतलीयाँ गाने लगा ॥

अब रचना और रचनाकार अलग अलग नहीं थे ,
और ना ही कहानियाँ ,
कहानियाँ ही जिंदगी बन गयी थी ,
उनसे अलग अस्तित्व को देखा जा सकना संभव न था ॥

दिखावटी दुनिया का हिस्सा बन जाने पर , सच झूठ को अलग रख पाने का साहस ह्रदय खो देता है ,
अब वो बस उसके सुखों दुखों में रच बस सा जाता है ,
हर संभव प्रयास होता है , सुखों की प्राप्ति (राग) और दुखों से दूर जाने का (द्वेष) ,
अंतर्द्वंद अन्तः करण बन जाते हैं ,
सुकृत दुष्कृत नियमोंमयी जमुना सभ्यता पनपने लगती है ,
मूल भावों की गंगा मैली होने लगती है ,
और फिर वो दिन भी आता है जब यमुना का पानी भी प्यास नहीं बुझाता ,
अब वो शीतलता से गीलेपन की दिशा का रुख कर लेता है ,
नाभि चक्र की सजगता दिनों दिन घटने लगती है ,
अमृत बहता नहीं , घड़े में भरने लगता है , भार हो जाता है ॥

अब कठपुतलियाँ जन मानस का मन उकता चुकी थी ,
उन्हें चित्र विचित्र आयाम देने के बेमायनी प्रयास किये जाने लगे ,
पर इन उत्तेजनाओं और प्रमादमय प्रयासों से कौशल खोने लगा ,
कला चुकने लगी ,
कमजोर पड़े पुतलों की जान संकट में आने लगी ,
जर्जर प्रतिमानों की तरह से वो दर बदर ठोकरें खाने को मजबूर थे ,
शोक दुःख और बैचेनी रुपी अस्थिर वायु राक्षस सब ओर मंडराने लगे ,
सूरज का प्रकाश धरा तक रह रहकर पहुंचता था , बरसातें अब नियमित ना थी
कोई उपाय नज़र नहीं आता था ॥

और अब एक पुतला संकल्प ले बैठा फिर से काष्ठकार बनने का ,
उसने जाना था विगत कठपुतलियों से अपना इतिहास ,
उसने की शिव की आराधना ,
वैराग का अनुसरण किया ,
मथने लगा वो दृश्य सागर को ,
सत्य का घृत ऊपर आना जरूरी था ,
जिसकी नौका पर चेतना किनारे लगे ॥

-----------------------------------------------

पर इसके लिए जरूरी था एक युद्ध ,
कर्तृत्व के काले नाग से ,
वो भी कृत संकल्प था ॥

वर्षों तक घोर संघर्ष हुआ ,
कर्म से कर्म को मिटाना संभव न था ,
कर्म पाला बदलने लगते थे ,
तब शिव ने उसे दी अपने तीसरे नेत्र की प्रकाश प्रतीति ,
अब वो अपने युद्धक कर्मों को एक नयी दृष्टि से देखने लगा ,
उसके कार्य उसे सत्य का बोध देने लगे ,
जो अगले कार्यों को बल देते थे ,
और युद्ध की दिशा पलटने लगी ,
अंततः
हर ओर प्रकाश भर गया , तीसरा नेत्र पल भर को सच हो उठा ,
वायु राक्षस आकाश सी शून्यता में लय हो गये ,
और फिर एक ज्योति पुंज हो कर शिव मस्तक में यथास्थान विराजमान हुआ ,
नाग का विष बुझ चूका था , वो भी शून्य शिव देह में कहीं रम गया ,
सभी पुतले अब तक स्थिर हो चुके थे ,
कहीं कोई विकृत गति शेष न थी ,
और गंगा का प्रवाह बड़ गया ॥

बहुत पुराना सा कोई दृश्य ताजगी शीतलता और नयापन लेकर धरा पर आसीन था ॥
----------------------------------------------------------------------(२/२ कठपुतली )

< अ-से >

देखें क्या है आज खाने में ...



देखें क्या है आज खाने में ,
सोचकर वो रसोई में घुसा,
और बल्ब जलाने के लिए उठे हाथो के बोझ के साथ ही उसे याद आया ,
बिजली का बिल भरना था ,
अब पिताजी की डांट .. चलो खा लेगा,
पर
समस्या अब भी वहीँ है,
कुछ हफ्ता भर ही हुआ होगा
जोश में आकर नौकरी छोड़ दी थी
बॉस की लताड़ खाकर ,,
आजकल धक्के खा रहा है ,
बसों के ,
पेट्रोल महंगा है बिना जॉब फ़ालतू लोड पड़ेगा,
इसलिए धूप में गश खा रहा है ,
ये जायके तो अब जिंदगी के मायने से हैं
सो कोई समस्या नहीं ,
पचाना मुश्किल था तो कल
उसकी प्रेमिका की झाड ,
आखिर तुम्हे ही कोई जॉब क्यों नहीं मिलती
और मिलती हे तो चलती नहीं,
बल्ब जला,
और उस आभा में स्टील के दमकते बर्तनों से याद आया ,
माँ का वो कलाम ,
दो बर्तन घर में कभी लाया नहीं और हुकुम चलाने लगा है,
बाहर गालियाँ खाना तो उसकी आदत सी है ,
कोई समस्या नहीं सब पच जाता है ,
पर घर पे गम खाना मुश्किल है,
आखिर बात तो सही ही है ,
कितने पुराने से हैं ये बर्तन ,
कुछ तो माँ के दहेज़ के ही रहे होंगे ,
वो सुनता हे फिर एक आवाज ,
माँ की ,
नौकरी मिली .. नहीं .. अच्छा खाना खा लेना ,
"नहीं माँ ! पेट भरा है , बहुत खा लिया आज । "

अ से 

काल कचहरी


काल की कचहरी में महकमा जमा है,
ह्रदय पुरुष खुद जज बना है ,
अव्यक्त प्रकृति क़ानून भी है ,
मुकदमा भी और जिरह भी,
व्यक्त संसार सबूत के साथ,
मेरी सजा बना है ॥

गुनाहगार था मैं ,
उस गुनाह का ,
जो अनजाने में मुझसे हो गया था ,
अज्ञान को जिजीविषा,
और ज़िन्दगी को आनंद समझ बैठा ॥

उनकी नज़रो में ,
एक कर्तव्य के लिए ,
जन्मा था में ,
की शाखाएं फैलने पर सींच सकू उन्हें भी ,
जिन्होंने एक कोंपल मात्र से मुझे तना बना दिया ॥

और आज अपनी असफलता की सजा सुनने ,
मन के कटघरे में खड़ा हूँ ,

सज़ा भी पता है मुझे,
इस शरीर के सीखचों में कैद कर मुझे ,
अनेक यातनाएं दी जाएँगी ,
मेरे अहम् को धिक्कारा जायेगा ,
और मेरे मन पर हंसा जाएगा ,
और गर इससे भी न टूटा मैं ,
तो मुझे तपाया जाएगा ॥

पर बात दृश्य की नहीं ,
न्याय की है ,
नीति की है ,
उन संस्कारों की है ,
जो मेरी रीड बने थे ,
और आज मुझे अनैतिक कर्तव्यों का भान करा कर ,
कोसते हैं मेरे अस्तित्व को ,
और आरोप करते हैं मुझ पर ॥

कैसी वीभत्सता है इस दृश्य की ,
कि गुनाह भी मैं हूँ ,
गुनाहगार भी ,
हमदर्द भी ,
और सबसे बुरा
खुद न्याय भी ॥

< अ-से >

बुढ़ापा



ह्रदय ठोस हो गया है ,
उसके स्थान पर जिस्म फड़फडाता है ,

एक बैचेनी अटकी रहती है आँखों में
एक हलके से धक्के पर साँस अटक जाती है ,

अब कुछ भूलना मुश्किल होता है ,
जबकि याद कुछ नहीं आता ,

कुछ पुराने रूमानी दृश्य चोट पहुंचाते हैं मस्तिष्क को ,
बेरुखी विषबुझे तीरों से भेदती है ह्रदय के मर्म स्थानों को ,

बच्चों की वो भोली और मासूम मुस्कान
वो निश्चल हँसी जो कभी अमृत घोलती थी ,
हवा में बहती खिलखिलाहट जो खनकती थी कानो में ,
अब हजारों भुतहा चेहरों से अट्टाहास करती है ,
अंतस को हर एक कर्ण छिद्र से बहरा कर देती है ,

शर-शैया पर सोया है वर्तमान उसका ,
अतीत का हर एक झोंका देता है असहनीय तकलीफ ,

जिसको उसने तराशा था ,
एक मूर्तिकार की तरह ,
और दी थी लौ अपनी  ,
साँझ की रौशनी के लिए
आज वो ही देता है उसे दुत्कार ,
जगह देता है बस कोनों में चार ,
निकाल देता है कभी दखल से ,
कभी घर से बाहर ,
और खड़े  करता है सवाल ,
उसके अस्तित्व पर ! ... ( बुढ़ापा )

अ से

अन्तःसूत्र

..................... अन्तःसूत्र  ........................

जादूगर की जान तोते में थी ..
तोता विरही निकला ,
एक दिन आत्महत्या कर बैठा ,
जादूगरी काम न आ सकी ॥

सोणी महिवाल , लैला मजनू , हीर राँझा , सस्सी पुन्नू ,
रोमियो जूलियट , शीरी फ़रियाद और न जाने कितने ,
बंधे थे ... अंतस के प्राण सूत्र से ,
एक का दर्द दूसरा न सह सका ॥

पुत्र में ममता थी ,
उसकी मृत्यु के प्रमाण भर से द्रोण ने युद्ध और संसार दोनों छोड़ दिया ,
भुजाओं का अकूट महासंग्राम ,
ह्रदय की सूक्ष्म सी नाड़ी पर जाकर थम गया ॥

नीड़ का निर्माण भी जरूरी था ,
एक तिनका भर संपत्ति के लिए हुई महाभारत में ,
एक चिड़े ने दम तोड़ दिया ,
चिड़िया जीत कर भी खुश न थी ,
घायल अवस्था में भी उसे बच्चों के लिए दानों का इंतज़ाम करना था ॥

जब इज्ज़त पर आ गुज़री ,
पुजारी और पादरी कुछ शब्दों की जंग में दो सियासत लड़ा बैठे ,
मौलवी खुदा का शुक्रिया अदा करने निकल पड़े ॥

उसकी देशभक्ति उसका जूनून बन गया ,
विगत इतिहास की बेईज्ज़ती का बदला उसने प्रारब्ध तय किया ,
प्रकृति से भी क्रूर , बहती खून की नदियाँ ,
एक-एक हिटलर ने समाज - सभ्यता पर तमाचा जड़ दिया ॥

इधर सावन झूम कर बरसा है ,
प्रेम सजल से भीगकर पत्ता पत्ता निखरा है ,
अमृत- तृप्त धरा पर हरा बचपन उभर आया है ,
पतझड़-जर अनंत अंधेरों में गहराया गया है ,
और आज शेर भी हिरन के संग नदी की तरफ निकला है ॥

ममता में निकले गए कितनों के प्राण ,
अपनत्व ने ली कितनो की जान ,
भाईचारे के कारण सारा युद्ध छिड़ा है ,
मोह के तिनके पर संसार खड़ा है ,
आँखों में यादों का जाला पड़ा है
विस्मृति-अमृत को संसार भूला पड़ा है ॥

------------------------------------------------------------------ < अ-से >
बैठे हों खामोश फिर अजीब बात का होना ,
याद भर से उनकी गुदगुदाहट का होना ॥

जो सामने वो होते तो कुछ कहते नहीं बनता ,
वरना फिर खयालों से भी आवाज़ का होना ॥

दौड़ कर कर लेना फिर पार यूँ ही दरिया ,
पहुँच के दर पर क़दमों की इनकार का होना ॥

और वो एहसास पा लेने का जन्नत को ,
वो आँखों से जो गुजरे तो सांझ का होना ॥

नर्म धूप छाँव सा बदलता सा वक़्त , और
रह रहकर तेरी यादों की बारिश का होना ॥ .................. पहले पहल ॥
अश्वत्थ सा आत्मकेन्द्रित, तुलसी सा रतमग्न विज्ञान ,
साध, भक्ति और समर्पण के साथ ।

गन्ने और बाँस सा बढता उत्तरोत्तर ज्ञान ,
सुगंध और मिठास की निश्चित दिशा लिए ।

आम्र सा फलदायी , नीम सा गुणकारी ,
अपने को उपयोगी बनाने की होड़ में ।

विध्या के पौधे सा निर्वेद ,
शाखाओं की अनन्तता का भान कराता हुआ ।

वृक्ष से मूल , पौधे से बीज तक की यात्रा है ज्ञान विज्ञान ,
ना की बरगद की तरह फैलते विचारों को अस्तित्व देने का नाम ।

जमीन पानी और हवा हर जगह जडें फ़ैलाने वाला ,
सारे रसों और वेदनाओं में फंसा हुआ ,
हर ओर बढता फिर भी दिशाहीन ,
बिना लक्ष्य फैलता ,
कुबेर की तरह संचय को ही जीवन माने हुए ।

एक प्राचीन कहावत है , " बरगद और पीपल एक दुसरे की छाया तले नहीं पनपते " ,
कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान दुनिया में उन लोगों की है ,
जिनके लिए जीवन साधना और बोधि-वृक्ष हुआ करता है ॥

................................ < अ-से > .............................................
एक पल पल जलता रहा ,
एक उस पर रोटी सेकता रहा ,
और एक खाता रहा ,
जब तक की एक तीनों को निगल नहीं गया ॥

खाने वाला निवाला बन गया ,
सेकने वाला ज्वाला बन गया ,
और जलने वाला खुद निगलने वाला ॥

एक दोमुँहा सांप सबको निगल जाता है ,
केंचुली बदलकर बाहर आता है वक़्त ॥

पाँच उँगलियाँ और एक अँगूठा विद्रोही हो गए ,
और बाँह कोहनी से अलग चलने लगी ॥

एक ही व्यक्ति की आठ स्त्रियाँ झगड़ने लगी ,
प्रेम के अभाव में वो ख़ुदकुशी करने निकल पड़ा ॥

२ ८ स्त्रियाँ उसे ३ रस्सियों से बाँध कर धीरे धीरे रात के समुद्र में खींचने लगी ,
कोई चारा न देखकर उसने खुद से ही ब्याह रचा लिया ॥

अब आठों स्त्रियाँ बेसहारा हो चुकी थी ,
उनका पति उनकी सौत बन चुका था ॥

घर के अभाव में एक खुद में ही रहने लगा ,
अब वो दिखाई नहीं देता ॥

दिशाओं के हाथी चिंहाड़ने लगे ,
जब एक ने उन्हें देखा हवा को रोक कर ॥

सदियों से रुका एक फव्वारा अचानक चल पड़ा ,
जब एक को फुर्सत मिली चैन से बैठने की ॥

एक वृद्ध बैठा है ध्यानमग्न ,
दसों और खेल रहें हैं बच्चे उसके ॥ .......... ............ .............. दृश्य ॥
-------------------------------------------------------------------- अनुज ॥
कोई रात अंधियारी नहीं होती ना ही कोई दिन दीप्त ।
सूरज कब सोता है भला रात कब जागती है ॥

अबोध अनजान तप्त अशांत
बैचेनी भरा अन्धकार ,
मेरा दोष भर ।
सरल मृदु शीतल महान
नर्म तेज प्रकाश ,
एक होश भर ॥

वो जो न रातों में सोता है ,
वो जो ना बातों में खोता है ,
वो जो न ख़ुशी में भीगता है ,
वो जो ना दुखों में रोता है ॥

रत है सतत है सतत रत है सदा ,
न रुकता है ना ही चलता है ,
देखता है सबकुछ ,
पर दृश्यों में नहीं खोता है ॥

न अन्दर है ना बाहर
पर जाहिर है सदा ,
ना जीता है न मरता ,
और हाज़िर है सदा ॥ ........ ............ ................. प्रकाश ॥
.................................................................. अनुज ॥
इन शब्दों को बहुत गौर से सुना है मैंने ,
अपनी उदगार के बाद से ही धीमे और धीमे और धीमे से हो जाते हैं ,
पर कभी खामोश नहीं होते ,
उस धीमी हो चुकी ध्वनि के पीछे अपने कान ले जा सकूँ ,
और सुन सकूँ ,
जो भी उसने कहा था , उस वक़्त ,
वो शब्द वो घोष वो उदगार वो गूँज वो खिलखिलाहट वो नाद वो आल्हाद वो सभी बातें ,
वो सब यहीं हैं ,
मुझे पता है ,
पर बहुत शांत सी हो चुकी हे ध्वनि ,
और बहुत शोर है मेरे मन में ,
सामाजिक ताप से दग्ध ह्रदय में ,
हाय-तौबा से कम्पित कर्ण पटलों में सामर्थ्य नहीं दीखता ,
सुन सकें,
उस मधुर कविता को ,
उन गीतों को जो वक़्त ने पिरोये थे मेरे लिए ,
सिर्फ मेरे लिए ,
और वो समाते जा रहें हैं इस शून्य बेपरवाह आकाश में ,
ओ दुनिया ! चुप हो जाओ , मुझे सुन लेने दो ,
क्या कहा था उसने ,यहीं इसी जगह,
बहुत वक़्त पहले ....!! ................अनुज अग्रवाल (repost)
पत्थरों की दरारों में नयी घास उगी है ,
कल पकाए खाने में भी फफूंद लगी हे ,
जाने ये मच्छर कहाँ से आ जाते हैं ,
और ये झींगुर भी उत्पात मचाते हैं ॥

कल ही साफ़ किया था ये जंगल ,
आज फिर बारिश आ गयी ,
मेरा इकठ्ठा किया पानी ,
बाँध के साथ बह गया ॥

समय गुजरे की बात है ,
पूरी धरा को इमारत बना दिया था ,
नदियों को नाला, और नालों को नल ,
आज मशीनों पर काई जमी है ,
धरा पर फिर वनस्पतियाँ रमीं है ॥

उसकी बनावट मुझे सताती है ,
मेरी सजावट उसे नहीं भाती ,
मैं जो भी करूँ सब मर जाता है,
फिर वो ही दृश्य उभर आता है ॥

ना सृजन मरता है,
ना मृत्यु थकती है ,
फिर फिर वो ही प्रकृति बरसती है,
मेरे बदलाव की हर कोशिश अपने अस्तित्व को तरसती है ॥

तो मैं बुरा था ,
मैं बुरा ही रहा ,
ना मैं उसे समझ पाया ,
ना उसने खुदको बदलना चाहा ॥

बे-मायनी जद-ओ-जहद चलती रही ,
और ये ज़िन्दगी भी ,
चित्र विचित्र अनेकों कहानियों के साथ,
अपने अर्थ को तलाशती ॥ ...... अनुज अग्रवाल ॥
आकाश अपने पास कुछ नहीं रखता ,
उसको दिया सब बिखर जाता है , वहीँ आकाश में !!

सोन चिड़ियाऐं गाती हैं सिर्फ प्रेम गीत ,
वो नहीं सुनती कोई भी बात , उनके मतलब की भी !!

अपनी हद पर खड़ा रहता है दरबान और चले जाना चाहता है ,
उसे नहीं वास्ता तुम्हारी रंगीन महफ़िल से !!

खिड़कियाँ नहीं रोकती मिलने से, भीतर और बाहर को ,
बस एक जरूरी दूरी बनाये रखती हैं !!

पता है संगदिल तुझे ,
दिल दुनिया की सबसे खूबसूरत खिड़की है ,
सबसे सचेत दरबान , सबसे फैला आकाश ,
और एक सच्ची सोन चिड़िया !!

दिल जानता है आजादी जरूरी है जीने को ,
इसलिए कुछ नहीं कहता वो तुम्हे , तुम्हे भी तो जीना है ना !! ............................. अ से अनुज ॥
उसी शब्द के मायने वाक्य बदलने पर बदल जाते हैं ,
ख़ामोशी भी एक ऐसा ही शब्द है ,
और तो और इसके मायने भी काफी गहरे और गंभीर होते हैं ॥

ताश के जोकर की तरह कहीं भी लगाया जा सकता है इसे भी ,
ये वो तुरुप का पत्ता है जो कभी भी चल सकता है ,
बस एक बार खुद को समझ आ जाएँ इसके सही मायने ॥

कहानी को सिर्फ शब्द ही मोड़ नहीं देते ,
ख़ामोशी भी बदल देती है ,
बुरी तरह से ,
और एक लम्बी ख़ामोशी ,
ले आती है एक ना लौटा सकने वाला बदलाव ॥

बहुत ही भारी शब्द है ये खामोशी ,
बैरंग होते हुए भी झिलमिलातें हैं कई रंग इसमें ,
ठीक सांझ की झील की तरह , घुलते लहराते नज़र आते हैं सतत रंग बिरंगे आकार इसमें ॥

इस शब्द में एक ख़ास बात है ,
हर कोई इसमें अपने ही मायने तलाशता है ,
इसलिए कई दफा ,
तुम्हे हो जाया करती है ग़लतफ़हमी ॥

मेरी इस ख़ामोशी को अपने बीच का अन्तराल ना समझना ,
ये तो भरी हुई है अनेकों रंग बिरंगी खट्टी मीठी कहानियों से ॥ ..................... अ से अनुज !!
" देखो तुम्हारा पैदल मर रहा है , "
एक मुस्कराहट के साथ सफ़ेद मोहरों वाले ने कहा ॥

" अरे पैदल तो होते ही हैं दांव पर लगाने के लिए ,
तुम अपनी चाल खेलो ,
फिर देखते हैं अबकी बार बाजी किसके हाथ लगती है , "
रात्रिकालीन सफ़ेद मोहरों वाले ने कहा ॥
और अट्टाहासों के बीच प्यादे की चीख कहीं दब गयी ॥
मेरी यह रचना मेरे जीवन की सबसे बेहतरीन रचना होगी !!

इसका तयशुदा प्रारब्ध तय नहीं कहूँगा मैं ,
इसको इस रहस्यमय संसार में छोड़ दूंगा
अपने हाल पर अन्य अनगिनत कविताओं के बीच ॥

इसके भाव प्रकट नहीं करूँगा मैं ,
पर जब जब इसका स्वाध्याय होगा
प्रकट होंगे नए नए भाव गहराती जायेगी ये कविता ॥

मैं बताऊंगा पूरी सच्चाई है इसके लिखे हर शब्द हर कथन में
और मैं लिखूंगा इसमें जीवन के गूढ़ रहस्य भी ,
या तो बहुत ही आसान शब्दों में की कोई विश्वास ही न कर पाये  ,
या फिर उसके समकक्ष बातें करके छुपा लूँगा की वो सच क्या है ॥

जहाँ लोग इसमें उद्देश्य तलाशते नज़र आयेंगे ,
वहाँ मैं इसे बनाऊंगा निरुद्देश्य ,
क्योंकि उद्देश्य अंत का निर्देश है
और मेरी यह कविता अंतहीन है ॥

मेरी ये रचना चिरंजीवी होगी  ,
वक़्त के साथ बदलती इसकी तस्वीरें इसकी सराहना
जहाँ इसमें प्राण फूंकती रहेंगी ,
वहीँ वक़्त के साथ इसके शब्दों की
तत्सम तद्भव शक्लें बिगड़ती जायेगी ,
इसके अर्थ अपने मायने खो देंगे ,
और कुछ वक़्त को खो भी जायेगी ये गुमनामी के अंधेरों में ,
जहाँ ये खुद को पहचानने से इनकार कर देगी ,
पर ये मरेगी नहीं, बस कहीं और जा बसेगी
समय और अंतराल के किसी और बिंदु पर ॥

मेरी कविता का कोई पक्ष कमतर नहीं होगा ,
उन्हें मैं एक ही न्याय के तराजू पर तौल कर लिखूंगा ,
पर अपनी अपनी समझ के अनुसार ,
अपनी पसंद , अपने फायदों के लिए ,
लोग चुनेंगे अपना मनचाहा पक्ष ,
और बहस करेंगे , लम्बी लम्बी बहस ,
इस कविता के इतिहास से भी लम्बी ,
सदियों तक चलेंगे युद्ध और लड़ मरेंगे कई लोग ,
जब तक की कुछ वक़्त के लिए खो न जाए ये ,
कि फिर से शांति पनपे कि फिर से मिलकर रहें लोग
और फिर किसी को मिलेगी यह और फिर से होंगे पक्ष विपक्ष ॥

इसमें लिखूंगा मैं दुनिया की वास्तविक शक्ल
और रंग बिरंगे झूठे सपने भी ,
विश्वास करने वाले
दोनों पर विश्वास कर सपनों में उलझ जायेंगे ,
और संदेह करने वाले
वास्तविकता पर भी संदेह करने लगेंगे ॥

कुछ ऐसे कथन लिखे जायेंगे , जो व्यापक हैं ,
जिसमें होंगे सभी को अनुभव होने वाले मृदु और मार्मिक भाव ,
और होगी वो बातें जो सभी के भविष्य में घटती है ,
जिन्हें पढ़कर सभी को अपनी सी लगेगी ये कविता ॥

मेरी ये कविता किसी राजनीतिज्ञ की अपनी सत्ता बचाए रखने की भावना से लिखी जायेगी ॥

मैं न इसको अब ज्यादा लम्बा खीचूँगा
न मैंने इसको बहुत छोटा रखा है
न बहुत महत्व का न महत्वहीन ,
पर ये प्रयास रहेगा कि ये निरर्थक कविता सभी को अर्थवान लगे ,
और इसके शब्दों के दल दल में डूब कर रह जायें पीढ़ियाँ ,
और उन्ही के वक़्त के बलिदानों पर पोषित होती रहे ये अमर रचना ॥

मेरी यह रचना मेरे जीवन की सबसे बेहतरीन रचना होगी !!

अ से 
एक विज्ञानी ने कहा शक्तिशाली ही जीवित है ,
और सारे जीव अवसाद में आ गए ॥

प्रसन्नता का प्रकाश फ़ैलाने को प्रकट हुई अग्नि ,
उनकी ख़ुशी में जल जल मरी दुनिया सारी ॥

एक और बुद्ध निकला घर से ,
उसकी पत्नी ने उसे भगोड़ा घोषित कर दिया ॥

कूद पड़े पतंगे , खुदकुशी करने को ,
नहीं आया नाखुश दुनिया में खुश रहना उन्हें ॥

महाभारत पढ़कर शोक त्याग वो अशोक क्या बना ,
कि पूरा कलिंग शोकमग्न हो गया ॥

एक चंगेज और निर्मम हुआ ,
मारी गयी ममता हज़ारों की ॥

वो सिखाते रहे खुश रहने का करम ,
और हर करम को पाप बताते रहे ॥

सभी तरह की गुलामियों में सबसे वीभत्स है प्रेम ,
अनजाने ही बेगारी और दासता स्वीकार करना ॥

ज्ञान को पाने के लिए किसी भी तरह के ईश्वर की दासता नामंजूर हो ,
वो अज्ञानी ही भला जो किसी कैद में न हो ॥ .......................................... अ से अनुज ॥
कल उसने कुछ 15-20 लोगों की झाड़ खाई,
मालिक के दो झापड़ ,
एक पुलिसिये का डंडा ,
रास्ते पर एक कार की हलकी सी टक्कर ,
घर के दरवाजे पर एक ठोकर,
और दो रोटियाँ ॥

कुछ 12 साल का रहा होगा वो ढाबे पर काम करने वाला लड़का ,
आखिर भूख कहाँ देखती है कोई स्वाद ॥
और एक दिन जब मैंने अपनी मुक्ति मांगी , अब तक रहे अपने मालिक से , किताबों से , मुझे सिखाई गयी भाषा से ॥

तो मुझे ये कह कर टाल दिया गया , की तुम नहीं हो सक्षम अपने फैसलों में , तुम्हे नहीं आता जीना हमारे बिना ॥

पर मुक्ति तो उसी पल हो जाती है , जब उसका खयाल पहली दफा आता है ,उसके बाद की कहानी तो विद्रोह मात्र है ॥

उसके बाद भी प्रयास किये गए मुझमें हिंसा के बीज बोने के , ताकि सिद्ध कर सकें वो अपनी बात ,
लोग बोलते वक़्त भले न सोचे की वो सच है या नहीं , पर बोल देने के बाद उसे सच सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ते ॥

खैर ! जिन्हें अपनी आज़ादी प्यारी हो वो दूसरों की भी नहीं छीनते , ये तो गुलामों का काम है दूसरों को गुलाम करना ॥

सबसे पहले मैंने वो भाषा छोड़ी और हो गया मूक ,
मुझे नहीं बोलनी थी वो गुलामों को सिखाई भाषा जिसके हर एक शब्द ने मुझे सीमित और सीमित भर रखने का प्रयास किया ,
मैंने सीखी मुक्त मन की भाषा ,
सुना सभी को बोलते हुए ,
चिड़िया , कौवे, गिद्ध, कबूतर , कुत्ते , बिल्ली, चूहे सभी को ,
अपने अपने कंठ से सभी बोलते हैं , सभी रोते हैं , सभी गाते हैं गीत कभी सामूहिक कभी एकांत के ,
सभी में है दिमाग भी बिलकुल मुझ सरीखा ,
और एक ह्रदय , शायद मुझ से भी बेहतर ,
क्योकि ख़ामोशी पसंद वो सब सुन पाते हैं अपना ह्रदय ,
कितना सीमित रखती है हमारी भाषा हमें ॥

फिर मैंने वो जगह छोड़ी ,
दूर देश की यात्राएं की , रहना शुरू किया अलग अलग जगह ,
कल्पनाओं में , कहानियों में , अंतरिक्ष में , लकड़ी में ,पेड़ पर, बिल में ,
नसों में बहना शुरू किया , ह्रदय में रहना ,
मैंने जाना कहीं भी रहा जा सकता है ,
एक किस्से में भी ,,
कोई दीवारें क्यों बनाता है भला , कितना कैद रखता है एक घर हमें ॥

पूरे विश्वास के साथ अब मैंने शुरू किया , हर मालिक को उनकी हर सीख को अपने मानस से अलग करना ,
और खुद तय करना हदें अपनी , अपने अन्तः करण से,
मुझे पता लग चुका था , कहाँ कैद था मैं ,
किस हिस्से को बदल कर वो बदल देते हैं कुदरत ,
मुक्त आकाश को कैसे बना देते हैं एक घड़ा ,
कैसे महीन सी दीवारें तोड़ने में काँप जाता है ह्रदय ,

वो खड़ी करते हैं भीतियाँ सबसे मार्मिक मानस स्थलों पर ,
और बुनते हैं जाल मुझे मुझमें ही कैद रखने का ॥ ......................................... अ से अनुज ॥
दृश्यों की अनंत धाराओं में से एक का हिस्सा हुआ मैं,
जोड़ता हूँ उसी दृश्य के अन्य हिस्सों को और बुनता हूँ एक कहानी ॥

उस कहानी के अनेकों पात्रों में कुछ उस धारा से पृथक हो , जुड़ जातें हैं किसी अन्य दृश्य धारा से ,
कहानी के कुछ पात्र डूब जातें हैं शोक में ॥

इस धरा के सभी तथाकथित निवासी कभी छूते नहीं ज़मीन ,
वो आकाश से अलग बसते हैं खुद ही की माया में ॥

पलक झपकते ही बदल जाती है दृश्य धारा ,
पलक दरियाव के हर बहाव से बचाता रहा हूँ मैं खुदको ॥

आँखों ही में बनते बिगड़ते दृश्यों की अस्तित्वहीन सत्ता से पृथक ,
दृश्यों की अनंत असीम मृत्युओं के बीच बचा रहता हूँ मैं ॥

कोई किसी दृश्य धारा में बहे, किसी से पृथक हो , किसी से जुड़े ,
पर क्योंकि वो स्वयं में स्थित है , वो चिर स्थिर है ,
कौन मरा है भला आज तक ॥ .......................... अ से अनुज ॥
अब पंछियों को दिए जायेंगे सीमित आकाश ,
उनकी उड़ान का समय भी तय होगा और गति सीमा भी ॥

अब से अनपड़ रहना अपराध होगा ,
गधों को कराया जायेगा अक्षर ज्ञान ॥

नए कानूनों के मुताबिक चौकीदारी उल्लुओं से करायी जायेगी ,
दो आँखे भर चाहिए , उसमें अकल का क्या काम ॥

चमगादड़ो को लगाया जा चुका है जासूसी के काम पर ,
बिल्लियाँ चूहों के संरक्षण का कार्यभार उठाएंगी ॥

और इंसान तय करेगा नियम प्रकृति के ,
स्वतः मिली व्यवस्था की कमियों को दूर करने के लिए ॥ ............................. अ से अनुज ॥
कुछ सम्बन्ध सरल हैं जो आपसी सम्मान के सूत से जुड़े हैं ,
वो बाँधते नहीं , वो उलझाते नहीं
और उन्हें सुलझाना भी नहीं होता !

यही दुआ है मेरी
हो हर किसी के हाथ
कम से कम एक डोर सूत की !

अ से 
दुःख-सुख, आशा-निराशा,
दिन-रात, जीवन-मृत्यु ,
और सभी द्वन्द ,
और कुछ नहीं,
मात्र "अभिव्यक्ति" है ।

सारी अभिव्यक्तियाँ,
सभी व्यक्ति,
पूरी प्रकृति, पूरा परिणाम ,
भूत, वर्तमान और अनुमान ,
संकल्प-विकल्प, और अज्ञान ,
सब "अनुभूति" हैं ।

पर आश्चर्य ,
अनुभूति भी ,
स्वयं की अनुभूति में ,
एक "अनुभूत" है ।

अनुभूत,
जो प्राचीन है ,पुरातन है , हो चुका है ,
जो सदा एकरस है ,
और ऐसा ही रहने वाला है ,
वो शुद्ध ज्ञान है ,
और शुद्ध साक्ष्य है ,
जिसके बिना प्रमाण भी निरस्तित्व है ॥

और आश्चर्य ,
वो अनुभूति भी जो की शुद्ध क्षमता है ,
वो भी काल के प्रभाव से ,
पूर्ण अनुभूत नहीं हो पाती ॥

"काल "
जो शुद्ध गणित है ,
जो भाव-परिस्थिति ,
मुहूर्त-नक्षत्र , ग्रह-ज्योतिष ,
दशा-महादशा-अन्तर्दशा ,
के अनुसार कलित होता है ,
और जिस के कारण अनुभूत ,
अनुभूति प्रतीत होता है ॥

सदियों में कभी ,
"अनुग्रह" से ,
अनुकम्पा से ,
सृष्ट होती है पूर्णता ,
व्यक्त रूप में (वैसे वो पूर्ण ही है ) ,
जब अनुभूति कर लेती है ,
पूर्ण अनुभूत ,
स्वयं को ,
और तब ,
कुछ भी शेष नहीं रहता ,
रहता है मात्र एक अविशेष ॥ .......................... अ से अनुज ॥
एक सन्नाटा पसरा है , कई मीलों तक ,
या ये कहें कई प्रकाश वर्षों तक ,
कोई दिशा नज़र नहीं आती , सब और एक सा अँधेरा है , और एक सी ख़ामोशी ,
बीच बीच में कई सूरज चमकते तो हैं पर जुगनुओं से भी मद्धम ,
प्रकाश बेअसर सा है यहाँ ,
अनंत अंधेरे के बीच वो कब गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता ॥

इसे जाना तो जा रहा है ,
पर यहाँ कोई नज़र नहीं आता, न तो मैं न ही कोई और ॥

रोना यहाँ किसी पागलपन की तरह होगा ,रोने का कोई मतलब नहीं ,
और हंसने की कोई गुंजाइश नहीं ,
सब एकरस सा है तो ध्यान देने का कोई मतलब भी नहीं ,
यहाँ कोई सृष्टि नहीं है , कोई भी भाव नहीं उठ रहा ॥

कोई भी देह उपस्थित नहीं ,
जो अपने स्पर्श से ये बता सके की यहाँ हवा भी बहती है या नहीं ,
न ही कोई कर्ण पटल जो कम्पित हो सकें किसी के रूदन पर ॥

इस अनंत में शून्य कुछ इस तरह व्याप्त है की भेद करना असंभव है ,
कि ये शून्य में है की शून्य इसमें पसरा हुआ है ॥

इस अनंत शून्य में ,
एक नगण्य सा स्वप्न है ,
जीवन ॥ ............................................... अ से अनुज ॥
अँधेरे की गति प्रकाश से भी तेज होती है , उसे कहीं भी जाने में समय नहीं लगता ॥
मन किसी भी फाइटर प्लेन से ज्यादा तेज उड़ता है ॥

जिज्ञासाएं अब उनकी बीमारी बन चुकी है ।
वो खोजते है प्रतिबंधित चीजों में सच और अंधेरों में चलाते हैं तीर ॥

साक्षात् को प्रमाणित करने की उनकी सनक जारी है ।
मिटटी के कणों में वो जीवन की तलाश करते हैं ,
और सभी जीव जंतु होते जा रहे हैं लुप्त ,
आत्म किसी घोस्ट की तरह डराता है उनको ॥

सच की सूरत और मूरत तलाशने की उनकी जिद चरम पर है ,
पथरीले सचों के बीच वो भूल चुके हैं सच शब्दमय भी होता है और उससे परे भी ,
मन भी सच है बुद्धि भी ह्रदय भी और अनुभूतियाँ भी ॥

उन्हें हर प्रश्न का जवाब चाहिए ,
और नए नए प्रश्न बनाने का कार्य भी जोरों पर है ,
प्रश्न की सार्थकता अब महत्वपूर्ण नहीं ,
महत्त्व है जवाबों को प्रमाणित करने का ॥

मूर्खता की नयी विमाओं को तय करता और उनमें शेष पूरे दमखम के साथ गति करता ,
मनुष्यता को लुप्त करता , बरगद्नुमा आधुनिक विज्ञान ॥ ......................... अ से अनुज ॥
सच ,
सच अपने दरवाजे कभी बंद नहीं करता ,
वो पूरे गर्व से सीना फुलाए , वहीँ रहता है , अपने घर में ,
और करता है इंतज़ार ॥

उसकी कुर्सी वही दरवाजे के पास रहती है ,
कि कोई शर्म या पश्चाताप में चला ही न जाए दरवाजे से ॥

बड़ा सीधा सरल और शांत व्यक्तित्व का ,
नहीं करता कोई शिकायत ,
उसे मंजूर है,
तुम्हारा चले जाना ,
उसे पता है तुम आओगे ॥

पर फिर भी ,
एक दरवाजा है उसके दर पर ,
एक स्वचालित किवाड़ ,
बार बार आने जाने वालों के लिए ,
जो खुलना कम कर देता है , हर पुनरावृत्ति पर ,
और एक दिन वो इतना संकरा भी हो सकता है ,
की सिर्फ एक किरण भर ही गुज़र पाए उससे ,
वो भी ये जताने को की क्या ठुकराते आये हो तुम , बार बार ॥

अबकी बार उधर जाओ , तो पूरा मन बनाकर जाना ,
वहाँ लम्बे समय तक रहने का ,
मैं जानता हूँ फिर तुम नहीं आओगे लौटकर ,
आग की ही तरह ,
वो भी बहुत अच्छा मेजबान है ॥

और जब कभी जाओ ,
तो मेरा ये संदेशा लेते जाना ,
बहुत परेशां हूँ यहाँ , कि बहुत याद आती है उसकी,
पर आ नहीं सकता ,
अपने वादे तोड़कर ॥ ........................... "वादा " ॥
..........................................................अ से अनुज ॥
देह, ह्रदय की भीतियों से न गुज़र पाया प्रकाश है ।
ह्रदय की भीतियाँ ममत्व की बनी होती हैं ।
ममत्व का ही धर्म सृजन है ।
पानी में पानी की ही दीवारें पानी को ही घुलने मिलने से रोकती हैं ,
कल्पना के रंगों और ममता की मजबूती उसे ये अधिकार देती है ॥

जीवन एकत्व से स्वयं का आनुपातिक पृथक्करण है ।
पूर्ण रूप से पृथक हो पाना संभव नहीं ,
और पूर्ण एकत्व की कोई देह नहीं ॥
सारे अंतर ज़मीनी ही हैं , सतह से ऊपर उठते ही द्वैत नहीं रहता,
पृथ्वी स्वीकार करती है अपनी ही दासता , आकाश को खुदका भी इल्म नहीं रहता ॥

ज्ञान की दिशा में जो गूढ़ है , तत्व की दिशा में जो महत् है , ध्यान की दिशा में जो सूक्ष्म है ,
वही दृश्य की दिशा में आकाश है , गंध की दिशा में पवित्रता और ध्वनि में निषाद ॥

ये वो दिशा है जिस ओर गति करता जमीनी स्पाइडर-मैन (जो जाल बुनता रहता है ) ,
पहले ही-मैन बनता है , और अंत में सुपर-मैन हो जाता है ॥ (pj)

पृथ्वी पर सारी लड़ाई पृथ्वी की ही है ,
यहाँ उसी वक़्त युद्ध गीत गाये जाते हैं , जब गांधी अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं ॥

न राम रहे न कृष्ण रहे न यीशु रहे न बुद्ध , बहुत से और भी नहीं रहे ,
और जो नाम के लिए लड़ते रहे , उनका इतिहास में अब कहीं जिक्र भी नहीं , कोई इंच भर जमीन भी न बचा सका ॥

अहिंसा ही परम धर्म है , किसी को क़त्ल करने से पहले खुद क़त्ल होना होता है ,
वो मर चुके हैं जिन्हें खुदा की चीखें सुनाई नहीं देती ॥

पृथ्वी अनोखी है और शापित भी ,
यहाँ तीन समुद्रों के जल मिलकर भावनाओं के अनंत क्रमचय बनाते हैं ॥

यहाँ बिखरे पड़े हैं किसी विशाल आईने के खरबों टुकड़े ,
जिनमें अन्योन्य कोणों से दिखाई देते हैं , जीवन के प्रतिबिम्ब ॥

पर कोई प्रतिबिम्ब पूर्ण वास्तविक नहीं होता ,
सबसे प्रायिक बिम्ब ही सत्य के सबसे समीप है ,
मात्र अद्वैत की ही प्रायिकता एक है (maths) ॥ ...................................... अ से अनुज ॥
सारे कर्म चेतना को अनुभूति देने के लिए ही किये जाते हैं ,
शव को नहीं खिलाये जाते अंगूर ॥

जड़ प्रकृति में चेतना , पानी में बूँद के गिरने की तरह लहरें पैदा करती है ,
और वो लहर लौट कर फिर वहीँ आ मिलती है ॥

जैसे विध्युत धारा किसी स्वचालित मशीन में गति पैदा करती है ,
उसी तरह आप इस संसार को प्रकाशित करते हो ॥

चेतन की तरह ही एक और तत्व मौलिक कहा जाता है , वो है प्रधान प्रकृति ,
ये किसी सॉफ्टवेयर की तरह व्यवस्था मात्र और जड़ है , इसमें स्वयं बोध नहीं ॥

चेतन के संयोग से प्रकृति सृष्ट होती है , और वियोग से लय ,
संयोग और वियोग के बिंदु ही काल गणना है ॥

मूल प्रकृति साम्य है , मूल नियमों में सबको समता मिलती है ,
पर मूल से ही महत्ता की उत्पत्ति होती है , और महत्त्व से ही विषमता पैदा होती है ॥

महत से अहंकार पैदा होता है ,
मूल को महत्त्व देने की प्रकृति सात्विक और इसके विपरीत जाने की राजसिक प्रकृति है , और अस्पष्टता तामसिक ॥

राजसिक प्रकृति से ही प्रवृत्ति की उत्पत्ति बताई जाती है , उसी से बुद्धि की उत्पत्ति है ,
वो भी अहंकार के प्रभाव में उपरोक्त ३ प्रकार की हो जाती है ॥

बुद्धि के संकल्प विकल्प में , उसी का एक हिस्सा मन हो जाता है ,
द्विध्रुवी द्वन्द बुद्धि मन में ही आकाशों और अवकाशों का प्रकाशन होता है ,॥

अहंकार कर्ता कारक कहलाता है , बुद्धि कर्म कारक और मन करण कारक,
आकाश क्रमशः चौथी विभक्ति है सम्प्रदान कारक ॥

हर अगली उत्पत्ति पिछली का ही एक अंश है , उसी में उपजती अस्थिरता ,
पर वो अपने कारण को पूर्णतया न तो विचलित कर सकती है न ही उसको नष्ट ॥

हाँ , तो फिर , शब्द गुण वाले आकाश के आंशिक विचलन से स्पर्शमय वायु ,
और वायु से रूप गुणी अग्नि , और अग्नि से रस गुण वाले जल की उत्पत्ति बताई जाती है ॥

ये क्रमशः अपादान , सम्बन्ध और अधिकरण कारक होते हैं ,
रसमय जल से सम्बोधन कारक गंधमय पृथ्वी उत्पन्न होती है ॥

सब कुछ नित्य और सतत है ,
इसमें कोई अंतराल तो नहीं , पर सब कुछ सीमा और सांतत्य के अनुसार उत्पन्न और लय होता है ॥

आज तक कोई कानून नहीं टूटा ,
कोई कार्य नहीं हुआ प्रकृति के विपरीत ॥

किसी ने चाहे जो कुछ किया हो ,
वो संभव था इसीलिए हो पाया ॥

आप कोई नियम ना मानें ये संभव है ,
पर वो बदस्तूर लागू हैं ॥

आपके पास सौ वजह हो सकती हैं दुःख की ,
पर आप दुखी नहीं हो सकते ॥

हाँ पर अपने अहंकार को नियमितता से सींच कर ,
सच से मुँह बायें रह सकते हैं , जड़ बने रह सकते हैं ॥

कोई हत्या ब्रह्म ह्त्या नहीं हो सकती ,
कोई भी पाप मूर्खता से अधिक कुछ नहीं ॥
मुझे तुम्हारी खूबसूरती आकर्षित नहीं करती ,
ये कहना झूठ होगा ,
पर मुझे अधिक आकर्षित करती है, तुम्हारी सुन्दर दिखने की चाहत ॥

तुम्हारे करीने सलीके मुझे मजबूर करते हैं तुम्हे पसंद करने को ,
बिना किसी जोर आजमाइश के मन मुताबिक घुमाव देना हर चीज को ,
स्पर्श की अद्भुत कला लिए हैं तुम्हारे हाथ ॥

इसे स्वार्थ समझा जा सकता है , पर ये किसी भी इश्वर के स्तर का आत्मनियंत्रण है ,
जब तुम शालीनता से मुस्कुराती या शरारत से खिलखिलाती हो ,
तब जबकि सब और दुःख ही बिखरा हुआ है ॥

पूरे परिदृश्य को एक सार में समझ पाने के लिए विरक्त होना ही होता है ,
पर दृश्य का हिस्सा बन के जीना इससे कहीं मुश्किल है ,
ये अभिनय का वो स्तर है , जहाँ सत्य कल्पना को गले लग कर सुबकता है ,
मुझे पसंद है तुम्हारी अनुरक्ति ,
तुम्हे दृश्य से अलग कर पाने की तमाम कोशिशें नाकाम है ,
तुम्ह विरक्तियों को भी दृश्य में घोल सकती हो ॥

फिर भी मैं तुम्हे अनुरक्त पुरुष नहीं कहलाना चाहता ,
न ही किसी बारिश की तरह सृष्टि को देखता हूँ अब और ,
मैं एक नर का विरक्त स्त्री कहलाना पसंद करूंगा ,
और किसी वृक्ष की तरह उपजती सृष्टि नीचे से ऊपर की ओर ॥

मैं तुम्हे किसी महकते गुलाब की तरह नहीं सूंघ सकता ,
न ही तुम्हे किसी रेशमी शॉल की तरह ओढ़ना चाहता हूँ ,
तुमसे मेरा प्रेम तुम्हारे आत्म सम्मान से जुड़ा है ,
मुझे पसंद है तुम्हारा वो रूप जिसमें श्री और मेधा झलकती हो ,
जिसमें रंग की उजास से ज्यादा व्यक्तित्व की चमक नज़र आती हो ॥

अगली दफा जब मैं अध्यात्म लिखूंगा ,
मैं लिखूंगा पुरुष को स्त्री का अंश ,
जैसे लगते हैं किसी पेड़ में फल ,
जैसे एक पौधे में खिलते हैं कमल ,
बस , वैसे ही ॥ ................................................... अ-से अनुज ॥
मैं खुशकिस्मत हूँ ,
भाग आया हूँ एक युद्ध से ,
वहाँ जिंदगी का कोई भरोसा नहीं होता ,
मेरी आदर्श ,
मेरी गुरु बिल्ली से सीखा 
काम आया आज ,
उन सभी को वहाँ ले जाकर
मैं दबे पाँव लौट आया ,
अब कहीं भी जाने से पहले ही
देख लेता हूँ छिपे हुए गलियारे ,
और सीख चुका हूँ मौके ताड़ना भी अच्छे से
अब मैं रखूंगा
दो और गुरु बिल्ली
तो मैं भाग आया हूँ
मैं खुशकिस्मत हूँ ,
मैं भाग आया हूँ बुद्ध से ,
मेरे खुशहाल खेत खलिहान में ,
मैंने पाले हैं चूहे ,
खूब सारे चूहे ,
उन चूहों से पैदा होते हैं
और भी खूब सारे चूहे और ,
खूब चुहल होने लगी है ,
कुछ नहीं करता मैं घर पर अब
बस चूहे पालता हूँ ,
मैं खुशकिस्मत निकला ,
मैं भाग आया हूँ
नहीं मैंने नहीं किया
खराब ये सारा वक़्त
मैंने सीखा है इस बीच
कुत्तों सरीखा भौंकना ,
मैं जान रहा हूँ भूँका जा सकता है ,
कब कहाँ किस पर
आखिर विज्ञान भी कायल है ,
हम इंसानों की समझ का
और मैं सीख रहा हूँ आजकल ,
पूँछ हिलाना भी
मैं जानता हूँ मैं समय से पीछे हूँ
पर इसकी वजह है मेरा बचपन
जो बीता था गिलहरियों के बीच
दौड़ते फुदकते
उन्होंने कुछ नहीं सिखाया मुझे
वो बस दौड़ती रहती थी बेफिक्र
अब क्योंकि मैं ठहरा बुद्धिमान ,
तो पसंद नहीं मुझे
अपने ही घर में कान खाने वाले
कल ही मैंने मारें हैं
कुछ कव्वे
आज कबूतरों की बारी है !
अब सभी से कुछ न कुछ सीख रहा हूँ मैं
गिद्ध, चमगादड़, उल्लू , साँप और सियारों से भी
पर सबसे ज्यादा मुझे पसंद हैं चूहे ,
क्योंकि वो दौड़ाते रहते हैं मुझे दिनभर ॥
अ से
लपक कर अंगूरों को पा लेने के ,
अनेकों असफल प्रयासों के बाद ,
चार मूँह की लोमड़ी समझ चुकी थी ,
जीवन का सांतत्य (continuity ) ,
कर्म का पथ और न तोड़कर ,
वो चली गयी अपने रास्ते ॥

बुद्धी पर बन आयी जब ,
खरगोश ने दिखाया अहंकार को आइना ,
शेर को वर्चस्प की लड़ाई में मौत का कुँवा नसीब हुआ ,
अब जंगल किसी का न बचा ,
वो अब सबका था ॥

आश्वस्तता की नींद में ,
पिछड़ गया खरगोश ,
सतत प्रयासों की गति सूक्ष्म है ,
गूढ़ गति कछुआ हमेशा ही आगे था ,
तीव्र प्रयासों को चाहिए नियत वैराग ॥ ................................ अ-से अनुज ॥
माना न ही कोई वर्किंग आवर्स तय किये हैं , न ही कोई सेलेरी ,
पर तुम काम में आलस कैसे कर सकती हो , कैसे भूल गयी ,
कहाँ खर्च कर दिए इतने , दो दिन पहले ही तो दिए थे ॥

सुबह की चाय , उठने के समय पर हो ,
न ठंडी न देर से ,
नाश्ता पिछले दिन से अलग हो ,
राशन बाद में देखा जाएगा ,
हाथ का कटना छिलना चलता है ,
पर बर्तन साफ़ रखना कल ग्लास पर विम लगा था , और पानी छान के भरा करो ,
और मेरी वो पेंट , वो कहाँ रख देती हो ,
और इस पर इस्तरी क्यों नहीं हुयी , क्या करती हो दिनभर ॥

नहीं , बच्चों की पिटाई पर रोना मत रोओ , तुम्ही ने बिगाड़े हैं ,
यूँ थरथरा क्यों रही हो ,अब खड़े खड़े मूहँ क्या देख रही हो ,
दिल जलाती रहो ,
पर रोटियाँ नहीं जलनी चाहिए ,
हिटलर तुमने देखे कहाँ है , कोई और होता तो सांस लेना भी मुश्किल कर देता ,
तुम्हारे चाल चलन पर ,
और तुझे क्या मतलब है कल लेट क्यों आया , अय्याशियाँ करता हूँ न मैं तो सुबह से शाम तक ,
इतनी देर किससे गप्पे लड़ती रहती हो , इतनी रात गए कोन फ़ोन करता है भला ,
दिन में कहाँ गयी थी , तुम्हारी माँ खुद नहीं आ सकती थी ,
अगर इतना ही शौक है तो चली क्यों नहीं जाती अपने बाप के पास ॥

..................................................................................................

अरे उस शर्मा ने पैसे नहीं दिए , वर्मा ने भी कम दिए , गुप्ता भी वापस मांग रहा था ,
सेलेरी भी कम आई है इस बार छुट्टियां जो ले ली थी ,
किश्त भी भरनी है ,
स्कूल वाले भी सर पर चढ़े रहते हैं , तुम ही हो आना इनके स्कूल ॥

....................................................................................................

अब सर मत खा सो जा जाकर ,
हाँ !! मेरी मर्जी होगी वो ही करूँगा ॥

..................................................................... अ-से अनुज ॥
जब तुमने वो गुलाब लिया था ,
सिर्फ मैं ही नहीं अनुगृहित हुआ था ,
वो गुलाब भी हुआ था ,
वो पौधा , अगर उसे पता चलता , कोई वृक्ष सा जा फूलता , हर पत्ता गुलाब हो जाता ,
वो बगीचा कुछ और स्वीकार नहीं करता फिर , सिर्फ गुलाब लगते वहां पर ॥

मेरा कुछ देना मेरा प्रेम था ,
तुम्हारा स्वीकार करना तुम्हारा प्रेम ,
दोनों वस्तुतः त्याग थे ,
लेना देना यहाँ गोण था , वो व्यवसाय माध्यम था , अभिव्यक्ति थी प्रेम की ,
हर व्यक्ति के अनोखे होने के साथ ही उसका प्रेम व्यवहार भी अनोखा होता है .
जितने लोग होते हैं प्रेम भी उतने ही प्रकार का होता है ॥

खाने वाला बनाने वाले जितना ही पूज्य था हर बार ,
जब भी आपसी सम्मान उन्हें जोड़ता था ,
खाने वाले की तुष्टि खिलाने वाले का धन था ,
बनाने वाले का मन खाने वाले का धन ॥

चाहत कोई खालीपन सी होती है ,
तब तक , जब तक उसे कोई और समझना नहीं चाहता ,
जब कल्पना के उस रिक्त चित्र को समझ कर उसमें कोई अपने रंग भरता है ,
तो वो आकाश में फ़ैल जाते हैं ,
कुछ यूँ आपसी प्रेम की दुनिया रंगीन हो जाती है ,
की गिले शिकवों की विगत सभी लकीरें लुक जाती हैं ,
तब आकाश के भीतर और कोई आकाश नहीं रहता ,
आकाश का बाहर समाप्त हो जाता है ,
सृष्टि अनुग्रह नज़र आती है , सम्मान का सूरज चमकने लगता है ,
और बारिश होती है ,
बारिश स्वच्छता की , प्रसन्नता की , स्फूर्ति की ,
अंतःकरण अब अंतस से मुक्त हो महकता है ,
और वो खुशबू गुलाब सी होती है ॥ ....................................... अ-से अनुज ॥
जब वो वादा किया गया था ,
तब किसे पता था की कहीं एक गाँठ उपजी है आकाश में ,
पर जब वो निभाया न जा सका , तब भी वो गाँठ वहीँ थी ,
चलती हुयी आंधियों ने उस पर चिपका दी थी मिट्टी ,
मौसम की नमी ने उसे कई बार भिगोया , बहुत से फफूंद लग चुके थे उसमें ,
धूप में कई बार सूख कर अब वो सख्त हो चुकी है ॥

उस गाँठ ने वहीँ बसना स्वीकार कर लिया ,
बीच बीच में किये जाते रहे और भी वादे , कुछ विरोधी भी निकले एक दुसरे के ,
अब वहां एक बस्ती बन चुकी है ,
कुछ में परस्पर प्यार है , कुछ वहीँ लड़ते झगड़ते हैं ,
पूरा शहर बसा लिया गया है वहां , नदी नाले सड़क , दीवारें ,
सब कुछ बातों का ही बना हुआ॥

अब वो गाँठ पक चुकी है ,
लहसुन की सी सड़ांध आती है उससे ,
बातें रिसने लगी है उससे ,
जो बातें जो नहीं बताई जानी थी और जो नहीं कहनी जानी थी , और भी , कुछ भी ,
कोई भीड़ जमा हो चुकी है उन्हें सुनने को ,
शहर के उस हिस्से में लगने लगा है अब जाम ,
हवा का भी आवागमन बंद है ,
और कोई आवाज़ भी अब बमुश्किल पहुँचती है वहां ,
साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है ,
समझ नहीं आता कुछ ॥

ठूंठ बनने से पहले ,
याद आती है फिर से कभी कभी उन वादों की ,
समझ नहीं आता ,कैसे खुले ये गाँठे ,
खुली हवा का स्वाद लेने की तड़प तो कई दफा उठती है ,
पर वो साँसे अब दम तोड़ चुकी है ॥ ............................................ अ से अनुज ॥

(painting.. is of great artist Salvador Dali !!)
पिछली रातों को मुझे कुछ होश नहीं था ,
किसी अलग जहाँ में कहीं अलग थलग सा पड़ा था ,

जब मैंने देखा उठकर ,
बेरीढ़ सा पड़ा था सबकुछ ,
गला, चिपका , लटका हुआ सा ॥

आदमी बोतल में बंद थे , पिघले हुए , डूबते हुओं की सी बचने की गुहार लगाते ,
पर उनकी आवाज भेद नहीं सकती थी कांच की दीवारें ॥

कुर्सी पर बैठी अकड़ अब लटक चुकी थी ,
ताज एक ओर ढुलका हुआ था , राज एक ओर ॥

जले हुए अरमान चिमनियों से निकल रहे थे ,
और पिघली हुयी चेतना नालियों से बह रही थी ॥

संगीत के नाम पर बस रूदन था ,
ना ना चीखें नहीं थी ,
कुछ गले सूख चुके थे और आंसू तेज़ाब होकर खींच चुके थे लकीरें, गालों पर ,
बस कुछ नर्म गलों का रूदन था , करुण क्रंदन ॥

धरा बंज़र की तरह सूनी थी ,
कुछ मवेशी झाग टपकाते लड़खड़ाते क़दमों से चलकर , गिर जाते थे ॥

जब मुझसे और देखा नहीं गया ,
मैं वहां से आगे निकला ,
कहीं दूर इस सबसे बेखबर , रंगीन रोशनियाँ थी ,
तारे चमक रहे हों जैसे ज़मीन पर रंग बिरंगे ,
कुछ आवाजें भी आ रही थी , मैंने आगे जाने का फैसला किया ॥


वहाँ पूरा शहर बसा था इस्पात का , कुछ रोबोट चला रहे थे उसे ॥

हर और बेतहाशा दौड़ रही थी कुछ मशीनें , ऊपर ,नीचे , दायें , बायें ,
सतह और दीवारों में भी और उनके आर पार भी ॥

बहुत बेहतरीन कारीगर सी वो मशीनें पलक झपकते ही बदल देती थी दृश्य और आयाम ,
कुछ रुकता न था , बेतहाशा दौड़ा जाता था ॥

वहाँ सूरज नहीं चमक रहा था ,
पर अनेकों गोल सीधी घुलती मिलती सी रोशनियाँ थी ॥

पास से गुज़रते हुए नज़र आया ,
वहाँ इस्पात की कोई इलेक्ट्रॉनिक भट्टी थी ,
और उनमें झोंका जा रहा था वो सब कुछ ,
जो कभी मेरी दुनिया कहलाता था ,

इंसान , जानवर , पेड़ , पहाड़ ,
नदियाँ , हवा सब कुछ ॥

हाँ , लाखों की संख्या में कुछ गले सड़े ह्रदय पड़े थे , एक ओर, एक गहरी खाई में ,
ह्रदय उनके और किसी काम के न थे ,
उन्हें नींव भरने के काम लिया जा रहा था ,
जिस पर खड़े हो रहे थे ऊंचे ऊंचे इस्पात के ढांचे ॥

एक विस्फोट की आवाज़ से मेरी नींद .... फिर से खुली ,
मैंने जाना की मैं वर्तमान देख रहा था ॥ ............................... अ-से अनुज ॥

निर्वात में ,
बहती हैं , विचारों की हवायें ,
बहती हैं , बहती रहती हैं , दूर तक ,
चेतना जैसे ही इनका पीछा करती है ,
और हवाओं का स्पर्श भर करती है ,
अचानक से साकार हो जाता है कोई दृश्य ॥

दृश्य ,
अनदेखा दृश्य ,
सुनहला दृश्य ,
मादक हो उठता है अचानक ,
सब रंग बिरंगा सा हो जाता है ,
दृश्य घुलने लगते हैं ,
पिघलने लगते हैं ,
रसमय हो उठते हैं ,
इतने , की टपकने लगता है रस ॥

और रसने लगती है चेतना ,
बूंदों के पीछे , नीचे तक ,
तब तक , जब तक वो रस सूख नहीं जाता ,
और अचानक सब थम जाता है ,
सूखा हुआ रस एक सतह सा बना लेता है ,
अब वो गहरे भूमिल रंग का होने लगता है ,
और उससे उठने लगती है , महक ॥

महक चेतना को नया आयाम देती है ,
एक दिशा देती है ,
पर साथ ही मादकता भी परवान चढ़ती है ,
अचानक , अब सब कुछ सजीव हो उठता है ,
कुछ फूल खिल आते हैं , कुछ लताएं ,
और कहीं से आ जाते हैं तितलियाँ और भँवरे ,
चारों और जीवन बहने लगता है ,
निर्वात गुनगुनाने लगता है ,
और सोच में पड़ी चेतना ले लेती है एक रूप ,
इंसान का ॥ ................................................................ अ-से अनुज ॥ (सृजन)

( painting .. is of great painter Van Gogh )



और जब खरगोश उस बिल से निकला ,
जहाँ वो रात घुसा था ,
तो उसने देखी एक अलग ही दुनिया ॥

बड़ा आश्चर्य चकित वो संभल संभल चलने लगा ,
बाहरी दुनिया पर नज़रें जमाये ,
पर कोई खतरा ना था ॥

अब उसे भूख लगी , वो ढूँढने लगा गाजरें ,
कुछ घंटो की मशक्कत के बाद उसने पाया एक खेत ,
खेत में खाने को बहुत कुछ था , और थी गाज़रें ,
बड़ी मीठी लगी , इतनी मीठी गाज़र उसने पहले कभी नहीं खायी थी ,
प्यास लगी , उसने देखा एक गड्डा , पानी से भरा ,
जैसे ही वो पीने लगा पानी , उसने देखा अपना चेहरा बैंगनी ,
उसे कुछ कुछ याद आ रहा था ,
कल तक वो कुछ सफ़ेद सा हुआ करता था ॥

खैर पानी पीकर वो लेटा एक पेड़ के नीचे ,
उसे नींद आ गयी ,
आँख खुली उसने पाया एक नया जहाँ ,
पर ये नया जहाँ उसकी पुरानी दुनिया थी , जहाँ वो सफ़ेद था ॥

अब वो सोच रहा था ,
की मैं वो था या ये हूँ ,
ये था की वो हूँ ,
मीठी गाज़रों का स्वाद अभी तक उसके मूँह में था ,
और वो बैंगनी अक्स ॥
.................. .............(.अ- ड्रीम ) .......................... अ-से अनुज ॥

(painting .... is of master artist Pablo Picasso)


सदियों से इतिहास दोहराया है , कर्म ने ,
सारी उठती मशालों के बावजूद , अँधेरा है ,
की जब कुछ बदलने वाला ही नही ,
तो क्या अर्थ है कर्म का ,

समस्या जस की तस रहती है ,
कुछ यूं की वो ही संसार का बीज है ,
तो या तो सब ख़त्म हो जाए ,
या मेरी संवेदनाएं ..

और काहे का पुरुषत्व ,
मैंने जाना है दुनिया का सबसे भूखा और बेबस जीव उसे ...

एक स्त्री से कहीं ज्यादा !!

दोराहे पर खड़ा ,
खा सकता है पर अघाता नहीं ,
जा सकता है पर जाता नहीं ....
अनंत उद्घोषों और कानाफूसियों से गुंजायमान है अन्तराल ,
कई लोग उग आये हैं दीवारों पर कानों की तरह ॥

सब ओर लहराते हुए परदों के बीच तैरती हैं अजीबोगरीब आकृतियाँ ,
अनजानी दीवारों से टकराती खिडकियों से पार जाती हुई ॥

रंग बिरंगी रोशनियों में जलता है संसार सारा ,
आँखों के रास्ते दिल तक पंहुचती है दहक उनकी ॥

वेग से बहता हुआ प्यार हर दिशा में मारता है हिलोरे ,
जीभ लेती है उठती गिरती लहरों का खट्टा मीठा नमक ॥

नयी उगी दूब पर खिलते हैं ख्वाब सारे , ओस में धुले हुए ,
वहीँ हकीक़त होती है खुशबू उनकी और वहीँ हो जाते हैं सब कहानी ॥

.................................................................. अ से अनुज ॥
उत्तर तो हर एक प्रश्न का है ,
बात ये है की आप को किससे संतुष्टि मिलती है ,
प्रश्न ही ख़त्म कर देने से , सहमत हो जाने से ,
उत्तर देने वाले पर श्रद्धा रखने से या उत्तर की शाखा न बढ़ाने से ॥

अपने अहम् का बोझ अपने कंधो पर लिया घूमता हूँ ,
रंगीनियों की कोंध में कुछ दिखता नहीं अब मुझको ,
इतना कुछ कहा सुना की अब कोई आवाज़ दिल तक नहीं जाती ,
जहन में दबे हैं राज़ अपनी नासमझियों के ,
ये मन बोझिल है ... कदम थके हुए ..
कोई बताये मुझको .. जाना कहाँ है ॥ ............... अ-से अनुज

The Thinker


"

---------------

मैं उसी समय अपने घर के सभी दरवाजे बंद कर वहाँ दीवार लगा देता ,
जब ये आसान सा जान पड़ता सफ़र अगर ये बता देता की वो यूँ ही ख़त्म नहीं होता !!

तब तक कोई जल्दी नहीं थी मुझे , 
ना ही रूप परिवेश में कोई दिलचस्पी , 
तो आइना देखे बिना ही निकल पड़ा ,
अब लगता है काश वो ही देखा होता ...

दरवाजे के बाहर से गलियारे और मोहल्ले के छोर तक ,
हर दुआ सलाम करने वाले को मैंने प्यार से देखा ,
सफ़र बताया , रास्ता सलाहा , सर फिराया और फिर चल पड़ा ,
वो मुस्कुराए तो थे पर कुछ बता न पाए ,
शायद उन्हें अंदाजा भी न रहा होगा ,
जैसे मुझे ना था ,

सफ़र वास्तव में उतना मुश्किल नहीं था ,
जिनका उद्देश्य नितांत निश्चित था ,
उन्हें जल्द ही काम निपटा लौटते देखने की ,
और जो खासे बेईमान रहे थे अपने दिलों से
उनके भी अच्छी खासी दुनियादारी कमा
आधे रास्ते से ही लौट आने की कहानियाँ सुन चुका था मैं ,
मेरा कोई उद्देश्य भी था या नहीं
मुझे ध्यान नहीं आता ,
कुछ पाने की कभी कोई इच्छा भी नहीं रही ॥

तो मैं खालीपन के चौराहे पर ,
बिखरी हुयी बातों की सड़क को निहारता ,
उडती हुयी अफवाहों की गर्मी में ,
किसी भी आश्चर्य से अनजान खड़ा था ,
और तभी एक बेचैनी की तरह कोई बस आई ,
मेरी सोच का सफ़र शुरू हुआ ....

बस में मेरे अतीत के कई अलग अलग स्वभावों
और शक्ल की तरह के लोग थे ,
जो तरह तरह की धुन ओढ़े पहने ,
अपनी अपनी ढफलीयों पर गाते बजाते
और अपने ही गीत गुनगुनाते नज़र आते थे ,
कभी कभी कुछ दो चार की ताल बैठने लगती थी
पर ज्यादा देर तक नहीं ,
और अन्यथा ताल मिलाने का सबब ही न था ,
हाँ कुछ ताल ठोकते जरूर नजर आते थे ,

सब कुछ बातों का ही बना था ,
सब कुछ विचारों सा तैर रहा था ,
और उसमें एक समझ सा मैं रमने लगा ,
यही वो क्षण था जब मेरे खयाल में मेरा जन्म हुआ ,
शायद अभी तक तो मैं मेरे शांत घर की कोख में ही पल रहा था ,

" बस " अतीत के रास्ते पर बेतहाशा दौड़ने लगी
और बाहर के दृश्य धुंधलाने लगे ,
कुछ खासी यादें ही नज़र आती थी ,
और मैं रमने लगा ,
अब मुझे सहयात्रियों की चर्चाएं कुछ कुछ सुनाइ देने लगी ,
धर्म राजनीति खेल कूद और प्रेम
और न जाने किन किन विषयों के नदियाँ बह रही थी ,

मैं मन सा उनमें गोते खाने लगा ,
विषय विचार के बदलते ही भाव बदल से जाते थे ,
लोगों ने दल से बना लिए थे
और पक्ष विपक्ष की बातें होती थी ,
मुझे उनके हर पक्ष से इतर ,
कुछ न कुछ तो आसमान नज़र आता था ,
और मैं भी अपने बयान देने लगा ,
मेरे बयां किसी पक्ष में नहीं गए ,
वो जस की तस ,
कुछ नीरस और कुछ बहस रोकने की गुजारिश थी ,
तो कुछ अपनी ही दर्शन अभिव्यक्ति ,
और वो ऐसे में अपना हुल्लड़ छोड़ देने को कतई तैयार नहीं थे
मुझे या तो दोनों ही पक्ष सही और समान लगते थे
या फिर दोनों ही बेमायनी ,
पर उनके राग न मिलते ,
हाँ द्वेष कुछ एक सरीखे थे ,
तीसरे पक्ष की आलोचना पर वो एकमत से नज़र आते थे ,
मेरी कुछ बातों से वो प्रभावित होते तो थे ,
पर अपना पक्ष और ना जाने क्या खो देने के डर से पकडे रहते थे ,
वो अपनी अपनी मौज मस्तियों में डूबे हुए ,
बेतहाशा गाते हँसते और खुश रहते ,
कुछ स्वभाव मेरी ही तरह शांत थे ,
मेरे वक्तव्यों के समर्थन भी करते ,
पर उन्होंने किसी बेनतीजा बहस की उतपत्ति ,
और उसे बनाये रखने का कारण नहीं बनना चाहा ,
फिर भी जाने क्यों वो मुझे भाये ,
और कुछ एक ही सी बातों की मिठास भी फैली ,
मेरी ही बात को वो अपने ही अंदाज़ में किसी और तरह कहते ,
और उनकी ही किसी बात को मैं ,
सच कहूँ तो मुझे वो दो चार मानस ही सम समर्थ नजर आए ,
अन्य शोक और आशा के भंवर में फंसे हुए ॥

" और वो ही लोग आपको सच्चे लगते हैं जो आपके ही पक्ष में बोलें ,
फिर चाहे आप किसी पक्ष में हों किसी विपक्ष में या उदासीन "

" हर कोई अपनी ही मान्यताओं के प्रमाण तलाशता है ,
और जो कुछ सुनना चाहता है वही सुनता है ,
इसी से उसके अहम् को संतुष्टी मिलती है ,

" उदासीनता के पक्षी केंद्र की ओर उड़ान भरना पसंद करते हैं ,
इसके विपरीत सुख जैसे भावों की चाह रखने वाले ,
बाहर आकाश में पंख मारते भटकते फिरते हैं "

हर वृत्त के अन्दर वृत्त और उसके बाहर वृत्त की एक स्थिति है ,
और अब तक मुझे पता लग चुका है ,
की सोच और बहस के सफर में इन वृत्तों से बाहर नहीं निकला जा सकता ,
इन वृत्तों की खासियत ये है की ,
वक्रता त्रिज्या बढने के साथ ही ये उथले ,
और घटने पर गहरे व्याप्त और सूक्ष्म हो जाते हैं ,
पर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता ॥

समय गुजरने लगा , रात अन्धियाने लगी ,
अपने अपने टिफ़िन खा चुकने पर कुछ स्वभावतः सो गए ,
कुछ सफ़र में छूट गए और कुछ अँधेरे में डूब गए ,
कुछ इतने गहरे चले गए की फिर नज़र न आये ,

और उस वक़्त पहली बार ,
मैं कोई भीड़ नहीं था ,
तब आप मुझे अकेला कह सकते हो ,
इतनी बातों , किस्सों , कहानियों ,
लोकोक्ति , मुहवारों , सीख , समझों की श्रुतियों के साथ ,
उस सफ़र पर मेरा वास्तविक सफ़र शुरू हुआ ,
और पहले दफा की ख़ामोशी में मुझे नींद आ गयी ,
बस के नाईट लैंप का रैंडम टाइमर सक्रीय हुआ ,
स्वप्नमय संसार में कोई रौशनी मुझे फिर से उसी सफ़र पर ले चली ,
मैं निर्णय , निश्चय , तत्व , मंजिल ,
उद्देश्य के रास्तों पर बेवजह भटकने लगा ,
रात गुज़र गयी ,
सुबह मैं फिर से उसी बस में था ,
थोडा और बेबस ॥

सोच के सफ़र में यात्रा करना और लौट आना दो अलग अलग चीजें है ,
इसके चलते इसके यात्री एक समय बाद रूप और भाव भी बदल लेते हैं ,
वोंग कार वाई की यादों की ट्रेन की तरह ये बस भी बस चलती रहती है ,
नो एस्केप का हॉर्न बजाते हुए ॥

कभी कभी इनसे बाहर झाँकने का सौभाग्य और अनुभव तो मिलता है , पर सब क्षणिक ,
मैंने कई किस्से कहानियाँ सुने हैं , जो केंद्र की तरफ एक दरवाजा बताते हैं ,
जिसकी तरफ अधिकतर उदासीन पक्षी जाते हैं , पर वो अदृश्य निर्जीव बिंदु है ,

और दूसरी तरफ मोह की बढती वक्रता , पागलपन का रूप लेने लगती है ,
ममत्व के किनोरों पर , अहम् की ऊँचाइयों से बने ये वृत्त ,
एक सर्पिलाकार सीढ़ीनुमा जाल बना लेते हैं ,
और इस सबके बीच में कहीं खो गया हूँ मैं .... //

अ से